गरीब कौन / शशि पुरवार
"मसाले का, कपडे धोने का पत्थर लाया हूँ बाई ..." सामने के घर पर घंटी बजाकर एक आदमी ने कहा।
"अच्छा, कितने का है भैया?"
"150रुपये का सिल बटना है, 200 रुपये कपड़े का"
"सिल दे दो ,पर सही पैसे बताओ, यह बहुत ज्यादा है"
"नहीं बाई, बोनी का समय है, फिर काला पत्थर भी है, तोड़कर बनाना पड़ता है, सिर्फ मेहनत का पैसा ही बोल रहा हूँ, ठीक है 125 में ले लो "
"नहीं 80 रुपये में दो"
"नहीं पुरता बाई घर चलाना पड़ता है, घूम -घूमकर बेचता हूँ, 2 ही तो है मेरे पास, भाजी पाला भी तो आज महंगा हो चुका है "
"नहीं नहीं, देना हो तो दो, नहीं तो रहने दो "
"बाई तुम नौकरी वाले हो, बड़े बंगले में रहते हो, क्या...... 10-15 रुपये के लिए ऐसा मत करो "
"हो भाई, नौकरी है ,तो क्या हुआ, हमारे पीछे बहुत खर्चे व काम रहते है, इससे ज्यादा नहीं दे सकते "
"बाई जाओ 100 में ही ले लो। ...थोडा सा मायूस होकर बोला "
उसने 100 रुपये दिए, उस आदमी को और गौरवान्वित भाव आए चेहरे पर, जैसे किला फतह कर लिया हो. उस आदमी ने रुपये लियेऔर जाते जाते कहा -
"बाई, सुखी रहो, मै सोचूँगा बहन के घर गया था, तो 50 रुपये का मिठाई फल देकर आया, तुम के लेना मेरी तरफ से ".
और वहाँ से चला गया। अब गरीब कौन वह पत्थर बेचने वाला या बंगले वाली, यह सोचने वाली बात है।