गरीब / डॉ. रंजना जायसवाल

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किसी क्लब का अध्यक्ष होना भी अपने आप में सर दर्द हो जाता है। रोज कोई न कोई कार्यक्रम लगा ही रहता है, अतुल पाँच महीनों से लगातार दौड़ ही रहे थे। कभी वृद्धाश्रम, कभी विकलांगों का कैंप तो कभी ब्लड डोनेशन। देखते देखते दिसंबर का महीना भी आ गया।

“और अतुल बाबू इस महीने क्या करने का सोचा है।”

“सोच रहा हूँ गरीबों में कंबल बाँट दूँ, हम लोग यहाँ मोजा, जूता, जैकेट से लैस होकर भी ठंड से ठिठुरते रहते हैं। कई गरीबों के तन पर तो मैंने एक कपड़ा तक नहीं देखा। मन द्रवित हो जाता है, मुझसे तो देखा भी नहीं जाता।”

"कहीं से कंबलों का जुगाड़ हो गया क्या…”

श्रीवास्तव जी ने चुटकी लेते हुए कहा, "आखिर वो भी तो भूतपूर्व अध्यक्ष थे। अपने कार्यकाल में कई बार ऐसे ही उनका मन द्रवित हो जाता था," श्रीवास्तव जी की बात सुनकर अतुल एक बार के लिए सकपका सा आ गया जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो। नजरें चुराते हुए उसने श्रीवास्तव जी से कहा, “अगले इतवार को चलते हैं, क्लब की तरफ से दो सौ कंबल बाँटेंगे। सोच रहा शहर से दूर किसी गाँव में बाँटा जाए।”

“सही कह रहे हो अतुल सारे क्लब को इससे आसान समाज सेवा कुछ नजर ही नहीं आती, जो देखो वही क्लब कंबल बाँटने में जुट जाता है। अरे जिसका पेट पहले से भरा हो उसका पेट फिर दोबारा क्यों भरना। यह साले भिखारी दो-दो, चार-चार कंबल बटोरकर बैठ जाते हैं और फिर औने -पौने दाम में बाजार में बेच देते हैं।

“सही कह रहे हैं श्रीवास्तव जी इसीलिए शहर से दूर गाँव में बाँटने को सोच रहा हूँ, शायद असली जरूरतमंद वही मिल जाएँ। आप चलेंगे न…”

“नेक काम में पूछना क्या…?”

श्रीवास्तव जी ने अतुल से कहा, इतवार की सुबह सुषमा जल्दी-जल्दी हाथ चला रही थी। क्लब के सदस्य कंबल बाँटने के लिए आने वाले थे। सुबह का नाश्ता तो करके ही जाएँगे। अतुल तेजी से हाथ बढ़ा रहे थे और कमल के द्वारा दान किए गए कंबलों को तेजी से अपनी गाड़ी में रख रहे थे।

“सुगंधा इसमें से दो-चार कम्बल निकाल लो, काम वालियों को दे देना। वह भी खुश हो जाएँगी। पिछली बार बर्तन धोने वाली को सिलाई मशीन दिलवा दी, तो खाना बनाने वाली कितना नाराज हो गई थी कि उसको नहीं मिली। अरे भाई अब अपनी जेब से आदमी किस-किस को दें, इस बार सबको खुश कर दो।”

सुगंधा ने चार कम्बल घर के भीतरी हिस्से में रख दिए, कहीं बाथरूम जाने के बहाने क्लब के किसी सदस्य की उन पर नजर न पड़ जाए। तभी दरवाजे पर कूड़ा उठाने वाले विजय ने घंटी बजाई। अतुल ने बहती गंगा में हाथ धोने की सोची। कौन- सा अपनी जेब से पैसा देना है। लगे हाथ इसको भी कंबल दे ही देता हूँ। यह भी तो जरूरतमंद है ही, खुश हो जाएगा और जीवन भर सलाम भी ठोकता रहेगा।

“यह लोग कंबल और तुम्हारे किसी साथी को जरूरत हो तो बताना, मुझसे आकर ले जाए। हम गरीबों की सहायता के लिए हमेशा खड़े रहते है।”

विजय ने उल्टे ही हाथ उस कंबल को वापस कर दिया, "भैया! आपने कह दिया, यही बहुत है। मेरी तो सरकारी नौकरी है, काम भर का कमा लेता हूँ। मुझसे ज्यादा गरीब लोग इस दुनिया में पड़े हैं, उन्हें मुझसे ज्यादा जरूरत है। आप उन्हें दे दीजिए।”

अतुल चुपचाप विजय का चेहरा देख रहा थ॥ शर्मिंदगी से उसका चेहरा काला पड़ चुका था और विजय के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक थी। अतुल सोच रहा था गरीब कौन है…

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