गलियारे / भाग 13 / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रीति कभी-कभी सुधांशु से मिलती। उनकी मुलाकातें प्राय: लाइब्रेरी के बाहर किसी चायवाले की दुकान में होतीं।

तुम्हारा क्या इरादा है? एक दिन सुधांशु ने चाय पीते हुए पूछा।

न एम.फिल...न पी-एच.डी... ।

वह मैं पहले ही सुन चुका हूँ।

बाबा भी यही चाहते हैं।

हुं...अ...। सुधांशु चुप रहा।

तुम्हारे सर, शांतिकुमार तुम्हें कहीं एडहॉक लगवाने वाले थे? विषय बदलते हुए प्रीति ने पूछा।

कहीं वेकेंसी होगी...और उनकी चलेगी तभी न...।

विज्ञापन निकलते रहे, सुधांशु सभी जगह आवेदन करता रहा, शांति कुमार प्रयत्न करते रहे लेकिन सफलता नहीं मिली। मन मारकर सुधांशु ने पी-एच.डी. के लिए रजिस्टर्ड करवा लिया लेकिन शांति कुमार उसके निर्देशक नहीं रहे। उसे प्रो. अनिल कृष्णन के अधीन पी-एच.डी. करना था। प्रो. अनिल कृष्णन के निर्देशन में पी-एच.डी. करना चुनौतीपूर्ण कार्य था। उनके अधीन बहुत धैर्यशाली ही कार्य कर पाते थे...वे जिन्हें समय की चिन्ता नहीं होती थी और न धन की। प्रोफेसर कृष्णन अपने पी-एच.डी के छात्रों को निजी कार्यो में इतना संलिप्त रखते कि वे अपने शोध के लिए समय नहीं निकाल पाते। प्रो. कृष्णन ने यू.जी.सी. से प्राचीन भारतीय इतिहास पर एक प्रोजेक्ट ले रखा था और उनके छात्र उनके उस प्रोजेक्ट के लिए कार्य करते थे। स्वयं प्रो. कृष्णन देश-विदेश की यात्राएँ करते रहते या छात्रों द्वारा किए कार्य को व्यवस्थित करते। क्लास में छात्रों को पढ़ाने या अपने निर्देशन में पी-एच.डी. करने वाले छात्रों को अपने कार्य करने देने की सुविधा वह प्रदान नहीं करते थे।

प्रो. अनिल कृष्णन विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्रोफेसर थे, इसलिए कोई छात्र उनके विरुध्द शिकायत करने से बचता था। छात्र उनके साथ तालमेल बैठाने का प्रयत्न करते लेकिन छात्राएँ धैर्य खो बैठतीं। यदि कोई धैर्य का परिचय भी देती तब उसे प्रोफेसर की उन शर्तों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होता जिन्हें स्वीकार करने के लिए कोई ही छात्रा तैयार होती और जो होती कृष्णन न केवल उसकी थीसिस पूरी करवाते, बल्कि उसे स्थायी-अस्थाई प्राध्यापकी हासिल करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देते।

बुरे फंसे सुधांशु। एक दिन शोक मुद्रा में बैठे सुधांशु को टोकते हुए शांति कुमार ने कहा, वह मेरे सीनियर हैं...कुछ कहना नहीं चाहता...लेकिन पी-एच.डी. तुम्हारे लिए कहीं मृग-मरीचिका ही न बन जाए!

सर, दो साल तक हॉस्टल रहेगा न मेरे पास ...वही चाहिए। प्राध्यापकी मिली नहीं...मिलेगी, मुझे संदेह है। केवल सिर छुपाने की जगह बनी रहे...सिविल सेवा परीक्षा ही मेरे लिए अब विकल्प है। कुछ नहीं हुआ तो किसी लाला की क्लर्की मिलेगी ही।

हताश नहीं होते...तुम वही करो और पूर्ण आस्था के साथ करो।

और सिविल सेवा परीक्षा तक सुधांशु ने रात-दिन नहीं देखा। प्रीति ने भी आई.ए.एस. की तैयारी प्रारंभ कर दी थी। एक दिन उसने सुधांशु से कंबाइण्ड स्टडी की बात की।

नहीं, प्रीति...मुझे बिल्कुल एकांत चाहिए... रवि की तरह।

ओ.के... । प्रीति ने दोबारा नहीं कहा।

सुधांशु तीन वर्ष से गाँव नहीं गया था। उसने पिता को स्पष्ट लिख दिया था कि वह कुछ समय और गाँव नहीं आ पाएगा।

अगले अटेम्प्ट में न केवल वह सिविल सेवा परीक्षा में सफल हुआ, बल्कि साक्षात्कार की सीढ़ी भी चढ़ गया था।

उसकी सफलता पर प्रीति के पिता नृपेन मजूमदार ने उसे मिलने के लिए बुलाया। मिलने पर वह उससे ऐसे मिले जैसे एक सीनियर आई.ए.एस. अफसर अपने जूनियर अफसर से मिलता है। इस बार मजूमदार के बदले स्वरूप से वह चकित था। उसने सोचा, उगते सूरज को सभी प्रणाम करते है।

उसे अपने हाथ से संदेश खिलाती प्रीति ने कहा, यू आर ग्रेट सुधांशु। आई लव यू।

संदेश मुंह में रख सुधांशु प्रीति को देर तक देखता रहा। मुंह चलाना ही भूल गया।

'तो क्या इसे इसीदिन की प्रतीक्षा थी। यदि मैं सिविल सेवा के लिए न चुना जाता तो यह चुप रहती।' लेकिन शायद ऐसा नहीं होता। परोक्षतया वह कितनी ही बार अपने भाव प्रकट कर चुकी थी। मैंने ही रिस्पांस नहीं किया। निश्चित ही प्रीति अपनी अंतरात्मा से मुझे प्यार करती है।'

डू यू... । प्रीति ने अपनी बात पूरी नहीं की। उस क्षण वह अपने निजी कमरे में थी। मां-पिता अपने कमरे में। उस बड़े बंगले में प्रीति का कमरा बिल्कुल एकांत में पीछे की ओर था, जिसके बाहर छोटा-सा किचन गार्डन था।

सुधांशु लगातार उसे घूरता रहा, लेकिन जब प्रीति ने कुछ और कहना चाहा, उसने उसके मुंह पर हाथ रख दिया। कोई प्रश्न नहीं। और उसने प्रीति को आलिगंन में ले अपने होठ उसके होठों पर रख दिए, आई टू लव यू डियर...लव यू... लव यू... । वह देर तक उसे आलिगंनबध्द किये रहता यदि उधर से नौकरानी के आने की आहट न मिली होती।

सुधांशु से अलग हुई प्रीति की सांस धौंकनी की भांति चल रही थी। उसकी आंखों में आल्हाद की चमक थी।

बेबी... आप लोगों के लिए चाय लाई या कॉफी? नौकरानी दरवाज़े के पार खड़ी पूछ रही थी। अनुभवी नौकरानी ने उन दोनों की आंखों में तैरते सपने देख लिए थे। उसके चेहरे पर हल्की स्मिति फैल गयी थी जिसे उसने तत्काल गंभीरता के आवरण से ढंका था और अपना प्रश्न दोहरा दिया था।

सुधांशु ...चाय या कॉफी? प्रीति ने पूछा।

कॉफी।

थैंक्यू... । नौकरानी मुड़ी तो सुधांशु बोला, समझदार है...पढ़ी-लिखी लगती है। उसे तत्काल अपनी माँ की याद हो आयी जो निरक्षर थीं।

क्यों नहीं...एक एडीशनल सेक्रेटरी के घर की नौकरानी जो है...इतना तो उसे आना ही चाहिए।

हाँ...कहते हैं बड़े अफसरों के घर के तोते भी अंग्रेज़ी बोलते हैं और कुत्ते भौंकते नहीं बार्क करते हैं।

जनाब ...अब आप भी उसी वर्ग का हिस्सा बनने जा रहे हैं।

सुधांशु के चेहरे पर गंभीरता छा गई, 'क्या मैं भी अपनी जड़ों से कट जाऊँगा।' उसने सोचा, शायद नहीं...शायद...बहुत कुछ बदल जाएगा।'

क्या सोचने लगे?

उंह...कुछ नहीं। अन्यमनस्क से उसने उत्तर दिया।

तभी ट्रे में कॉफी लिए नौकरानी कमरे में प्रविष्ट हुई, बेबी कॉफी...गर्म है...।