गलियारे / भाग 1 / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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आम के पेड़ पर सरसराती हवा। हवा में बहकर आती बौरों की सोंधी गंध। उस गंध में मिश्रित क्यारियों में खिले फूलों की महक। महक में एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराते भौरों के झुण्ड। कलरव करते पक्षी। बंगले की छत पर उतरने को उद्यत सूर्य को गुटरगूं करके प्रणाम करते कबूतर और लॉन में घुस आयी बिल्ली को दौड़ाता उनका लेब्रा साशा।

'बसंत पूरे शबाब पर है।' मंद कदमों से लॉन में टहलते हुए उन्होंने सोचा।

बंगले के मेन गेट के पास एक ओर आम का पेड़ था और दूसरी ओर नीम का। आम में घनी बौरें आयी हुई थीं। बंगले की बाउण्ड्री-वाल के साथ क्यारियाँ बनाई गई थीं, जिनमें गेंदे से लेकर गुलाब के फूल लगे थे और सभी खिले हुए थे। पेडों की शाखाओं के बीच से होकर सूरज की किरणें उन्हें छूने लगी थीं। उनके स्पर्श से फूल खिलखिला उठे थे।

बिल्ली साशा को चकमा देकर बाउण्ड्री वाल पर चढ़ी, फिर मेन गेट के बांये गुबंद पर बैठ साशा की ओर अपनी छोटी आंखें गड़ा देखने लगी। साशा गुबंद के पास उछलकर भोंकता रहा, लेकिन बिल्ली चुप उसकी ओर देखती रही।

साशा पूंछ हिलाता उनकी ओर देखने लगा था।

उनकी नज़र आम की एक डाल पर बैठे गौरय्या के जोड़े पर जा टिकी। 'कितना शांत -कितना निश्चिंत...।' लॉन के बीच पड़ी कुर्सी की ओर बढ़ते हुए उन्होंने सोचा और दीर्घ निश्वास ली।

कुर्सी पर बैठ वह देर तक गौरय्या के जोड़े को देखती रहीं। चिड़ा चिड़िया के साथ छेड़छाड़ करने लगा। चिड़िया उड़कर दूसरी डाल पर जा बैठी। क्षणभर बाद चिड़ा भी उसके पास जा पहुँचा और कुछ दूर बैठकर चिड़िया को घूरता रहा, फिर फुदकता हुआ उसकी ओर बढ़ने लगा। उसके अपने निकट आने से पहले ही चिड़िया फुर्र उड़ गयी। उन्होंने दीर्घ निश्वास ली, उधर से अपनी नजरें हटाईं और गेट की ओर देखने लगीं, जहाँ साशा अभी भी बिल्ली की ओर गर्दन ताने कूं कूं कर रहा था।

सड़क पर हॉकर अखबारों का बण्डल साइकिल की कैरियर पर रखे दौड़ा जा रहा था।

'आज अभी तक अख़बार नहीं आया' उन्होंने सोचा,'लेकिन आज वह आ रहा है।' उसका खयाल आते ही उनका चेहरा म्लान हो गया। कल रात उसका फ़ोन आया था। कल लंच के समय कोई कार्यक्रम मत बना लेना प्रीति।

क्यों?

मैं यहीं हूँ।

कहाँ?

नेशनल डिफेन्स अकेडमी के गेस्ट हाउस में।

कब आए?

शाम की फ्लाइट से।

हुंह।

हुंह क्या?

वह चुप रहीं।

तुम्हारे बंगले से दूर नहीं हूँ। तुमने डिनर ले लिया होगा?

उन्होंने उत्तर नहीं दिया।

नो प्राब्लम कल लंच तो साथ ले सकेगें?

मिनिस्ट्री में मीटिगं है दस बजे आ पायी तो।

मैं फ़ोन करूंगा ओ.के।

गुड नाइट।

वह तब भी चुप रही थीं।

उन्हें झटका लगा था। लेकिन मीणा... डी.पी. मीणा की यह आदत थी। सदैव बात की सीमा वही तय करता था... वह रात ही बंगले में आना चाहता था... थोड़ी भी रुचि दिखातीं तो केवल 'एक कप चाय पिऊँगा...बस्स...' कह वह आ धमकता।...लेकिन अब वह अतीत को पुन: दोहराना नहीं चाहतीं।

उन्होंने घड़ी देखी। सात बजने वाले थे। साशा को आवाज़ दी, साशा... चलो बेटा...।

साशा ने मुड़कर उनकी ओर देखा, दो बार बिल्ली की ओर भोंकते हुए छलांग लगायी, फिर कूं-कूं किया और उनके पीछे दौड़ लिया। उन्होंने मेड को आवाज़ दी, माया, साशा को ब्रेकफॉस्ट दो...मैं नहाने जा रही हूँ।

जी मेम साहब। खिड़कियों की डस्टिंग करती माया बोली और बाहर निकलकर साशा को बुलाने लगी।