गलियारे / भाग 15 / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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प्रशिक्षण के दौरान जब सुधांशु मसूरी में था, दो बार दिल्ली गया। होटल में ठहरा और दोनों ही बार प्रीति से मिला। उसी दौरान लंबे समय से रविकुमार राय से उसका टूटा संपर्क पुन: जुड़ा। दोनों दिन दो घण्टे वह प्रीति के साथ घूमा और शाम के समय रवि होटल में उससे मिलने आया। प्रीति के बहुत आग्रह के बाद भी वह उसके घर नहीं गया।

पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद प्रीति ने भी अपने को सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में व्यस्त कर लिया था। पहला अटैम्प्ट अच्छी तैयारी न होने के कारण उसने छोड़ दिया और दूसरी के लिए कनॉट प्लेस में राव कोचिंग सेण्टर ज्वाइन कर लिया था।

पोस्टिंग के बाद तुमने क्या योजना बनाई है?

योजना...कैसी योजना? सुधांशु चोंका।

बुध्दू कहीं के। उसकी आंखों में झांकते हुए प्रीति बोली।

रियली, मैं समझा नहीं।

यार, बनने की कोशिश मत करो।

सच में नहीं समझ आ रहा, तुम किस बारे में बात कर रही हो?

उस समय दोनों कनॉट प्लेस के सरवन रेस्टॉरेण्ट में बैठे हुए थे।

प्रीति देर तक चुप रही। कभी सुधांशु की और देखती तो कभी व्यस्त बेयरों की ओर। सुधांशु टकटकी लगाए उसके चेहरे की ओर देख रहा था।

ममी कुछ अधिक ही परेशान हैं...पापा का एक वर्ष बचा है।

रिटायरमेण्ट ...।

हाँ...।

वह तो एक दिन होना ही है। मेरा भी होगा...।

अरे यार, मूर्खों जैसी बातें करने लगे।

सुधांशु मुस्कराया, क्या यह सच नहीं है?

है, लेकिन ममी की परेशानी कुछ और ही है।

सेटल होने की?

वह तो होनी ही है।

तुमने एक बार बताया था कि तुम्हारे पापा ने कलकत्ता में कोठी बनवा ली है साल्ट लेक में...सुना है पॉश इलाक़ा है?

सुधांशु बात यह नहीं है...उन्हें यह सब बातें नहीं परेशान करतीं। बाबा इतने ग्रेट हैं कि वह कोठी क्या झुग्गी में भी रह लेंगे।

तुम पहेली बुझा रही हो...मैं सच ही अनाड़ी हूँ...नहीं समझ पाऊँगा जो तुम कहना चाहती हो। खुलकर कहो...।

हुंह। कुछ देर चुप रहकर प्रीति बोली, पिछले सण्डे एक मिस्टर घोष आए थे अपनी ममी के साथ। वह वायुभवन में हैं। लंबा, हट्टा-कट्टा...गहरा सांवला रंग, बड़ी लाल आंखें और चेचक के दाग...। उनके जाते ही मैं बिफर उठी माँ से ...उन्होंने मुझे समझा क्या है...किसी को भी बुला लेने में उन्हें संकोच नहीं, फिर कहती हैं, प्रीति बेटा एक बार मिल लो आगन्तुक से...भाड़ में जाएँ उनके आगन्तुक...। प्रीति की पलकें गीली हो गयीं।

अरे...रे...। अपना रूमाल प्रीति की ओर बढ़ाते हुए सुधांशु बोला, इसमें आंसू टपकाने जैसी क्या बात...घोष भी किसी का बेटा है...अपनी ममी-पापा का दुलारा...।

उसके पापा नहीं हैं। माँ के साथ यहीं लोदी एस्टेट में रहता है।

अरे वाह, कितना सुखद संयोग...दामाद बिल्कुल पड़ोस में रहता हो...फिर परेशानी क्या?

तुम्हें मज़ाक सूझ रहा है। कुर्सी खिसका उठने का उपक्रम करती हुई प्रीति बोली।

बैठो-बैठो... कुछ गंभीर हो लेते हैं। क्षणिक विराम के बाद सुधांशु बोला, तुम क्या चाहती हो?

यह बताना होगा?

सन्नाटा। बेयरा दूसरी बार आया, सर कुछ और...।

दो कोल्ड कॉफी...। सुधांशु ने आर्डर किया, क्यों प्रीति...?

हुंह।

ओ.के.। दो कोल्ड कॉफी। सुधांशु ने पुन: बेयरे से कहा।

बात यह है प्रीति कि मैं बहुत ही सामान्य परिवार से...।

सुधांशु की बात बीच में काटती हुई प्रीति बोली, कितनी बार यह सब बोलोगे...सामान्य...सामान्य...। यह सब कहकर बचना चाहते हो। तब स्पष्ट कह दो...मैं उनमें नहीं कि तुम्हारे गले लटक जाऊँगी। उसका स्वर उत्तेजित था। उसने क्षणांश के लिए अपने को रोका फिर बोली, सुधांशु, मैंने ममी-पापा को अपनी पसंद बता दी हैं। यदि तुम्हें ऐतराज है...परेशानी है...पुराने खांचे को...मतलब सामाजिक खांचे से है...तुम बाहर नहीं निकलना चाहते हो तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन मैं स्पष्ट सुनना चाहती हूँ। माना कि शादी एक सामाजिक दायित्व है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि उसे न करने वाला असामाजिक हो जाता है। बाबा की कई कलीग हैं जिन्होंने शादी नहीं की ...वे आई.ए.एस. हैं...सुन्दर हैं...समझा जा सकता है कि उन्हें अपनी पसंद नहीं मिली। मान्यताएँ ध्वस्त हो रहीं हैं...कम से कम उच्चवर्ग और उच्च शिक्षित परिवारों में...सभी में न सही लेकिन एक अच्छा प्रतिशत है ऐसे लोगों का।

बेयरा कोल्ड कॉफी ले आया। प्रीति ने गिलास का पूरा पानी हलक के नीचे उतारा, आंखें भींची, फिर खोलकर कॉफी पर दृष्टि गड़ा बोली, अपने घर वालों से डिस्कस कर लो...स्वयं गंभीरता से विचार कर लो और मुझे फ़ोन पर अपना निर्णय बता देना। अपना निर्णय मैंने अपने पेरेण्ट्स को बता दिया है...तुम्हें भी, लेकिन तुम्हारे निर्णय की प्रतीक्षा रहेगी।

प्रीति, मेरी ख़ुशी में ही घर वालों को ख़ुशी होगी। लेकिन बात उनकी नहीं है।

मैं समझी नहीं।

ट्रेनिंग के बाद परमानेण्ट पोस्टिंग...उसके बाद एक वर्ष तक विभाग के अलग-अलग शहरों के भिन्न कार्य क्षेत्रों से सम्बध्द कार्यालयों में एक माह से तीन माह का प्रशिक्षण...। उसके बाद ही मुझे किसी स्टेशन पर स्थायी पोस्टिंग मिलेगी...उसके बाद...।

उसके बाद से तुम्हारा आभिप्राय?

अब भी तुम्हें आभिप्राय समझाना होगा?

सुधांशु का स्वर कुछ ऊँचा था।

हाँ, तुमने स्पष्ट कुछ भी नहीं कहा।

प्रीति। स्वर में कोमलता लाकर सुधांशु बोला, उसके बाद...हम शादी कर लेंगे।

तुम्हारे ममी-पापा...?

उन्हें ऐतराज नहीं होगा। वे सीधे-सरल गाँव के लोग हैं।

गांव के लोग सीधे-सरल होते हैं?

तुम्हें ग़लत फहमी है।

अब गाँव के लोग शहर वालों के कान काट रहे हैं।

यह संख्या अभी पांच प्रतिशत भी नहीं होगी। हाँ, कुछ लोंगो में शहरी राजनीति प्रवेश कर गयी है और वे गाँव को नर्क बनाने में जुटे हुए हैं... मात्र अपने स्वार्थ के लिए।

शायद तुम मुझसे सहमत होगे कि राजनीतिज्ञों का बड़ा वर्ग गाँव से आया है। क्षेत्रीय पार्टियाँ बनाने वाले वही लोग हैं और एक दिन ये लोग राजनीति को यदि नियंत्रित करने लगें तो आश्चर्य नहीं ...फिर गाँव वाले सीधे-सरल कहाँ रहे?

मैं मानता हूँ, लेकिन ये गिनती के लोग हैं.. और यह भी सच है कि इनका बढ़ता वर्चस्व न समाज हित में है न देश हित में। ये भूखे लोग हैं...कल्पना की जा सकती है कि कितना खायेंगे। भरा पेट कुछ कम खायेगा, जबकि खाली पेट बदहजमी हो जाने तक खाता जायेगा...और बदहजमी के लिए हाजमोला लेता जायेगा...डायजिन भी चबायेगा। तमिलनाडु अच्छा उदाहरण है। बिहार और उत्तर प्रदेश भी हैं। इन पार्टियों और उनके नेता जिस प्रकार जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं वह देश-समाज के लिए घातक है। कल तक कण्डीडेट होता था... उसके काम होते थे। जनता कम जागरूक थी, फिर भी वह इतना जानती थी, कौन-कैसा है। लेकिन अब ब्राम्हण, राजपूत, भूमिहार, यादव आदि जातियों में लोगों को इन लोगों ने बाट दिया है।

ओह, तुमने तो लंबा भाषण ही दे डाला...लेकिन तुम्हारे ममी-पापा को क्या मुझ जैसी महानगरीय परिवेश में पली-बढ़ी लड़की पसंद आएगी?

यह तो तुम्हें सोचना है कि तुम उन्हें पसंद कर पाओगी?

मुझे कोई परेशानी नहीं।

तुम्हारे ममी-पापा...?

उन्हें भी नहीं होगी।

यह तम्हारा सोचना है। क्या कभी इस विषय पर अपने पेरेण्ट्स से चर्चा की है?

की नहीं, लेकिन तुम्हारी चर्चा करने पर मां-बाबा दोनों के ही चेहरे खिल उठते थे।

यह चर्चा मेरे आई.ए.एस. में आने के बाद ही की होगी?

ऑफकोर्स...।

यदि मैं क्लर्क बनता तब?

प्रीति ने ऐसे प्रश्न की आशा नहीं की थी। वह अचकचा गई। क्षणभर लगा उसे अपने को प्रकृतिस्थ करने में, तुम मेरी परीक्षा ले रहे हो?

यूं ही...।

युनिवर्सिटी समय से ही तुम मेरी पसंद बन गये थे। यह तुम्हें भी पता है। हाँ, यदि क्लर्क बनते तब बाबा को कुछ तकलीफ अवश्य होती, लेकिन अपनी बेटी की ख़ुशी में वह अपनी भावना पर काबू पा लेते।

लेकिन तब क्या तुम ख़ुश हो पाती?

फिर वही परीक्षा?'

बिल्कुल नहीं। एक यथार्थ प्रश्न।

जिन्दगी में सभी को सब कुछ नहीं मिलता सुधांशु।

तुम्हें मिल रहा है?

अब तुम चुप रहोगे?

प्रीति झटके से उठ खड़ी हुई। सुधांशु उसे क्षणभर तक खड़ा देखता रहा, फिर वह भी उठ खड़ा हुआ।