गर्मियों की एक रात / सज्जाद ज़हीर
मुंशी बरकत अली इशा की नमाज पढ़ कर चहल कदमी करते हुए अमीनाबाद पार्क तक चले आए। गर्मियों की रात, हवा बंद थी। शर्बत की छोटी-छोटी दुकानों के पास लोग खड़े बातें कर रहे थे। लौंडे चीख-चीख कर अखबार बेच रहे थे। बेले के हार वाले हर भले मानुष के पीछे हार ले कर पलकते। चौराहे पर ताँगा और इक्का वालों की लगातार पुकार जारी थी।
'चौक। एक सवारी। चौक, मियाँ चौक पहुँचा दूँ?'
'ऐ हुजूर, कोई ताँगा-वाँगा चाहिए?'
'हार बेले के, गजरे मोती के।'
'क्या मलाई की बरफ है!'
मुंशी जी ने एक हार खरीदा, शरबत पिया और पान खा कर पार्क के अंदर दाखिल हुए। बेंचों पर बिल्कुल जगह न थी। लोग नीचे घास पर लेटे हुए थे। चंद बेसुरे गाने के शौकीन इधर-उधर शोर मचा रहे थे। कुछ लोग चुप बैठे, धोतियाँ खिसका कर बड़े इत्मीनान से अपनी टाँगे और रानें खुजाने में व्यस्त थे। इस बीच में मच्छरों पर भी झपट-झपट कर हमले करते जाते। मुंशी जी क्योंकि पायजामा पहनते थे, इसलिए उन्हें इस बदतमीजी पर बहुत गुस्सा आया। अपने जी में उन्होंने कहा, इन कंबख्तों को कभी तमीज नहीं आएगी। इतने में एक बेंच पर से किसी ने उन्हें पुकारा, 'मुंशी बरकत अली!'
मुंशी जी मुड़े।
'आख्खा लाला जी, आप हैं। कहिए मिजाज तो अच्छे हैं?' मुंशी जी जिस दफ्तर में नौकर थे, लाला जी उसके हेड क्लर्क थे। मुंशी जी उनके मातहत थे। लाला जी ने जूते उतार दिए थे और बेंच के बीचों-बीच पैर उठा कर अपना भारी-भरकम जिस्म लिए बैठे थे। वह अपनी तोंद पर नर्मी से हाथ फेरते जाते और बातें कर रहे थे। मुंशी जी लाला साहब के सामने आ कर खड़े हो गए।
लाला जी हँस कर बोले, 'कहो मुंशी बरकत अली, ये हार-वार खरीदे हैं, क्या इरादे हैं...' और यह कह कर जोर से कहकहा लगा कर अपने दोनों साथियों की तरफ दाद तलब करने को देखा। उन्होंने लाला जी की मंशा देखकर हँसना शुरू कर दिया।
मुंशी जी भी रूखी फीकी हँसी हँसे, 'जी इरादे क्या हैं, हम तो आप जानिए गरीब आदमी ठहरे। गर्मी के मारे दम नहीं लिया जाता। रातों की नींद हराम हो गई। यह हार ले लिया शायद दो घड़ी आँख लग जाए।'
लाला जी ने अपने गंजे सिर पर हाथ फेरा और हँसे, 'शौकीन आदमी हो मुंशी, क्यों न हो' और यह कह कर फिर अपने साथियों से बातें करने में व्यस्त हो गए। मुंशी जी ने मौका गनीमत जान कर कहा, 'अच्छा लाला जी चलते हैं, आदाब अर्ज है।' और यह कह कर आगे बढ़े। दिल ही दिल में कहते थे, दिन-भर की घिस-घिस के बाद यह लाला कंबख्त सर पड़ा। पूछता है, 'इरादे क्या हैं?' हम कोई रईस ताल्लुकेदार हैं कहीं के कि रात को बैठ कर मुजरा सुनें और कोठों की सैर करें। जेब में कभी चवन्नी से ज्यादा हो भी सही। बीवी-बच्चे, साठ रुपया महीना, ऊपर की आमदनी का कुछ ठीक नहीं, आज न जाने क्या था जो एक रुपया मिल गया। ये देहाती काम करने वाले, कंबख्त रोज-ब-रोज चालाक होते जाते हैं। घंटों की झक-झक के बाद जेब से टका निकालते हैं और फिर समझते हैं कि गुलाम खरीद लिया है। सीधी बात नहीं करते। कमीने-नीच दर्जे के लोग, इनका सिर फिर गया है। आफत हम बेचारे शरीफ लोगों की है। एक तरफ तो नीचे दर्जे के लोगों के मिजाज नहीं मिलते, दूसरी तरफ बड़े साहब और सरकार की सख्ती बढ़ती जाती है। अभी दो महीने का जिक्र है, बनारस के जिले में दो मोहर्रिर बेचारे रिश्वतखोरी के जुर्म में बरखास्त कर दिए गए। हमेशा यही होता है। गरीब बेचारा पिसता है। बड़े अफसर का बहुत हुआ तो एक जगह से दूसरी जगह भेज दिए गए।
'मुंशी जी साहब!' किसी ने बाजू से पुकारा। जुम्मन चपरासी की आवाज।
'मुंशी जी ने कहा, 'अक्खां, तुम हो जुम्मन' मगर मुंशी जी चलते रहे, रुके नहीं। पार्के से मुड़ कर नजीराबाद पहुँच गए। जुम्मन साथ-साथ हो लिया। दुतले-पतले, दबा हुआ कद, मखमल की किश्तीनुमा टोपी पहने, हार हाथ में लिए आगे-आगे मुंशी जी और उनसे कदम दो कदम पीछे साफा बाँधे, अंगरखा पहने, लंबा-चौड़ा चपरासी जुम्मन।
मुंशी जी ने सोचना शुरू किया कि आखिर इस वक्त जुम्मन का मेरे साथ-साथ चलने का क्या मतलब है?
'कहो भई जुम्मन, क्या हाल है? अभी पार्क में हेडक्लर्क साहब से मुलाकात हुई थी। वह भी गर्मी की शिकायत करते थे।'
'अजी मुंशी जी, क्या अर्ज करूँ, एक गर्मी सिर्फ क्या थोड़ी है, जो मारे डालती है। साढ़े चार पाँच बजे दफतर से छुट्टी मिली, उसके बाद सीधे वहाँ से बड़े साहब के यहाँ घर पर हाजिरी देनी पड़ी। अब जा कर वहाँ से छुटकारा हुआ तो घर जा रहा हूँ। आप जानिए कि दस बजे सुबह से आठ बजे तक दौड़-धूप रहती है। कचहरी के बाद तीन बार दौड़-दौड़ कर बाजार जाना पड़ा। बर्फ, तरकारी, फल सब खरीद कर लाओ, ऊपर से डाँट अलग से पड़ती है, आज दामों में टका ज्यादा क्यों है? ये फल सड़े क्यों हैं? आज जो आम खरीद कर ले गया था, वो बेगम को पसंद नहीं आए। वापसी का हुक्म हुआ। मैंने कहा, हुजूर, अब रात को भला ये वापस क्या होंगे। तो जवाब मिला, हम कुछ नहीं जानते, कूड़ा थोड़ी खरीदना है। सो हुजूर ये रुपए के आम गले पड़े। आम वाले के यहाँ गया तो एक तो तू-तू मैं-मैं करनी पड़ी, रुपए के आम बारह आने के वापस हुए, चवन्नी की चोट पड़ी। महीना का खत्म और घर में हुजूर कसम ले लीजिए जो सूखी रोटी भी खाने को हो, कुछ समझ में नहीं आता क्या करूँ और कौन-सा मुँह लेकर जोरू के सामने जाऊँ।'
मुंशी जी घबड़ाये, आखिर जुम्मन का मंशा इस सारी दास्तान को बयान करने का क्या था। कौन नहीं जानता कि गरीब तकलीफ उठाते हैं। और भूखे मरते हैं। मगर मुंशी जी का इसमें क्या कुसूर। उनकी जिंदगी खुद कौन बहुत आराम से कटती है। मुंशी जी का हाथ बेइरादे अपनी जेब की तरफ गया। वह रुपया जो आज उन्हें ऊपर से मिला था सही-सलामत जेब में मौजूद था।
'ठीक कहते हो मियाँ जुम्मन, आजकल के जमाने में गरीबों की मरन है। जिसे देखो, यही रोना रोता है। कुछ घर में खाने को नहीं। सच पूछो तो सारे आसार बताते हैं कि कयामत करीब है। दुनिया भर के जालिए तो चैन से मजे उड़ाते हैं और जो बेचारे अल्लाह के नेक बंदे हैा उन्हें हर किस्म की मुसीबत और तकलीफ बर्दाश्त करनी होती है।
जुम्मन चुपचाप मुंशी जी की बातें सुनता, उनके पीछे-पीछे चलता रहा। मुंशी जी ये सब कहते तो जाते थे मगर उनकी घबड़ाहट भी बढ़ती जाती थी। मालूम नहीं उनकी बातों का जुम्मन पर क्या असर हो रहा था।
'कल जुमा की नमाज के बाद मौलाना साहब ने कयामत के आसार पर तकरीर फरमाई थी। मियाँ जुम्मन सच कहता हूँ, जिस-जिस ने सुना उसकी आँखों में आँसू जारी थे। भाई, दरअसल यह सब हम सभी की काली करतूतों का नतीजा है। खुदा की तरफ से जो कुछ अजाब (तकलीफें) हम पर नाजिल हों वह कम हैं। कौन-सी बुराई है, जो हम में नहीं। इससे कम कुसूर पर अल्लाह ने बनी इसराइल (अरब का एक कबीला यहूदी) पर जो मुसीबतें नाजिल कीं, उनका ख्याल करके बदन के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। मगर वह तो तुम जानते ही होगे।'
जुम्मन बोला, 'हम गरीब आदमी मुंशी जी, भला ये सब इल्म की बातें क्या जानें। कयामत के बारे में तो मैंने सुना है, मगर हुजूर यह बनी इसराइल बेचारे कौन थे?'
यह सवाल सुनकर मुंशी जी को जरा सुकून हुआ। खैर, गरीबी और फाँके से गुजर कर बातचीत का सिलसिला अब कयामत व बनी इसराइल तक पहुँच गया था। मुंशी जी खुद बहुत ज्यादा इस बारे में न जानते थे, मगर इन विषयों पर घंटों बातें कर सकते थे।
'ए, वाह मियाँ जुम्मन वाह! तुम अपने को मुसलमान कहते हो और यही नहीं जानते कि बनी इसराइल किस चिड़िया का नाम है! मियाँ सारा कलाम पाक तो बनी इसराइल के जिक्र से भरा पड़ा है। हजरत मूसा कलीम उल्लाह का नाम भी तुमने सुना है?'
'जी क्या फरमाया आपने?' कलीम उल्लाह?'
'अरे भई हजरत मूसा... मू...सा।'
'मूसा वही तो नहीं जिन पर बिजली गिरी थी?'
मुंशी जी जोर से ठट्ठा मार कर हँसे। अब उन्हें बिल्कुल इत्मीनान हो गया। चलते-चलते वह कैसरबाग के चौराहे तक आ पहुँचे थे। यहाँ पर तो जरूर ही इस भूखे चपरासी का साथ छूटेगा। रात को इत्मीनान से जब कोई खाना खा कर, नमाज पढ़ कर दम भर को दिल बहलाने के लिए चहल कदमी को निकले तो एक गरीब भूखे इंसान का साथ-साथ हो जाना, जिससे पहले से परिचय भी हो, कोई खुशगवार बात नहीं। मगर मुंशी जी आखिर करते क्या! जुम्मन को कुत्ते की तरह दुत्कार तो सकते न थे क्योंकि एक तो कचहरी में रोज का सामना दूसरे वह नीचे दर्जे का आदमी ठहरा, क्या ठीक कोई बदतमीजी कर बैठे तो सरे बाजार बिना वजह अपनी बनी-बनाई इज्जत में बट्टा लगे। बेहतर यही था कि इस चौराहे पर पहुँच कर दूसरी राह ली जाय और यों इससे छुटकारा हो।
'खैर, बनी इसराइल और मूसा का जिक्र मैं फिर कभी तुमसे तफसील से करूँगा। इस वक्त तो जरा मुझे इधर काम से जाना है सलाम मियाँ जुम्मन।' यह कह कर मुंशी जी कैसरबाग सिनेमा की तरफ मुड़े। मुंशी जी को यों तेज कदम जाते देख कर पहले तो जुम्मन एक क्षण के लिए अपनी जगह पर खड़ा का खड़ा रह गया, उसकी समझ में नहीं आता था कि वह करे तो क्या करे। उसकी पेशानी पर पसीने के कतरे चमक रहे थे। उसकी आँखें बिना किसी मकसद के इधर-उधर मुड़तीं। बिजली की तेज रौशनी, फव्वारा, सिनेमा के पोस्टर, होटल, दुकानें, मोटर, ताँगे, इक्के और सबके ऊपर तारीक आसमान और झिलमिलाते हुए सितारे। गरज खुदा की सारी बस्ती।
दूसरे ही क्षण जुम्मन मुंशी जी की तरफ लपका। उस वक्त वह सिनेमा के पोस्टर देख रहे थे और बहुत खुश थे कि जुम्मन से जान छूटी।
जुम्मन ने उनके करीब पहुँच कर कहा, 'मुंशी जी!'
मुंशी जी का कलेजा धक से हो गया। सारी मजहबी गुफ्तगू, सारी कयामत की बातें, सब बेकार गई। मुंशी जी ने जुम्मन को कोई जवाब नहीं दिया।
जुम्मन ने कहा, 'मुंशी जी, अगर आप इस वक्त मुझे एक रुपया कर्ज दे सकते तो मैं हमेशा...'
मुंशी जी मुड़े, 'मियाँ जुम्मन, मैं जानता हूँ कि तुम इस वक्त तंगी में हो, मगर तुम तो खुद जानते हो मेरा अपना क्या हाल है। रुपया तो रुपया एक पैसा तक मैं तुम्हें नहीं दे सकता। अगर मेरे पास होता तो भला तुमसे छिपाना थोड़े था। तुम्हारे कहने की भी जरूरत न होती। पहले ही जो कुछ होता तुम्हें दे देता।'
बावजूद इसके जुम्मन ने विनती शुरू की, 'मुंशी जी, कसम ले लीजिए, जरूर आपको तनख्वाह मिलते ही वापस कर दूँगा। सच कहता हूँ, हुजूर इस वक्त कोई मेरी मदद करने वाला नहीं...'
मुंशी जी इस झिक-झिक से बहुत घबड़ाते थे। इंकार चाहे सच्चा ही क्यों न हो, बहुत कष्टदायक होता है। इसी वजह से वह शुरू से चाहते थे कि यहाँ तक नौबत ही न आए।
इतने में सिनेमा खत्म हुआ और तमाशाई अंदर से निकले।
'अरे मियाँ बरकत, भई तुम कहाँ?' किसी ने पास से पुकारा। मुंशी जी जुम्मन की तरफ से उधर मुड़े। एक साहब मोटे-ताजे तीस पैंतीस बरस के, अंगरखा औ दो-पल्ली टोपी पहने, पान खाए सिगरेट पीते हुए मुंशी जी के सामने खड़े थे। मुंशी जी ने कहा, 'ओहो, तुम हो! सालों बाद मुलाकात हुई। तुमने लखनऊ तो छोड़ ही दिया। मगर भाई क्या मालूम आते भी होगे तो हम गरीबों से क्यों मिलने लगे?' वह मुंशी जी के पुराने कालेज के साथी थे। रुपए-पैसे वाले, रईस आदमी। वह बोले, 'खैर, यह सब बातें तो छोड़ो। मैं दो दिन के लिए यहाँ आया हूँ। जरा लखनऊ में तफरीह के लिए। चलो इस वक्त में साथ चलो, तुम्हें वो मुजरा सुनवाऊँ कि उम्र-भर याद करो। मेरी मोटर मौजूद है। अब ज्यादा मत सोचो, चले चलो। सुना है तुमने कभी नूरजहाँ का गाना? आ-हा-हा, क्या गाती है, क्या बताती है, क्या नाचती है! वह अदा, वह फन, उसकी कमर की लचक, उसके पाँव के घुँघरू की झंकार, मेरे मकान पर, खुले सहन में, तारों की छाँव में, महफिल होगी। भैरवी सुन कर जलसा बर्खास्त होगा। बस, अब ज्यादा मत सोचो, चले ही चलो। कल इतवार है... बीवी-बेगम की जूतियों का डर है। अगर ऐसे ही औरत की गुलामी करनी थी तो शादी क्यों की? चलो भी मियाँ, मजा रहेगा। रूठी बेगम को मनाने में भी तो मजा है...'
पुराना दोस्त, मोटर की सवारी, गाना-नाच, जन्नत, निगाह, फिरदौस गोश, मुंशी जी लपक कर मोटर में सवार हो गए। जुम्मन की तरफ उनका ध्यान भी न गया। जब मोटर चलने लगी तो उन्होंने देखा कि वह उसी तरह चुप खड़ा है।