गलियारे / भाग 10 / रूपसिंह चंदेल
नृपेन मजूमदार के साथ हुए संक्षिप्त संवाद के विषय में रात देर तक सुधांशु सोचता रहा। 'प्रीति ने पिता की प्रशंसा के पुल बाँधे थे। जब मैंने अपनी पृष्ठभूमि बतायी तब उसने यही कहा थाडैड भी सेल्फमेड हैं...मुझ जैसी ही स्थितियों से निकले हुए और मुझ जैसे लोगाें को पसंद करने वाले।
'ल्ेकिन मजूमदार साहब के संक्षिप्त संवाद से ऐसा प्रतीत नहीं हुआ। संभव है दुर्गापूजा मेला के अवसर पर व्यस्तता के कारण...।' उसने लेटे ही लेटे सिर झिटका, 'उनसे परिचय ही कितना था। संक्षिप्त परिचय-संक्षिप्त संवाद। अधिक की अपेक्षा क्यों? मैं व्यर्थ ये बात क्यों सोच रहा हूँ। इसलिए कि प्रीति से मित्रता है...।' तत्काल मस्तिष्क में दूसरा विचार उभरा, 'कहीं तुम कुछ और तो नहीं सोचने लगे। बातचीत में प्रीति कुछ अधिक ही निकटता और अधिकार प्रदर्शित करने लगी है। कहीं तुम भी...।'
'मेरे पास इस सबके लिए समय कहाँ? फिर कहाँ प्रीति ...और...नहीं यह सब व्यर्थ की बातें हैं। मुझे कल से पढ़ाई पर अपने को केन्द्रित करना है...प्रीति से मिलना भी कम...।
मौसम में हल्की ठंडक थी। उसने खादी का कुर्ता पहना, पैरों पर चादर डाली और सोने का उपक्रम करने लगा।
उसने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का निर्णय तो किया लेकिन वह एम.ए. भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करना चाहता था। वह यह जानता था कि उसके प्राध्यापक उसे पसंद करते थे। प्रो0 शांति कुमार ने एक दिन उससे कहा भी था कि फाइनल में यदि वह अच्छी प्रकार तैयारी करे तो उसे प्रथम श्रेणी मिलना असंभव नहीं। एम.फिल और पी-एच.डी अपने अधीन करवाने का प्रस्ताव भी शांति सर ने दिया था।
तुममे प्रतिभा है सुधांशु...तुम कर सकते हो। शांति कुमार बोले थे।
सर, इससे नौकरी की गारण्टी हो जाएगी? उसने शांति कुमार से स्पष्ट पूछ लिया था।
गारण्टी कोई नहीं दे सकता सुधांशु...खासकर आज के समय में, लेकिन एक बात मैं जानता हूँ कि अध्यवसायी और प्रतिभावान अभ्यर्थी की तलाश हर विश्वविद्यालय-कॉलेज को होती है।
सर, मैं आपकी बात का सम्मान करता हूँ, लेकिन मैंने सुना है कि जान-पहचान...।
तुम ठीक कह रहे हो...कुछ चाहिए ही होगी। लेकिन उस सबके लिए हम हैं न! कम से कम मैं तुम्हारे केस के लिए कहूँगा।
जी सर। उसके स्वर में बहुत उत्साह नहीं था। उसने तब तक जो सुन-देख लिया था वह उसे हतोत्साहित करता था। पिछले दिनों राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष की कहानी एक अंग्रेज़ी दैनिक ने लगातार प्रकाशित कर अंदर खाते चलने वाले खेलों को तार-तार कर दिया था।
राजनीति के विभागाध्यक्ष अपने यहाँ की एक प्राध्यापिका की स्थायी नियुक्ति में बाधा बने हुए थे। पिछले तीन वर्षों से वह वहाँ एडहॉक पढ़ा रही थी। विभागाध्यक्ष बनर्जी पहले उससे संकेतों में कहते रहे, लेकिन वह उनके संकेतों की उपेक्षा करती रही। फिर भी वह हताश नहीं हुए। आशान्वित होने के कारण ही उन्होंने उसकी एडहॉक की फाइल रोकी नहीं थी या उसके स्थान पर किसी और की नियुक्ति की सिफ़ारिश नहीं की थी। लेकिन जब प्राध्यापिका मिस सोनल शर्मा ने उनके संकेतों की ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया तब एक दिन अपने चेम्बर में उसे बुलाकर बनर्जी महोदय ने अपना प्रस्ताव न केवल स्पष्टरूप से कहा, बल्कि यह भी कहा कि वह वायवा लेने हैदराबाद जाएँगे और वह चाहते हैं कि सोनल भी उनके साथ चले। उसके आने-जाने और ठहरने आदि का ख़र्च वह वहन करेंगे।
हेड का प्रस्ताव सुन प्राध्यापिका तमतमाती हुई उनके चेम्बर से बाहर निकली थी और उसने उच्च अधिकारियों, विश्वविद्यालय की अनेक समितियों और यूनियन को उसी दिन लिखित शिकायत दे दी थी।
'लेकिन हुआ क्या! बनर्जी अपनी जगह उपस्थित है। उल्टा प्रशासन ने प्राध्यापिका से स्पष्टीकरण मांग लिया। बनर्जी वी.सी. का मित्र है...इसलिए उसके विरुध्द कुछ होने की संभावना नहीं है।'
इस विषय पर सोचो प्रो0 शांति कुमार ने कहा, सिविल सेवा परीक्षा आसान नहीं है सुधांशु। मैंने उसके फेर में युवकों को जीवन बर्बाद करते देखा हैं। अंतत: वे न घर के रहते हैं न घाट के और फिर कहाँ एकेडेमिक फील्ड और कहाँ बाबूगिरी...।
हंसे थे प्रो0 कुमार।
जी सर। उसने धीमे स्वर में कहा था।
प्रो0 कुमार के कहने का उस पर प्रभाव इतना ही हुआ कि वह प्रतिदिन दो घण्टे फाइनल की तैयारी के लिए भी देने लगा था।