गलियारे / भाग 21 / रूपसिंह चंदेल
प्रीति और सुधांशु का विवाह दिल्ली में हुआ। विवाह बंगाली रीति-रिवाज से सम्पन्न हुआ जिसमें सुधांशु के घर से केवल उसके मां-पिता शामिल हुए थे। उसके पिता ने रिश्तेदारों और गाँव के कुछ लोगों को निमंत्रित किया था, लेकिन कोई भी दिल्ली जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
बेटा जो कर रहा है उसमें दखल देने का हमें कोई हक़ नहीं है। दखल तब दिया जाए जब वह कुछ अनुचित कर रहा हो। मुझे नहीं लगता कि सुधांशु कभी ग़लत कर सकता है...गांववाले और रिश्तेदारों को भले ही लगे, लेकिन मुझे नहीं लगता। एक दिन सुबोध दास ने पत्नी सुगन्धि से कहा।
लेकिन बबुआ को विवाह यहीं से करना चाहिए था। उछाव-बधाव की कसक रह गयी। सुगन्धि ने लंबी सांस खींची।
बेटा को अफसर भी बनाना चाहती थी और अब जब वह अफसर बन गया तब तुम चाहती हो कि वह गाँव आकर शादी करे...।
मुझे तो डर लग रहा है।
डर किस बात का?
वो बड़े बाप की बेटी... सुना है उसके बाप बड़े अफसर थे...और कहाँ ग़रीबी में पला-पोसा हमारा सुधांशु।
तुम सारी ज़िन्दगी डरती ही रहोगी। अरे ओहका बाप अब रिटायर हो गया है। अब ना है वह अफसर...अब अपना सुधांशु अफसर है...डरना छोड़ बुढ़िया...।
आज के बाद बुढ़िया मत कहना...अभी साठ की होने में कई साल हैं।
हंसने लगे सुबोध, बुढ़ापे में अब कितने दिन रह गये हैं। लंबी सांस खींच बोले, लेकिन मुझे दूसरी ही बात की चिन्ता सता रही है।
वह क्या?
गांव वालों ने पहले ही इंकार कर दिया कि वे दिल्ली नहीं जा पायेंगे। लेकिन रिश्तेदारों ने कुछ नहीं बताया...बता देते तो उनके रेल आरक्षण भी करवा देता।
उन्हें भी कसक है।
लेकिन मैं कैसे कहूँ सुधांशु से...वह भी मजबूर है। मजूमदार साहब जल्दी ही कलकत्ता जाना चाहते हैं...इसलिए सब कुछ आनन-फानन में हो रहा है।
रिश्तेदारों से एक बार मिलकर पूछ लो...। सुगन्धि ने बात बीच में ही रोक ली।
और गाँव के दस मील के दायरे में रहने वाले अपने सभी रिश्तदारों के पास गये सुबोध, लेकिन सभी ने दिल्ली जाने से इंकार कर दिया।
दिल्ली में सुबोध और सुगन्धि के लिए नृपेन मजूदार ने इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में ठहरने की व्यवस्था करवा दी थी और सुधांशु के लिए होटल ताज में।
इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर के कमरे में सुबोध और सुगन्धि का दम घुटता। गाँव के उन्मुक्त वातावरण में बिचरने वाले उन दोनों का मन उससे सटे लोदी गार्डन में अधिक रमता। उन्होंने स्टेशन पर उन्हें लेने आए व्यक्ति से सुधांशु के बारे में पूछा था जिसने अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की थी।
अजीब बात है। मुझे पता नहीं है कि मेरा बेटा कहाँ है और हम यहाँ यों पड़े हैं मानो किसी और की शादी में आए हैं। सुबोध मन की पीड़ा छुपा नहीं पाए।
मुझे सब गड़बड़ लग रहा है सुधांशु के पापा।
गलत मत सोचो...सही सोचो...गलत हो तब भी। लेकिन मुझे उलझन हो रही है...मेरा भी तो कुछ फ़र्ज़ बनता है। कुछ देना...लेना...कहीं हमें उल्लू तो नहीं बनाया जा रहा। शादी गुड्डे-गुड़ियों की हो रही हो जैसे...।
सुगन्धि ने दीर्घ निश्वास छोड़ी और चुप रही।
शाम चार बजे के लगभग सुधांशु मिलने आया। वह एक घण्टा पहले ही पटना से दिल्ली पहुँचा था, सीधे होने वाली सुसरबाड़ी। पता चलते ही मां-पिता से मिलने दौड़ा आया था।
हमारा दिल नहीं लग रहा बेटा। सुबोध बोले।
हंस दिया सुधांशु, कुछ दिनों की ही बात है।
लेकिन यह कैसी शादी है बेटा...ना बारात...ना उछाव...।
मां, कहते हैं न कि जैसा देश वैसा भेष...।
हम दोनों की कोई भूमिका ही नहीं दिख रही...लग ही नहीं रहा कि मेरे बेटे का विवाह है।
महानगरों में चीजें बदल रही हैं पिता जी। आपको कुछ करना ही नहीं...रात आपके लिए गाड़ी आ जायेगी...।
और तुम? सुबोध से रहा नहीं गया।
मेरे लिए इन लोगों ने होटल ताज में कमरा बुक करवाया है।
सब कुछ मजूमदार साहब ने किया है? सुगन्धि बोली।
सुधांशु माँ की बात का उत्तर देने ही जा रहा था कि पिता की आवाज़ सुनाई दी, मजूमदार साहब हमारे समधी होने जा रहे है।...सुबह से हम यहाँ पड़े हुए हैं...एक बार भी मिलने नहीं आए... ये कैसी रिश्तेदारी हैं बेटा...?
सुधांशु चुप रहा। कुछ देर तक कमरे में चुप्पी पसरी रही। कुछ देर बाद सुधांशु बोला, मुझे होटल जाना है। रात आपके लिए वे लोग गाड़ी भेज देंगे पिता जी... मैं वहीं मिलूंगा। सुधांशु मां-पिता के चरणों में झुक गया तो आशीर्वाद देते हुए दोनों की ही आंखें गीली हो गयीं।
शादी के अगले दिन सुधांशु और प्रीति शिमला चले गये। सुबोध और सुगन्धि तीन दिन दिल्ली में रहे और ये तीनों ही दिन इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में, लेकिन तीनों ही दिन लंच और डिनर के लिए नृपेन मजूमदार ने उन्हें घर बुलाया। पहली बार वह स्वयं गाड़ी ड्राइव कर उन्हें लेने आए जबकि बाद में ड्राइवर आया। उन्होंने सुबोध और सुगन्धि को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह एक उच्चाधिकारी थे। नृपेन ने सुबोध को अपने भाई जैसा सम्मान दिया जिससे दोनों पति-पत्नी प्रसन्न थे और निरंतर यह चर्चा करते रहे कि सुधांशु ने प्रीति के साथ शादी करके ग़लती नहीं की कि वे प्रीति को बेटी की भांति मानेंगे कि प्रीति भी उनका मां-पिता की भांति सम्मान किया करेगी, जिसके मां-पिता इतने नेक हैं उसकी संतान भी भली ही होगी। वे उस क्षण को याद करते जब प्रीति ने विवाह मंडप से उठते ही उन दोनों के चरण स्पर्श किये थे। सुगन्धि ने प्रीति को गले लगाकर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी थी।
नृपेन मजूमदार दूसरे दिन डिनर के बाद बोले, भाई साहब, कल ड्राइवर आपको दिल्ली घुमा देगा...लाल किला, जामा मस्जिद, कुतुब मीनार...राजघाट...।
नृपेन की बात सुनकर सुबोध पत्नी की ओर देखने लगे थे। सुगन्धि के मन की बात थी, लेकिन केवल कहने के लिए कहा, आप क्यों परेशान होंगे भाई साहब।
इसमें परेशानी कैसी!
दूसरे दिन दिल्ली-दर्शन कर अपने नसीब को सराहते रहे सुबोध। चौथे दिन उन्हें स्टेशन छोड़ने के लिए नृपेन और कमलिका गए। सुबोध और सुगन्धि के मना करने के बावजूद तीन बड़े पैकेट, मिठाई के डिब्बे, दो बड़ी अटैचियों में कपड़े आदि बाँध दिया था मजूमदार दम्पति ने। ट्रेन छूटने के समय नृपेन ने सुबोध को गले लगा लिया। कमलिका भी सुगन्धि से गले मिली।
ट्रेन छूटने के बाद कमलिका ने पति से कहा, सीधे-सरल हैं दोनों।
हमारी प्रीति समझदार है। प्लेटफार्म से बाहरे आते हुए मजूमदार बोले।
शिमला से लौटकर सुधांशु और प्रीति एक दिन के लिए दिल्ली रुके और अगले दिन शाम की फ्लाइट से पटना चले गये। कुछ दिनों बाद नृपेन और कमलिका कलकत्ता जाते हुए दो दिनों के लिए पटना रुके। उन दोनों को प्रसन्न देख नृपेन मजूमदार ने पुन: कमलिका से कहा, कमल, अपनी प्रीति बहुत समझदार है।
कमलिका केवल मुस्करायीं, जिसका अर्थ था कि वह बिल्कुल ठीक कह रहे थे।
आखिर बेटी किसकी है!
पति की इस टिप्पणी पर कमलिका फिर मुस्कराई।
कलकत्ता के अपने घर को सुव्यवस्थित करने और कुछ आवश्यक कार्य करवाने में मजूमदार को एक महीना से अधिक समय लगा। लेकिन उन्हें दिल्ली के सरकारी बंगले की चिन्ता भी परेशान कर रही थी, क्योंकि बंगले में शोभित अकेला था।
'दिल्ली में अपराधों में तेजी से वृध्दि हो रही है...और अब तो ये अपराध घरेलू नौकर ही करने-करवाने लगे हैं।' नृपेन मजूमदार कभी-कभी सोचते, 'लेकिन शोभित ऐसा नहीं है। वह दूसरे नौकरों से अलग है। क्यों न मैं कमल को भेज दूं। यहाँ का काम मैं स्वयं करवा लूंगा। लेकिन कमल को अकेले भेजना ठीक नहीं। लेबर बढ़ा लेता हूँ, काम जल्दी समाप्त हो जाएगा। साथ जाकर जल्दी ही वहाँ सामान पैक कर इधर आना होगा।'
कमलिका प्रतिदिन सुबह-शाम शोभित से फ़ोन पर हाल-समाचार लेती। शोभित के अपने सर्वेण्ट क्वार्टर के अतिरिक्त उन्होंने वह कमरा ही खुला छोड़ा था जिसमें टेनीफोन था।
सब ठीक है मेम साब। शोभित उनके पूछने पर कहता।
आज क्या पकाया था शोभित?
मैडम कद्दू की सब्जी और चपाती।
कद्दू ...मछली नहीं लाया?
मैडम वह तो नहीं लाया?
क्यों?
मैडम ...बस्स...।
पैसे हैं ना...मैं देकर आयी थी।
शोभित चुप रहता। कह नहीं पाता कि मैडम आपने जितने पैसे दिए थे वे संभालकर ख़र्च नहीं करूंगा तो आपके आने से पहले ही ख़र्च हो जायेंगे।
शोभित, पौधों को समय से पानी देते रहना और किसी भी अनजान व्यक्ति को बंगले के अंदर मत आने देना। कोई परिचित भी आए तो यह मत बताना कि हम लोग दिल्ली से बाहर हैं।
जी मैम। लेकिन तभी शोभित को लगता कि वह यह पूछना ही भूल गया कि साहब कैसे हैं और तुरंत पूछता, मेम साहब, साहब कैसे हैं?
बिल्कुल ठीक हैं। तुम्हे बहुत याद करते हैं। शोभित जानता था कि यह बात मैडम ने अपनी ओर से कही है। तभी श्रीमती कमलिका मजूमदार की आवाज़ सुनाई देती, हम लोग जल्दी ही आयेंगे...तुम बंगले में ही रहना...दोस्तों के साथ खेलने-घूमने मत जाना।
मैडम, यहाँ मेरा कोई दोस्त नहीं है।
यह तो ठीक है। और कमलिका मजूमदार फ़ोन काट देतीं। प्रतिदिन वह यही बातें करतीं और प्रतिदिन शोभित यही उत्तर देता।
दूसरी बार भी नृपेन मजूमदार बेटी-दामाद से मिलने पटना पहुँचे। उन्होंने दिल्ली का सरकारी बंगला खाली कर दिया था। सामान के लिए कंटेनर बुक करवाया था। शोभित को कालका मेल से कलकत्ता रवाना करके पति-पत्नी सुबह की फ्लाइट से पटना पहुचे, एक दिन रुके और दूसरे दिन सुबह की फ्लाइट से कलकत्ता चले गये। वे शोभित के पहुँचने से पहले वहाँ पहुँचना चाहते थे।
चार महीनों में दो बार प्रीति कलकत्ता हो आयी थी। लेकिन यह सिलसिला आगे चलता इससे पहले ही एक दिन सुधांशु ने उससे कहा, प्रीति, तुम सिविल सेवा परीक्षा का एक अटेम्प्ट दे चुकी हो...अभी तुम्हारे पास समय है...दो अटैम्प्ट और दे सकती हो...समय नष्ट क्यों कर रही हो...तैयारी करो...।
मैं भी यही सोच रही थी। तुम दफ़्तर में होते हो तो बहुत उचाट लगता है। सुधांशु को किस करती हुई प्रीति बोली, लेकिन जब मैं भी व्यस्त हो जाऊँगी तब घर...।
उसके लिए एक मेड रख लेते हैं।
हाँ, ऐसा कर सकते हैं।
अड़ोस-पड़ोस में आने वाली मेड्स से बात करो...मैं भी अपने दफ़्तर में चर्चा करूंगा।
यार, तुम बड़े अफसर होते...डिप्टी डायरेक्टर ही हो चुके होते तब तो दफ़्तर के किसी चपरासी की बीबी आ जाती...।
नहीं प्रीति...मेरे सिध्दांत के विरुध्द है यह। मैं जानता हूँ कि चतुर्थ श्रेणी ही नहीं कुछ तृतीय श्रेणी कर्मचारियों का शोषण कर्यालयों के बड़े अफसर करते हैं, लेकिन तृतीय श्रेणी के कर्मचारी अपना हित साध लेते हैं, जबकि निरीह चतुर्थ श्रेणी केवल शोषित होता है। वह यदि कुछ लाभ उठा पाता है तो केवल इतना ही कि अपने किसी परिचित को कैजुअल नियुक्त करवा लेता है, लेकिन कितने दिनों के लिए दो...चार महीनों के लिए... ।
प्रीति ने कोई उत्तर नहीं दिया।
तुम किसी से बात करो। कोई नहीं मिलेगा तब मैं माँ को आने के लिए कहूँगा।
हूँ... अ ...कुछ करना ही होगा। पढ़ाई और घर...शायद मैं न संभाल पाऊँगी। कभी किया भी नहीं।
तुम अपनी तैयारी की सोचो...एक बार मेड्स से बात करके देखो...फिर मुझे बताओ।
प्रीति ने किसी भी मेड से बात नहीं की, जबकि आमने-सामने के मकानों में तीन मेड्स काम करने आती थीं। पूछने पर उसने कहा, बात की थी, लेकिन उन्हें समय नहीं।
वे किसी और को बता देतीं या भेजने के लिए कहतीं।
उन्होंने मेरी बात पर कान ही नहीं दिया।
ओ. के... । देर तक चुप रहने के बाद सुधांशु बोला, मां को लिखता हूँ। आ ही जाना चाहिए... पिता जी को परेशानी अवश्य होगी, लेकिन वे मैनेज कर लेंगे।
यही ठीक रहेगा।
मैं यहाँ पर मां-पिता के संघर्षों के कारण पहुँचा...अब उन दोनों को यहाँ बुला लेना चाहिए। यदि उन्हें सुख नहीं दे पाया तब इस अफसरी का क्या लाभ? सुधांशु ने कुछ सोचते हुए कहा।
दोनों लोगों के आने के बाद वहाँ की व्यवस्था गड़बड़ा नहीं जायेगी...? चिन्तामग्न भाव से प्रीति बोली, तुम बता रहे थे कि तुम्हारे पास ठीक-ठाक खेत हैं।
प्रीति, पिता जी मंझोले किसान हैं। खेत बटाई पर दे देंगे। साल में दो बार जाकर देख आया करेंगे।
मेरा सुझाव है कि माता जी को पहले बुला लो, उनकी तत्काल आवश्यकता है। मैं पढ़ाई को लेकर गंभीर हूँ। अंकल घर-खेतों की व्यवस्था करके बाद में आ जायेंगे।
हुंह। सुधांशु ने मंद स्वर में कहा, शायद तुम ठीक कह रही हो।
शायद ...? सुधांशु के गाल पर चिकोटी काटती हुई प्रीति बोली और उसके और निकट खिसक गयी।
सुधांशु अपने को रोक नहीं पाया। उसने प्रीति को अपनी ओर खींच लिया...।