गलियारे / भाग 22 / रूपसिंह चंदेल

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सुगन्धि के आने से पहले ही प्रीति ने आई.ए.एस. के लिए कोचिंग ज्वाइन कर ली थी। अपरान्ह चार बजे से रात आठ बजे तक वह कोचिंग के लिए जाती। पढ़ाई के कारण घर अव्यवस्थित रहने लगा था। यद्यपि पहले भी सुधांशु छोटे-छोटे काम कर दिया करता था, लेकिन अब प्राय: सुबह की चाय और नाश्ता वही तैयार करता। प्रीति सुबह आठ बजे पढ़ने बैठ जाती और दोपहर एक बजे तक पढ़ती रहती। सुधांशु कार्यालय की कैण्टीन का लंच लेने लगा, जबकि प्रीति अपना काम ब्रेड-चिउड़ा या कार्नफ्लेक्स से चलाती। कभी-कभी बाहर से आर्डर कर लंच मंगवा लेती। रात प्रीति के लौटने के बाद सुधांशु उसके लिए चाय बना देता और रात के भोजन में दलिया-खिचड़ी या दाल-चावल बनने लगा था।

पत्र पहुँचने और सुगन्धि के आने में तीन सप्ताह से अधिक समय बीत गया। एक बार दबी ज़ुबान सुधांशु ने प्रस्ताव किया, प्रीति, क्यों न हम दोनों गाँव चलकर माँ को साथ ले आंए। तुम मेरे गाँव गई भी नहीं। दो दिन में जाकर लौट आयेंगे।

सुघांशु, तुमसे अधिक कौन समझ सकता है इस पढ़ाई के बारे में।

वह मैं समझता हूँ, लेकिन परीक्षा के लिए कई महीने हैं और दो दिन ...।

तुम चाहो तो चले जाओ... जहाँ तक मेरा प्रश्न है...मैं नहीं जाऊँगी। गाँव देखने में मेरी कोई रुचि नहीं है। टी.वी. में वहाँ की गंदगी देखती रही हूँ...। क्षण भर के लिए प्रीति रुकी। सुधांशु की ओर टकटकी लगाकर देखती रही, वैसे तुम मुझे छोड़कर कहाँ जाओगे! माँ जी आ ही जायेंगी। तब तक कुछ परेशानी ही सही...।

प्रीति की बात सुधांशु को आहत कर गयी, लेकिन उसने प्रकट नहीं होने दिया। उसने प्रसंग बदल दिया और उसकी तैयारी के विषय में बात करने लगा।

प्रतिदिन रात में एक घण्टा सुधांशु प्रीति के अध्ययन में सहायता करता था। दुरूह प्रश्नों का सहज विश्लेषण करता। उसने उस दिन यह निर्णय किया कि वह कभी भी प्रीति से अपने गाँव जाने के विषय में प्रस्ताव नहीं करेगा। 'दिल्ली जैसे महानगर में पली-बढ़ी लड़की से गाँव जाने की अपेक्षा करना ही मूर्खता है।' उसने सोचा, 'दिल्ली पढ़ने जाने के बाद मैं ही कितनी बार गया गांव!'

सुगन्धि ने आते ही व्यवस्था संभाल ली। लेकिन उनके काम का ढंग प्रीति को पसंद नहीं आता था। सफ़ाई के बावजूद उसे घर गंदा ही नज़र आता। एक दिन उसने सुधांशु से कह ही दिया, मां जी गाँव के संस्कार साथ लेकर आयीं हैं।

मतलब?

मतलब यह कि उनके हर काम में गाँव का फूहड़पन दिखाई देता है।

प्रीति की इस टिप्पणी ने अंदर तक सुधांशु को छील दिया। देर तक वह उस बात को जज्ब करने का प्रयत्न करता रहा, लेकिन अपनी बेचैनी पर जब वह काबू नहीं पा सका बोला, एक काम करता हूँ।

प्रीति सुधांशु के चेहरे की ओर देखने लगी।

मां को वापस भेज देता हूँ। तुम किसी मेड का प्रबंध नहीं कर सकी, मैं प्रयत्न करके देखता हूँ।

मेरी बात का बुरा मान गए?

बिल्कुल नहीं...सच बात का बुरा क्या मानना। माँ की सारी ज़िन्दगी गाँव में बीती है...घर, खेत, खलिहान, जानवरों के बीच...पहले ही कहा था कि मेरे मां-पिता किसान हैं...निरक्षर किसान...। वह कुशल गृहण्ाी हैं, लेकिन कुशलकर्मी नहीं...काम करना उन्हें आता है, लेकिन नफासत वह नहीं जानतीं। इस शब्द से शायद ही वह परिचित हों। लेकिन उनके काम में ईमानदारी का अभाव नहीं है...यह मेरी कल्पना से भी बाहर है। सुधांशु को लगा कि इतना कहते हुए वह हाँफ गया है।

आय मए सॉरी सुधांशु। तुम निश्चित ही बुरा मान गए हो।

सुधाशु ने प्रतिक्रिया नहीं दी।

मां जी को कहीं नहीं भेजोगे। मेड से काम नहीं चलेगा। इनके रहने से घर की निश्चितंता रहती है।

सुधांशु इस बार भी प्रतिक्रिया न व्यक्त कर स्टडी में चला गया। कुछ देर बाद प्रीति भी आ गयी। दरअसल स्टडी पर उन दिनों प्रीति का कब्जा था, जहाँ रात सुधांशु एक घण्टा उसे गाइड करता था। इससे पहले वह वहाँ साहित्य अध्ययन करता और कभी-कभी कविता या कोई आलेख लिखता। उसकी कविताएँ और आलेख पत्र-पत्रिकाओं से वापस लौट आते या आते ही नहीं थे।

सुगन्धि ने प्रीति को दूसरे कामों से ही मुक्त नहीं किया बल्कि वह उसके कपड़े भी धो देती थीं, बहू तुम केवल पड़ाई करो...कठिन पढ़ाई है...मैंने कभी पढ़ाई नहीं की तो क्या...लेकिन जानती हूँ और देख भी रही हूँ कि बहुत मेहनत करनी पड़ती है। तुम रोज़ फल, दूध, बादाम का सेवन किया करो। पढ़ाई में भेजा कमजोर न हो जाए... ।

प्रीति सास की बात सुनकर मन ही मन मुस्कराती और केवल इतना ही कहती, जी... मां जी।

सुगन्धि ने प्रीति से कहा ही नहीं, उसके लिए अलग से एक लीटर दूध लेने लगीं। स्वयं बाज़ार जाकर देशी घी, बादाम ले आयीं। फल सुधांशु ले ही आता था। दिन में चार बार बिना प्रीति के कहे वह उसके लिए चाय बना देतीं।

डायनिंग टेबल पर जब प्रीति भोजन कर रही होती, सुगन्धि उसका चेहरा ताकती बैठी रहतीं, जबकि प्रीति उनकी ओर देखती भी नहीं थी। कुछ सोचते हुए यदि वह क्षणभर के लिए भोजन रोक देती, सुगन्धि अपने को रोक नहीं पातीं, बेटा कुछ और लायी?

अंय...।

कुछ और लायी?

नो...थैंक्स।

बेटे के पास रहते हुए सुगन्धि अंग्रेज़ी के कुछ शब्द समझने लगी थीं।

कोई बात नहीं...तुम इत्मीनान से खाना खाओ। सारा दिन पढ़ते हुए दिमाग़ खराब हो जाता होगा। सुगन्धि बुदबुदातीं।

लेकिन प्रीति उनकी बात का उत्तर नहीं देती। भोजन समाप्त कर तेजी से उठती और वॉशबेसिन की ओर लपक लेती।

आई.ए.एस. की परीक्षा समाप्त होने के दूसरे दिन प्रीति कलकत्ता चली गई। सुगन्धि गाँव जाना चाहती थीं, लेकिन प्रीति के लौटने तक उन्हें रुकना पड़ा। प्रीति एक माह कलकत्ता रही, लेकिन जिस दिन उसे पटना लौटना था उससे एक सप्ताह पहले सुधांशु माँ को लेकर गाँव गया। दो दिन गाँव में रहा। उसे यह देख आश्चर्य हो रहा था कि उससे मिलने के लिए पूरा गाँव उसके दरवाज़े एकत्रित हुआ था। लोग आते उसे आशीषते, सुबोध और सुगन्धि के भाग्य को सराहते और वापस लौट जाते। युवा और किशोरों के लिए सुधांशु प्रेरणा श्रोत बन गया था। लेकिन कल तक जो युवक उससे घुलमिलकर सलाहें लेते थे वे उसे नमस्कार या चरणस्पर्श कर संकुचित भाव से एक ओर खड़े हो गये तो सुधांशु सोचने के लिए विवश हुआ, 'जब ये अपने लोग गाँव के व्यक्ति के अफसर बनते ही एक दूरी अनुभव करने लगे हैं तब इस देश में'अफसरशाही'और'लालफीताशाही'की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। कहने के लिए हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, लेकिन इस देश का लोकतंत्र कुछ लोगों के हाथों बंधक है...नेता, अफसर और पूंजीपतियों के हाथों...।'