गलियारे / भाग 16 / रूपसिंह चंदेल

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भिन्न शहरों में अवस्थित प्ररवि विभाग के कार्यालयों में एक वर्ष तक प्रशिक्षण लेने के बाद सुधांशु की पहली पोस्टिंग पटना हुई। एक वर्ष के दौरान प्रीति से फ़ोन पर ही उसकी बातें होती रहीं और जिस माह उसने पटना ज्वाइन किया, उसी माह नृपेन मजूमदार ने अवकाश ग्रहण किया। प्रीति के आग्रह पर माह के अंतिम दिन वह सुबह की फ्लाइट से दिल्ली आया। एयरपोर्ट से वह सीधे अपने हेडक्वार्टर ऑफिस गया। यह आवश्यक था। आवश्यक इसलिए था क्योंकि यह उसका पहला ऑफिशियल टूर था, जो केवल प्रीति के आग्रह पर उसे बनाना पड़ा था। यद्यपि बिना काम ऐसे कार्यक्रम बना लेना उसके सिध्दांत के विरुध्द था, लेकिन जब उसने अपने उच्चाधिकारी से एक दिन के अवकाश के लिए कहा, कारण जानने के बाद वह बोले, मिस्टर सुधांशु, इस कार्यालय में ज्वाइन किए आपको नौ दिन हुए हैं...निजी कार्य से अवकाश लेना आपके हित में नहीं है।

सर, जाना आवश्यक है।

निश्चय ही होगा, लेकिन निदेशक साहब के पास जब आपका प्रार्थना पत्र जाएगा, वह आपको बुलाकर दस प्रश्न करेंगे...ऐसे टेढ़े प्रश्न कि उत्तर देना कठिन होगा।

सर...। सुधांशु के चेहरे पर मायूसी छा गयी।

आप उनके सभी प्रश्नों के उत्तर दे देंगे तब भी वह संतुष्ट नहीं होंगे...क्योंकि वह जन्मत: असंतुष्ट व्यक्ति हैं।

सुधांशु को हंसी आ गयी, लेकिन उसने उसे रोक लिया। बॉस की बातों से उसके चेहरे पर से मायूसी की परत हट गयी।

सुधांशु सुधांशु, जो मेज पर सामने रखे एक नोट को पढ़ने लगा था, चौंका, सर।

आपका प्रशिक्षण पूरा हो चुका है?

जी सर।

लेकिन कुछ बातें सीखने में आप चूक गये हैं।

सर। सुधांशु का चेहरा गंभीर हो उठा।

किसी भी अफसर की मेज पर रखे किसी काग़ज़ या फाइल को तब तक नहीं पढ़ना चाहिए जब तक उसे पढ़ने के लिए वह अफसर कहे नहीं।

सॉरी सर।

दूसरी बात...आप क्लास वन अफसर हैं...न कि बाबू...या क्लास दो अफसर।

सुधांशु बॉस के चेहरे की ओर देखने लगा।

आपके कंधों पर इस देश का भार है। देश को चलाने वाले हम ही हैं। हमारे बल पर ही सरकारें टिकी होती हैं...। ऐसे ज़िम्मेदार लोगाें को कुछ अलिखित...अकथित अधिकार प्राप्त होते हैं।

सर।

अपने काम कभी रुकने नहीं चाहिए और सरकारी काम में बाधा भी नहीं होनी चाहिए। आप अवकाश लेंगे...एक दिन का सरकारी काम रुकेगा। बाहर जाएँगे...दिल्ली...पैसा ख़र्च होगा। क्यों ख़र्च करो पैसा। क्यों लो अवकाश। दिल्ली में हमारा हेडक्वार्टर ऑफिस है। कुछ न कुछ काम लगा ही रहता है प्रशासन का...। क्षणभर के लिए रुके बॉस, प्रशासन क्यों...वह मैं ही लिख कर दे सकता हूँ, लेकिन कुछ याद कर बॉस फिर रुक गये, नहीं, लिखकर प्रशासन को ही देना पड़गा कि अमुक केस डिस्कस करने के लिए सुधांशु दास को दिल्ली भेजना आवश्यक है...प्रशासन से सैंक्शन लेनी होगी। निदेशक की अनुमति के बिना क्लास वन अफसर कहीं टूर पर नहीं जा सकता।

सर। सुधांशु ने कहना चाहा कि बिना काम के सरकारी टूर बनाना नैतिक रूप से अनुचित है, 'लेकिन अपने से दो पद बड़े उस अधिकारी से यह कहना दुस्साहस माना जाएगा' सोचकर वह चुप रहा। उसे याद था कि वह प्रोबेशन पर था। अपने से वरिष्ठ अफसर की सुनना और उसके हाँ में हाँ मिलाते रहना और यदि वह ग़लत कह रहा है तब संशोधन देते समय इतना विनम्र दिखना कि वरिष्ठ का अहम आहत न हो, उसने प्रशिक्षण काल में सीख लिया था। लेकिन अकारण ही सरकारी धन का दुरुपयोग उसे समझ नहीं आ रहा था।

वैसे काम कुछ ख़ास नहीं है...लेकिन उसे ख़ास बना देने का वेतन ही तो हम पाते हैं। छ: महीना पहले हेडक्वार्टर को एक प्रस्ताव भेजा था अपने कार्यालय और उप-कार्यालयों के क्लास फोर्थ कर्मचारियों के जाड़े के कपड़ों के लिए... आज भी हेडक्वार्टर वही राशि देता है जो वह दस साल पहले देता था। तब उन्हें जो कपड़े दिए जाते थे उनमें ट्वीड का कोट और उसी का पैण्ट होता था। अब उस राशि में जर्सी भी नहीं आती...पैण्ट की बात ही क्या। गर्म जुराबों की जगह साधारण जुराबें और बाटा की जगह लोकल बने जूते...।

सर। बॉस, जिनका नाम दलभंजन सिंह था, के बोलने पर विराम लगा। वह सुधांशु की ओर देखने लगे, कुछ कहना चाहते हो? सिर पर पीछे बचे बालों पर हाथ फेरते हुए उन्होंने पूछा।

जी सर।

हाँ।

सर, मैंने सुना है कि बाबू लोग आधी राशि का बंदर बाट कर लेते हैं...फिर आधी में वही कपड़े आएँगे, जिनकी आप बात कर रहे हैं।

तुमने सही सुना है। तीखी नजरों से सुधांशु की ओर देखते हुए दलभंजन सिंह बोले, सुधांशु, अभी तुम नये हो...विद्यार्थी जीवन से सीधे प्रवेश किया है। नौ दिनों तक उसे आप कहने के बाद अचानक बहुत आत्मीय हो उठे दलभंजन सिंह, विद्यार्थी जीवन के आदर्श नौकरी में नहीं चलते। कुछ समय तक ही रहता है वह बुखार। उन्होंने फिर तीक्ष्ण दृष्टि डाली सुधांशु पर।

मैं भ्रष्टाचार का दुश्मन हूँ...रिश्वतखोरों को फांसी का पक्षधर, लेकिन जब देखता हूँ कि सभी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं...तब बाबू बेचारे ने कौन-सा गुनाह किया है। उसे वेतन ही कितना मिलता है! दूसरे विभागों में इतना मिलता है कि उनका परिवार आराम की ज़िन्दगी बसर कर सकता है, बच्चों को वे अच्छे स्कूलों में पढा सकते हैं लेकिन सरकारी बाबू ...बाबू ही क्यों दूसरे दर्जे का अफसर भी...बेहतर जीवन के लिए तरसते हैं। ऐसी स्थिति में जो उनके हाथ लगता है उसमें अपना हिस्सा निकाल लेते हैं।

क्लास फोर्थ के साथ घोर अन्याय होता है सर...उन्हें चार साल में कपड़े दिए जाते हैं...उसमें भी कटौती...।

लेकिन तुम देखोगे कि वे सीजन में एक बार भी उन कपड़ों को नहीं पहनते। उन्हें वे बेच देते हैं...। कुछ देर चुप रहे दलभंजन सिंह, मैं सब जानता हूँ, लेकिन आंखें बंद किए रहता हूँ। क्लास फोर्थ जूते लेना पसंद नहीं करता, क्योंकि जो जूते दफ़्तर खरीदता है वे उन्हें पसंद नहीं आते...उसकी जगह वे नकद की मांग करते हैं। हमें हेडक्वार्टर के आदेश हैं कि उन्हें खरीदकर जूते ही दें और वे नकद मांगते हैं। हमें बीच का रास्ता निकालना पड़ता है। हम उन्हें नकद देते हैं और प्राप्ति में जूते पाने पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं। तुम सुनकर चौंकोगे, इनमें कई पैसे मिलते ही ठेके पहुँचते हैं...और दफ़्तर आते हैं हवाई चप्पलों में...पूरे जाड़े। किस-किस को सुधारोगे।

जी सर। सुधांशु ने कुछ भी न कहना उचित समझा।

यही वह प्रस्ताव है। छ: महीनों से हेडक्वार्टर में लटका पड़ा है। जाड़ा आने वाला है। चार साल बाद मिलने वाले कपड़ों की क्लासफोर्थ को प्रतीक्षा रहती है, बावजूद इसके कि वे उसे कभी नहीं पहनते। मेरा सेक्शन अफसर दो बार इसके लिए मुझे याद करवा चुका है। दो डेमी ऑफिशियल पत्र लिख चुका हूँ, लेकिन हेडक्वार्टर कानों में तेल डाले बैठा है। आपने अच्छे समय दिल्ली जाने की बात की...जब हमारे पास सरकारी ख़र्च पर भेजने का उपाय है तब आप अपना अवकाश और पैसा क्यों ख़र्च करते हैं। हेडक्वार्टर में आप सहायक महानिदेशक सदाशिवम से मिल लेना। उन्हें पत्र देकर केवल इतना ही कहना है कि कार्य को शीघ्र सम्पन्न करवायें। बस्स...। दलभंजन सिंह के चेहरे पर मुस्कान फैल गयी, एक लाभ और है सरकारी टूर पर जाने का।

सुधांशु दलभंजन सिंह के चेहरे की ओर देखने लगा।

गाड़ी भी मिलती है और गेस्ट हाउस भी।

मैं बहुत जूनियर हूँ सर...गाड़ी उप-निदेशक से ऊपर ही मिलती होगी...।

हाँ, लेकिन विशेष मामलों में जूनियर के लिए भी वह सुविधा है। मैं फ़ोन कर दूंगा वहाँ प्रशासन में...तम्हें एयरपोर्ट लेने आएँगे वे...गेस्ट हाउस की व्यवस्था करेंगे और छोड़ने भी जाएँगे। पटना आने से पहले मैं हेडक्वार्टर में ही था।

थैंक्यू सर। उठ खड़ा हुआ था सुधांशु।

मैं आपके टूर के लिए निदेशक को नोट भेजता हूँ। आप जूनियर हो इसलिए हवाई यात्रा के लिए उनकी विशेष अनुमति चाहिए होगी।

एयर पोर्ट से सुधांशु दिल्ली कैॅण्ट स्थित गेस्ट हाउस गया। गेस्ट हाउस में हेडक्वार्टर ऑफिस के बाबुओं की डयूटी शिफ्ट में लगती थी। उनके साथ एक चपरासी भी रहता था। एक बाबू सुबह छ: बजे से दो बजे तक, दूसरा दो बजे से रात दस बजे और तीसरा रात दस बजे से सुबह छ: बजे तक गेस्ट हाउस के रिसेप्शन पर तैनात रहता था। चपरासी केवल दो होते थे। एक दिन के लिए और एक रात के लिए और उन्हें बारह घण्टे हाजिरी देनी होती थी। गेस्ट हाउस सैन्य परिसर में था, इसलिए सुरक्षा की समस्या न थी। दो जवान परिसर के गेट पर हर समय गन के साथ तैनात रहते थे। उस परिसर में सैन्य अधिकारियों का गेस्ट हाउस भी था और दिन-रात गाड़ियों का आवागमन लगा रहता था, जिसकी व्यवस्था देखने के लिए मेन गेट के बाद एक ऑफिस था, जहाँ तीन सैन्य कर्मचारी तैनात रहते थे। मेन गेट पर एक बैरियर लगा हुआ था, जो निरंतर ऊपर उठता-गिरता रहता था।

गेस्ट हाउस में आने वाले अधिकारियों का रिकार्ड प्र।र। विभाग के बाबू के पास भेज दिया जाता था। आने वाले अतिथि को, मेन गेट पर कुछ क्षण के लिए रुकना पड़ता। मेन गेट पर तैनात एक सिपाही कुछ दूर पर रिकार्ड देखने वाले बाबू से फ़ोन पर आगन्तुक के विषय में तहकीकात कर लेता तभी उसे अंदर जाने देता। प्र।र। विभाग का वह गेस्ट हाउस कर्नल के समकक्ष रैंक के अधिकारियों के लिए था। उससे ऊपर रैंक के अधिकारियों के लिए दो अलग गेस्ट हाउस थे।

लेकिन प्ररवि विभाग के अधिकारियों के लिए वही एक मात्र अतिथिगृह था, जहाँ सहायक निदेशक से लेकर महानिदेशक तक को ठहरना होता। हालांकि महानिदेशक विभाग का मुखिया था और वह दिल्ली में ही तैनात था, इसलिए उसके ठहरने का प्रश्न तभी उत्पन्न होता जब किसी दूसरे शहर में तैनात किसी वरिष्ठतम निदेशक को पदोन्नति देकर महानिदेशक बनाया जाता और अपना पद-भार ग्रहण करने आने पर उसे तब तक उस गेस्ट हाउस में ठहरना होता जब तक महानिदेशक अपने पदानुरूप सरकारी मकान नहीं पा लेता। महानिदेशक का पद मंत्रालय के एक वरिष्ठ अपर सचिव के समकक्ष था और उसे पैंतीस हज़ार कर्मचारियों का शीर्ष अधिकारी होने का सुख प्राप्त था। सरकारी भाषा में उसे उनका नियोक्ता माना जाता था। वह प्रथम श्रेणी अधिकारियों का नियोक्ता नहीं था।

दलभंजन सिंह ने सदाशिवम को फ़ोन करके सुधांशु के लिए गेस्ट हाउस में कमरा बुक करवा दिया। वह सुबह नौ बजे एयर पोर्ट पहुँचा। सुधांशु दास की तख्ती के साथ एक ड्राइवर एयरपोर्ट के बाहर खड़ा था। सदाशिवम ने दलभंजन सिंह को यह बताया था और एक वर्ष प्रशिक्षण के दौरान शहर-दर शहर घूमते हुए सुधांशु भी यह जान चुका था। तब वह अकेला नहीं होता था, उसका पूरा बैच होता था। उस वर्ष के बैच में नौ युवक और चार युवतियाँ थीं। तेरह का बैच एक साथ एक स्थान से दूसरे स्थान जाता और उसके लिए व्यवस्था की गई गाड़ियों के ड्राइवर तख्ती में विभाग का या निदेशक कार्यालय का नाम लिख कर खड़े होते थे। प्रत्येक गाड़ी में ड्राइवर की सहायता के लिए सम्बध्द कार्यालय का एक बाबू भी होता था। उन बाबुओं को दफ़्तर की ओर से ऐसे ही कामों में नियुक्त किया जाता था। सुधांशु ने अनुभव किया था कि एक-दो को छोड़कर लगभग सभी अपनी स्थितियों से परम संतुष्ट दिखते थे। उनकी संतुष्टि का सबसे बड़ा कारण होता उन युवा अधिकारियों के संपर्क में आना, उनकी सेवा के अवसर प्राप्त करना, जो भविष्य में उनके सह निदेशक से लेकर महानिदेशक तक बनने वाले थे। ऐसे अफसरों के लिए प्राय: निजी ट्रेवेल एजेंसी की गाड़ियाँ बुक करवाई जातीं, जो निश्चित अवधि के बाद किलोमीटर दर से सड़कों पर दौड़तीं। वे चार या आठ घण्टों के लिए बुक होतीं और उस अवधि के पश्चात समय और किलोमीटर के हिसाब से दफ़्तर एजेंसी को भुगतान करता। इसमें एक और पेंच था। ये गाड़ियाँ निश्चित शुल्क पर चार घण्टे के लिए चालीस और आठ के लिए अस्सी किलोमीटर के हिसाब से बुक होती थीं। उस समय सीमा के दौरान यदि वे चालीस और अस्सी से कम चलतीं, जैसा कि प्राय: होता ही था, तब भी उनका भुगतान दूरी की निर्धारित सीमा के बाद प्रतिकिलोमीटर की दर से बढ़ाकर एजेंसी को किया जाता था।

अफसरों की सेवा में तैनात बाबू ड्राइवर से अधिकतम किलोमीटर की रसीद लिखवाता और अतिरिक्त राशि का हिसाब स्वयं रखता, अपने अनुभाग अधिकारी को बताता और एजेन्सी के मालिक को नोट करवाता। कार्यालय से एजेंट को भुगतान का चेक पहुँचने के बाद गाड़ियों के दिखाए गए अतिरिक्त किलोमीटर का हिसाब वह एजेंसी में जाकर कर आता। कभी-कभी एजेण्ट स्वयं किसी बाबू को किसी रेस्टॉरेण्ट में बुलाकर उनका भुगतान कर देता, जिसमें अनुभाग अधिकारी के साथ उन सभी बाबुओं का हिस्सा होता, जिन्हें अफसरों के साथ उनकी गाड़ियों में दौड़ना पड़ता था। ऐसा केवल प्ररवि विभाग में होता था, ऐसा नहीं, देश का कोई भी विभाग, यहाँ तक कि केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्रालय और कार्यालय भी इस बीमारी से अपने को बचा नहीं पाए थे।

एयर पोर्ट पर ड्राइवर के हाथ में अपने नाम की तख्ती देख सुधांशु इस विषय में सोचने लगा था। इतने दिनों में उसे विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की कुछ बातों का ज्ञान हो चुका था। यह पहला अवसर था जब ड्राइवर के साथ कोई बाबू नहीं था।

गाड़ी में बैठते ही उसके ग्रामीण संस्कार उभर आए। उसने ड्राइवर से पूछा, आप हेडक्वार्टर में हैं?

नहीं सर...अमन ट्रेवल एजेंसी से हूँ सर। हरियाणवीं खड़ी बोली में ड्राइवर बोला।

ड्राइवर ने उसकी ओर देखा और कैण्ट की खाली सड़क पर अपनी सफेद एम्बेसडर दौड़ा दी।

गाड़ी गेस्ट हाउस के बाहर लाल बजरी पर जा रुकी। गेस्ट हाउस का बाबू और चपरासी आगे बढ़ आए। सुधांशु ड्राइवर द्वारा बनाई गई रसीद पर हस्ताक्षर करने के लिए रुका हुआ था, जबकि ड्राइवर मीटर में रीडिंग देखने का नाटक कर रहा था। वास्तव में ड्राइवर सुधांशु से हस्ताक्षर नहीं करवाना चाहता था। उसे ऐसे ही निर्देश थे...हेड क्वार्टर के अनुभाग अधिकारी के साथ ही एजेंसी के मालिक के। सुधांशु इस तथ्य से परिचित हो चुका था और खडा था, जबकि दूसरे अफसर गाड़ी में सामान छोड़कर चले जाते थे। बाबू उन्हें उनके लिए सुरक्षित कमरे में छोड़ गाड़ी के पास जब तक वापस आता तब तक ड्राइवर और मीटर में रीडिंग देखकर रसीदबुक निकाल चुका होता था। चपरासी अफसर की अटैची उसके कमरे में पहुँचाता और बाबू रसीद पर मनमानी रीडिंग दर्ज करता।

लेकिन गेस्ट हाउस के बाबुओं की गतिविधियों से सुधांशु परिचित हो चुका था और उसने दृढ़ निश्चय किया हुआ था कि अपनी जानकारी में वह किसी को भी रिश्वत नहीं लेने देगा।

आप अभी तक रीडिंग नहीं देख पाये? सुधांशु ने ड्राइवर से पूछा जो सीट पर बैठा मीटर पर झुका हुआ था।

चपरासी ने झुककर सुधांशु को नमस्कार करते हुए हाथ आगे बढ़ा दिया, 'सर अटैची...।

सुधांशु ने अटैची चपरासी को पकड़ा दी। चपरासी गेस्ट हाउस की ओर मुड़ा, लेकिन सुधांशु को खड़ा देख रुक गया। रमेश साथ था।

सर, आप चलिए मैं रसीद में साइन कर दूंगा। रमेश ने कहा।

नो प्राब्लम। सुधांशु के उत्तर से रमेश बुझ गया। ड्राइवर भी समझ गया कि जवान खून अड़ियल है। हस्ताक्षर करके ही टलेगा। रसीद पर सही रीडिंग दर्जकर ड्राइवर ने रसीद सुधांशु की ओर बढ़ाते हुए कहा, सर आप भी एक बार रीडिंग चेक कर लें।

ओ.के.। सुधांशु ने स्वयं रीडिंग चेक की, रसीद में लिखी रीडिंग से मिलान किया और हस्ताक्षर कर रसीद ड्राइवर को लौटाते हुए धन्यवाद कह तेजी से गेस्ट हाउस की ओर बढ़ गया। रमेश दौड़कर उसके पीछे चलने लगा और चपरासी अटैची उठाये कोई फ़िल्मी गाना गुनगुनाता हुआ उनसे पर्याप्त फ़ासला बनाकर चला। उनके चलने पर बजरी पर किर्र-किर्र की आवाज़ हो रही थी।

उस समय गेस्ट हाउस के लॉन में लगे चम्पा के पेड़ पर एक चिड़िया फुदक रही थी।