गर्दिश के साथी / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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मैं उन्हें खान की क्लीनिक में बैठे या बाहर खड़े प्रतिदिन देखता. वह मेरी ही आयु के थे.....लंबे...... लगभग पांच फीट आठ-नौ इंच, गोरे, स्लिम, स्वस्थ और सुन्दर थे. गोल, भरे गाल, सुतवां नाक, चमकती आंखें, कुछ घुंघराले काले बाल....प्रथम दृष्ट्या ही आकर्षक. मैं सुबह दस बजे घर से निकल जाता और शाम छः बजे के आस-पास कॉलोनी में प्रवेश करता. मैं प्रतिदिन शहर की एक दिशा नापता और खाली हाथ अगले दिन किस दिशा की फैक्ट्रियों-कंपनियों के मैनेजरों-पर्सनल अफसरों से मिलने जाना है यह सोचता हुआ घर लौटता. सुबह जाते समय वह मुझे अपने चैथे मंजिल के घर की बाल्कनी में खड़े दिखते और लौटते समय डाक्टर खान की क्लीनिक में या बाहर खडे़. खान की क्लीनिक मेरे पहली मंजिल के घर के ठीक सामने थी.

यह 1970 के उत्तरार्द्ध की बात है. मैं बेगमपुरवा की म्यूनिसिपल कॉलोनी में बड़े भाई साहब के साथ रहता था. उन दिनों मैं एक ऐसी बीमारी का शिकार था जिसके विषय में मैं स्वयं नहीं जान पा रहा था और बड़े भाई का कहना था कि दरअसल मुझे कोई बीमारी नहीं, केवल ‘शक’ की बीमारी है. लेकिन में जानता था कि कुछ ऐसा था अवश्य जिसके कारण मेरा वज़न निरंतर घट रहा था और भूख मरती जा रही थी. मैं भाई साहब की विवशता समझता था और उनसे कभी किसी बड़े डाक्टर या अस्पताल की बात नहीं करता था. छोटी नौकरी में, जो छः सात वर्ष पुरानी ही थी, बड़े परिवार का बोझ था उन पर . मैं चाहता था कि नौकरी लगे तो स्वयं ही किसी अच्छे डाक्टर से संपर्क करूं, लेकिन नौकरी मुझे दूर से ही ठेंगा दिखा रही थी. कुछ दिन एक वकील के यहां सेवादारी करके कुछ पैसे बचाए थे जिनसे मैं कुछ दिनों तक आइन्स्टाइन जैसे दिखने वाले एक होम्योपैथ डाक्टर की शरण में रहा जिसने मुझे मीठी गोलियों के साथ दलिया सेवन की सलाह दी थी. उससे लाभ नहीं हुआ. तब मैंने डाक्टर खान की शरण में जाने का विचार किया, जिनसे खांसी-ज्वर हाने पर हम दवा लेते थे. ‘बड़े डाक्टर कभी जिस मर्ज को नहीं पकड़ पाते छोटे उसे पकड़ लेते हैं ’ उस समय मैंने यह सोचा और एक दिन डाक्टर खान के पास जा पहुंचा. शाम के सात बजे थे. वही समय होता था खान के आने का. यह मुझे बाद में पता चला कि डाक्टर खान नीम-हकीम डाक्टर थे. वह घण्टाघर में एक सरदार जी के धर्मकांटा में बतौर मैनेजर काम करते थे जहां बड़े ट्रकों को तौला जाता था.

गहरे सांवले रंग के डाक्टर खान सदैव सफेद पैण्ट और हाफ शर्ट पहनते थे. सदैव उनके मुंह में पान रहता और पुराने अखबार में दो-चार बीड़े पान बंधे उनकी मेज पर रखे होते. उनकी क्लीनिक आठ बाई दस के कमरे में थी, जिसमें एक ओर हरे पर्दे के पार्टीशन में कंपाउडर दवाएं कूट-पीसकर....घोल बनाता रहता. उनके यहां बेगमपुरवा बस्ती के कुछ और शेष मरीज कॉलोनी के होते थे. लेकिन यदि एक मरीज होता तो चार उनसे गप हांकने वाले वहां बैठे होते जो मरीज जैसे ही दिखाई देते थे.

उस दिन भी वह वहां बैठे अन्य लोगों के साथ ठहाके लगा रहे थे.

मैंने खान को अपना कष्ट बताया. उन्होंने नब्ज देखी, पेट दबाया फिर आंखें फैलाकर देखीं और बोले , ‘‘ठाकुर साहब आपको कमजोरी है. यह टॉनिक लिख रहा हूं....सुबह-शाम खाने के बाद एक चम्मच लीजिए. बाकी जूस -दूध नियमित.......’’

मैंनें उनसे टॉनिक का पर्चा लिया और उनकी फीस देने लगा, जिसे उन्होंने, ‘‘तुम ठाकुर साहब के भाई हो.’’ फीस लेने से इंकार कर दिया. कॉलोनी में भाई साहब को सभी ठाकुर साहब कहकर पुकारते थे और वहां उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी

मैं जब क्लीनिक से बाहर निकला वह भी मेरे पीछे बाहर आ गए.

‘‘आजकल क्या कर रहे हो?’’ उन्होंने सीधे पूछ लिया.

‘‘मैं.....मैं नौकरी तलाश रहा हूं.’’

‘‘नौकरी....?’’ क्षणभर के लिए उनके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी. ‘‘हुंह .....नौकरी.....’’

‘‘और आप?’’ उन्हें असमजंस में पाकर मैंने पूछा.

‘‘यार मैं भी इसी मर्ज से गाफिल हूं.’’ वह फिर गंभीर हुए. क्षणभर बाद पूछा, ‘‘क्या किया है?’’

‘‘बारहवीं की परीक्षा देनी है.....प्राइवेट. टाइपिगं जानता हूं. चालीस से ऊपर स्पीड है.’’

वह मुझे घूरते हुए कुछ सोचते रहे. मैं भी उनके चेहरे पर नजरें गड़ाए उन्हें देखता रहा. हम खान के क्लीनिक से कुछ हटकर रेलवे कॉलोनी की ओर जाने वाले रास्ते के पास बिजली के खंभे के निकट आ खड़े हुए, जिस पर एक टिमटिमाता पीला बल्ब इस बात का अहसास करा रहा था कि उस कॉलोनी वालों पर केसा की मेहरबानी थी. अंधेरा घिर आया था और धुंए में डूबी कॉलोनी के घरों से बीमार रोशनी फूट रही थी. अमूमन हर दूसरे घर में अंगीठी सुलग रही थी. कुछ घरों के बाहर गृहणियां उन्हें सुलगाने का प्रयत्न करती दिख रही थीं. यह कॉलोनी रेलवे वर्कशॉप के निकट थी, इसलिए कच्चा कोयला सहजता से मिल जाता था. कभी वह वर्कशॉप ही कानपुर का मुख्य रेलवे स्टेशन हुआ करता था, जिसकी स्मृति को जीर्ण काठ का पुल आज भी सुरक्षित रखे हुए है.

‘‘फिर तो यार, कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जानी चाहिए.’’

‘‘कैसे?’’

’’टाइपिगं जो आती है....मुझे टाइपिगं आती होती तो .....?’’ वह चुप हो गए. लेकिन उन्होंने यह संकेत अवश्य दे दिया था कि वह भी मेरी तरह ही बेकार थे.

‘‘आप भी सीख लें .....’’

‘‘आपने कहां सीखी?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘आई.टी.आई.में....लेकिन प्रैक्टिस के लिए अब सुबह किदवईनगर के शर्मा टाइपिगं इंस्टीट्यूट जाता हूं .’’

वह देर तक कुछ सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘यार, मुझे क्लर्की पसंद नहीं है . मैं अध्यापक बनना चाहता हूं .’’

‘‘आपने क्या किया है?’’

‘‘मैंने.....मैंने हमीरपुर से इण्टर पास किया है. वहीं का रहने वाला हूं.’’

‘‘फिर प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं कर लो.’’

‘‘उससे भी नौकरी कहां मिलती है. यू.पी. में बी.टी.सी. किए हुए हजारों बेकार हैं.’’

‘‘फिर...?’’ मेरे प्रश्न पर वह सोच में डूब गए.

‘‘वही.....फिर...’’ और वह फिर चुप हो गए. हम देर तक खड़े रहे निर्वाक फिर हम अपने घरों को चले गए थे.

♦♦ • ♦♦

उसके बाद हम दोनों गहरे मित्र बन गए थे.

उनका नाम था इकरामुर्रहमान हाशमी.

अब हम दोनों ही सुबह एक साथ अपनी-अपनी साइकिलों पर निकलते.किदवईनगर या रेल बाजार तक साथ जाते, फिर हमारे रास्ते जुदा हो जाते थे. शाम हम पुनः खान की क्लीनिक के सामने मिलते और घण्टा-आध घण्टा दिनभर के अपने अनुभवों को बांटते.

मार्च 1971 में बारहवीं की परीक्षा थी, इसलिए मैंने नौकरी के लिए दौड़ना छोड़ दिया. सुबह केवल टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए जाता और शेष समय पढ़ाई. हमारी शाम की मुलाकातें बदस्तूर जारी थीं और वह मुझे बताते कि चमनगंज के किसी मुसलमान नेता ने उनसे वायदा किया है कि वह जुलाई में उन्हें अपने स्कूल में बतौर हिन्दी अध्यापक नौकरी दे देगा.

‘‘यार , वहां काम करते हुए मैं बी.ए. का प्राइवेट फार्म तो भर सकूंगा. बी.ए. करना आवश्यक है.’’ उन्होंने कहा था.

‘‘रेगुलर कर लो.’’

‘‘नहीं.’’ उनके स्वर में स्वाभिमान की गंध थी. ‘‘मैं भी बड़े भाई के साथ रह रहा हूं ... यही पर्याप्त है. उन पर अधिक बोझ नहीं डालना चाहता. अपने बल पर ही आगे की पढ़ाई करूंगा.’’

उनके निर्णय की मैंने मन ही मन प्रशंसा की. उससे मुझे भी बल मिला था.

उन दिनों कानपुर विश्वविद्यालय केवल अध्यापन से जुड़े लोगों को ही प्राइवेट बी.ए. की अनुमति देता था. अगस्त से फार्म भरने का सिलसिला प्रारंभ होता जो विलंब शुल्क के साथ अक्टूबर-नवम्बर तक चलता. मैं भी इण्टरमीडिएट तक सीमित नहीं रहना चाहता था....लेकिन....वास्तव में हम दोनों की स्थिति एक-सी थी.

जून 1971 में मेरा स्वास्थ्य अधिक ही खराब हो गया. एक दिन दोपहर इतनी घबड़ाहट हुई कि मैंने सी.ओ.डी. पोस्ट ऑफिस से भाई साहब को फोन कर दिया . वह घबड़ा गए. उन्होंने कुछ डाक्टरों की जानकारी अपने सहयोगियों से ली और शाम सवा पांच बजे आते ही (वह हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लि.) बोले, ‘‘कपड़े बदलो....डाक्टर के पास जाना है.’’

मैं हत्प्रभ था. कल तक वह कहते थे कि मुझे ‘शक’ की बीमारी है....लेकिन घर में सभी उनसे डरते थे और मैं तो उनसे दस वर्ष छोटा था. चुपचाप बिना कुछ कहे कपड़े बदल उनके साथ चल पड़ा था. किदवई नगर के वाई ब्लॉक में डाक्टर भार्गव का क्लीनिक था जो कुछ दिन पहले तक कानपुर मेडिकल कॉलेज में रीडर पद पर कार्यरत थे, और घर में भी प्रैक्टिस करते थे. घर में उमड़ती भीड़ ने उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए प्रेरित किया था. डाक्टर भार्गव ने बातचीत से ही मर्ज समझ लिया, लेकिन उसकी पुष्टि आवश्यक थी, अतः एक्सरे के लिए लिखा. अगले दिन एक्सरे के लिए मैं माल रोड गया. रपट में डाक्टर भार्गव की आशंका सही निकली थी. आंतो का अंतिम छोर आपस में लगभग मिल गया था. (डाक्टरों के मुताबिक इल्यूशिकिल आंत नैरो हो गयी थी) मात्र सूत भर का अंतर....यदि पन्द्रह दिन और बीत जाते तब उन आंतों के फट जाने का खतरा था....अर्थात अवश्यभांवी मृत्यु.

डाक्टर भार्गव ने सर्जन एस.पी. जैन के पास पत्र देकर भेजा, जो कोतवाली के पास अपनी साली के यहां रहते थे,क्योंकि उनकी पत्नी की कुछ दिन पहले मृत्यु हो गयी थी और उनके तीन वर्ष की बेटी थी जो साली के यहां रहकर पल रही थी. में उनसे वहां मिला. उन्होंने हैलट अस्पताल में, जहां वह सर्जन थे, मिलने के लिए कहा.

अंततः 20 जून ‘1971 को उन्होंने मुझे हैलट में भर्ती कर लिया गया. सभी परीक्षण हुए और पता चला कि उस समय मेरा वज़न केवल चालीस किलो था. डाक्टर जैन ने तुरंत ऑपरेशन न करने का निर्णय किया, क्योंकि उस स्थिति में मुझे बाहर से रक्त देना होता, जो वह नहीं चाहते थे. उचित उपचार प्रारंभ हो गया था, इसलिए पन्द्रह दिनों के लिए ऑपरेशन टाला जा सकता था. डाक्टर ने अधिक से अधिक मौसमी का जूस लेने की सलाह दी.

इकराम प्रतिदिन मुझसे मिलने अस्पताल आते थे.

उन दिनों मौसमी का छोटा गिलास सवा रुपया और बड़ा डेढ़ रुपए में मिलता था. मैं भोजन कम जूस अधिक लेने लगा और भाई साहब से पैसे कम लेने के निर्णय के कारण इकराम का एक सौ पचास रुपयों का कर्जदार हो गया. वे पैसे मैंने कब और कैसे वापस किए आज मुझे याद नहीं और न ही यह जान सका कि मेरी ही स्थिति में रह रहे इकराम ने उन पैसों की व्यवस्था कैसी की थी.

♦♦ • ♦♦

11 जुलाई 1971 को मेरा ऑपरेशन हुआ ....पांच घण्टे. इकराम सुबह ही अस्पताल पहुंच गए थे और मेरे होश में आने तक अर्थात शाम पांच बजे तक वहां रहे थे.

जब अस्पताल से मुझे छुट्टी मिली मेरा वज़न मात्र छत्तीस किलो था....लेकिन तब मैं पूर्ण स्वस्थ था. अगले तीन महीनों में मैं इतना स्वस्थ हो गया कि मैं पुनः उस इनकम टैक्स-सेल्स टैक्स वकील के यहां पचास रुपए मासिक पर प्रतिदिन चार घण्टे के लिए काम पर जाने लगा था...न चाहते हुए भी. अपने उपन्यास ‘शहर गवाह है’ में मैंने उसी वकील का चित्रण किया है. शाम इकराम के साथ हम बी.ए. करने की चर्चा करते. चमनगंज के नेता ने अपना वायदा पूरा नहीं किया था, जबकि इकराम ने जुलाई से कुछ दिनों तक उसके स्कूल में मुफ्त पढ़ाया था. जब उसने अनुभव प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया , जिसके बिना इकराम प्राइवेट फार्म नहीं भर सकते थे, उन्होंने स्कूल छोड़ दिया था. वकील साहब के यहां तीन महीने जाने के बाद मैंने भी उन्हें नमस्ते कह दी थी. पुनः टाइपिगं की प्रैक्टिस के लिए मैं ‘शर्मा इंस्टीट्यूट’ जाने लगा था. जिन्दगी पुराने ढर्रे पर लौट आयी थी.....दिन भर शहर की धूल फांकता - घूमता और शाम हताश घर वापस.

1972 शुरू हो गया था. एक दिन इकराम समाचार लाए कि फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया में लेबर की बहुत-सी वेकेंसी आने वाली हैं.

‘‘अपुन एक दिन झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज में रजिस्ट्रशन करवा लेते हैं.’’ वह बोले.

‘‘लेकिन हम इण्टरमीडियेट हैं. हम गोटैहा में पहले ही रजिस्टर्ड हैं....सर्टीफिकेट के पीछे वहां की मोहर लगी हुई है. ’’

‘‘यार हमें हाई स्कूल, इण्टर की सार्टीफिकेट दिखानी ही नहीं....लेबर को आठवीं पास होना चाहिए.... वह प्रमाणपत्र है न....?’’

‘‘हां....’’

‘‘फिर कल ही चलते हैं.’’

हम दोनों ने गंदे पायजामे पर गंदी कमीजें पहनीं जिससे लेबर जैसा दिखें. झखरकटी एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज घर से पांच-छः किलोमीटर की दूरी पर जी.टी. रोड पर था. क्लर्क ने हमें पहनावे से नहीं, बातचीत से भांप लिया कि हम आठवी नहीं...अधिक पढ़े लिखे हैं. उसने यह बात छुपायी भी नहीं. और हम पर एहसान जताते हुए उसने हमारा रजिस्ट्रेशन कर लिया था.

लेकिन हमें वहां से कोई कॉल नहीं मिली. इकराम हर दिन फूड कार्पोरेशन की खबर लाते और हम हर दिन झखरकटी से लेबर की कॉल का इंतजार करते....समय बीत गया. अब हम पर पूरी तरह अध्यापक के रूप में बी.ए. करने का भूत सवार हो गया था. अध्यापन के प्रमाणपत्र अथवा किसी विद्यालय से अग्रसारण का जिम्मा इकराम ने संभाल रखा था. वह दिनभर केवल दो बातों के लिए धक्के खा रहे थे ....कहीं नियमित अध्यापकी और फार्म के अग्रसारण के लिए. वह सूचना लाते अमुक प्रधानाचार्य या प्रबन्धक ने तीन सौ रुपये लेकर अग्रसारित करने का वायदा किया है, ‘‘लेकिन यार मेरे पास कुल एक सौ पचास रुपये ही हैं.’’ कुछ चुप रहकर वह कहते, ‘‘मैं कोशिश कर रहा हूं कि इतने में ही काम हो जाए....’’

मैं उन्हें सुनता और सोचता ‘मेरे ऑपरेशन में भाई साहब को खासी रकम खर्च करनी पड़ी है .....कैसे उनसे रुपये मांगूगा. लेकिन मैंने अपना उत्साह भंग नहीं होने दिया. ‘रुपयों के बारे में तब सोचूंगा जब किसी स्कूल में अग्रसरारण की बात पक्का हो जाएगी.’’

लेकिन इकराम को अपने प्रयास में सफलता नहीं मिल रही थी. एक दिन शाम हम दोनों खान की क्लीनिक के बाहर खड़े उसी विषय पर गंभीरतापूर्वक चर्चा कर रहे थे कि कहीं से मेरे भाई साहब आ गये.

‘‘क्या गुफ्तगू हो रहीं है? ’’

‘‘ठाकुर साहब, हमारी एक ही समस्या है...बी.ए. का फार्म भरने की.’’

भाई साहब गंभीर हो गये. फिर मुझे सुनाते हुए बोले, ‘‘जितनी ऊर्जा इसके लिए नष्ट कर रहे हो ....उतनी यदि नौकरी पाने के लिए करते तो शायद नौकरी मिल जाती तब करते बी.ए.....एम.ए....’’

उनकी बात से मेरा ही नहीं इकराम का चेहरा भी राख हो गया था. भाई साहब चले गये और हम देर तक वहां खड़े रहे थे लेकिन शायद ही हमने कोई बात की थी. उस दिन के बाद उस समय मैंने बी.ए. करने का स्वप्न त्याग दिया था और शायद इकराम ने भी. मैंने गंभीरता से अपनी टाइपिगं स्पीड बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर लिया और इकराम ने अध्यापकी हासिल करने में.

♦♦ • ♦♦

एक दिन इकराम सूचना लेकर आये कि किसी ने उनसे वायदा किया है कि वह उन्हें हमीरपुर के एक इण्टर कॉलेज के प्राइमरी सेक्शन में उर्दू टीचर की नौकरी दिलवा सकता है बशर्तें उन्होंने आठवीं जमात तक उर्दू पढ़ी हो.

‘‘तुम्हें उर्दू आती है?’’

“थोड़ी...लेकिन जाकर अम्मी से पन्द्रह दिनों में और अधिक सीख लूंगा.’’ वह फिर गंभीर हो गये. कुछ देर बाद वह बोले, ‘‘लेकिन...’’

‘‘लेकिन क्या ?’’

उन्होंने अपनी समस्या बतायी. कई दिनों तक हम उसके समाधान के विषय में सोचते रहे थे और हमने समाधान खोज ही लिया था. किदवई नगर का शर्मा टाइपिंग इंस्टीट्यूट काम आया था.

अंततः इकराम को हमीरपुर के उस इण्टर कॉलेज के प्राइमरी सेक्शन में जब जुलाई में उर्दू अध्यापक की नौकरी मिली तब मुझे लगा था कि वह इकराम की ही नहीं मेरी भी सफलता थी.

उनके कदमों को जमीन मिल गयी थी और उसके नौ महीने बाद मुझे भी. जब 1973 में कानपुर विश्वविद्यालय ने सभी के लिए प्राइवेट छात्र के रूप में बी.ए. करने की घोषणा की तब मैंने भी बी.ए. किया और इकराम ने भी. उसके बाद उन्होंने प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिगं की स्कूल से अवकाश लेकर. मैंने जब एम.ए. कर लिया तब उन्होंने मुझे लिखा कि वह मेरी पुस्तकों और मेरे नोट्स से हिन्दी में एम.ए. करना चाहते हैं.

उन्होंने वह भी किया और फिर बी.एड. भी. लेकिन 1978 के बाद हम एक-दूसरे से नहीं मिल सके. उनके बारे में कुछ वर्षों बाद यह सूचना अवश्य मिली थी कि वह इण्टर कॉलेज में हिन्दी लेक्चरर हो गये थे.