गलियारे / भाग 26 / रूपसिंह चंदेल
प्रीति के देहरादून पोस्ट होने के कुछ दिनों बाद सुबोध ने गाँव के खेत अधाई पर दिए और घर में ताला बंद कर सुगन्धि के साथ पटना आ गए।
अब नौकरानी की ज़रूरत नहीं...मैं आ गई हूँ...सब संभाल लूंगी।
नहीं मां...पहले भी आपके रहते हुए वह आती थी...। सुधांशु बोला, आप बस किचन का काम करें...शेष काम करने के लिए उसे आने दें।
सुबह-शाम किचन के काम में सुगन्धि को अधिक समय नहीं लगता था...शेष दिन वह खाली रहती थी। गाँव में दिन भर काम करने वाली सुगन्धि के लिए दिन काटना कठिन हो जाता था। वही हाल सुबोध का था।
पिता जी, आप दोनाें सुबह-शाम टहलने निकल जाया करें...कुछ दूर पर पार्क है...मैं आपको कल सुबह चलकर बता दूंगा। दिन में भी...जब भी आप चाहें वहाँ चले जायें...आप लोगों को यहाँ कुछ असुविधा तो होगी...लेकिन...। एक दिन सुधांशु ने मां-पिता से कहा।
नहीं बेटा, असुविधा बिल्कुल नहीं, लेकिन अधिक सुविधा इंसान में जंग लगा देती है।
इसीलिए कहा।
अगले दिन सुबह सुधांशु मां-पिता के साथ पार्क गया। रास्ता सीधा था। भटकने की संभवना नहीं थी, फिर भी उसने दोनाें को घर का पता लिखकर दे दिया, जिसे सुबोध ने कुर्ता की जेब में और सुगन्धि ने धोती के खूंट से बाँध लिया था। लेकिन वे भटके नहीं और एक घण्टा बाद ही लौट आये, क्योंकि सुगन्धि को चिन्ता थी सुधांशु के लिए नाश्ता-लंच तैयार करने की।
दिन में भी सुबोध और सुगन्धि मेड सर्वेण्ट के काम समाप्त कर लौट जाने के बाद पार्क में जा बैठते थे। कभी-कभी सुबोध वहाँ के माली के पास पहुँच फूल-पौधों के विषय में चर्चा करते और अवसर देख उसे खेैनी बनाने के लिए कहते। कभी स्वयं अपनी चुनौटी निकाल, जिसे वह कमर के पास धोती में लपेट रखते थे, बायीं गदोली पर तंबाकू रख चूना मिला दाहिने हाथ के अंगूठे से रगड़ने लगते।
कुछ दिनों में ही सुबोध और सुगन्धि की ऊब समाप्त होने लगी थी। एक दिन रात भोजन के समय सुगन्धि बोली, बेटा, तुम हियाँ और बहू देहरादून में अकेली...महीना में एक बार चले जाया करो या प्रीति को यहाँ बुला लिया करो।
सुधांशु चुप भोजन करता रहा।
कब तक तुम दोंनो को अलग नौकरी करनी होगी? बेटे को चुप देख सुगन्धि बोली।
क्या कह सकता हूँ मां...होने को कल ट्रांसफर हो जाये और न होने को एक साल भी न हो...।
तुम ऐसा करो...।
सुधांशु माँ की ओर देखने लगा जो बात बीच में छोड़ बेटे की ओर देख रही थी कि वह कुछ कहेगा या नहीं।
बोलो। सुधांशु बोला।
मुझे देहरादून बहू के पास छोड़ दो...उसे भी खाने-पीने की परेशानी हो रही होगी...तुम्हारे पापा तुम्हारे पास बने रहेंगे और...
मां की बात बीच में ही काटकर सुधांशु बोला, मां, प्रीति को अभी तक मकान नहीं मिला...वह इंस्पेक्शन बंग्लो में एक कमरे में रह रही है।
तो क्या? मैं भी उसी में रह लूंगी। कमरे के एक कोने में खाना पकाने का इंतज़ाम कर लूंगी...यह कोई बड़ी बात नहीं है।
मां तुम भी...। सुधांशु मुस्कराया।
क्यों?
प्रीति को खाने की समस्या नहीं है। वहाँ मेस है...उसे कोई परेशानी नहीं है वहाँ।
फिर एक काम कर...।
सुधांशु माँ की ओर देखने लगा।
मुझे आए बीस दिन हुए... प्रीति से मिलने की इच्छा है। तू उसे बुला दे यहाँ। एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आ जाए... मिलने की बहुत इच्छा है।
अच्छा...।
और सुधांशु ने सुबह कार्यालय पहुँचते ही प्रीति को फ़ोन किया, प्रीति माँ आयी हुई हैं।...तुमसे मिलना चाहती हैं...इस वीकएण्ड में आ जाओ।
यार, यहाँ इतना अधिक काम है कि छुट्टी वाले दिनों में भी आराम नहीं...।
हुंह। सुघांशु गंभीर हो उठा।
बुरा मान गए? प्रीति ने पूछा।
नहीं, मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ। देख लो...आ सको तो...। उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
मैं कोशिश करूंगी।
'वास्तविकता यह थी कि प्रीति स्वयं कार्य निकाल लेती थी और अपने उपनिदेशक और संयुक्त निदेशक को अनुरोध करती कि अवकाश के दिन वह कार्यालय आना चाहेगी जिससे वह शेष कार्यों को सम्पन्न कर सके। उसके उच्चाधिकारियों को इसमें क्या परेशानी होनी थी। परेशानी होती प्रशासन अनुभाग और प्रीति के सेक्शन अफसरों और बाबुओं को। प्रशासन अनुभाग के दो बाबुओं को आना होता, क्योंकि कार्यालय खुलवाने की जिम्मदारी उन्हीं की होती...बन्द करवाने की भी और प्रीति स्वयं तय करती कि उसके अधीनस्थ किस सेक्शन अफसर, लेखाधिकारी और बाबुओं को आना होगा। एक दिन पहले वह उस सम्बध्द लेखाधिकारी को बुलाती और जिन्हें बुलाना होता उनके लिए निर्देश देती...प्रशासन से उनके आने के लिए गेट पास की व्यवस्था के लिए कह दो...सभी ठीक समय से आएँगे...।
जी मैम। लेखाधिकारी अपने से आधी आयु की उस नयी सहायक निदेशक के सामने गर्दन झुकाकर कहता।
होता यह कि स्टॉफ नियत समय पर कार्यालय में उपस्थित होता, जबकि प्रीति ग्यारह बजे से बारह बजे के मध्य पहुँचती। कार्यालय की दूरी इंस्पेक्शन बंग्लो से एक किलोमीटर के लगभग थी। प्रीति पैदल ही कार्यालय आती-जाती थी। कार्यालय में बाबू उसे 'ततैया' कहने लगे थे। सात सौ पैंतीस की संख्या वाले उस कार्यालय के सभी बाबू और छोटे अधिकारियों में प्रीति को लेकर चर्चा थी कि उस जैसी अफसर उन लोगों ने अपने जीवन में नहीं देखा था।
जुमा-जुमा आठ दिन की नौकरी में जब इस लड़की के ये तेवर हैं तब निदेशक बनने पर तो यह स्टॉफ का जीना दूभर कर देगी...जबकि अभी मेम साहबा ख़ुद भी प्रोबेशन पर हैं।
कई बार उलट भी होता है। ज्यों-ज्यों आदमी उन्नति करता जाता है विनम्र होता जाता है। हो सकता है इन मेम साहबा के साथ भी ऐसा ही हो।
जो भी हो, लेकिन जब इसके तेवर अभी से ऐसे हैं तब आगे का कौन कहे।
यार, बात ये है कि मेम साहबा फ्रस्ट्रेटेड हैं। पति पटना में है...अकेली रहती हैं। बाक़ी सभी ठहरे परिवार वाले...पति-पत्नी सुख लूटने वाले...तुम उसकी पीड़ा को समझने का प्रयत्न करो...हफ्ते में एक दिन भी संसर्ग मिले तो गुस्सा ठंडा रहे। कोई बाबू कहता तो पूरा सेक्शन ठठाकर हंस पड़ता, दरवाज़े की ओर देखता हुआ कि उनकी हंसी किसी अफसर ने सुनी तो नहीं और इसप्रकार हंसता हुआ यदि प्रीति दास मैम सुन लें तब तो ग़ज़ब ही हो जाये।
लेकिन है शार्प दिमाग़ गुरू...छोटी-सी चूक भी पकड़ लेती है। कोई कहता।
होगी क्यों नहीं...बाप जी आई.ए.एस. थे और पति भी...।
अरे छोड़ पति को...वह तो अभी भी देहाती दिखता है...पता नहीं एडीशनल सेक्रेटरी की बेटी को कैसे पटा लिया पट्ठे ने।
अरे उसने नहीं, इसीने पटाया। कोई बता रहा था...अरे भाई आपना सुदीप ...वह भी इन्हीं के कॉलेज में पढ़ता था...शायद इनसे जूनियर था...अब देखो किश्मत कि वह यू.डी.सी. है और ये दोनाें...।
तुम भी तो...डी.यू. के किसी अच्छे कॉलेज से हो।
हाँ, हंसराज से...। बताने वाले का चेहरा उदास हो गया। वह टोकने वाले का आभिप्राय समझ गया था।
है सारा खेल किश्मत का ही...मेरी पारिवारिक स्थिति ऐसी थी कि मुझे ग्रेजुएशन के बाद ही नौकरी करनी पड़ी...छोटी से शुरूआत की थी...चांदनी चौक के एक लाला का एकाउण्ट्स देखने से ...और सुदीप...उसकी स्थिति तो ऐसी न थी।
देख भाई, पूरा कॉलेज ही अगर आई.ए.एस. ...पी.सी.एस. बनने लगे तब बाबू कौन बनेगा। सुदीप ने मस्ती ली...यूडीसी है...अपने ही कॉलेज की प्रीति दास से डांट खाता है। एक दिन बता रहा था कि पहली मुलाकात में प्रीति मैम की आंखें उसे देख चमक उठी थीं...शायद वह चमक उसे पहचाने जाने की थी, लेकिन कहता था कि क्षणमात्र में ही भाव बदल लिए थे 'ततैया' ने और शुरू कर दिया था डंक से नश्तर लगाना। किसी ड्राफ्ट को तैयार करने में सुदीप ने कोई फिगर ग़लत लिख दी थी...करोड़ों की गड़बड़ हो रही थी जिसे 'ततैया' ने पकड़ लिया था। कहाँ सुदीप कॉलेज का रिश्ता जोड़ने जा रहा था और कहाँ उस पर डंक प्रहार होने लगे थे।
ये अफसर ऐसे रिश्तों के पनपने से पहले ही उसे जड़ से काट फेंकते हैं...हिन्दुस्तान की ब्यूरोक्रेसी की यही तो खूबी है।
दुनिया के दूसरे देशों में भी यह कौम एक जैसी है। अपने अधीनस्थों के साथ तानाशाहों जैसा व्यवहार, उन्हें कीड़े-मकोड़ों से अधिक न समझना उनकी विशेषता होती है। मैं एक अफसर की कहानी सुनाता हूँ।
सुना। लेकिन घड़ी पर नज़र रखना।
दोनों बाबू लंच में पार्क में लेटे हुए थे।
इससे पहले मैं दिल्ली में सेना भवन में था। वहाँ जो निदेशक था, उसका पी.ए. उसका बचपन का साथी था। साथी यूं कि दोनों के पिता ने इसी विभाग में क्लर्क की हैसियत से नौकरी शुरू की थी। निदेशक के पिता ने सेक्शन अफसर की परीक्षा उत्तीर्ण की और प्रोन्नति पाकर लेखाधिकारी बनकर रिटायर हुआ, लेकिन पी.ए. का पिता क्लर्क से सीनियर यूडीसी ही बन पाया। दोनों के पिता दिल्ली में एक साथ एक ही दफ़्तर में ...शायद मुख्याालय में थे और आर.के.पुरम में उनके सरकारी क्वार्टर अगल-बगल थे। पढ़ते दोनों अलग स्कूलों में थे, लेकिन शाम को खेलते साथ थे। आठवीं तक का साथ था दोनों का। फिर निदेशक के पिता प्रमोट होकर देहरादून के इसी कार्यालय में आ गये और पी.ए. का पिता स्थानांतरण करवाकर मद्रास चला गया। दोनों ही परिवार तमिलयन थे। पी.ए. साहब हाई स्कूल से आगे नहीं पढ़े ओर स्टेनोग्राफी सीखकर विभाग में स्टेनोटाइपिस्ट बन गए, जबकि निदेशक ने डी.यू. के हिन्दू कॉलेज से फिजिक्स में एम.एस.सी किया और आई.ए.एस. में आ गया। पी.ए. साहब रगड़-घिट्टकर स्टेनोटाइपिस्ट से सीनियर पी.ए. बने, जबकि निदेशक अब प्रधान निदेशक बनने की पंक्ति में खड़ा है।
होता है भाई... ऐसा होता है। दूसरा बोला।
असली बात तो रह ही गयी। निदेशक अपने पी.ए. को दिन में कम से कम पांच बार अवश्य डांटता था। मामूली बातों पर भी...अगर उसकी बीबी का फ़ोन होता और पी.ए. उसकी बीबी को नमस्ते नहीं करता तब भी उसे वह डांटता कि उसे उसकी बीबी से बात करने की तमीज नहीं है। बचपन में साथ खेलने की बातें अतीत में ही दफ्न हो चुकी थीं।
यार, मैं तो बाबू ही बन पाया, लेकिन ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे दोनों बेटों में से किसी एक को वह आई.ए.एस अवश्य बनाए। अपना बुढ़ापा भी सुधर जायेगा।
चल उठ। घड़ी देखता हुआ दूसरा बाबू बोला, चलकर दफ़्तर में बुढ़ापा संवारना।
दूसरे ने भी घड़ी देखी और हड़बड़ाकर उठ बैठा, चल यार। उबासी लेता हुआ वह बोला और जूते पहनने लगा।
दो दिन का अवकाश लेकर प्रीति पटना पहुँची। अपने आने की सूचना उसने सुधांशु को नहीं दी थी। उसके आते ही सुगन्धि का चेहरा खिल उठा। उसने लपककर बहू को गले लगाया और वह देर तक उसे चिपटाये रहती, लेकिन प्रीति ने, कब आई अम्मा जी? कहकर उसे अपने से अलग किया और तुरंत रूमाल निकाल उसे नाक से लगा बोली, अकेली ही आई हैं या अंकल भी हैं।
हम दोनों ही आए हैं। हुलसते हुए सुगन्धि ने कहा। प्रीति दूसरे कमरे की ओर लपकी तो सुगन्धि उसके पीछे हो ली। सुधांशु उस कमरे में दाढ़ी बना रहा था। प्रीति ने सुगन्धि की ओर ध्यान न देकर सुधांशु को 'हेलो' कहा।
तुमने बताया नहीं...मैं आ जाता स्टेशन।
बस अचानक ही बना कार्यक्रम...।
चलते समय ही फ़ोन कर दिया होता।
स्टेशन से यहाँ तक आ सकती थी...आ गयी। न आ पाती तब बता देती।
सुगन्घि दरवाज़े पर खड़ी पति-पत्नी की बातें सुनती रही। वह चाहती थी कि प्रीति उसके पास बैठे...बातें करे, लेकिन प्रीति अटैची से कपड़े निकाल सास की ओर ध्यान दिए बिना बाथरूम की ओर लपक गयी।
नाश्ता बनाई बेटा? सुगन्धि ने सुधांशु से पूछा।
मैं भी स्नान कर लूं मां...तब तक पिता जी को नाश्ता करवाओ।
वो अभी तक नहीं लौटे...पारक से।
उन्हें आ जाने दो।
सुधांशु के कहने के साथ ही सुबोध अंदर दाखिल हुए। सुगन्धि ने उनके अंदर क़दम रखते ही हुलसते हुए कहा, प्रीति आई है तुमसे मिलने।
सच?
हाँ, बाथरूम में है। पूछ रही थी कि मैं अकेली आयी हूँ या आप भी आए हैं।
बहू हम दोनों का बहुत खयाल रखने वाली है।
धन्न भाग हमार। सुगन्धि ने ऊपर की ओर हाथ उठाकर कहा।
लगभग आध घण्टा में प्रीति स्नान करके बाहर निकली और सुधांशु के कमरे की ओर बढ़ गयी।
सुघांशु, बाथरूम में तंबाकू की गंध क्यों है?
तंबाकू? सुधांशु अचकचा गया।
ऐसा लगा कि किसी ने वहाँ तंबाकू थूका है।
तुम्हे भ्रम हुआ है।
तुम स्वयं देख लो।
हो सकता है पिता जी ने ग़लती से...। सुघांशु इससे आगे कुछ नहीं कह पाया।
यार, घर है...बाथरूम कोई पीकदान तो नहीं...अंकल को बता देना।
सुधांशु चुप रहा। दूसरे कमरे में प्रीति से मिलने के लिए उद्यत खड़े सुबोध के कानों में जब प्रीति के शब्द पड़े अपराधबोध से उन्होंने अपने को ज़मीन में गड़ा हुआ अनुभव किया।
ट्रांसफर की कोई जानकारी? प्रीति ने सुधांशु की ओर मुड़कर पूछा।
कोई सूचना नहीं। सुधांशु का स्वर उदास था।
डी.पी. मीणा से बात करते...उन्होंने कहा था...।
हुंह। सुधांशु के मस्तिष्क में अभी भी तंबाकू की बात घूम रही थी, 'पिता जी से कह सकूंगा यह बात!' वह सोच रहा था।
सुधांशु का उत्तर न मिलने पर प्रीति ही बोली, मैं ही किसी दिन उनसे बात करूंगी।
ओ.के.।
सुबोध दास सोफे पर धंसे बैठे थे। चेहरे पर उदासी की परत थी। प्रीति औपचारिक ढंग से उन्हें 'हेलो अंकल' कहती हुई किचन की ओर गई, जहाँ सुगन्धि नाश्ता तैयार करने में व्यस्त थी।