गलियारे / भाग 17 / रूपसिंह चंदेल

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सुधांशु के कमरे में पहुँचने के दस मिनट बाद ही रमेश ने दरवाज़े पर दस्तक देते हुए 'मे आई कम इन सर' कहा।

कम इन।

हाथ में छोटी-सी नोट बुक थामे रमेश कमरे में यूं प्रविष्ट हुआ... बिना आवाज़ पंजो के बल... मानो वह कोई गुनहगार था।

यस। सामने पड़ते ही सुधांशु बोला।

सर, नाश्ता तैयार है।

यहीं भेज दो।

सर, नागपुर के निदेशक सर, दो संयुक्त निदेशक और एक डिप्टी सर हैं...वे लोग मेस में पहुँच चुके हैं।

उन लोगों के नाश्ता कर लेने के बाद मेरे लिए नाश्ता भेज देना।

जी सर। रमेश फिर भी खड़ा रहा। सुधांशु को लगा कि वह कुछ कहना चाहता है।

कुछ कहना है...?

सर आपका प्रोग्राम? बहुत ही दबी ज़ुबान रमेश ने पूछा। सुधांशु को हंसी आ गयी...वह पहले मन ही मन हंसा फिर मायूस होकर सोचने लगा, अफसरशाही का आंतक...इस देश में बाबू एक अफसर के सामने अपने को कितना दयनीय अनुभव करता है।'आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी कुछ भी नहीं बदला। वही शासन पध्दति...उन्नीसवीं शताब्दी के अनेक नियम-कानून...यह देश कैसे बराबरी कर पाएगा विकसित और तेजी से विकासशील देशों का!

ब्रेकफास्ट के बाद मैं हेडक्वार्टर जाऊँगा।

जी सर।

यहाँ से क्या व्यवस्था है वहाँ पहुचने की?

सर, हमारे पास दो गाड़ियाँ हैं।

ओ.के... ।

एक में नागपुर के निदेशक सर और संयुक्त निदेशक सर चले जाएँगे और...।

आपका नाम अभी तक नहीं पूछा।

सर, रमेश...रमेश दयाल...।

वेल, मिस्टर रमेश...डायरेक्टर साहब को अकेले जाने दें... दोनाें संयुक्त निदेशकों को दूसरी गाड़ी में भेज दें ...बाकी...तीसरा कौन है?

सर, डी.पी. सर...।

डी.पी... ?सुधांशु को कुछ भी समझ नहीं आया।

जी सर, देवेन्द्र प्रताप मीणा सर।

कहाँ से...?

सर शायद पूना से आए हैं...कल उन्होंने हेडक्वार्टर ऑफिस में ज्वाइन किया है।

क्या हैं?

सर, शायद डिप्टी हैं...लेकिन मुख्यालय में सहायक महानिदेशक होंगे।

अच्छा। क्षणभर ख़ामोश रहा सुधांशु, मैं ऑटो लेकर चला जाऊँगा।

सर, ऐसा कैसे हो सकता है। मैं अभी फ़ोन करता हूँ अपने सेक्शन अफसर को...वह गाड़ी का इंतज़ाम कर देंगे...। फिर बहुत ही संकुचित स्वर में वह बोला, सर, आप डी.पी. सर के साथ चले जाइएगा...उनके लिए मेरा सेक्शन अफसर अलग से गाड़ी भेज देगा।

क्यों?

डी.पी. सर, सहायक महानिदेशक, प्रशासन बनकर आए हैं।

ओह...। रमेश की ओर देखकर मुस्कराया सुधांशु। उसके मुस्कराने का रहस्य रमेश भी समझ गया। उसके चेहरे पर भी हल्की मुस्कान तैर गयी, लेकिन खुलकर वह मुस्करा नहीं सका।

सभी जगह प्रशासन वालों का अधिक खयाल रखा जाता है।

सर।

ओ.के. मिस्टर रमेश...आप यहीं नाश्ता भेज दें और मेरे लिए गाड़ी के लिए परेशान न हों... नहीं होगी तब मैं ऑटो लेकर चला जाउंगा।

जी सर। रमेश पलटकर कमरे से बाहर निकल गया तो सुधांशु कुछ देर आराम करने लेने के विचार से बेड पर लेट गया।

हेडक्वार्टर ऑफिस जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था हो गयी थी। गाड़ी में बैठते हुए मीणा ने सुधांशु की ओर हाथ बढ़ा अपना परिचय देते हुए कहा, हलो सुधांशु दास...आय एम देवेन्द्र प्रताप मीणा।

हाथ मिलाते हुए सुधांशु ने मीणा पर गहरी नजरें गड़ाते हुए कहा, हाऊ आर यू सर?

फाइन...। क्षणभर बाद मीना ने पूछा, आप पटना में हैं?

जी सर।

पहली पोस्टिंग है?

जी सर।

सर, आप? सुधांशु ने जानकर प्रश्न किया।

मैं पूना में था। हेडक्वार्टर में सहायक महानिदेशक के पद के लिए मुझे बुलाया गया है...कल ही ज्वाइन किया है।

बधाई सर।

धन्यवाद, लेकिन बता दूं...हेडक्वार्टर ऑफिस...कोई अच्छी जगह नहीं है। वहाँ अपनी भावनाओं को मार कर रहना होता है।

सुधांशु चुप रहा। मीणा उसके चेहरे की ओर देखता रहा।

मैंने सुना है कि कुछ लोग यहाँ की पोस्टिंग पाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाते हैं। कुछ देर बाद सुधांशु बोला।

किसी हद तक सही सुना आपने। लेकिन मैं तो फंस गया यार!

सुधांशु मीणा के 'यार' शब्द पर चौंका।

आप किस बैच के हैं सर?

आपसे चार बैच पहले...।

सर, हेडक्वार्टर ऑफिस में काम करने की अपनी समस्याएँ हैं, लेकिन लाभ भी तो होंगे कुछ।

लाभ...पहला अनुभव होगा। लाभ का पता नहीं, लेकिन हानि बहुत है। काम का बोझ लाद देते हैं ...आदमी गधा बन जाता है।

मुस्करा दिया सुधांशु।