गर्भ जात / शम्भु पी सिंह
पटना कॉलेज का पहला दिन। संध्या ने नाम ही सुना था, कभी देखने का अवसर नहीं मिला। बिना किसी को बताए आवेदन भेज दिया था। सेलेक्शन की सूचना मिली, तब भाई और पिताजी को पता चला। हालांकि वे बड़बीघा के इंटर कॉलेज में एडमिशन कराना चाहते थे। संध्या के भाई सुरेश ने तो प्रिंसिपल से बात भी कर लिया था, लेकिन संध्या इस छोटे शहर के कॉलेज में नहीं पढ़ना चाहती थी। इसके दो कारण थे, एक तो गावं के लड़कों से सुना था कि अच्छे टीचर नहीं हैं, ठीक से पढ़ाई भी नहीं होती। दूसरा जो महत्त्वपूर्ण कारण था, टेलीविजन के प्रति आकर्षण। खासकर समाचार प्रस्तुति और रिपोर्टिंग। खाली वक़्त में अक्सर वह टेलीविजन देखती। समाचार प्रस्तुति के आज के दौर से वह काफी प्रभावित होती। रिपोर्टर और एंकर का आकर्षण उसके सर चढ़कर बोल रहा था। उसे किसी ने बताया भी था कि टेलीविजन चैनल में जाना, पत्रकारिता की पढ़ाई के बिना संभव नहीं था। तभी उसने सोच लिया था कि किसी बड़े शहर के कॉलेज में पढ़ेगी। यह तभी संभव होगा, जब मैट्रिक का उसका रिज़ल्ट ठीक होगा। बिहार से बाहर जाने का तो सवाल ही नहीं। बहुत अधिक आरजू मिन्नत करेगी तो उसका भाई उसे पटना के किसी कॉलेज में एडमिशन करवाने की इजाजत दे सकता है। पिता जी तो एक किसान है, उन्हें पढ़ाई-लिखाई के बारे बहुत अधिक नहीं पता, लेकिन इतना जरूर है कि लड़की जात वहीं पढ़ाई करे जहाँ सुबह जाय और शाम में घर वापस आ जाय। पढ़ाई की पढ़ाई और घर के काम में मां, भाभी की भी मदद। मैट्रिक का इम्तहान खत्म होते ही ऐसी चर्चा शुरू हो गयी थी। सबकी बात चुपचाप सुनती रहती संध्या। क्या पता रिज़ल्ट कैसा होगा। एडमिशन की बात तो रिजल्ट आने के बाद ही पक्की होनी है, अभी बात का वितंडा खड़ा करने से क्या फायदा। परीक्षा अच्छी गयी थी, तो उसे उम्मीद थी कि रिजल्ट भी अच्छा ही होगा। अगर पहली श्रेणी में अच्छे नम्बर से पास हुई तो कुछ भी करना पड़े, एडमिशन तो पटना कॉलेज में ही लेगी।
ऊपर वाले ने सुन ली। अपने स्कूल में वह सबसे अव्वल रही। नब्बे प्रतिशत से पास हुई। उसके स्कूल का कोई भी पचासी प्रतिशत से ऊपर नहीं जा पाया। संध्या को यह तो उम्मीद थी कि पहली श्रेणी से पास करेगी, लेकिन इतना अच्छा रिज़ल्ट होगा, सोचा नहीं था। स्कूल, घर, रिश्तेदारों, सखी-सहेलियों से कितनी वाहवाही मिली। स्कूल के प्राचार्य ने तो संध्या के लिए सम्मान समारोह भी आयोजित कराया। स्थानीय विधायक के हाथों सम्मानित की गई। इसी समारोह ने मुश्किल काम आसान कर दिया। पिता और बड़े भाई दोनों गए थे। स्कूल के प्राचार्य ने संध्या के सम्मान में तारीफ का ऐसा पुल बाँधा कि घर वाले गदगद हो गए। विधायक जी ने भी संध्या को आगे की पढ़ाई में हर संभव मदद का भरोसा दिया। इसी सब कारणों से पिता के न चाहते हुए भी भाभी की पैरवी से बड़े भाई ने पिता से पटना जाने की हामी भरवा दी। आज वह दिन आ गया। कहाँ बड़बीघा के राजपुरा का एक छोटा-सा मध्य विद्यालय से उत्क्रमित उच्च विद्यालय और कहाँ बिहार का सर्वश्रेष्ठ पटना कॉलेज। दोनों में कोई तुलना ही नहीं। सुरेश ने आकर एडमिशन तो करा दिया। समस्या थी रहने की। हॉस्टल को लेकर पटना कॉलेज की काफी बदनामी सुन चुका था सुरेश। आये दिन कुछ न कुछ हॉस्टल के बारे में उल्टा-सीधा पढ़ने को मिल जाता। हालांकि गर्ल्स हॉस्टल के बारे में कभी कोई निगेटिव बातें नहीं सुनी, लेकिन तब भी सुरेश किसी अच्छे प्राइवेट हॉस्टल में ही संध्या को रखना चाहता था। बहुत दूर रहने से आने-जाने की समस्या का सामना करना पड़ता, इसलिए मखनियाँ कुआं में ही एक अच्छा हॉस्टल मिल गया, जो संध्या को भी पसंद आया।
हॉस्टल से कॉलेज पास होने से काफी सुविधा थी। छह महीने कैसे गुजर गए संध्या को पता ही नहीं चला। अब तो दोस्तों की भी अच्छी-खासी संख्या हो गयी थी। ज्यादातर लड़कियाँ ही थीं, हाँ दो लड़कों से भी दोस्ती हो गयी थी, जो पहले से ही इसकी करीबी सहेली नूरजहाँ का दोस्त रोशन नूर भी था। रोशन नूर मोहम्मद बड़े बाप का बेटा था, महंगे कपड़े, महंगी गाड़ियों का उसे शौक था। नूरजहाँ का संध्या के हॉस्टल में भी आना-जाना था, लेकिन जब भी वह आती तो नूर भी उसके साथ होता। ये अलग बात थी कि लड़कों की हॉस्टल में इंट्री नहीं थी। स्वाभाविक था, जब तक नूरजहाँ संध्या के साथ होती, रोशन नूर को बाहर किसी चाय-पान की दुकान पर ही इंतजार करना पड़ता। दोनों सहेली इतनी करीब आ गयी कि साथ-साथ बाहर भी निकलने लगी। गाड़ी नूर मोहम्मद की होती, ड्राइविंग सीट पर नूर मोहम्मद और बगल वाली सीट पर नूरजहाँ होती। दोनों दूर के रिश्तेदार भी थे। आना-जाना दोनों का साथ-साथ होता। पीछे की सीट पर संध्या होती। सप्ताह में एक दिन घूमना हो ही जाता।
अब तो जब भी कॉलेज बंद होता तीनों लांग ड्राइव पर भी निकलने लग गए, बस संध्या की शर्त इतनी होती कि शाम आठ से पहले हॉस्टल लौट आना है। क्योंकि हॉस्टल में एडमिशन के वक्त ही संचालिका द्वारा यह साफ कर दिया गया था कि हर हालत में आठ बजे शाम से पहले आ जाना है। खाने के समय सभी लड़कियों की गिनती होती। संध्या की शर्तों के साथ तीनों के घूमने-फिरने का क्रम जारी रहा। पहली सेमेस्टर तो ठीक-ठाक निकली। लगभग एकाध पेपर में साठ प्रतिशत से कम था, बांकियों में पचहत्तर प्रतिशत से अधिक आया। दूसरे सेमेस्टर का एग्जाम देते वक्त ही संध्या को लग रहा था कि रिज़ल्ट उसकी उम्मीद के अनुसार नहीं होने वाली। एक तो घूमने-फिरने के चक्कर में पढ़ाई भी थोड़ी कम हुई, दूसरे दिनों-दिन कॉलेज का माहौल भी तनावपूर्ण होने लगा था। छात्र संघ के चुनाव ने आग में घी डालने का ही काम किया।
कॉलेज कैम्पस में भी बमबाजी होने के कारण कई क्लासेस नहीं हो पाई और खराब माहौल के कारण कई क्लासेस संध्या ने भी बंक किया। लेकिन उम्मीद अभी भी बरकरार थी। अभी दो सेमेस्टर की पढ़ाई होनी शेष थी। एग्जाम से असंतुष्ट होते हुए भी अगले दो सेमेस्टर में भरपाई की उम्मीद पाले हुए थी। एग्जाम के खाली वक्त में घूमने-फिरने की रफ्तार थोड़ी बढ़ गयी। एक दिन हॉस्टल के नीचे से एक गाड़ी का हॉर्न बजा। रोशन नूर की गाड़ी के हॉर्न की आवाज को पहचानने में अब समस्या नहीं थी। टाइम टेबल तो पता था ही। तैयार हो संध्या नीचे आ गयी। नूर मोहम्मद तो इंतजार कर ही रहा था। जैसे ही उसने पीछे का दरवाजा खोलना चाहा, रोशन नूर ने अपने बगल की सीट का दरवाजा खोल दिया।
"क्यों नूरजहाँ नहीं जा रही है क्या?" संध्या ने बैठते हुए नूर से सवाल किया।
"हाँ बोली तो है, राजाबाजार के आईजीआईएमएस के पास मिलेगी। उसके कोई रिश्तेदार वहाँ भर्ती हैं। उससे मिलते हुए हमें ज्वाइन करेगी।" कहते हुए नूर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। चालीस मिनट के अंदर गाड़ी आईजीआईएमएस के पास खड़ी थी। नूरजहाँ दिखायी नहीं दी।
"लगाओ फोन, यहीं कहीं होगी।" रोशन ने संध्या से कहा। संध्या ने फोन मिलाया, तो आवाज आई।
"सॉरी डियर आज मैं नहीं जा पाऊंगी, उनकी हालत सीरियस है। अब्बाजान भी आ रहे हैं, तुमलोग मनेर शरीफ हो आओ। मैं वैसे भी पहले भी घूम चुकी हूँ।" नूरजहाँ ने फोन काट दी। काफी हल्ला-गुल्ला भी हो रहा था।
"चलो आज घूमना कैंसिल करते हैं। नूरजहाँ के बिना तो नहीं जा सकते।" सकपकायी निगाह से संध्या ने नूर की ओर देखा।
"अरे यार! इसमें कैंसिल करने की कौन-सी बात है। मनेर है ही कितनी दूर। तीस-पैंतीस किलोमीटर का मसला है। जल्दी ही वापस आ जाएंगे। इतनी दूर हमलोग आ चुके हैं, अब लौटना सही नहीं है।" नूर ने समझाने का प्रयास किया।
"नहीं नूर! समझने का प्रयास करो। हमदोनों का अकेले बाहर घूमने जाना सही नहीं है। लोग क्या कहेंगे?" संध्या को नूर के साथ अकेले जाना ठीक नहीं लग रहा था।
"अरे मनेर बाहर नहीं है, पटना ही है। चाहें तो दो घण्टे में लौट सकते हैं। चलो! अब वक्त बर्बाद मत करो। चलो चलते हैं।" नूर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। संध्या ना-नुकूर करती रह गई, लेकिन नूर ने उसकी एक न सुनी। घण्टे भर में दोनों मनेर शरीफ की मज़ार पर थे। मनेर शरीफ मज़ार की महत्ता और उसके इतिहास की बातें करते शाम के पांच बजे गए।
"देखो नूर शाम के पांच बज चुके हैं। बरसात का मौसम है। कुछ दूर रास्ता भी टूटा-फूटा है। अब हमलोगों को चलना चाहिए।" "हाँ ठीक है। अब यहाँ से चला जाय। रास्ते में मनेर चौराहे पर किसी रेस्त्रां में नाश्ता-पानी करते हुए निकलेंगे।" नूर ने भी हामी भरी और गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। मनेर चौक से पहले नूर ने गाड़ी को किनारे खड़ा किया।
"यहाँ तो कोई खाने-पीने का होटल नहीं है, तो यहाँ क्यों गाड़ी रोकी। ?" संध्या ने इधर-उधर देखते हुए बात रखी।
"ये होटल ही है। खाने का भी है। आओ वाशरूम भी जाना हो, तो जा सकती हो। घण्टे भर से मैं भी परेशान हूँ। आओ।" इस बात पर संध्या ने कोई जबाव नहीं दिया। नूर के पीछे हो ली। होटल के काउंटर पर पहुँचते ही नूर ने संध्या को आगे वाशरूम का इशारा किया। संध्या वाशरूम चली गयी। इस बीच नूर ने दो हजार का नोट काउंटर वाले को दिया और होटल के एक स्टाफ के पीछे नूर चल पड़ा। तबतक संध्या भी सामने से आते दिखाई दी।
"आओ संध्या कुछ नाश्ता करते हैं, भूख भी लग गयी है।" नूर के कहने पर संध्या भी पीछे हो ली। साथ आये स्टाफ ने एक रूम का दरवाजा खोल दिया।
"जल्दी से कुछ नाश्ता लेकर आ जाओ।" बैरा से कहते हुए नूर ने संध्या को बैठने का इशारा किया। संध्या के बैठते ही नूर ने अंदर से दरवाजा बंद किया।
"अरे! दरवाजा क्यों बन्द कर रहे हो? नाश्ता लेकर तुरंत तो आएगा।"
"अरे डियर! चौक दूर है। आने में उसे समय लगेगा। खुला दरवाजा रहने से सामने से आते-जाते लोगों की हमपर नजर पड़ेगी। इतना घबराती क्यों हो संध्या?" नूर की आवाज में कॉन्फिडेंस था।
"अरे नही! घबरा नहीं रही। बस हमीं दोनों हैं न, इसलिए कहा।" "संध्या यहाँ मैं तुम्हें अपनी एक बात कहने लाया हूँ।"
"क्या?" संध्या प्रश्नवाचक निगाह से उसे देखने लगी।
"बहुत दिनों से कहना चाह रहा था। लेकिन मौका भी नहीं मिल रहा था और एक डर भी कि पता नहीं तुम क्या समझो।"
"बोलो तो सही।" संध्या की सांसें तेज हो गयी थी। उसकी आवाज में कम्पन आ गया था।
"आई लव यू संध्या। आई लव यू वेरी मच। आई वांट टू मैरी यू।" एक सांस में रोशन नूर ने कह डाला और एकटक संध्या को देखे जा रहा था।
"यह संभव नहीं है, नूर। तुम जानते हो, हमारा समाज कंजरवेटिव माइंड का है। मैं हिन्दू तुम मुसलमान। नहीं नूर ये नहीं हो सकता। सॉरी! चलो यहाँ से।" संध्या उठ खड़ी हुई। नूर ने हाथ पकड़कर अपने सीने पर खींच लिया। दोनों की सांसें तेज हो गयी। शुरू में संध्या ने काफी न-नुकूर की, लेकिन नूर की बलिष्ठ भुजाओं के आगे उसकी एक न चली और दोनों एकाकार हो गए। कहीं-न-कहीं संध्या का नूर के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर था। इसलिए बहुत अधिक प्रतिरोध नहीं कर पायी। दोनों का बंधन टूट चुका था। दोस्त से आगे की राह दोनों ने पकड़ ली थी। बन्धन ढ़ीली हुई तो संध्या अपने कपड़े को संभालती उठ बैठी। बात की जगह सिसकी ने ले ली।
"संध्या ये एक होटल है, जहाँ हमारे तुम्हारे जैसे कई जोड़े आते हैं। फन का मजा लेने। हमारी जिंदगी का ये खुशनुमा पल था, इसे एन्जॉय करो संध्या। यहाँ रोओगी तो लोग समझेंगे मैंने रेप किया है। बदनामी मेरी भी होगी और तुम्हारी भी। मैं तुमसे प्यार करता हूँ। तुम्हारे साथ निकाह करने को तैयार हूँ, अगर तुम मुझे इस लायक समझो। मेरे पास वह सब कुछ है, जो एक लड़की को घर बसाने के लिए चाहिए। मेरे बारे में तुम बहुत कुछ जान चुकी हो। मैं एक शरीफ घर से बिलोंग करता हूँ। मेरे अब्बाजान एमपी में कलक्टर हैं। अगर इससे बढ़िया परिवार में तुम्हारे माता-पिता शादी कर सकते हैं तो तुम फ्री हो। आज की गलती की जो भी सजा तुम देना चाहो, मंजूर है मुझे। आंखें पोछो। नाश्ता लेकर आ गया होगा, मैं लेकर आता हूँ।" कहते हुए झटके से नूर कमरे से बाहर हो गया। संध्या के आगे खाई, पीछे पहाड़ दिख रहा था। अब चयन तो इसी दो में होना था। वह इस घटना को रेप भी नहीं कह सकती। अगर रेप होता तो प्रतिरोध होता। जो संध्या ने नहीं किया। बात आगे जायगी तो बहुत सारी बातें होंगी। नूर के नाश्ता लेकर आने से पहले संध्या ने अपने-आपको संभाल लिया था। नूर ने एक प्लेट समोसे की चाट लाया था। संध्या ठीक से खा तो नहीं पायी, लेकिन नूर से कोई बात भी नहीं की। नाश्ते के बाद दोनों उठ खड़े हुए। गाड़ी ने फिर रफ्तार पकड़ ली, सात बजने से पहले संध्या के हॉस्टल के सामने गाड़ी रुकी। संध्या उतरते वक्त एक नजर नूर पर डाली। नूर के चेहरे पर मुस्कान थी।
"संध्या मुझपर भरोसा करना। मैं तुम्हें धोखा नहीं देने वाला। अब तुम्हारी मर्जी। मुझे तेरे जबाव का इंतजार रहेगा। मेरा परिवार कंजरवेटिव नहीं है। हम जाट-पांत, हिन्दू-मुसलमान में विश्वास नहीं करते। उम्मीद है मेरी बात पर तुम भरोसा करोगी।" नूर मोहम्मद बकता रहा। संध्या चुपचाप सुनती रही। नूर ने गाड़ी आगे बढ़ाई एक सरपट सड़क पर और संध्या ने कदम बढ़ाया एक अनदेखा अनजान राह पर, लेकिन सामने दिख रहा हॉस्टल था। उस घटना के बाद संध्या का मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता।
नूर मोहम्मद का संध्या से मिलना जारी रहा। अब नूरजहाँ की जरूरत दोनों को नहीं रह गयी थी। दोनों अब लॉन्ग ड्राइव पर जाने लगे। कमरों, होटलों की तलाश होने लगी। साथ-साथ सपने दिखने की आदत बन चुकी थी। इस तरह तीसरा सेमेस्टर भी निकल गया। संध्या को नूर मोहम्मद का साथ एक ख्वाब की तरह था। संध्या की हर इच्छा-अनिच्छा का आदर नूर मोहम्मद की प्राथमिकताओं में शामिल होता। लेकिन अब संध्या थोड़ा परेशान रहने लगी। वह गर्भवती हो चुकी थी। नूर से बात की तो नूर ने किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाने का भरोसा दिलाया। शहर के अधिकांश डॉक्टर नूर और उसके अब्बाजान को जानते थे, इसलिए किसी अंचल के डॉक्टर से दिखाने के लिए ले जाने की बात तय हुई। एक रात संध्या को काफी ब्लडिंग होने लगी। संध्या के रूम पार्टनर ने सुबह नूर को फोन किया। संध्या के प्रेम प्रसंग से वह वाकिफ थी। सुबह सात बजे नूर गाड़ी लेकर आया भी और अपनी रूम पार्टनर के सहारे संध्या गाड़ी तक आयी। रोशन नूर मोहम्मद ने नूरजहाँ को भी अपने साथ ले लिया था कि पता नहीं क्या समस्या आये एक महिला तो साथ चाहिए ही थी। गाड़ी पटना से चालीस किलोमीटर दूर मसौढ़ी की तरफ बढ़ चली थी। वहाँ के रेफरल हॉस्पिटल में उसके चचेरे मामा रहमत अली डॉक्टर थे। मामा से उसने सारी बात फोन पर बता भी दी थी। रास्ता खराब होने की वजह से हॉस्पिटल आते-आते नौ बज गया। जांच-पड़ताल शुरू हुई। अधिक ब्लड निकल जाने से संध्या थोड़ी कमजोर पड़ गयी थी। डॉक्टर रहमत ने पुर्जा पर कुछ दवाएँ लिखकर बाहर से लाने को दिया।
"नूर तुम जितनी जल्दी हो ये दवा बाहर से लेकर आओ। तब-तक हमलोग सलाईन चढ़ाते हैं। काफी ब्लडिंग हो चुकी है। शायद खून चढ़ाने की भी जरूरत पड़े।" नूर ने गाड़ी स्टार्ट की और निकल गया दवाखाने की ओर। नर्स और कम्पाउंडर संध्या को सलाईन चढ़ाने की व्यवस्था में लग गये। हेल्प के लिए नूरजहाँ साथ लगी रही।
"कितने महीने का गर्भ है?" नर्स ने नूरजहाँ से सवाल किया।
"जी ये तो मुझे नहीं पता।" नूरजहाँ ने अनभिज्ञता प्रकट की। " आप कौन हैं इसकी। इसका हसबेंड वही है। जो अभी दवा लाने गया है।
"जी!" नूरजहाँ ने संक्षेप में उत्तर दिया।
"उसका नाम तो नूर है और इसका नाम आपने संध्या लिखाया है? दोनों की शादी हो गयी है?" इस बार कम्पाउंडर ने सवाल दागा।
"जी अभी नहीं हुई है।" नूरजहाँ ने सच्चाई बयाँ कर दी।
"अच्छा तो ये लव जेहाद का मामला लगता है।" नर्स और कम्पाउंडर में कानाफूसी शुरू हो गयी। नूरजहाँ को मामला समझते देर नहीं लगी, लेकिन जबतक नूर मोहम्मद आ नहीं जाय, तबतक सबकुछ सुनने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। कम्पाउंडर के बाहर निकलते ही कानाफूसी ने रफ्तार पकड़ ली। दस बजने को था, हॉस्पिटल में मरीजों का आना प्रारम्भ हो गया। जितनी मुंह, उतनी बातें शुरू हो गयी। कोई कहता ये कुंवारी हिन्दू कन्या को प्यार के जाल में फंसाया गया है। बिन ब्याही लड़की गर्भ से है। उसके गर्भ की जाति, धर्म का पता नहीं। "
"अरे बुड़बक तुमको नहीं मालूम, लड़का ने अपना नाम रोशन बताया है। है हिन्दू ही। जात का नहीं होगा। यह हो सकता है।" पुर्जा कटाने के लिए लाइन में खड़े एक बुजुर्ग ने अपनी बात रखी।
"चाचा! आपको नहीं मालूम है, जो लड़का भर्ती कराया है न, वह मुस्लिम है। बात गर्भ की जाति का नहीं, गर्भ के धर्म का भी है।" इधर लाइन में खड़े लोगों की बातें सुन बाहर खड़ी नूरजहाँ की परेशानी बढ़ती जा रही थी। कानाफूसी के बीच एक कैमरामैन भी दिख गया। शायद वह किसी स्थानीय चैनल से आया था। उसके साथ कुछ और लोग भी थे, जिनके कंधे पर गेरुआ रंग का एक गमछानुमा वस्त्र भी था। आते ही सभी के सभी सीधे डॉक्टर के कमरे में प्रवेश कर गए।
"डॉक्टर साहब! अभी आप जिस लड़की का इलाज कर रहे हैं, उसकी समस्या क्या है?" कैमरामैन के साथ खड़े एक व्यक्ति ने सवाल किया। शायद वह रिपोर्टर था।
"आप जानकर क्या करेंगे? ये काम डॉक्टर को करने दीजिए। अभी उसकी जान खतरे में है। पहले हमें इलाज तो करने दीजिए। बाद में आपके सवाल का भी जबाव दूंगा।" बिना सर उठाये डॉक्टर रहमत अली एक मरीज का पुर्जा लिखने में व्यस्त रहे। "डॉक्टर साहब इलाज भी कीजिये और हमें भी बताइये कि कहीं ये लव जेहाद का मसला तो नहीं है न। लड़की हिंदू है और हमें जानकारी हुई है कि लड़का मुस्लिम है और अपनी पहचान छुपाने के लिए नाम रोशन बता रहा है।" गेरुआ वस्त्रधारी डॉक्टर से मुखातिब था।
"भाई! ये सब बेकार की बातें हैं। आप हमें हमारा काम करने दीजिए। हम धर्म और जाति देखकर इलाज नहीं करते।"
"डॉक्टर जी! आप एक डॉक्टर हैं। हम आपका सम्मान करते हैं, लेकिन अगर लव जेहाद कर भोली-भाली हिंदू लड़कियों को फंसाकर उसे प्रिग्नेंट किया जायेगा और ये हॉस्पिटल अबॉर्शन का पनाहगाह बनेगा, तो हम नहीं बनने देंगे। हमारा काम था आपको समझाना, हमने समझा दिया। बाकी आप जानें और आपका काम। हिन्दू लड़कियों को पथभ्रष्ट करने वालों को हम नहीं बख्सेंगे।" गेरुआधारी की बातों में एक धमकी थी। डॉक्टर रहमत कुछ बोले तो नहीं, सिर्फ एकटक उस महाशय को देखते रहे। मामला तनावपूर्ण हो चुका था। पुर्जा कटाने के लिए लाइन में खड़े लोग डॉक्टर के चैम्बर में जमा थे। भीड़ से एक आवाज आयी-
"हमें केवल लड़की के गर्भ की जात और धर्म बता दीजिए। बांकी काम हम खुद ही कर लेंगे।"
"चल न यार! लड़की से ही पूछ लेते हैं, कौन जात के गर्भ है ओकरा पेट में।" भीड़ से ही दूसरे ने कमेंट किया।
घबराई नूरजहाँ बाहर दीवाल के किनारे खड़ी नूर मोहम्मद का इंतजार कर रही थी। संध्या के पास एक भी व्यक्ति नहीं था। इस बीच नूर मोहम्मद की गाड़ी आते दिखी। नूरजहाँ दौड़कर आगे बढ़ी, गाड़ी का दरवाजा खोल आगे के सीट पर बैठ गयी। नूर मोहम्मद की कानों में कुछ कहा। नूर मोहम्मद ने तेजी से विपरीत दिशा में गाड़ी घुमाई और स्पीड तेज कर दी। पीछे से कोई चिल्लाया-
"देखो गाड़ी का नम्बर 786 है। यही है वो। भाग रहा है। पकड़ो साले लव जेहादी को, ऊपर पहुँचा देते हैं।" कैमरामैन के साथ भीड़ गाड़ी के पीछे दौड़ पड़ी। इधर पीछे से नर्स की आवाज आई-"डॉक्टर साहब! पेसेंट की नाड़ी नहीं चल रही।" डॉक्टर दौड़कर संध्या के बेड की ओर भागे। डॉक्टर की फुसफुसाहट बाहर आई। -
"सी इज नो मोर।" नूर मोहम्मद और नूरजहाँ मॉब लिंचिंग से बच गए और संध्या गर्भ की जात बताने से। जिस पढ़ाई को संध्या अपना पेशा बनाना चाहती थी, आज खुद ही उसका शिकार हो गयी।