गलियारे / भाग 14 / रूपसिंह चंदेल
सुधांशु का चयन अलाइड सेवा में प्रतिरक्षा वित्त विभाग, जिसे प्ररवि विभाग कहा जाता था, के लिए हुआ। प्रशिक्षण के लिए जाने से पूर्व वह गाँव गया। पिता सुबोध कुमार दास और माँ सुगन्धि के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। बेटे ने इलाके में ही नहीं जिले में उनका नाम रौशन कर दिया था। सुधांशु एक सप्ताह गाँव में रहा और एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब गाँव और दूर गांवों के लोग उससे मिलने न आए हों। मिलने आने वाले उसके पिता के परिचित ही थे, लेकिन 'वे केवल उससे मिलने आते हैं' सोचकर उसे कष्ट होता। एक दिन चौपाल में बैठा वह मिलने आए किसी व्यक्ति से बातें कर रहा था। पिता सामने चारपाई पर मेहमान के साथ बैठे थे कि घर से कुछ दूर सड़क पर एक कार आकर रुकी। कार रुकने की आवाज़ सुन पिता ने चौपाल से झांककर देखा। दो युवक और एक युवती पड़ोसी से कुछ पूछ रहे थे और पड़ोसी उसके घर की ओर इशारा कर कुछ कह रहा था।
कुछ देर बाद वे तीनों सुधांशु के सामने थे।
सुधांशु जी आप ही हैं? एक ने पूछा।
जी।
आपसे बातचीत करनी है...हम दैनिक 'आज' बनारस से हैं।
ओ.के.।
उन लोगों ने लगभग एक घण्टा सुधांशु से उन्हीं विषयों पर बातचीत की जिन पर दिल्ली के पत्रकार उससे कर चुके थे। आपने कोचिंग की थी, आपको प्रेरणा किससे मिली, कितने घण्टे पढ़ते थे, भविष्य में क्या करना चाहेंगे...दूसरों के लिए कोई संदेश आदि...आदि...।
दैनिक 'आज' की टीम के जाने के बाद आगन्तुक सज्जन, जो सुधांशु के दूर के रिश्तेदार थे और पन्द्रह किलोमीटर दूर एक गाँव के समृध्दतम व्यक्तियों में से थे, सुधांशु की पीठ थपथपाते हुए बोले, बेटा, तुमने घर का ही नहीं हम सबका ...इलाके का नाम रोशन किया है...।
यह बात...बिल्कुल यही बात सुधांशु ने हर आने वाले के मुख से सुनी थी। वह चुप रहा।
बेटा मैंने अनुभव में बाल सफेद किए हैं...एक सलाह देना चाहता हूँ।
जी... । सुधांशु इतना ही कह सका। सुबोध कुमार दास कभी अतिथि, जिनका नाम जतिन दास था, तो कभी सुधांशु की ओर देख रहे थे। जब से बेटे के आई.ए.एस. होने का समाचार उन्हें मिला ख़ुशी के साथ बेटे के प्रति एक संकोच उनके मन में बैठ गया था। संकोच था कि कल तक वह जिस बेटे को डांट-फटकार लेते थे, सलाह दे देते थे...अब वह एक बड़े ओहदे का मालिक होगा जिसके मातहत सैकड़ों-हजारों लोग काम करेंगे। 'इतने काबिल बेटे को सलाह देने की काबिलियत कहाँ है मुझमें!' सुबोध कुमार दास सोचते। जतिन कुमार दास की बात से उन्हें लगा कि कहीं सुधांशु उनकी सलाह सुन बुरा न मान जाये...कुछ कह न दे।
बेटा, अब तुम्हें नौकरी की चिन्ता नहीं...भगवान की कृपा है...टे्रनिंग के बाद तुम शादी कर लेना। मां-बाप भी निश्चिंत होंगे और तुम्हारा जीवन भी सुखी रहेगा।
जीं... जतिन दास को टालने के उद्देश्य से सुधांशु ने उत्तर दिया।
जतिन दास का हौसला बढ़ा। मुड़कर उसने सुबोध की ओर देखा, सुबोध, सुधांशु ने मेरी सलाह मान ली है...अब मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ।
सुबोध जतिन दास के चेहरे की ओर देखने लगे।
पुत्रबधू के लिए तुम्हें भटकने की आवश्यकता नहीं सुबोध। मेरी बेटी सरोजनी इस वर्ष एम.ए. के अंतिम वर्ष में है। बी.एच.यू. में पढ़ रही है। भगवान ने चाहा तो लेक्चरर भी बन जाएगी...। क्षणभर तक सुबोध दास के चेहरे की ओर देखते रहे जतिन दास फिर बोले, अधिक मत सोचना। बिटिया थोड़ा सांवली है...लेकिन नाक-नक्श सुन्दर ...हजारों में एक है।
भइया, सुधांशु की ट्रेनिंग ख़त्म हो लेने दें।
अरे, वह तो होनी ही है...अब सुधांशु को कौन रोक सकता है। तुम आज ही रिश्ता पक्का कर लो...।
सुधांशु ने पिता की ओर देखा।
भइया...इतनी जल्दी क्या है?
तुम टालना चाहते हो?
सुधांशु बिना आहट चारपाई से उतरा और पड़ोसी के घर जा बैठा। उसके जाते समय पिता ने उसे देखा और उसने भी पिता की आंखों में देखा था, जिसका अर्थ सुबोध समझ गए थे।
टालने की बात नहीं भइया। लेकिन जवान बेटे की इच्छा जाननी ही होगी।
जान लो और चाहो तो मेरे साथ बेटे को लेकर मेरे घर चलो। बिटिया आजकल गाँव में ही है। तुम दोंनो उसे देख लो...तभी बात पक्की करना।
भइया, सुधांशु को कल ही जाना है। आप उसकी ट्रेनिंग ख़त्म होने तक सब्र करें।
मैं कर लूंगा...पांच साल सब्र। लेकिन ज़ुबान मिल जाए तब। कुछ देर तक सुबोध की ओर देखते रहने के बाद जतिन आगे बोले, सुबोध, इतना रुपया दूंगा...इतना सब सामान ...कार...घर भर दूंगा। कोई भी इतना नहीं देगा। तुम सोचकर बताना। और चारपाई से उठ खड़े हुए थे जतिन दास।
जरूर बताइब भइया। जतिन के साथ ही सुबोध भी उठ खड़े हुए, शाम को चले जाते भइया...धूप तेज हैं।
मुझे धूप की परवाह नहीं...सड़क पर उतरते हुए जतिन दास ने कहा, मुझे एक हफ्ते में जवाब दे देना। बिटिया सयानी है...बात बनती है तब जितना कहोगे इंतज़ार कर लूंगा...।
जी भइया।
जतिन दास के जाने के बाद चौपाल पर चारपाई पर लेट हाथ का पंखा झलते हुए देर तक सोचते रहे सुबोध, 'रिश्ता बुरा नहीं है।'
'बेटा दुनिया-जहान में घूमेगा, कब ऊँच-नीच हो जाए, इसलिए जल्दी ही उसे खूंटे से बाँध देना चाहिए। बंध जाने के बाद रस्सी कितनी भी लंबी कर ले...कहीं भी घूमे-जाए, लेकिन खूंटा उसे नियंत्रित रखेगा।' सुबोध दास सोच रहे थे।
रात सुबोध ने सुधांशु से जतिन दास की चर्चा छेड़ी। सुधांशु चुप पिता की बात सुनता रहा।
बेटा, उनकी बिटिया मैंने देखी है। बहुत होशियार है पढ़ने में और सुशील भी है। जतिन कह रहे थे कि आजकल वह गाँव में ही है...तुम कल के बजाए परसों चले जाना...कल चलिके उनकी बिटिया को देख लो।
किसलिए? सुधांशु के स्वर ने चौंकाया सुबोध को, 'यह आवाज़ उनके सुधांशु की नहीं...।'
जतिन चाह रहे हैं कि...। अटक गये सुबोध।
मुझे पता है जतिन काका क्या चाह रहे हैं? कल भी तो ये आपके रिश्तेदार ही थे न पिता जी?
हाँ...आं...।
मेरी पढ़ाई के लिए सबसे पहले आप इन्हीं के यहाँ रुपये उधार मांगने गए थे...इन्हें ही खेत रेहन रखना चाहा था।
चुप रहे सुबोध।
तब टका-सा जवाब दिया था इन्होंने। आपका बुझा हुआ चेहरा आज भी मुझे याद है। याद है न आपको...क्या कहा था?
पिता टुकुर-टुकुर ताकते रहे थे बेटे के चेहरे की ओर।
रुपए पेड़ों पर नहीं फलते...लंबी-चौड़ी काश्तकारी...बड़े खर्च...कुछ नहीं बचता...फिर पन्द्रह किलोमीटर दूर खेत रेहन रखने का मतलब भी क्या! उसका कुछ कर भी नहीं सकते।
नहीं रहे होंगे रुपये तब जतिन के पास। होता है कभी-कभी...आदमी कितना भी धनवान हो...खाली हाथ भी होता है वह कभी। जतिन ने नहीं दिया तो क्या तुम्हारी पढ़ाई रुक गयी? भगवान की दया से आज तुम इस काबिल हो गए हो...।
नहीं रुकी, लेकिन आपको खेत रेहन रखने पड़े थे।
तुम भी सुधांशु...गड़े मुर्दे उखाड़ने लगे।
तुम चप रहो सुधांशु के पापा...लड़का ठीक कह रहा है। सुगन्धि, जो बर्तन मांजते हुए पिता-पुत्र की बातें सुन रही थी, बर्तन धोकर नहा पर रखे झाबे में रख धोती से हाथ पोछती हुई निकट आकर बोली, तुम किस दुष्ट के घर बेटे को ब्याहने की बात सोच रहे हो सुधांशु के पापा?
'बेटे के आई.ए.एस बनते ही बुढ़िया भी अंग्रेज हो गयी...मैं बापू से पापा बन गया।' मन ही मन मुस्काए सुबोध।
कसाई है जतिन ...ऐसे नहीं करोड़पति बना...गरीबों का खून चूस-चूसकर बना है रईस ...तुम्हें भी पता है सुधांशु के पापा। जब मेरा विवाह हुआ था तब उसके घर केवल एक जोड़ी बैलों की काश्त थी, लेकिन रुपये उधार देने...खेत रेहन रखने के काम से आज उसके पास सैकड़ों बीघा ज़मीन है। घर के सभी लेंगाें के नाम करवा रखी है उसने जमीन। सुना है मजदूरों पर ऐसा कोड़े बरसाता है कि क्या जल्लाद करेगा।
'ऐसा? सुधांशु चोंका।
अरे बेटा, दौलत देखकर तुम्हारे पापा की आंखें बंद हो रही हैं...बाकी जानते यह भी हैं सब। जिनके खेत रेहन रखता रहा, कल को वे ही उसके यहाँ मजदूरी के लिए मजबूर हुए। खेत गए... शरीर भी गया उनका। हाड़ तोड़ मेहनत करवाता है और पैेसे मांगने पर आधी-अधूरी मजूरी...कभी वह भी नहीं...अधिक कहने पर कोड़े।
पुलिस-प्रशासन तक बात पहुँची? सुधांशु का खून खौल उठा। 'काश! वह अलाइड में न आकर प्रापर आई.ए.एस. बनता...लेकिन अभी भी क्या ...प्रापर पोस्टिंग के बाद इस व्यक्ति के खिलाफ केस किया-करवाया जा सकता है।' सोचने लगा था सुधांशु।
बेटा, तुम्हारी माँ कुछ अधिक ही बढ़ा-चढाकर बता रही हैं। वैसे जतिन ही क्यों... देश के कुछ ही जमींदार भले मिलेंगे...बाकी सभी गरीबों का खून चूसकर ही मोटे होते हैं...और रही बात पुलिस-प्रशासन की...उनकी सेवा होती रहती है...काम चलता रहता है। गरीब मरता रहता है।
ऐसे आदमी के यहाँ सम्बन्ध जोड़ने की बात आपने सोची कैसे?
बेटा, पुरानी रिश्तेदारी...जाति-बिरादरी...।
पिता जी... ये बातें बहुत पुरानी हो चुकी हैं...कम से कम मैं इन्हें नहीं मानता।
क्या कह रहे हो सुधांशु? पिता के मुंह से निकला।
'जरूर कुछ गड़बड़ है सुबोध। बेटा गया अब हाथ से।' तत्काल सुबोध कुमार दास के मस्तिष्क में विचार कौंधा।
ठीक कह रहा हूँ पिता जी... जात-पांत कोढ़ है हमारे समाज के लिए। जब तक यह बरकरार है जतिन दास जैसे पिस्सू जिन्दा रहेंगे।
बेटा, जिस दिन जात-पांत मिट गयी उस दिन इस देश की पहचान क्या रहेगी! देश की सबसे बड़ी पहचान यही है न!
पिता की बात से चौंका सुधांशु।
पिता ने व्यंग्य किया या सहज-स्वाभाविक भाव से यह बात कही।' सुधांशु सोचता रहा।
पिता जी, अभी मुझे बहुत से पापड़ बेलेने हैं। ट्रेनिंग के बाद दो साल का प्रोबेशन होता है...सब कुछ जब तक सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो जाता...आप इस बारे में नहीं सोचेंगे। मुझे बेफिक्र होकर नयी ज़िन्दगी शुरू करने दें।
बेटा हर क़दम पर तुम हम दोंनो को अपने साथ पाओगे। मन को दुखी न करो...। ग़मछे से आंखों की कोरें पोछते हुए सुबोध बोले, जतिन को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। पसंद नहीं वह मुझे भी। बस जाति-बिरादरी ...पुरानी रिश्तेदारी का मोह...मैं उसकी बातों में भटक गया था। लेकिन तुम बेफिक्र होकर कल अपनी नयी ज़िन्दगी शुरू करने जाओ। हम दोनों का आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा। तुमने हमें जो सुख दिया भगवान सभी मां-बापों को वह सुख दे। एक बार फिर भावावेश में छलक आई आंखों को ग़मछे से पोछते हए सुबोध बोले।
सुख अभी कहाँ दिया पिता जी... ।
तुमने दुनिया में मां-बाप का नाम रौशन किया...किसी के लिए इससे बड़ा सुख और क्या होगा।
चलो खाना तैयार है। सुगन्धि ने पति को पुन: भावुक होते देख विषय बदला। वह जानती थी कि भावुक क्षणों में पति रोने लगते हैं।