गलियारे / भाग 25 / रूपसिंह चंदेल
सुधांशु ने एक सप्ताह का अवकाश लिया और प्रीति के साथ देहरादून गया। कार्यालय ने प्रीति के लिए इंस्पेक्शन बंग्लो में एक सुइट बुक करवा दिया था। उसे आशा थी कि जल्दी ही उसे सरकारी मकान मिल जाएगा, लेकिन कार्यालय में उसे बताया गया कि मकान मिलने में कम से कम दो माह का समय लगेगा।
सुधांशु यह सोचकर प्रीति के साथ गया था कि उसके लिए कार्यालय का मकान खाली होगा और वह उसके लिए आवश्यक वस्तुएँ जुटा देगा। वह वापस पटना जाये या पूरा अवकाश समाप्त कर लौटे यह वह सोच ही रहा था कि दूसरे दिन शाम चाय पीते हुए प्रीति बोली, सुधांशु, तुम दिन भर यहाँ पडे बोर हो जाओगे। जब तक मकान नहीं मिलता, मैं यहीं रह लूंगी। यहाँ मेस की सुविधा है और मकान मिलते ही मैं तुम्हे बताउंगी। तुम चाहो तो कल लौट जाओ... ।
हुंह...। सुधांशु सोचता रहा।
बुरा मत मानना...।
इसमें बुरा क्या मानना। यह ठीक रहेगा। लेकिन कल का आरक्षण मिलना कठिन होगा। वह सोच में डूब गया।
मैं यहाँ के एडमिन अफसर से पूछती हूँ कि कल सुबह चार बजे तुम्हारे लिए कोई टैक्सी की व्यवस्था कर सकता है दिल्ली जाने के लिए? वहाँ से फ्लाइट मिल जाएगी। मिस्टर सिंह को...अपने बॉस दलभंजन सिंह को अभी फ़ोन कर दो कि तुम कल वापस लौट रहे हो।
एयर टिकट...? चिन्तित स्वर में सुधांशु बोला।
एडमिन अफसर उसका इंतज़ाम कर देगा। आजकल सभी काम एजेण्ट करते हैं और इन अफसरों का उनसे कमीशन बंधा होता है।
वाह, तुम्हें ज्वाइन किए दो दिन हुए हैं और तुम्हें इन बातों की जानकारी भी हो गई।
यार, मैं तुम्हारी तरह केवल क़लम घिस्सू अफसर नहीं हूँ...एक साल से इधर-उधर भटक कर ट्रेनिंग ली है मैंने और तभी इन बातों की जानकारी भी मिली। मुझे यह भी पता है कि अपने विभाग के किस कार्यालय में कितनी चांदी है।
मतलब?
मतलब यही कि जहाँ-जहाँ कांट्रैक्टर्स के माध्यम से काम होते हैं, वहाँ उनसे कमीशन बंधा होता है और जहाँ अफसर सीधे खरीद करते हैं वहाँ खरीदी गयी वस्तुओं में वे सीधे कमीशन खाते हैं।
कमाल है! इतने कम समय में इतनी जानकारी...।
जी हाँ...तुम्हे पता नहीं होगा...लखनऊ कार्यालय प्र।र। कर्मियों के लिए मेडिकल सम्बन्धी आर्थिक व्यवस्था देखता है। वहाँ के निदेशक के बारे में अखबारों में धुआंधार समाचार छपते रहे...पढ़ा था?
टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू में तो नहीं थे।
यार, देश में ये ही अख़बार तो नहीं निकलते। दैनिक जागरण और स्वतंत्रभारत ने निरंतर कई किस्तों में वहाँ के निदेशक अरविन्द के. श्रीवास्तव के बारे में प्रकाशित किया था कि उन्होंने प्र।र। कर्मियों के लिए दवाएँ और प्रर अस्पतालों के लिए इंस्ट्रूमेण्ट्स आदि सप्लाई करने में चार वर्षों में कमीशन के रूप में लगभग डेढ़ करोड़ रुपए कमाए और आश्चर्यजनक रूप से चार वर्षों से मंत्रालय और मुख्यालय को भेजी गई शिकायतों के बावजूद न ही उनके खिलाफ कोई कार्यवाई हुई और न ही उन्हें वहाँ से हटाया गया।
मंत्री जी तक शेयर पहुँचाया गया होगा। क्या पता मुख्यालय में महानिदेशक भी बहती गंगा में हाथ धोते रहे हों। क्षणभर चुप रहकर सुधांशु बोला, सभी भ्रष्ट है।...एक अरविन्द के.श्रीवास्तव ही क्यों...पूरी व्यवस्था ही सड़ चुकी है। लेकिन यह सब तुम्हें कैसे पता चला...दैनिक जागरण या स्वतंत्र भारत तो तुमने भी नहीं पढ़ा होगा।
मैं कविताएँ नहीं लिखती न...। और प्रीति ठठाकर हंस दी। सुधांशु भी हंसने लगा। उसे अच्छा लग रहा था, क्योंकि आई.ए.एस. में चयनित होने के बाद से वह प्रीति के स्वभाव में आए परिवर्तन को अनुभव करता रहा था। बातचीत में वह अतिरिक्त सतर्कता बरतती थी और गंभीर रहने लगी थी, जिसे वह अन्य अफसरों की भांति बलात ओढ़ी गई कृत्रिम गंभीरता मानता था। इसके लिए उसने एक शब्द दिया हुआ था, ब्यूरोक्रेटिक सीरियसनेस'। लेकिन उसने जाना था कि ब्यूरोक्रेट्स जब अपने वर्ग के किसी समकक्ष से मिलते हैं तब उनके चेहरे सामान्य होते हैं।...वे हंसते, मज़ाक करते...यहाँ तक कि अश्लील मज़ाक और बातें करते हैं...दूसरों के बारे में निन्दा और जोड़-जुगाड़ की बातें...।' लेकिन दूसरों और विशेषरूप से अपने अधीनस्थों के प्रति वे 'ब्यूरोक्रेटिक सीरियसनेस' ओढ़ लेते हैं।
एक बात और सुधांशु...व्यस्ततावश ज़िक्र करना भूल गयी थी।
क्या ?
ज्वाइनिंग आर्डर लेने वाले दिन हेडक्वार्टर ऑफिस में डी.पी.मीणा साहब से मिली थी...एडमिन में हैं...महानिदेशक और अपर महानिदेशक प्रशासन के चहेतों में हैं...तुम्हें अच्छी प्रकार जानते हैं...।
हाँ, एक बार की मुलाकात है...वैसे वह प्रशासन में हैं तो विभाग के सभी अफसरों के बारे में उन्हें जानना ही चाहिए... ।
उन्होंने वायदा किया है कि वह देहरादून के लिए तुम्हारे ट्रांसफर की चर्चा महानिदेशक से करेंगे...कोशिश करेंगे कि जल्दी हो जाए।
तुमने इस बारे में चर्चा की थी?
बिल्कुल नहीं...उन्होंने स्वयं ही चर्चा की...उन्हें मालूम है...।
हुंह। सुधांशु क्षणभर कुछ सोचता रहा, फिर बोला, बातों में देर हो जाएगी...पहले अपने एडमिन अफसर को फ़ोन कर लो...।
अरे...मैं भूल ही गयी थी। प्रीति ने एक्सचेंज के लिए नौ नंबर मिलाया और रिसीवर रख दिया। एक मिनट बाद ही एक्सचेंज से फ़ोन आया, एस मैडम।
एडमिन अफसर चावला को बोलो कि मुझसे तुरंत आकर इंस्पेक्शन बंग्लो में मिले...शायद अभी दफ़्तर में होगा...वर्ना उसके घर...नहीं मिलता तो संदेश छोड़ दो...।
ओ.के. मैडम। ऑपरेटर की आवाज़ सुनी सुधांशु ने।
अभी दो दिन हुए हैं, लेकिन तुम्हारे तो जलवे हैं।...।
यह निर्भर करता है अपने पर...आप अफसर बनकर रहना चाहते हैं या क्लर्क...। कहते ही प्रीति ने दांतों तले जीभ दबायी और चुप हो गयी।
विश्लेषण सही है।'बात सुधांशु को अंदर तक चुभी।'सोचती हैे तो सोचे, लेकिन मैं जैसा हूँ...वैसा ही रहूँगा। क्लर्क क्या इंसान नहीं...क्लर्क या उससे ऊपर का स्टॅफ न हो तो ये अफसर एक क़दम भी दफ़्तर की गाड़ी नहीं खींच पायें। निचले पाये की यह उपेक्षा...। सुधांशु ने सोचा, 'पिता से अफसरी विरासत में पायी है...जीवन क्या होता है इसे जानने के लिए व्यक्ति को नीचे भी देखना चाहिए... ऊपर सब हरा-हरा ही दिखता है। व्यवस्था के हाथ-पैर होते हैं कर्मचारी...।'
क्या सोचने लगे? बुरा लगा?
सुधांशु कोई उत्तर देता उससे पहले ही दरवाज़े की घण्टी बजी।
कम इन। सुधांशु की ओर मुड़कर प्रीति बोली, लगता है मदन लाल चावला आ गया।
दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था और वह खुला हुआ था। पर्दा उठाकर चावला अंदर झांका।
कम इन।
चावला पचास वर्ष का स्थूलकाय, साढ़े पांच फुट लंबा व्यक्ति था, जिसका चेहरा चौडा-भारी, आंखें बड़ी और नाक मोटी थी। पेट बाहर निकला हुआ था, जिससे उसकी पैंट नीचे खिसकी हुई थी।
प्रीति और सुधांशु आमने-सामने सिंगल सोफे पर बैठे हुए थे। चावला ने हाथ में नोट बुक पकड़ रखी थी। उनके सामने पहुँच उसने दाहिना हाथ छाती से लगाकर आधा झुककर उन्हें अभिवादन किया।
चावला मेरे हजबैंड सुधांशु। पटना में सहायक निदेशक...। सुधांशु की ओर इशारा करते हुए प्रीति बोली।
नमस्ते सर...सर, पटना में दलभंजन सिंह जी हैं...मुख्यालय में मेरे अफसर थे। चावला पुन: झुक गया था।
ओ.के.। सुधांशु का स्वर धीमा था।
प्रीति चावला को काम समझा रही थी।
जी मैम...हो जाएगा। आप बेफिक्र रहें। सुबह चार बजे गाड़ी यहाँ पहुँच जाएगी...।
प्रीति ने फिर कुछ कहा, जिसे सुधांशु ने नहीं सुना।
मैम...एक विनम्र सलाह है मैम...।
बोलिए।
मैम चार बजे के बजाय साहब अगर पांच बजे ...बहुत सुबह चलना...वैसे भी सुबह रास्ता साफ़ मिलेगा। साहब चार-साढ़े चार घण्टे में दिल्ली पहुँच जायेंगे। ग्यारह की फ्लाइट से मैं टिकट बुक करवा दूंगा।
पैसे...।
मैम, पैसों की चिन्ता न करें...बाद में ले लूंगा।
ओ.के.। चावला लौटने लगा तो प्रीति सुधांशु की ओर उन्मुख हुई, सुधांशु ट्रेन की टिकट चावला को दे दो...उसे ये कल कैन्सिल करवा देंगे।
हो जाएगा मैम।
सुधांशु ने उठकर अपने ब्रीफकेस से टिकट निकाली और प्रीति की ओर बढ़ा दी।
चावला चला गया। रात दस बजे वह पुन: आया दिल्ली से पटना की ग्यारह बजे की फ्लाइट की टिकट देने और यह बताने कि उसने टैक्सी की व्यवस्था कर दी है। साढ़े चार बजे टैक्सी आ जाएगी। उसने टैक्सी नंबर और एजेंसी का फ़ोन नंबर भी उन्हें दिए।
वेल डन चावला। प्रीति बोली, अब कल आप साहब की ट्रेन टिकट कैन्सिल करवा दीजिएगा।
हो जाएगी मैम।
ओ.के चावला। प्रीति के इतना कहते ही चावला ने पूर्ववत झुककर अभिवादन किया और दरवाज़े की ओर बढ़ गया।