गरज ये कि दुर्ग ढह चुका है / हुस्न तबस्सुम निहाँ

Gadya Kosh से
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अम्मा...

अभिवादन,

आज... हाँ आज... अनायास ही पता नहीं कौन-सी घड़ी में सार्वभौम हो गई हूँ... आज... सालों बात... महीनों बाद। जीवन में पहली बार आज पीछे मुड़ कर देखने का प्रयास कर रही हूँ... तो क्या देखती हूँ कि सामने समंदर का असीम विस्तार लिए एक युग ठाठें मार रहा है। अविस्मृत और अविस्मरणीय घटकों से लैस युग-युगांतर सा युग। जैसे बहुत सारे बिंदुओं को जोड़ कर हल की गई कोई पहेली। भीतर तक आर्द्र हो गई हूँ... उफ... नियति... और बस... उफ्... उफ्... उफ्...।

मुझे हालाँकि मालूम था कि किन-किन बिंदुओं को कहाँ-कहाँ से जोड़ें कि जिंदगी एक सरल, सुगम और सुदर्शन आकृति बन कर उभर आए। किंतु नहीं तुम्हारे और बाबूजी की हठधर्मिता, आंतरिक सहमति और पूर्वाग्रहों की कलुषित विभीषिका ने मेरे हाथ रोक-रोक दिए। तुम लोग अपने फुटकर तजुर्बात को ही अपना जीवन-स्तंभ बनाने पर तुले रहे। ठीक उन दो मूर्खों की तरह जो अपने आपको संसार का सबसे बड़ा बुद्धिमान समझ कर उम्र भर कमजोर फैसले लेते रहे और ध्वंस होते रहे।

बाबूजी अपने अनुभवों का बखान करते।

नहीं-नहीं, लड़कियाँ पढ़ाई नहीं जानी चाहिए, ऊँचा घर-बार देखना पड़ता है। हमारे पास क्या है?

- तुम गाहे-बगाहे मेरा पेट टटोलती रहतीं -

'कहीं कुछ रह तो नहीं गया। बाहर आती-जाती रहती है स्कूल कॉलेज वगैरह...।'

इसी भयवश तुम तबसे मुझे लड़के-लड़कियों की पढ़ाई पढ़ाती रहीं जब मैं लड़के-लड़की की शारीरिक संरचना से भी नावाकिफ थी। संयोगवश लड़कों से मेरी दोस्ती खूब छनती थी और तुम हमेशा शंकालु रहतीं मेरे चरित्र को ले कर।

'लड़कों के संग बड़ा मन लगता है। इसके तौर-तरीके (लच्छन) ठीक नहीं लगते...'

और मैं सोचती -

'मामला क्या है!'

- अंशुल, मेरा सर्वप्रिय मित्र। उससे तुमने मुझे सदैव काट कर रखा। तुम्हें मेरे जिस्मानी दुर्ग की चिंता थी और मुझे अंशुल द्वारा तोड़ कर लाई गई विलायती इमलियों की। इसलिए मैं हर आपत्तिपूर्ण निगाह से बच कर मिला करती थी उससे। चाची की नजर, तायी की नजर, बुआ की नजर... उफ् इत्ती सारी नजरें। सारी की सारी नजरें एक साथ इस गुलाबी दुर्ग पे पहरा देती थीं, और एक दिन उससे मैं पखाने में मिली। हमें स्कूल से लौटते में डिल्लू चाचा की दुकान से लाए गए कंचों का हिसाब और इमली के बीजों का बँटवारा करना था और वो माकूल जगह हमें मिल नहीं रही थी, अंततः वहाँ हम मिले। मगर बवाल हुआ। तुमने पुनः दोहरी ताकत से पेट में ऊँगलियाँ कोंच-कोंच कर जायजा लिया।

- एक और वक्त

- मैं जवान हुई। सोलहवाँ बसंत। देह से फूल झरने लगे। मौसमों ने करवटें लीं। किंतु मेरी देह पर मेरे सपने भारी पड़े। तुम मुझे जमीन में दफनाना चाहती थीं और मैं आकाश में उड़ना। मुझे सुर्ख जोड़े में लपेट कर फूल-गुम्मों से सजा-धजा के पूरी तैयारी की मुझे जमींदोज करने की और मैंने ये दफ्न होना स्वीकार नहीं। जिस कारण तुम सबकी लानतें अनाधिकृत रूप से मेरी उड़ानें लहूलुहान करती रहीं और मैं उड़ने से रह गई।

जब गुलाबी सपने देखने शुरू किए तो प्रेम-पत्र खोज-खोज कर जलाती रहीं। मेरी हत्बुद्धि, कि बावजूद इसके भी हमेशा तकिए के नीचे ही प्रेम पत्र दबा-दबा के सोती रही। और एक दिन थक गई इस प्रेम करने से और हाथ जोड़ लिए अपने प्रेमी से और तुम्हारी भोली चेतना खुश होती रही ये सोच-सोच कर कि फतह कर ली गई जंग। बचा लिया गया ध्वस्त होने से एक दुर्ग।

एक वो भी वक्त

जब मैं पढ़-लिख कर नौकरियों के पीछे पागल थी। आज, इस कारपोरेटेड युग में हर कोई आत्मनिर्भर होना चाहता है। जीवन प्राथमिकताओं में ये विचार जगह बना चुका है और हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति एक दिन किसी अभीष्ट की तलाश में बाहर निकल ही पड़ता है। हमारी नवजवाँ रंगों में हौसलों का खून ठाँठें मार रहा था। मन में कुछ कर गुजरने की बेचैनियाँ। रीता, मीना, रेखा, रेशमा, मैं सब मिल कर बड़ी-बड़ी प्रवेश-परीक्षाओं की तैयारी किया करतीं। फार्म पर फार्म भरे जाते। दल-बल के साथ पेपर देने जाते। हर्षित मन से लौटते। फिर ताबड़-तोड़ नाकामियाँ और हम मुँह की खाके रह जाते। चारों खाने चित्त। बाबूजी तूफान थे। उन्हें नौकरियाँ कब स्वीकार्य थीं? पानी पी-पी के गालियाँ देते रहते।

'हुँ...ह... नौकरी करेंगी। आवारगी सवार है। सुन लो मोहित की माँ, शरीफ घरों की लड़कियाँ नौकरी नहीं करतीं। कह दो अपना रस्ता नापे, ज्यादा उड़ने की कोशिश ना करे।'

'जब नौकरी की उसकी इतनी ही इच्छा है तो तुम ही कोशिश करो, ऊँचे लोगों में तुम्हारी पहुँच है शायद मिल ही जाए...'

वास्तव में बाबूजी की पकड़ वहाँ तक थी। वह करवा सकते थे। दूसरों को करवाते भी थे। कइयों को लगवाया भी था। किंतु ये उदार नीति हमारे लिए नहीं थी, क्योंकि हम लड़कियाँ थी। हमारे नौकरी करने से उनकी आबरू पे आँच आने लगती। वह दहाड़ते तुम पर 'तेरा दिमाग चल गया है नौकरी कोशिश से नहीं मिलती। मंत्रियों और अधिकारियों के पास सोना पड़ता है... सोना... सुलवाएगी...?'

'अच्छा... और लड़के किसके पास सोने जाते हैं?'

निरुत्तर बाबूजी तब तुम्हें मारने दौड़ते। पुरुष 'गल' से नहीं बल से जीता है और जीतता ही आया है। किंतु मैं तूफान के सामने दीया लिए बैठी थी। बैठी रही।

तब 'सोने' का अर्थ मेरे जेहन में ज्यादा तरतीब से नहीं पैठ पाता था और मैं सोचती रहती, क्या सिर्फ सोने से ही नौकरी मिल सकती है? तो सोने में क्या हर्ज है? इट्स वेरी सिंपल! इस सोने पे इतना बावेला क्यूँ...?

'...'

उसके बाद एक लंबा अंतराल।

फिर जीवन की अमानुषिक और विषम जद्दोजहद। नौकरियाँ सस्ते दामों में बिकती रहीं। औने-पौने दामों में लोग खरीदते रहे। मैं निरीह, असहाय निगाहों से देखती, हाथ मलती रही। डिग्रियों को वक्त जब्त कर गया। सपने भी व्यपगत हुए।

व्यवधान...

क्षमा करना अम्मा। दूधवाला आया था। कलम रोकनी पड़ी। उसकी बेटी बीमार है। एडवांस चाहिए। एडवांस के नाम पर ख्याल आया कि हमें साँसें एडवांस क्यूँ नहीं मिल पातीं? कि हम जीने से पहले ही जी लें। प्राथमिकताओं को लाँघ के हम किसी तरफ उग क्यूँ नहीं आते। लखनऊ की सरजमीं पर जिस इलाके में मैं रहती हूँ। वहाँ से बल खाती गोमती-नद की दूरी नजर भर की है। नियमित देखती हूँ उसमें सूर्य के साथ पूरी की पूरी दुनिया डूबते हुए। तब जी होता है, अपने पर-पुर्जों समेत काश, मैं भी किसी नर्म, ठंडे समंदर में डूब सकूँ। किंतु कहाँ...?

खैर, कभी-कभी अपने आपको खोजने के लिए अपने से दूर जाना पड़ता है। मैं भी केंचुल त्याग कर चल दी हूँ। किसी उदार टापू की फिराक में। खोजने से क्या नहीं मिल जाता। खुदा भी मिलता है, खुदाई भी।

चलो छोड़ो...

तुम्हें याद होगी सन 2001 की वो बात। सुपरवाइजर की नियुक्ति के लिए आवेदन-पत्र आमंत्रित किए गए थे। मैंने भी किया था। सुधा ने बताया था कि ग्राम विकास अधिकारी पी.पी. शर्मा के पास कोई तरतीब है कि अपनी पहुँच से काम करवा देगा। तुमने सुना, तो काँप गईं - 'नहीं... नहीं, लफंगा है वह, तुम्हें छोड़ेगा नहीं वह, पहले अपनी कीमत वसूल करेगा, फिर कोई काम करेगा... चुपचाप इज्जत से बैठी रहो।' और मैं बैठी ही रह गई। सुधा की नियुक्ति हुई। तरक्की हुई। मोटर गाड़ी मिली। सम्मान मिया। धन मिला। शान से अधिकारी बनी घूमती है। जीने के लिए और क्या चाहिए। मैं तुम लोगों की इज्जत, मान-मर्यादा पर फाहे ही रखती रही। तुम जर्जर होती गईं। बाबू जी को लकवा मार गया। भाई के भाग्य में रोजगार है ही नहीं। भले ही तुम लोगों ने उसे ऊँचाई देने के लिए अनेकानेक सीढ़ियाँ तैयार कीं। एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। मैं फर्क देखती रही। यही बाबूजी थे जो हमेशा मेरे पैरों तले से सीढ़ियाँ खींचते रहे। अंततः मिट्टी फोड़ कर खाने की नौबत आ गई। मेरी देह भी अब बास मारने लगी थी। जिस देह को पर्दों में लपेट-लपेट दुनिया भर से लुकाने-छुपाने के यत्न किए गए, आज वही देह बोझ लगती है। देह के नाम पर हड्डियों का ढेर ही बचा है। जब से पेटों पर भूखी रूहों ने हमले करने शुरू किए, तुमने मेरी देह की बाबत सोचना बंद कर दिया। इस देह-दुर्ग के पट एक-एक करके बंद होने लगे और तुमने आँखें बंद कर लीं। तुम्हारी मान-मर्यादाओं और वर्जनाओं का दैत्य मुझे खाता ही गया।

बाकी, शरीर का भी कोई यथार्थ होता है अम्मा। ये तो गढ़ी गई एक संस्था है अम्मा, जहाँ पोषित होता है आदमी और फिर सौंप दिया जाता है समाज को अपनी-अपनी परिभाषाएँ गढ़ने के लिए। ये शरीर तो एक इक परिंदा है। किसी रूह को पुरसुकून छोरों पर उड़ा ले जाने का माध्यम मात्र। जिस शरीर पर पहरे बिठाए गए, सँभाल-सँभाल कर रखा गया, आज उसकी सुध लेनेवाला कोई ना था। जब वह भुखमरी और बीमारियों से दम तोड़ रहा था, शनैः-शनैः समाप्त होता रहा। तब इसे बचा लेने की जुगत किसके पास थी। चिंता किसको थी और मैं खत्म होती रही।

समाज लेन-देन का नाम है अम्मा। यहाँ लेन-देन जरूरी है। बगैर दिए कुछ नहीं मिलता। जिसके पास जो होता है, देता है। कुछ तो देना ही पड़ता है। जर दो जमीन दो, या जोरू दो। तभी हम हो पाते हैं सुविधा-संपन्न और समाज में बैठने योग्य। मेरे पास जर नहीं, जमीन नहीं, फिर जो है उसकी कीमत तो लगनी ही थी। बगैर रोकड़ा लिए तो आदमी विवाह भी नहीं करता। और उसके बाद भी औरत को जंजीरों में रखता है, भोगता है और दुत्कारता है। मर्द ने औरत को सराहा कब है? क्या तुमने बाबूजी के जूते-लात नहीं खाए। और चुपचाप जिंदगी की सारी रातें उन पर कुर्बान नहीं करती रहीं। देह से आत्मा तक। बदले में क्या मिला? क्या तुम संतुष्ट हो इस पति रूपी दैत्य से, जो जीवन भर तुम्हारे जिस्म को रौंदता रहा। और तुम कहीं बची ही नहीं। तुम, तुम नहीं रहीं। सिर्फ, सिर्फ अर्धांगिनी हो कर रह गईं और इस अर्धांगिनी को बखूबी 'यूज' किया गया। क्या तुम संतुष्ट हो अम्मा?

किंतु मैं संतुष्ट हूँ। लेकिन तुम्हारी नम आँखों की कसौटी पर शायद मैं खरी ना उतर पाऊँ।

जानती हो अम्मा जब मैं इस इंटर कॉलेज में इंटरव्यू देने आई तो शहर के कई दिग्गज और बुद्धिजीवी लोगों द्वारा गठित की गई एक कमिटी से रू-ब-रू हुई। सभी ने बारी-बारी से विषय से संबंधित भिन्न-भिन्न प्रश्न पूछे। अपने संज्ञान में तो मैंने सारे माकूल जवाब दिए पर पता नहीं उन्हें संतुष्ट कर पाई या नहीं। गॉड... नो...।

इंटरव्यू समाप्त हुआ। मैं आश्वस्त थी। कॉलेज कैंप्स से बाहर आ कर रिक्शा तलाशने लगी। अभी उदास होता रहा मन अब खिला जा रहा था। मन को पंख लगे थे। अब सूखती अँतड़ियों को ताब मिलेगी। राहतें गुनगुनाएँगी। घर का हुलिया बदल दूँगी और तनख्वाह बढ़ी तो एक सस्ती-मंदी गाड़ी भी खरीद लूँगी। चार पहिया। मैं खाती-पीती फूल कर सेठानी सी बन जाऊँगी। तब जब मैं कामदानी की महँगी साड़ी पहन कर गाड़ी में बैठ कर निकलूँगी तो सारा कस्बा अश-अश कर उठेगा। पाँव आसमान पर होंगे। अरे हाँ, अम्मा-बाबू जी का इलाज करवा कर उनके सारे मर्ज भी दफा कर दूँगी। और भी बहुत कुछ... कि सायास किसी ने सपनों की हल्की, नर्म पर्तों पर लाठी दे मारी -

'मैम, आपको मैनेजर साहब बुला रहे हैं...' उसी कॉलेज का चपरासी था। मैं हौल गई। पर मन-ही-मन पुलक उठी। लगता है सेलेक्शन तय। आंदोलित कदमों और झक-झक करती धड़कनों को सँभालती वापस हुई। छुटपुटा घिर चुका था। कहीं-कहीं रेशमी उजाले फैल रहे थे। कहीं-कहीं सुरमई पर्दों की परछाइयाँ थीं। मैंने धड़कनों पर काबू पाते हुए केबिन में प्रवेश किया।

'आइए मीना जी, तशरीफ रखिए...'

'थैंक्यू सर...' बैठ गई।

'वेलडन... वेलडन मीना जी, आपने सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर दिए।'

'ये...ये...स...सर, आई नो... मैं कान्फिडेंट थी।'

'मीना जी, आप इस नौकरी के लिए कितने प्रतिशत इच्छुक हैं?'

'हेड्रेड परसेंट... सर...।'

'लेकिन अगर आपको फेल कर दिया जाए तो...?'

'जी...' मुझे झुरझुरी-सी हो गई। हाथ-पाँव ठंडे पाला हो गए। आँखों में कुहरा छा गया। कुछ कहते ना बना। इधर-उधर ताकती रही। खामोशी टूटी 'मीना जी, आप तो जानती हैं आजकल का माहौल। एक चपरासी की जगह के लिए भी होड़ लग जाती है और ज्यादा से ज्यादा लोग देने को तैयार रहते हैं। अभी पिछले साल हमारे कॉलेज में चपरासी की पोस्टिंग...।'

'लेकिन सर, जो टीचर कमीशन से...'

'उनकी बात छोड़िए। देखिऐ ये विद्यालय मैनेजमेंट का है। हमें भी कुछ अथारिटीज मिली हुई हैं। और हम इनका उपयोग भी करते हैं, और उपभोग भी। अब बताइए, क्या कहती हैं?

पाँच लाख देने को तैयार हैं?'

'पाँच लाख?' मेरी आँखें फैल गईं।

'जी हाँ, नौकरी के बाद तो इतना आप साल भर में अर्न कर लेंगी...।'

'वो सब ठीक है सर, मगर जिसके पास अपनी परछाईं के सिवा कुछ है ही नहीं, वह क्या करे?'

'आपकी फैमिली में कौन-कौन है?'

'मेरे माता-पिता। एक छोटा भाई, दो बहनें, दोनों विवाहित हैं।'

'आय के स्रोत?'

'कुछ भी नहीं, मैं ही ट्यूशन करती हूँ। माता-पिता पहले से ही गठिया के मरीज हैं।'

'तो फिर ये नौकरी आपके लिए नहीं है।'

'जी...? सर... मैं बहुत ही गरीब हूँ...।'

'मुझे आपसे सहानुभूति है; किंतु मीना जी, भारत की पचहत्तर प्रतिशत आबादी गरीब ही है। जहाँ तक मैं जानता हूँ गरीबों के लिए नौकरियाँ नहीं हैं। मजदूरी है। आप लोग वही क्यूँ नहीं करतीं?'

उसकी बात पर मैं रो पड़ी। एक क्षण में सारे सपने धराशायी हो गए। जीवन में पहली बार सपनों के टूटने की कड़कड़ाहट महसूस हुई। मैं थके मन से उठी कि उन्होंने कंकरी उछाली -

'प्लीज, रिलैक्स, थोड़ा बैठ जाइए।' मैं बैठी नहीं। आँसुओं से चेहरा भीगता जा रहा था, उसका टका सा जवाब सुन कर। फिर मैंने सुना -

'आपका घर किराए का है या निजी?'

'निजी...' मैंने काँपते होंठों से कहा।

'तो उसे बेच दीजिए...।'

'जी...?' मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। काठ मार गया। फिर जैसे उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। वह हड़बड़ा कर बोला -

'प्लीज, डोंट माइंड, इसे अन्यथा ना लें। मैंने सिर्फ राय दी है। नौकरी होगी तो घर फिर आ जाएगा, वरना घर की ईंटें थोड़े ही खाता है कोई... आपको हर्ट किया, सॉरी... प्लीज... गो... गो...'

मैं भारी कदमों से साफिया के यहाँ लौट आई। इस बार मैंने ऑटो या रिक्शा नहीं किया। साफिया अपने पति और बच्चों से घिरी रही। मैं चुपचाप खामोश कमरे में पड़ी रही। बच्चों से मोहलत पा कर साफिया पास आ कर बैठ गई। बचपन की, स्कूल की और कॉलेज की यादें ताजा करती रही, मगर उस सबके प्रति मेरी विरक्ति देख चुपचाप अपने कमरे में लौट गई। मैं करवटें बदलती रही। सामने तुम लोगों का चेहरा घूम रहा था। घर की मासूम छाया याद आ रही थी। कैसे नीलाम होने दूँ उस नीड़ को जिसकी छत्रा-छाया में हम भाई-बहन परवान चढ़े। जिसकी ईंटों में हमारी किलकारियाँ रची बसी हैं, जिसकी बुनियादें हमारे पुरखों के खून-पसीने से महक रही है। झपकी भी आई। किंतु किसी सपने ने झिंझोड़ दिया। सपना था हम सब घर के बाहर घबराए से खड़े हैं और घर की दीवारें ताबड़तोड़ गिर रही है। चौंक के उठ बैठी। सामने साफिया खड़ी थी। बोली -

'सब ठीक है ना? अपसेट लग रही हो...' और मैंने सारी कहानी कह सुनाई। वह समझाती हुई बोली -

'मीना, अगर नौकरी मिल रही है तो घर बेच दो। पाँच लाख साल भर में कमा ही लोगी। और कितना भटकोगी। तुम वक्त का इंतजार कर सकती हो, पर वक्त तुम्हारा इंतजार नहीं करेगा। ओवर एज हो गई तो...?'

मैं भी मंशा गई। मगर सवाल था तुम्हारे और बाबूजी के सामने ये बात रखूँगी कैसे? तुम लोग क्या मान लोगे मेरी बात? ये सोचते-सोचते आँख लग गई। तभी मोबाइल बज उठा। चौंकी।

उधर से कहा गया - 'मीना जी, एक विकल्प और है।'

'जी कहिए...'

'इस समय रात के नौ बजे हैं। मैं पद्मा होटल के सामने खड़ा हूँ। आप आ जाइए और सुबह एप्वाइंटमेंट लेटर ले कर जाइएगा... चीप एंड बेस्ट... बोलिए... जल्दी बोलिए, मेरे पास समय नहीं है। मैं दूसरी कंडीडेट से बात करूँ...?'

'ज...जी ठीक है, मैं आ रही हूँ।' बगैर एक पल की देरी किए मैं बक गई।

फोन कट गया। ये सब शायद पूर्व नियोजित था। खैर, मैंने उम्र में पहली बार, एक भरपूर निगाह अपने दम तोड़ते जिस्म पर डाली। पता नहीं क्यों, अच्छा लगा। किंतु एक हड़बड़ी भरी सहम तारी थी।

फिर हल्की-फुल्की तैयारी कर साफिया को 'जरूरी काम आ गया है' कह कर चली गई।

दूसरे दिन दस बजे तक मैं घर लौटी तो एप्वाइंटमेंट लेटर मेरे हाथ में था। साफिया मुझे गले लगाती बोली थी - 'मैं जानती थी तुम कहाँ गई हो। टेंशन मत लेना, गरीब लड़कियों को अक्सर नौकरियाँ और तरक्कियाँ ऐसे ही मिलती हैं।'

'पर जाने क्यूँ कोफ्त सी होती है...' मैं अनमनी सी बोली।

'शिट, तू भी ना... ये कोफ्त क्या चीज है। तू क्या समझती है, सभी नौकरी पेशा लड़कियाँ बड़ी सती-सावित्री होती हैं... तू नहीं जानती यार... ये मर्द हैं ना, ये मर्द बड़ी कुत्ती चीज होती है। चमड़ी का भूखा। इसके सामने चमड़ी फेंक दो, फिर दोनों जहान लिखवा लो। क्या तुझे नहीं मालूम, बादशाहों ने रंडियों की एक-एक अदा की क्या-क्या कीमत चुकाई है? गाँव के गाँव लिख दिए, खजाने खाली कर दिए... तख्त-ओ-ताज तक लिख दिए। ताजमहल इसकी नजीर है। फिर, इसने तो सिर्फ नौकरी लिखी है। चल अब मुँह मीठा करवा...'

और अम्मा, उसी वक्त मैं किसी अपराधबोध से मुक्त हो गई। गरज ये कि दुर्ग ढह चुका है। वही दुर्ग अम्मा, जिसे तुमने तीस साल तब बड़ी सतर्कता और कुशलता से सँभाला, जिस पे तुम लोगों ने असंख्य पहरे बिछाए।

किंतु तुम कहीं किसी अपराधबोध या आत्मग्लानि जैसी भावना के फेर में मत पड़ना। लड़कियों की यही नियति है। हर माँ को एक-ना-एक दिन किसी पुरुष के हाथों अपनी बेटी सौंपनी ही पड़ती है। वक्त कहता है 'स्वीकारो इसे'। और आत्मसात कर लो। मानवीय मूल्यों की छद्म कुनीतियों से इतर सोचने का प्रयास करो। ये सामाजिक मूल्य और मानवीय मूल्य हमें विखंडित होने से रोक नहीं पाते। हमें अपने आँसू खुद ही पोंछने पड़ते हैं। गिर कर खुद सँभलना पड़ता है। अपने जख्म स्वयं सहलाने पड़ते हैं और हर वांछित चाह के लिए अवांछित रास्ते टटोलने पड़ते हैं। किंतु ऐसी ही पगडंडियों पर चल कर हम उत्कर्ष पाते हैं। इसीलिए हम ही श्रेष्ठ हैं अम्मा।

बाकी, मैं एकदम खुश हूँ। यहीं सेटल होने का मन बना रही हूँ। और... ये रही मेरी पहली तनख्वाह...।

स्नेहाकांक्षिणी

तुम्हारी बेटी मीना ।