गरुड़पीढ़ी : अपनेपन की खुशबू / रश्मि शर्मा
अधिक दिन नहीं हुए जब मेरा सुदूर जंगल के बीच बसे गरुड़पीढ़ी गाँव जाना हुआ। राँची से नामकुम मुश्किल से सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर है। नामकुम से गाँव पास पड़ता है मगर रास्ता नहीं होने के कारण हमें राँची-बुंडू रोड में तैमारा घाटी जाकर गाँव का रास्ता पकड़ना पड़ा। इन दिनों मौसम बदल रहा है। पलाश और कुसुम के नए पत्तों से जंगल लाल हुआ जा रहा है। पूरे रास्ते महुआ और साल के फूलों के पेड़ों से निकलने वाली सुंगध से बौराई हुई मैं गाँव को चली जा रही थी कि ज़रा क़रीब से देखा-जाना जाए आदिवासियों की जीवनशैली को, साथ में एक मित्र भी थी।
गरुड़पीढी के रास्ते में ही एक गाँव पड़ता है लदनापीढ़ी। यूँ तो शहर से ज़्यादा दूर नहीं, सिर्फ़ 15 किलोमीटर की दूरी पर है गाँव मगर पूरी तरह शहर से कटा हुआ। गाय-बैल चराते बच्चे, खेत-खलिहान में काम करती स्त्रियाँ और पेड़ के नीचे चौपाल लगाते ग्रामीण। गाँव के बीच तालाब में एक औरत बत्तखों के साथ डुबकी लगाती नजर आई मुझे। मैंने पूछा-तालाब में तैर रहीं हैं आप, जवाब मिला, "घोंघी पकड़अथिऔ।"
तलब-तालाब में डुबकी मारकर ये लोग पानी से घोंघे पकड़कर उसका मांस निकालकर खाते हैं। कहते हैं बहुत स्वादिष्ट होता है और इससे आँखों की रौशनी भी बढ़ती है। कुछ बच्चे बकरियाँ चरा रहे थे। कुछ ग्रामीण औरतें सर पर थैले में सामान भरकर आराम से सड़कों पर चल रही थीं।
तनिक विश्राम के बाद ताज़ा दम हो हम लोग फिर चल पड़े गरुड़पीढ़ी गाँव के लिए. गरुड़पीढ़ी गाँव राँची से करीबन 25 किलोमीटर की दूरी पर है, जहाँ की आबादी 500 के आसपास है। करीब 115 घर होंगे वहाँ, जहाँ मुंडा समुदाय के लोग रहते हैं। राजधानी के इतने करीब होने के बाद भी वहाँ बिजली नहीं पहुँची है। यह विकास की बानगी है कि मात्र 25 किलोमीटर दूर का गाँव बुनियादी सुविधाओं से अब तक वंचित है। हमें रास्ते में एक नदी मिली जहाँ औरतें कपड़े धो रही थीं। पक्कीै सड़क थी, सड़क के दोनों तरफ घने पेड़ थे। पलाश का मौसम था इसलिए देखकर लग रहा था जंगल में आग लग गई है। दूर पहाड़ और पास में हरियाली। बहुत खूबसूरत दृश्य था। बाँस की हरी पत्तियाँ हवा से झूम रही थीं। जब गाँव की ओर मुड़े तो रास्ते में कच्ची सड़क पर टहलता एक मोर मिला। जंगली फूल मन मोह ही रहे थे। कुछ घर पहाड़ की तलहटी में बने हुए थे। चारों तरफ पेड़-पौधों से घिरे हुए. सब कुछ बहुत ही सुन्दर और आकर्षक।
रास्ते भर साथ दिया पलाश के जंगलों ने जिनमें खिले लाल-नारंगी पलाश अलग ही छटा बिखेर रहे थे। भले ही खुशबू नहीं होती इनमे मगर आँखों को बहुत भले लगते हैं। पलाश को टेसू भी कहते हैं और सभी जानते हैं कि उससे होली का पारम्परिक रंग बनता है। इसका आयुर्वेद में बहुत उपयोग है।
पहले लोग पलाश या ढाक के पत्ते पर भोजन भी करते थे। मैं पलाश के लिए सोचते चली जा रही कि देखा एक छोटी-सी काली चिड़िया बार-बार उड़ान भरती और फिर पलाश की डाल पर आकर बैठ जाती। कोयल की तरह बिल्कुल काली, मगर कोयल नहीं थी यह। इसे राँची और आसपास के क्षेत्र में छोटानागपुरिया में ढेंचुआ कहते हैं। यह एक बहादुर पक्षी मानी जाती है। कहते हैं कि यह कौवों और चील तक को दूर खदेड़ देती है। इस पक्षी के घोंसले के आसपास सुरक्षा के हिसाब से और भी छोटी चिड़ियाँ अपने घोसले बनाती है। मराठी फिल्म "फैंड्री" में भी इस चिड़िया को देख सकते हैं आप।
कुछ देर चिड़िया की उड़ान पर मोहित होने के बाद आगे निकले। रास्ते में झाड़ीनुमा पेड़ पर बहुत ही खूबसूरत लाल फूल मिले। नाममात्र की पत्तियाँ और कमल की तरह फूल। नाम नहीं जान पाई इसका, मगर तस्वीर ले ली। प्राकृतिक नजारे का आनंद उठाते घंटे भर में वहाँ से हमलोग गाँव पहुँच गए. सड़क पतली थी, मगर कोई मुश्किल नहीं हुई. हाँ बारिश के मौसम में ज़रूर लोगों को परेशानी होती होगी। एक रास्ता और है गाँव जाने का मगर नदी पार कर जाना पड़ता है। गाड़ियाँ नहीं जा सकतीं। लोग पैदल जाते हैं। थोड़ी दूर पर एक पहाड़ था।
पता चला कि अगर उस पहाड़ के ऊपर से दूसरी तरफ नीचे उतर जाएँ तो शहर बिल्कुल पास है। गाँव के पास आते ही बहुत अलग-सी खुशबू ने स्वागत किया हमारा। ऐसा लगा जैसे रास्ते में सुगंध का छिड़काव किया हो किसी ने। नजरें घुमाईं, तो एक झाड़ीदार पेड़ पर आँखें टिकीं। हो न हो खुशबू इसी से आ रही हो। कुछ दूर बाद फिर वैसी ही सुगंध। अब रहा नहीं गया। गाड़ी रोककर उतर पड़े और पास जाकर सूँघा। वास्तव में उसी पेड़ से यह सुगंध निकल रही थी। मोगरे जैसी कलियाँ और सफेद खिले फूल। पूरी डाल को ढके हुए. लोग गाँव में इसे ढेला फूल बोलते हैं।
गाँव पहुँचकर कुछ ग्रामीणों से बात की। उन्होंंने बताया कि गाँव में एतवा मुंडा ज़रा पढ़ा लिखा है, उससे बात कर कुछ जानकारी ली जा सकती है। हमलोग उसके घर की तरफ चल दिए जो गाँव के बीच में है। थोड़ी देर में हम उसके घर के पास थे। वहाँ बिरसा मुंडा की मूर्ति स्थापित थी, हाथ में तीर-धनुष लिये। यह पहचान है एतवा के घर की, मेरी मित्र ने बताया।
मिट्टी का कच्चा मकान था। बाहरी दीवार पर गोबर से लिपाई कर सुन्दर रूप दिया था घर को। घर के बाहर बैठने के लिए मिट्टी का पिण्डा बनाया था। यह थोड़ी-सी ऊँची जगह होती है घरों के बाहर जहाँ आराम से बैठा जा सके. साफ-सुथरे आँगन के किनारे कई पेड़ लगे थे। घर पर एतवा नहीं था। उसके बच्चे ने बताया कि नदी की तरफ गए हैं बाबा। हमलोग उधर ही जाने लगे तभी एतवा आता दिखा। देखते ही 'जोहार' कहकर स्वागत किया ऐतवा ने। सहज, स्वच्छ मुस्कहराहट खिली थी होंठों पर। पूछा-कहाँ आएँ हैं आपलोग। हमने बताया कि राँची से आए हैं और आपसे बात करना चाहते हैं। बहुत खुश हुआ एतवा। मैं सारे पेड़ देखकर पहचानने की कोशिश कर रही थी कि कौन-कौन से फल-फूल के पेड़ है। देखा महुआ के कई पेड़ थे। महुआ हम सब जानते ही हैं।
उससे शराब बनाने के अलावा महुआ से खीर, लड्डू, जैम आदि बनाए जाते हैं। इसके कच्चे फल की सब्जी भी बनती है। कुंचे में खिलता है फूल। भोर में जब नीचे टपकता है तो पीला होता है। सूखने के बाद कत्थई रंग का हो जाता है। महुआ के बीज से तेल निकलता है जिसे आदिवासी अपने शरीर पर लगाते हैं। जब अनाज खत्म होता है, तो महुआ ही उनके भोजन के काम आता है।
ऐसे ही एक पेड़ 'भेलवा' का था। ऐतवा ने मेरी दिलचस्पी देखकर नाम बताया और उसका सूखा फल खिलाया। स्वाद कुछ-कुछ खूबानी-सा था। बिल्कुल जंगली फल है यह। मैंने सुना ज़रूर था, मगर कभी देखा नहीं था। इसके फल से तेल बनता है, जिसे बैलगाड़ी के चक्कों में डाला जाता है। इसका कच्चा तेल शरीर पर तेजाब-सा असर करता है।
कहते हैं कि इसका फल खा लेने पर किसी-किसी का शरीर फुटबॉल की तरह फूल जाता है। कुछ का मानना है कि इसके पेड़ के नीचे से गुजरने पर भी शरीर में सूजन हो जाती है। लोग कहते हैं इसका प्रयोग झारखंड आंदोलन के समय विरोधियों को परास्त करने के लिए भी किया गया था। हालाँकि मैंने भी खाया मगर बीज निकालकर।
केंद के पेड़ पर पके फल लदराए हुए थे। उसका भी स्वाद लिया हमने। केंद, केन्दुे या तेन्दु एक ही नाम है। यह झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के जंगलों में खूब पाया जाता है। कच्चे में ज़रा कसैला होता है, मगर पक जाने पर खूब मीठा। तेन्दु पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने में होता है। ग्रामीणों की आजीविका का यह एक बड़ा सहारा है। मगर अभी पेड़ पर केवल फल ही थे। गर्मियों में इससे पत्ते तोड़कर, सुखाकर उसके अंदर तम्बाकू भरकर बीड़ी बनाई जाती है।
वहाँ शीशम, कचनार, मुनगा या सहजन के पेड़ भी थे। एतवा ने बताया कि इन फलों से हमारा और हमारे मवेशियों का पेट भरता है और कुछ बाज़ार में बेच कर जीवोकापर्जन कर लेते हैं। बड़े उत्साह से कहा-'देखिए भगवान ने कितना कुछ दिया है हमें! हम ही सँभाल नहीं पाते। अगर जंगलों को बचाकर रखें, तो कभी खाने की कमी नहीं होगी हमें।' उसके (बारी) बागीचे में महुआ सूख रहा था। कुछ कच्चा, कुछ पका महुआ। बताया कि अब दाम थोड़ा अच्छा मिलने लगा है...वरना पहले बहुत सस्ते में बेचना पड़ता था। पास ही एक कुआँ था और उसके पास खेत में गेहूँ की फसल लहलहा रही थी।
समझ में आया कि इसलिए आदिवासी संस्कृति में प्रकृति की पूजा की जाती है। जल-जंगल से जीवन है उनका। आँगन में लगे हरे-भरे पेड़ हमें ये भरोसा दिला रहे थे कि जब तक प्रकृति की पूजा होती रहेगी, उसे बचाने के यत्न भी होते ही रहेंगे। यह जंगल में रहने वाले लोगों के भोजन का आधार है। एक छोटा-सा मिट्टी का घर बनाकर आसपास फूल-फल के अनेक पेड़ लगाकर संतुष्ट रहते हैं आदिवासी. सुदूर जंगल में प्रकृति ने उनके पेट भरने के लिए बहुत सारे इंतजाम कर रखे है।
दोपहर हो चुकी थी। हमलोग एतवा से बात कर थोड़ा गाँव घूमकर वापस आना चाह रहे थे। एतवा को कहा-जरा गाँव दिखा दो तो हम फिर जाएँ। तब एतवा ने बड़े प्याार से कहा कि आपलोग हमारे मेहमान हैं, दोपहर के वक्त बिना कलेवा (दोपहर का भोजन) खिलाए कैसे जाने दें। जो भी बना है रूखा-सूखा, थोड़ा-सा खा लीजिए. एतवा का विनम्र आग्रह स्वीकार कर लिया हमने। उसकी पत्नी़ ने जमीन पर चटाई बिछाई और हमें बिठाया। फिर बड़ा-सा पीतल का कटोरा और पानी लेकर आई. बैठे-बैठे ही कटोरे में हमारे हाथ धुलवाए. फिर थाली में पानी-भात, (पके चावल में पानी मिलाकर) पुटकल का झोर (कचनार के पेड़ के कोमल पत्ते की सब्जी, जो पेट के लिए बहुत फायदेमंद होती है) और हरी-मिर्च और प्याज खाने के लिए दिए.
यक़ीन मानिए, जो स्वाद उस खाने का था, वह तो किसी पाँचसितारा के खाने में भी नहीं मिला। हम जैसे चावल का प्रयोग करते हैं, उससे अलग था वहाँ के भात का स्वाद; क्योंकि उन लोगों का अपने खेत में उगाया आर्गेनिक चावल था। बिना किसी रासायनिक खाद का उपयोग किए और लकड़ी के चूल्हे पर बनाया हुआ। हम तृप्त हो उठे। मन में यह भी आया कि हम शहरी कितने मतलबी हो गए हैं! कोई मेहमान अचानक आ जाए, तो उसे चाय-बिस्कुट खिलाकर जल्दी से वापस भेजने की मंशा होती है। बिना बताए कोई आ जाए, तो मन ही मन कितना झल्लाते हैं हमलोग! एक यह आदिवासी हैं कि अपने बने हुए खाने को इतने प्यार से बाँटकर खिलाया, जैसे हम कितने पुराने आत्मीय हों। जबकि आज ही मिले थे पहली बार। पूरा परिवार स्वागत को तत्पर। ऐतवा की पत्नी खाना देकर वहीं बैठी रही और खाने के आग्रह के साथ। यही अंतर है शहर और गाँव के लोगों में।
अब हम गाँव देखना चाहते थे। बहुत छोटा-सा गाँव है जहाँ एक पंचायत भवन है। कुछ भी निर्णय लेना हो, तो यहाँ लोग बैठकी करते हैं। आम के पेड़ पर टिकोरे लगे थे। साल के पेड़ों पर फूल खिलने से मधुर सुगंध से महक रहा था वातावरण। एतवा ने कहा-एक चीज दिखाता हूँ, आपने कभी नहीं देखा होगा। एक स्थान पर गाय-बैल बँधे थे और वहाँ बड़े-बड़े पत्तों वाला घना लता जैसा कोई पौधा था। बताया कि इस पत्ते से ग्रामीण अपनी घोघी या छतरी बनाते हैं। बरसात के दिन में इसे ओढ़कर खेतों में काम किया जाता है। ऐसा पत्ता है यह कि इससे पानी पार नहीं होता। इसका नाम गुंगुपत्ता है।
रास्ते में एक आदमी डाल से कुछ खुरचता मिला अपने घर के बाहर। हमने पूछा-क्या है तो उसने बताया कि बेर के पेड़ पर लाह था, जिसे निकाल रहे हैं। डाल से लाह या लाख खुरचकर उसे बाज़ार में बेचते हैं ग्रामीण। यह लाह वही पदार्थ जिससे महाभारत के समय पांडवों के लिए लाक्षागृह का निर्माण कराया गया था। झारखंड में बेर के पेड़ों पर यह स्वतः उपजते भी हैं और उपजाए भी जाते हैं। ज्वलनशील होता है। लाह या लाख की चूड़ियाँ सभी जानते है। इससे चपड़ा बनाकर विदेशों में निर्यात किया जाता है और भी कई इस्तेमाल हैं लाख के.
अक्सर हमने लोगों को कहते सुना है कि आदिवासी बड़े भोले होते हैं और उनके इस भोलेपन का फायदा बाहरी लोग, जिसे स्थानीय भाषा में 'दिकू' कहते हैं, वे लोग उठाते हैं। अभी-अभी आदिवासियों का प्रमुख त्यौहार सरहुल बीता है। साल के सुगंधित फूलों से जंगल भरा हुआ है। हर घर के छप्पर में सरहुल मनाने के बाद सरई फूल खोंसा हुआ मिलेगा। एतवा ने गाँव का अखरा दिखाया। यहाँ गरुड़ की एक मूर्ति बनी हुई थी। गाँव के सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम इसी अखरे में सम्पन्न होते हैं।
वहाँ से निकले तो एक घर के पास कटहल के दो पेड़ थे, जिसपर कटहल फले हुए थे। हमारी मित्र ने वहाँ उपस्थित बच्चों से कहा-'हमें कटहल नहीं खिलाओगे!' कहने की देर थी कि बेहद फ़ुर्ती से एक बच्चा पेड़ पर चढ़ गया और बड़े-बड़े कटहल तोड़कर फटाफट नीचे खड़े बच्चे के हाथों में फेंकने लगा। मजाल कि हाथ से कटहल का कोई कैच छूट जाए. गाँव के बच्चे। बिना किसी प्रशिक्षण के अच्छे खिलाड़ी होते हैं। उन्होंने कटहल हमें सौंपे। हमने पैसा देना चाहा, तो बोले-'अरे आप हमारे मेहमान हैं। आपसे पैसे कैसे लें!' हमारे जाने की बात सुनकर कुछ लोग तुरंत सरई के फूल तोड़कर लाए. बोले-सरहुल के समय इससे अच्छा् उपहार कुछ नहीं दे सकते आपलोगों को हम। सरई के फूल घर में लगाने से सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है।
शाम ढलने को थी। अब हमें राँची लौटना था। यह सीख लेकर लौटे हमलोग कि 'वास्तव में सरल होना किसे कहते हैं'। किसी भी पाहुन या मेहमान का स्वागत करना, उनकी सहायता करना हमें इनसे सीखना होगा। आदिवासी और ग्रामीण भी बस प्यार की भाषा समझते हैं और देते भी हैं। हमें उनका ख्याल करना चाहिए, जैसे हम प्रकृति का करते हैं। आदिवासियों का भोलापन बनाए रखना है, तो जल-जंगल और जमीन पर इनके हक पर ज़रा भी दखलअंदाजी न की जाए. हम प्रकृति का सम्मान करें और जंगल को उजड़ने न दें। सरलता और नि: स्वार्थ आत्मीयता की भावना को समझने के लिए हमें भी गाँव और जंगलों में एक बार ज़रूर जाना चाहिए. वहाँ रहने वाले लोगों से मिलकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का अर्थ समझ आएगा हमें।
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