गलियारे / भाग 24 / रूपसिंह चंदेल
प्रशिक्षण के बाद प्रीति की पहली पोस्टिंग देहरादून हुई। उससे पहले अपने बैच के तेरह अधिकारियों के साथ एक सप्ताह के लिए उसे दिल्ली स्थित मुख्यालय में पोस्ट किया गया था। सभी अधिकारियों के ठहरने की व्यवस्था कैण्ट स्थित गेस्ट हाउस में थी। वहीं उस विभाग का प्रशिक्षण केन्द्र भी था। सप्ताह के चार दिन उस बैच के अधिकारियों को सुबह से शाम तक विभागीय प्रशासनिक सेवा सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया गया। इसके लिए प्रधान कार्यालय के उच्च अधिकारी आए और उन्होंने विभागीय कार्य शैली के साथ ही यह भी बताया कि उन लोगाें को अपने अधीनस्थों के साथ किस प्रकार पेश आना होगा कि वे देश की उस सेवा वर्ग का हिस्सा हैं जिसे विशिष्ट, महान, प्रतिभाषाली और गौरवशाली माना जाता है। वे ही देश के हाथ-पैर हैं। भले ही आम जनता उनसे सीधे संपर्कित नहीं, लेकिन वे जिस कार्य के लिए नियुक्त हुए हैं वह किसी भी सचिव या कलक्टर से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वे उन समस्त सुविधाओं के अधिकारी हैं, जो मंत्रालय में बैठे आधिकारी भोगते हैं या देश के कर्णधार कहे जाने वाले नेता।
उन अधिकारियों ने उन्हें यह भी बताया कि अब उनका अपना अलग वर्ग है और उन्हें उसी वर्ग विशेष का हिस्सा बनकर रहना है। अपने मातहतों से अधिक संपर्क-सम्बन्ध उनके पद की गरिमा के अनुकूल नहीं होगा।
प्रीति ने घुट्टी की भांति उन नसीहतों को ग्रहण किया। पिछले दो वर्षों में उसमें एक अलग प्रकार का परिवर्तन हो चुका था और यह परिवर्तन सुधांशु से छुपा नहीं था। विभागीय प्रशिक्षण के अंतिम दौर में वह पन्द्रह दिनों के लिए पटना कार्यालय गयी थी, लेकिन एक बार भी वह सुधांशु के ऑफिस के कमरे में नहीं गई। दिन में वह अपने बैचमेट्स के साथ रहती और सेक्शन-दर सेक्शन घूमती। घर में वह सुधांशु के रहन-सहन पर टीका-टिप्पणी करने लगी थी। टॉवेल साफ़ नहीं है, कपड़े ढंग से प्रेस नहीं हैं...कैसे अफसर हो तुम सुधांशु ...टिपटॉप रहना सीखो...गांव को कब तक ढोते रहोगे...दफ्तर के बाद लिखना-पढ़ना ...कुछ प्रैक्टिकल बनो...अखबारों-पत्रिकाओं में छपने से कुछ हासिल नहीं होगा...देखते हो अपने संयुक्त निदेशक को...लग्जरी कार में चलते हैं। वेतन से कभी ऐसी कार खरीद पाते वह?...कुछ सीखो उन लोगाें से। लेकिन सुना कि मेरी अनुपस्थिति में तुम इन सब चीजों पर ध्यान देने के बजाय फटीचर हिन्दी साहित्यकारों के साथ अधिक समय बिताते रहे हो।
किसने कहा यह सब तुमसे? सुधांशु चुप नहीं रह सका।
पूरा दफ़्तर जानता है। कोई एक कहता तब विश्वास नहीं होता...।
प्रीति मैं दूसरों की भांति नहीं हो सकता। मैं जो हूँ वही रहना चाहता हूँ। अफसर होने का यह मतलब नहीं कि अपनी जड़ों से कट जांऊ।
मत कटो। पैर पटकती प्रीति दूसरे कमरे में चली गयी थी।
पटना का प्रशिक्षण समाप्त होने के बाद उसके बैच के सभी लागों को एक बार पुन: दिल्ली जाना था, अपनी पोस्टिगं के लिए। प्रीति ने जब सुधांशु को बताया कि उसे सोमवार को हेडक्वार्टर ऑफिस पहुँचना है और उसका आरक्षण अपने बैचमेट्स के साथ है शुक्रवार का तब सुधांशु बोला था, तुम आरक्षण बदलवा लो...रविवार की किसी गाड़ी से चलकर सोमवार को सुबह पहुँच जाना।
हम सभी को रिसीव करने के लिए हेडक्वार्टर ऑफिस के लोग आएँगे...और अब समय भी नहीं है...।
हुंह...। कुछ देर सोचने के बाद सुधांशु बोला, तुमने पहले क्यों नहीं बताया...दो दिन पहले बता रही हो...लेकिन अभी भी मैं कोशिश कर सकता हूँ...तुम्हारे साथ और दो दिन रहने के लिए मिल जाएँगे।
सभी टिकटें एक साथ हैं।
तुम चाहो तो मैं व्यवस्था कर लूंगा।
यार, दो साल से अलग हैं... दो दिन में ...।
ओ.के.। सुधांशु का मन कचोट गया। उसने दीर्घ निश्वास ली।
प्रीति के साथ एक लड़की थी कुलविन्दर कौर, जिसका परिवार चण्डीगढ़ में था। दिल्ली पहुँचकर उसने चण्डीगढ़ जाने का निर्णय किया हुआ था। स्टेशन से उसे सीधे आई.एस.बी.टी. जाना था। दो दिन घरवालों के साथ बिताकर सोमवार सुबह सीधे हेडक्वार्टर ऑफिस पहुँचने का उसने निर्णय किया हुआ था। यह बात स्वयं प्रीति ने सुधांशु को बतायी थी।
'सभी अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहते हैं, लेकिन...।' इसके आगे सुधांशु ने नहीं सोचा।
प्रीति शुक्रवार को राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली चली गई। सुधांशु उसे छोड़ने स्टेशन गया। प्रीति के बैचमेट्स सुधांशु से जूनियर थे इसलिए वह सभी के लिए 'सर' था। हालांकि आयु में दो-तीन उसके हमउम्र थे। लेकिन यही दस्तूर था और वह जानता था कि केवल उसीके विभाग का नहीं, सभी विभागों में ऐसा ही होता है कि अपने से दस दिन सीनियर को भी सभी 'सर' सम्बोधित करते हैं और जब कोई पद में एक-दो रेैंक बड़ा होता है तब उसके सामने यूं विनयावनत रहते हैं कि यदि वह उन्हें घुटनों के बल रेंगने के लिए कह दे तो वे वह भी करने को तैयार हो जायें।
तीन दिन तक प्रीति और उसके बैच के सभी लोग, जिन्हें सहायक निदेशक पद से अलंकृत किया जाना था, मुख्यालय जाते रहे। अब वे विभाग के अतिथि नहीं थे, जैसा कि वे तब थे जब वे वहाँ प्रशिक्षण के दौरान थे। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से गेस्ट हाउस पहुँचाने के बाद उनकी खैर-खबर लेने के लिए कोई नहीं आया। स्वयं ऑटो-बस की सेवाएँ लेकर वे सब मुख्यालय पहुँचते रहे। सुबह से देर शाम तक एक-दूसरे के चहरे देखते वे बैठे रहे। बात भी करते तो फुसफुसाकर। प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने जान लिया था कि 'पिन ड्रॉप साइलेंस' किसे कहा जाता है। वे सब इस इंतज़ार में दरवाज़े की ओर ताकते बैठे रहते कि कोई अफसर आकर उन्हें सूचित करेगा कि उनकी प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हो चुकी और कुछ ही देर में उन्हें पोस्टिंग आर्डर दिया जाएगा। लेकिन अनुशासन के बोझ से झुकी गर्दन वाले भाव से भरे कनिष्ठ और उच्चाधिकारी उनकी ओर रुख नहीं कर रहे थे। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि यह भी उनके प्रशिक्षण का ही हिस्सा है। वे भी कभी उच्चाधिकारी होंगे...तब उन्हें भी अपने जूनियर्स के साथ ऐसे ही पेश होना होगा। ब्यूरोक्रेसी के ये अघोषित नियम हैं और यह भाव आते ही उनकी उकताहट कम हो गयी थी। 'इंतजार का अंत होता ही है...यह प्रकृति का नियम है।'
बीच-बीच में कभी दरवाज़ा खुलता और कोई चेहरा अंदर झांकता, फिर ससंकोच अंदर दाखिल होता और अत्यंत विनम्र स्वर में बताता कि अमुक-अमुक को अमुक अफसर ने अपने चेम्बर में बुलाया है।
जिन लोगों को बुलाया जाता वे प्रशिक्षण के दौरान मुख्यालय से मिले अपने बैग थामे उस व्यक्ति के पीछे हो लेते। उस अफसर के साथ उन लोगों की मीटिंग पन्द्रह मिनट से दो घण्टे तक होती, जिसमें वरिष्ठ अफसर उन्हें उनकी कनिष्ठता का एहसास करवाते हुए नए सिरे से उन्हें प्रशासनिक नुक्ते बताता। बारी-बारी से सभी को तीन-चार के बैच में जाना पड़ा, शेष दीवारों पर टंगी पेटिंग्स देखते या एक-दूसरे के चेहरे पढ़ते बैठे रहे।
प्रीति और कुलविन्दर को सबसे पहले महानिदेशक ने बुलाया, अपरान्ह लंच के बाद उन्हें अपर महानिदेशक प्रशासन ने याद किया और पांच बजे के लगभग देवेन्द्र प्रताप मीणा ने बुलाया।
मीणा लगभग पांच फीट नौ इंच लंबा, गोरा-बड़ी आंखें, चौड़ा माथा, फूले गाल...आकर्षक व्यक्तित्व वाला व्यक्ति था। जब उसे यह पता चला कि प्रीति सुधांशु दास की पत्नी है, वह किलकता हुआ बोला, ओह ...सुधांशु...आई नो हिम...ही इज अ नाइस पर्सन। वेरी नाइस...अ बिट शाई नेचर्ड...।
प्रीति मुस्कराती रही।
तो वह पटना में है...।
जी।
आप दोनों क्लास-फेलो थे...?
नहीं, मैं उनसे एक वर्ष जूनियर थी।
और नौकरी में भी जूनियर...हा...हा...।
मीणा ने घण्टी बजायी। घण्टी की आवाज़ के साथ ही चपरासी दरवाज़ा खोलकर झांका।
तीन कॉफी।
सर, बड़े साहब के यहाँ से हम लोग पीकर आए हैं।
बड़े साहब...अरे यहाँ मुझे छोड़कर सभी बड़े साहब ही हैं...किन बड़े साहब की बात कर रही हो कुलविन्दर? एक नोट पर हस्ताक्षर करता हुआ मीणा बोला।
सर, अपर महानिदेशक, प्रशासन के साथ।
उनसे अधिक अच्छी और हॉट कॉफी मैं पिलाउंगा। क्यों प्रीति...?
सर।
खड़ा चेहरा क्या तक रहा है...तीन कॉफी लेकर आ। मीणा ने चपरासी को डांटा।
सॉरी सर। घबड़ाकर चपरासी ने दरवाज़ा बंद कर दिया।
आर यू आल्सो मैरीड? मीणा ने कुलविन्दर की ओर रुख करके पूछा।
नो सर।
ओ.के.। वह प्रीति की ओर मुड़ा। उसने एक और फाइल उठा ली थी। उसमें कुछ पढ़ते हुए उसने प्रीति से पूछा, प्रीति, शादी के बाद आई.ए.एस. करना कठिन होता है...कैसा था अनुभव?
मेरे साथ ऐसा नहीं था सर। मेरी तैयारी पहले से ही थी।
ओ.के.। प्रीति कुछ और भी कहना चाह रही थी, लेकिन उसे रुकना पड़ा, क्योंकि मीणा इंटरकॉम पर किसी को डांटने लगा था।
फाइल ले जाओ और नोट को नये सिरे से लिखो...अंग्रेजी नहीं आती तो कोई कोर्स ज्वायन करो मिस्टर...तुम्हें सेक्शन अफसर किसने बना दिया! काबिलियत चपरासी की भी नहीं...बने हुए हो सेक्शन अफसर।
मीणा ने इंटरकॉम रखा ही था कि सेक्शन अफसर अपराधी की भांति कमरे में दाखिल हुआ और सर कहकर हाथकर बंांध खड़ा हो गया।
मीणा ने फाइल फ़र्श पर पटकते हुए तीखे स्वर में कहा, नोटिंग-ड्राफ्टिंग नहीं आती? ...उठाओ फाइल और घर जाने से पहले ड्राफ्ट दोबारा लिखकर लाओ।
जी सर। कांपते हाथों सेक्शन अफसर ने फाइल उठायी, उसे सहेजा क्योंकि पटकने से फाइल अस्त-व्यस्त हो चुकी थी और दबे पांव लौट गया।
मीणा कुलविन्दर और प्रीति को और देर तक रोकना चाहता था लेकिन कॉफी समाप्त होने के साथ ही महानिदेशक का चपरासी दरवाज़े से झांका तो मीणा बोला, यस?
सर, बड़े साहब बुला रहे हैं।
मुझे या इन मैडमों को।
सर, आपको।
ओ.के... सॉरी प्रीति-कुलविन्दर...हम कल फिर मिलेंगे। मीणा ने नोट पैड पकड़ा और महानिदेशक से मिलने जाने के लिए व्यस्तता प्रदर्शित करता हुआ बोला, एनी प्राब्लम?
नथिंग सर।
कुछ होगी तो बेहिचक बताना...। वह दरवाज़े की ओर बढ़ा, कल नहीं तो परसों आप लोगों की पोस्टिंग मिनिस्ट्री से आ जाएगी।
थैंक्यू सर। कुलविन्दर और प्रीति भी मीणा के साथ बाहर जाने के लिए खड़ी हो गयी थीं।
मीणा तेजी से बाहर निकल गया।
अगले दो दिन भी मीणा ने विशेषरूप से प्रीति और कुलविन्दर को बुलाया। तीसरे दिन शाम उसने प्रीति को अकेले बुलाया और बहुत ही रहस्यमय स्वर में बोला, आप तैयारी कर लें अगले सोमवार को आपको देहरादून कार्यालय में रिपोर्ट करना है।
थैंक्यू सर।
बाबू आप सबको छ: बजे तक आर्डर दे देगा। कुछ देर पहले ही मंत्रालय से आया है, लेकिन यह बात आप किसी को बतायेंगी नहीं।
जी सर। लेकिन प्रीति अपने को रोक नहीं पायी, सर कुलविन्दर?
वह लकी है...उसे चण्डीगढ़ मिल गया है।
सर, मेरा पटना के लिए नहीं हो सकता?
अब नहीं, लेकिन मैं कोशिश करूंगा कि सुधांशु दास का ट्रांसफर देहरादून हो जाए। मीणा ने प्रीति के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, पति-पत्नी को एक स्टेशन पर रखने का प्रयास रहता है सरकार का...होना भी चाहिए... सरकार अपने कर्मचारियों के हित के विषय में कितना सोचती है...इसे उसकी दयालुता मानना चाहिए।
जी सर।
सो, यू आर अ फेथफुल वाइफ।
प्रीति का चेहरा लाल हो उठा।
ओ.के. प्रीति। प्रीति के चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए ही मीणा बोला, मैं सुधांशु के ट्रांसफर के लिए पूरी कोशिश करूंगा ...जितनी जल्दी हो सका...वह देहरादून में होगा। मीणा उठ खड़ा हुआ। प्रीति भी खड़ी हो गयी, ओ.के... विस अ वेरी हैपी लाइफ...। उसने प्रीति की ओर हाथ बढ़ा दिया। प्रीति ने भी हाथ बढ़ाया।
मीणा ने जिस गर्मजाशी से हाथ मिलाया उसे प्रीति ने अनुभव किया।
शाम ठीक छ: बजे सभी को पोस्टिंग आर्डर दे दिए गए। कुलविन्दर विशेष प्रसन्न थी। कुछ अंदर से उदास थे, क्योंकि वे जहाँ अपनी पोस्टिंग की अपेक्षा कर रहे थे, उन्हें नहीं मिली थी। प्रीति न प्रसन्न थी, न दुखी।