गलियारे / भाग 12 / रूपसिंह चंदेल

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यह संयोग था कि सुधांशु दास का प्रो. शांति कुमार के अधीन एम.फिल। के लिए रजिस्ट्रेशन हो गया था।

इससे तुम्हें दो लाभ होंगे। प्रो. कुमार ने हॉस्टल छोड़ने के उसके निर्णय पर उसे समझाते हुए कहा था, हॉस्टल ही तुम्हारे लिए सुविधाजनक है...बाहर छोटे एकमोडेशन का मंहगा किराया तुम्हारे लिए कठिन होगा।

सर, यहाँ डिस्टरर्बेंस बहुत है।

हाँ,...वह मैं जानता हूँ, लेकिन उसका उपाय यही है कि सुबह आठ से रात आठ तक तुम पुस्तकालय और विभाग में बिता सकते हो। हिस्ट्री डिपार्टमेण्ट की लाइब्रेरी बिल्कुल एकांत में और शांत है। उसकी ओर देखते हुए क्षणभर के लिए रुके प्रोफेसर कुमार, एम.फिल। के साथ सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी...कोचिंग...किस्मत ने साथ दिया तो ठीक वर्ना...पी-एच.डी. में रजिस्ट्रेशन करवाकर अपने लक्ष्य प्राप्ति में लग जाना। शिक्षा कभी बेकार नहीं जाती।

जी सर।

वर्ष भर उसका बहुत अनुशासित कार्यक्रम रहा। पढ़ना और पढ़ाना। ट्यूशन के अतिरिक्त हडसन लाइन के एक कोचिंग सेण्टर में वह अंग्रेज़ी पढ़ाने लगा था...रात आठ बजे से दस बजे तक।

रात साढ़े दस बजे मेस में भोजन कर जब वह बिस्तर पर जाता इतना थक चुका होता कि सुबह पांच बजे ही उसकी नींद खुलती। सुबह आध घण्टा के लिए वह कमला नेहरू पार्क में टहलने जाता, कुछ देर वहीं हाथ पैर हिलाता, फिर हॉस्टेल लौटकर लाईब्रेरी जाने के लिए तैयार होने लगता। साढ़ आठ-नौ बजे तक वह पुस्तकालय पहुँचता...और ट्यूशन पढ़ाने जाने तक वहीं रहता।

एम.फिल। उसका हो गया, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा में उसे सफलता नहीं मिली।

अभी तुम्हारे पास पर्याप्त समय है। प्रो. शांति कुमार ने एक दिन कहा, कई कॉलेजों में वेकेन्सी आने वाली हैं...आवेदन करना...मैं हेड साहब से तुम्हारी सिफ़ारिश करूंगा। एडहॉक मिल जानी चाहिए... मिल गई तब तुम्हारे संघर्ष कम हो जायेंगे। क्षणभर तक चुप रहकर कुमार ने आगे कहा, पी-एच.डी. में एनरोल करवा लो। कभी-कभी व्यक्ति को वह करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता।

मतलब सर?

तुम्हारी रुचि अध्यापन में नहीं है...लेकिन उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए। अध्यापन के सुख अलग ही होते हैं।

जी सर। सुधांशु उचित शब्द तलाशता रहा अपनी बात कहने के लिए, फिर बोला, अध्यापकी की राह ही कौन-सा आसान है सर!

हाँ, आसान नहीं ही है।

सर...।

हाँ...आ। शांतिकुमार ने अचकचाते हुए सुधांशु की ओर देखा।

बुरा नहीं मानेंगे?

अभी बुरा मानने की उम्र नहीं हुई... यानी मैं अभी खुर्राट बूढ़ा अध्यापक नहीं बना...तुम बेहिचक पूछो। शांतिकुमार पैंतालीस के थे।

सर, आपका चयन कैसे हुआ था?

ओह। ठठाकर हंसे कुमार, बहुत अच्छा प्रश्न है। कुछ गंभीर हुए, सुधांशु, मेरी स्थितियाँ तुमसे भिन्न न थीं। तुम्हारे पिता के पास कुछ खेत हैं...घर को उन्होंने संभाल रखा है, लेकिन मेरे पिता मज़दूर थे...एक ठेकेदार के लिए काम करते थे। इसे तुम भाग्य की बात ही समझो कि मैं पढ़ गया। पढ़ इसलिए गया कि पिता ने पांचवीं के बाद मुझे अपनी बहन यानी मेरी बुआ के घर भेज दिया था...यहीं दिल्ली। पुरानी सब्जीमंडी के पास कुम्हार बस्ती में बुआ का घर था। बुआ मुझे प्यार करती थीं, लेकिन फूफा के लिए मैं अकस्मात आया एक बोझ था। वह भुनभुनाते, लेकिन अधिक कुछ कह नहीं पाते थे। उनका एक बेटा था...इन दिनों वह दिल्ली पुलिस में है... तो मैं उससे दो साल जूनियर था। फूफा ने सरकारी स्कूल में मुझे भर्ती करवा दिया। इंटर तक सरकारी स्कूल। स्कूल से लौटकर मैं सब्जीमंडी थाने के पास सड़क किनारे कुछ न कुछ सामान बेचता। जाड़ों में भुनी शकरकंद,सिंघाड़े और उबली आलू। गर्मी में लीची-केले। फूफा थे कर्मठ व्यक्ति। न वह मुझे खाली रहने देते और न अपने बेटे को। हम दोनों ही कुछ कमा लाते। जब ये दुकानें न होतीं तब कहीं ईंट-गारा ढो लेते या घरों में पेण्ट करने का काम कर आते। हमारी और फूफा की कमाई से घर ख़र्च चल जाता।

पढ़ने में कुछ अधिक ही कुशाग्र था। हायर सेकण्डरी में इतने अच्छे अंक मिले कि मुझे करोड़ी मल कॉलेज में प्रवेश मिल गया। मेरी दुनिया का विस्तार हुआ और आगे का जीवन मेरे लिए वैसा ही रहा जैसा अब तुम्हारा है...मैं बुआ-फूफा पर बोझ नहीं रहा। ट्यूशन की और अच्छा पैसा कमाने लगा। आगे...। शांति कुमार चुप हो गए।

लेकिन मेरा प्रश्न तो अनुत्तरित ही है सर। सुधांशु उनके चुप होते ही बोला।

हाँ, मैं उसी का उत्तर देने जा रहा था। देखो सुधांशु...यह एक ऐसा सच है, जो कोई कहना नहीं चाहता...जानते सभी हैं...जानते इसलिए हैं कि वे सब उसी प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं। शायद ही कोई ऐसा प्राध्यापक इस विश्वविद्यालय या कॉलेजों में होगा, जिसके पीछे सिफ़ारिश न रही हो। कोई कितना ही प्रतिभाषाली क्यों न हो...गोल्डमेडलिस्ट हो...फिर भी यदि उसका कोई गॉड फॉदर यहाँ नहीं है तो उसे सरकारी-गैर सरकारी बाबूगिरी के लिए ही तैयार रहना चाहिए। मुझे भी मेरे एक प्रोफेसर पसंद करते थे। संयोग से मैं उनके अण्डर ही पी-एच.डी. कर रहा था...प्रोफेसर सलमान हैदर। डॉ. हैदर बेहद भले व्यक्ति थे।

अब कहाँ हैं सर डॉ. हैदर? सुधांशु पूछ गया लेकिन तुरंत सॉरी सर। कहा।

प्रो. हैदर उस्मानिया विश्वविद्यालय के वी.सी बनकर चले गये थे। हैदराबाद में बस गए... बल्कि वह रहनेवाले थे ही वहाँ के। लेकिन क्या व्यक्ति थे...लंबे-गोरे...खूबसूरत। हिन्दी, अंग्रेजी, तेलुगू, तमिल, कन्न्ड़ ओर रशियन भाषाओं पर उनका अधिकार था...इतने विद्वान कि राजनीति से लेकर इतिहास, साहित्य से लेकर समाज...व्यापक ज्ञान और बहुत ही मानवीय। प्रतिभाओं को पहचानना और उन्हें उचित मार्गदर्शन ही नहीं उनके विकास के लिए ठोस कार्य करना...उनके स्वभाव का हिस्सा था। कुछ देर ठहरकर शांति कुमार बोले, मैं उनके चहेतों में था और मेरे लिए वह अपने हेड से अड़ गए थे। मेरा भी फर्स्ट डिवीजन था और पी-एच.डी कर रहा था। राजधानी कॉलेज में जगह थी। वहाँ के एक प्राध्यापक तीन वर्ष के लिए स्पेन जा रहे थे...तीन वर्ष के लिए मुझे एडहॉक नियुक्ति मिल गयी थी। इसी दौरान मेरी पी-एच.डी. सम्पन्न हुई और मुझे उसी कॉलेज में स्थायी नियुक्ति मिली। लेकिन यह सब डॉ. सलमान हैदर के कारण ही हुआ था।

डॉ. हैदर जब विभागाध्यक्ष बने उन्होंने मुझे विभाग में बुला लिया। मेरे यहाँ आने के एक वर्ष बाद हैदर साहब वाइस चांसलर बनकर उस्मानिया विश्वविद्यालय चले गए थे।

सर, भाग्य से ही भले लोगों से संपर्क हो पाता है। सुधांशु कह गया, लेकिन तत्काल सोचा कि इस बात को डॉ. कुमार ने पता नहीं किस रूप में लिया होगा।

आगे आने वाला समय कठिन से कठिनतर होने वाला है। जनसंख्या बढ़ रही है। सरकारें उदासीन हैं। राजनीतिज्ञ अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर कार्य कर रहे हैं। बांग्लादेश से यहाँ आ बसे लोग उनके लिए वरदान हैं...देश भले ही डूबे। ऐसी स्थिति में आगे की पीढ़ियों के लिए चुनौतियाँ बढ़नी हैं। इसलिए केवल एक कार्य के भरोसे रहना शायद ठीक नहीं होगा। तुम सिविल सेवा परीक्षा पर ज़ोर रखो...लेकिन साथ में पी-एच.डी का कार्य भी करते रहो। कुछ न कुछ मिलेगा हीं

जी सर।

फिर पी-एच.डी. के लिए आवेदन कर दो...। उठते हुए प्रो. कुमार बोले।

जी सर।

मैं हूँ ही...परेशानी न होगी।

जी सर।

प्रोफेसर शांतिकुमार से मिलने के बाद सुधांशु के मस्तिष्क में अंधड़ चलने लगा था।