गलियारे / भाग 27 / रूपसिंह चंदेल
बेटा, मैं गाँव जाने की सोच रहा हूँ। संकुचित स्वर में सुबोध दास ने प्रीति के देहरादून जाने के एक सप्ताह बाद कहा।
अभी आए हुए अधिक दिन नहीं हुए पिता जी।
तुम्हारी अम्मा का जी नहीं लग रहा। सुबोध ने पत्नी से पहले ही गाँव जाने की योजना पर चर्चा कर ली थी। पूछने पर कहा था, सुगन्धि, खाली बैठना अब खलने लगा है। पारक में मालियों के साथ कितनी देर बैठूं...? घर में मेरे लिए कोई काम नहीं...जिन्दगी भर काम में लगा रहने वाला व्यक्ति इस तरह खाली बैठेगा तो उसकी उमर घटेगी ...।
मन तो मेरा भी नहीं लगता यहाँ। सारी ज़िन्दगी गाँव में बीत गई... घूम-फिरकर मन वहीं पहुँच जाता है।
मैं सुधांशु से कहूँगा।
लेकिन मेरे जाने से उसे परेशानी होगी।
जब तुम नहीं आयी थी तब भी तो वह रह ही रहा था। काम वाली उसके लिए खाना बनाती थी...आगे भी बनायेगी।
सुगन्धि सोच में पड़ गयी थी। देर तक सोचने के बाद बोली थी, तुमही बात कीन्ह्यो बबुआ से।
मैं ही करूंगा।
और जब सुबोध ने सुघांशु से गाँव जाने की चर्चा छेड़ी तब सुधांशु ने उनके प्रस्ताव को सहजता से लिया और हाँ कह दी। सुबोध ने उसे यह एहसास नहीं होने दिया कि प्रीति की तंबाकू की बात ने उन्हें इतनी जल्दी गाँव लौटने का निर्णय करने के लिए प्रेरित किया है।
मां और पिता के गाँव जाने के बाद सुधांशु देहरादून गया। प्रीति तब भी इंस्पेक्शन बंग्लो में रह रही थी। उसे सरकारी मकान एलाट हुआ था जिसे लेने से उसने इंकार कर दिया था, क्योंकि उसे डी.पी. मीणा ने आश्वस्त किया था कि शीघ्र ही उसका ट्रांसफर होगा और उसे और सुधांशु को एक ही स्टेशन में भेजा जाएगा। वह स्टेशन कौन-सा होगा यह बात मीणा ने नहीं बतायी थी।
सुधांशु के देहरादून से वापस लौटने के लगभग पन्द्रह दिन बाद एक दिन मुस्कराते हुए दलभंजन सिंह सुधांशु के कमरे में प्रविष्ट हुए। वह लंबे, छरहरे, गोरे और गोल-चपटे चेहरे पर लंबी मूंछों वाले व्यक्ति थे।
बधाई सुघांशु।
सर। खड़ा होते हुए सामने कुर्सी की ओर इशारा कर बैठने का अनुरोघ करते हुए सुधांशु बोला। युवा अधिकारियों को संकेत में वरिष्ठ अधिकारी यह बता देते थे कि उनके कमरे में जब भी कोई वरिष्ठ अधिकारी आए और वह संयुक्त निदेशक या निदेशक स्तर का हो तो उनके बैठने के लिए उसे अपनी कुर्सी खाली कर देनी चाहिए। प्राय: वरिष्ठ उस पर नहीं बैठते, लेकिन कुछ को उसके द्वारा छोड़ी गई कुर्सी ही पसंद आती है। इसे वे अपनी वरिष्ठता का अधिकार मानते हैं। दलभंजन सिंह सुधांशु के संयुक्त निदेशक थे। प्रारंभ में उनके प्रवेश करते ही सुधांशु ने उनके लिए अपनी कुर्सी छोड़ दी थी, लेकिन, बैठो यंगमैन...। हाथ से उसे बैठने का इशारा करते हुए दलभंजन सिंह ने कहा था। उसके बाद से सुधांशु उन्हें सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का अनुरोध करता था।
तुम्हारा ट्रांसफर आर्डर आ गया है। कब रिलीव होना चाहते हो?
सर, कहाँ के लिए है?
प्रधान निदेशक कार्यालय 'के.' ब्लॉक, नई दिल्ली के लिए।
नई दिल्ली सुनते ही क्षणांश के लिए सुधांशु का चेहरा निष्प्रभ हो गया, जिसे दलभंजन सिंह ने ग़ौर किया।
परेशान न हो...तुम्हारी बेगम का आर्डर भी साथ ही हुआ है। कहते हुए दलभंजन सिंह ने ट्रांसफर आर्डर सुधांशु के सामने रख दिया।
प्रीति का ट्रांसफर नई दिल्ली में मुख्यालय में किया गया था।
दस दिन का ज्वायनिंग टाइम दिया गया है। सोचकर बता देना कब रिलीव होना चाहोगे।
जी सर।
दलभंजन सिंह के जाने के बाद सुधांशु ने प्रीति को ट्रंकाल बुक किया।
'प्रीति ने मुझे बताया नहीं। उसे इस विषय में अवश्य पता चल गया होगा।' सुधांशु सोचने लगा था।
'लेकिन यह मात्र तुम्हारा अनुमान है। हो सकता है उसे पता ही न चला हो...लेकिन उसने मीणा से बात करने की बात कही थी ...बात की होगी, लेकिन बताया नहीं मुझे।'
'इसमें बताने जैसा क्या था सुधांशु।' एक और आवाज।
'सम्बन्धों से अधिक पद को महत्त्व देने लगी है वह।'
'नौकरी प्रारंभ करते समय गोपनीयता की शपथ लेने का मतलब क्या, यदि उसका पालन न किया जाये।'
'हो सकता है उसे आज ही प्रशासन ने सूचित किया हो। वह प्रशासन में है नहीं...प्रशासन के लोग ऑडिट वालों को महत्त्व नहीं देते।' वह यह सोच ही रहा था कि फ़ोन की घण्टी घनघनाई।
सर, आपने देहरादून के लिए... नंबर पर काल बुक किया है?
जी।
एक मिनट होल्ड करें सर। एक्सचेंज से किसी युवती का स्वर सुनाई दिया।
हाँ, सर बात करें।
हेलो...हेलो...हाँ...प्रीति...। अरे फ़ोन को यह क्या हो रहा है। लाइन कट रही है ...हेलो एक्सचेंज...एक्सचेंज...।
जी सर। ऑपरेटर का स्वर कानों से टकराया।
लाइन कट गई।
आप फ़ोन रख दें सर...मैं दोबारा मिलाती हूँ
ओ.के.।
सामने खुली पड़ी फाइल पर नजरें गड़ाए सुधांशु कॉल की प्रतीक्षा करता रहा। आध घण्टा बीत गया। इस दौरान उसने फाइल के नोट पर एक शब्द भी नहीं लिखा और न ही उसे पढ़ा। वही पृष्ठ आघ घण्टा तक खुला रहा। एक सेक्शन अफसर आया, जिसे उसने वापस लौटा दिया।
आध घण्टा बाद कॉल लगी। आवाज़ साफ़ थी, उधर प्रीति थी।
प्रीति, तुम्हें ट्रांसफर आर्डर मिला?
मिला नहीं, सूचना मिल गयी है।
कब मिली?
आज सुबह।
तुम्हे पहले से मालूम था? मन में दबी बात ज़ुबान पर आ ही गयी।
कैसे मालूम होता?
तुमने फ़ोन किया था?
किसे?
तुमने कहा था...कहा था...मीणा को फ़ोन करने के लिए... ।
मीणा सर, महानिदेशक नहीं हैं ओर न ही वह मंत्रालय में हैं। ट्रांसफर मंत्रालय से किए जाते हैं।
ओ.के.। सुधांशु प्रीति के उत्तरों से अचंभित था। उसे लगा कि वह उससे नहीं अपने किसी अधीनस्थ अफसर से बातें कर रही थी।
रिलीव होकर पटना आओगी? मन के गुबार को निकालकर सुधांशु ने पूछा।
जैसा कहो।
एक बार फिर सपाट-सा उत्तर। क्षणभर सोचता रहा सुधांशु। मन में आया कि कह दे कि पटना न आकर वह सीधे दिल्ली पहुँचे। लेकिन मन में आयी बात को दरकिनार कर वह बोला, साथ चलना ठीक होगा।
आ जाऊँगी। प्रीति का स्वर धीमा था।
कब?
रिलीव होना मेरे वश में नहीं है। रिलीव होने की तिथि निश्चित होने के बाद ही बता पाउंगी।
हुंह।
प्रीति ने फ़ोन काट दिया।
दो मिनट बाद ऑपरेटर का फ़ोन आया, सर बात हो चुकी?
हो गयी ...धन्यवाद।
थैंक्स सर। ऑपरेटर बोली।
सुधांशु प्रीति से पहले रिलीव हो गया। उसने प्रीति को फ़ोन कर जानना चाहा कि वह कब तक रिलीव होगी!
निदेशक साहब टूर पर हैं। उनके लौटने के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा। प्रीति ने कहा।
मैं आज अपना आरक्षण करवा लूंगा...सामान भी पैक करना शुरू कर दूंगा...।
तुम दिल्ली पहुँचो...मैं तुमसे वहीं मिलूंगी।
ठीक है।
लेकिन प्रीति सुधांशु से पहले ही दिल्ली पहुँच गयी। हुआ यह कि डी.पी. मीणा ने उसे फ़ोन किया और पूछा कि वह कब रिलीव हो रही है? प्रीति ने उसे भी निदेशक के टूर से लौट आने के बाद रिलीव होने की बात कही।
प्रीति दास...। स्वर को खींचते हुए जिसमें एक प्रकार का वरिष्ठताभाव था मीणा बोला, आपका चयन जिस सीट के लिए हुआ है वहाँ एक सहायक निदेशक की अविलंब आवश्यकता है। महानिदेशक साहब चार बार मुझसे पूछ चुके हैं कि आप कब आ रही है।?
सर। प्रीति ने विनम्रता प्रदर्शित करते हुए कहा, सर, डायरेक्टर साहब के टूर से लौटने के बाद ही...।
कहाँ गए हैं डायरेक्टर ?
जम्मू।
मैं बात करता हूँ उनसे...।
जी सर।
मुख्यालय में जिस सीट के लिए प्रीति का चयन हुआ था वह प्रशासन में स्थानातंरण से सम्बध्द थी। प्रशासन में प्रोजेक्ट और प्रमोशन आदि मामले मीणा देखता था। स्थानांतरण की सीट महत्त्वपूर्ण थी और उस पर तैनात सहायक महानिदेशक को एक सप्ताह पूर्व चेन्नई स्थानांतरित किया गया था। वास्तविकता यह थी कि प्रीति के फ़ोन के बाद मीणा ने महानिदेशक सी. रामचन्द्रन से प्रीति और सुधांशु के विषय में चर्चा की थी और वहाँ स्थानांतरण् से सम्बध्द सहायक महानिदेशक, जो उससे कनिष्ठ था और एक प्रकार से उसके अधीन भी, के कार्य से असंतुष्टि व्यक्त करते हुए कहा था, सर, उस स्थान पर एक चुस्त और कुशल सहायक महानिदेशक को नियुक्त करें तभी कार्य चल पाएगा। उज्वल सूद की कार्यविधि के कारण बहुत से मामले रुके हुए हैं।
पुट अप देयर प्रोफाइल्स।
डी.पी. मीणा ने सुधांशु और प्रीति की प्रोफाइल्स पहले से ही निकाल रखी थीं। विभाग के सभी प्रथम श्रेणी अधिकारियों की निजी फाइलें मुख्यालय में सुरक्षित रखी जाती थीं। एडमिन-एक सेक्शन उनकी साज-संभाल करता था और वह सेक्शन भी डी.पी. मीणा के पास था। डी.पी. मीणा अपने निर्णय संयुक्त महानिदेशक को भेजता और वह महानिदेशक को, लेकिन बहुत से मामले ऐसे भी थे जिन्हें वह सीधे महानिदेशक से डिस्कस करता था। महानिदेशक उसके कार्य से संतुष्ट थे और संतुष्टि का कारण कार्य के साथ उसका चाटुकारितापूर्ण व्यवहार और भाषा थी।
महानिदेशक के कमरे से निकलकर मीणा सीधे एडमिन-एक सेक्शन में गया। कमरे में मीणा के प्रवेश करते ही सेक्शन अफसर उठ खड़ा हुआ। बाबुओं में सन्नाटा छा गया। वैसे तो वहाँ प्रत्येक समय मरणासन्न सन्नाटा ही छाया रहता था, लेकिन बीच-बीच में बाबू अपनी गर्दनें सीधा करने के लिए एक-दूसरे से मुख़ातिब हो लेते थे और फुसफुसाते हुए बातें कर लिया करते थे, लेकिन जब भी मीणा, जो तब तक उप-महानिदेशक के पद पर पदोन्नत हो चुका था, उस कमरे में प्रवेश करता सुई गिरने की आवाज़ भी सुनाई दे जाती थी। फाइलों में बाबू काग़ज़ भी यों पलटते कि आवाज़ उसके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं सुन पाता।
स्वामीनाथन, कम हियर। मीणा ने बाबुओं पर उपेक्षापूर्ण दृष्टि डाली और कमरे से बाहर जाने के लिए मुड़ा।
सर मीणा के मुड़ते ही स्वामीनाथन भी नोट पैड और पेन लेकर चश्मा संभालता हुआ उसके पीछे हो लिया था। अपने चेम्बर में पहुँच, हाथ की फाइल मेज पर पटक दरवाज़े के पास सिमटे-सिकुड़े खड़े स्वामीनाथन को लक्ष्यकर मीणा बोला, सुधांशु दास और प्रीति दास की पर्सनल फाइल्स तुरंत लेकर आओ।
यस सर। स्वामीनाथन तेजी से मीणा के कमरे से बाहर निकला और लगभग दौड़ता-सा अपने कमरे में प्रविष्ट हुआ और दोनाें की पर्सनल फाइल्स, जो पहले से ही उसकी मेज पर खी हुई थीं, लेकर मीणा को पकड़ा दीं।
मीणा ने फाइलों पर सरसरी दृष्टि डाली। स्वीमीनाथन हाथ बाँधे खड़ा रहा।
ओ.के.। मीणा बुदबुदाया और फाइलें लेकर अपने चेम्बर से बाहर निकल गया। स्वामीनाथन द्विविधा में रहा कि वह वहाँ खड़ा रहे या अपनी सीट पर जाए। 'साहब कुछ बोले नहीं। खड़ा रहता हूँ तो मुसीबत...बोल सकते हैं कि जब मैं चेम्बर में नहीं था तब वह क्यों खड़ा रहा और चला जाता हूँ तो पूछ सकते हैं कि मेरी इजाज़त के बिना क्यों चले गए थे।'
'बड़ी ही कुत्ती नौकरी है स्वामीनाथन। इससे अच्छा था मद्रास में कोई दुकान कर लेता...।' उसने सोचा, स्साली नौकरी तो इन अफसरों की है। एक अफसर दूसरे के लिए कैसे जान दे रहा है। स्वयं फाइलें थामकर महानिदेशक सर के पास दौड़ गया है, लेकिन यदि यही किसी बाबू का मामला होता तब उसे दुत्कार देते...कहते नौकरी करनी है तब जहाँ भी भेजा जा रहा है...जा वहाँ या नौकरी छोड़ दे।'
'बाबू बाबू का गला रेतने को तैयार रहता है...अफसर हर समय उसके लिए तलवार थामे रहता है, लेकिन एक अफसर दूसरे की मदद करने को तत्पर रहता है...ये एक-दूसरे के गुनाहों पर पर्दा डालते रहते हैं। कभी ही किसी अफसर के खिलाफ कार्यवाई होती है...वह भी तब जब कोई बड़ा अफसर अपने अधीनस्थ अफसर से किसी बात से चिढ़ जाता है या उस अफसर के भ्रष्ट कारनामों से विभाग को अधिक आलोचना झेलनी पड़ रही होती है या किसी अफसर के खिलाफ कार्यवाई के लिए कोई राजनीतिक दबाव होता है।'
'जांच एजेंसियाँ भी अफसरों की ओर से पहले आंखें बंद करने का प्रयास करती हैं। वह कार्यवाई तभी करती हैं जब ऊपरी दबाव होता है। यह वर्ग का मामला है। गरीब घर के बच्चे भी जब इस वर्ग का हिस्सा बन जाते हैं तब उनकी मानसिकता भी बदल जाती है। वे जिस वर्ग से आते हैं उसे ही सबसे पहले भूलने का प्रयत्न करते हैं। जिन्हें आभिजात्यता विरासत में मिली है, आम आदमी के शब्द से वे नावाकिफ हैं। दफ़्तर में सेक्शन अफसर, बाबू, चपरासी ...सभी उनके लिए उसी प्रकार हैं जैसे एक समय किसी जमींदार के लिए किसान और मज़दूर होते थे। एकाउण्ट्स अफसर उनके लिए कारिन्दा की भांति हैं, जिन्हें वे जब-तब यह एहसास करवाते रहते हैं कि कल तक वह भी किसान ही था...अर्थात बाबुओं की जमात में ही था और अभी भी वह ग्रुप बी गजटेड अफसर ही है...जिसकी औक़ात भी बाबुओं से एक कौड़ी ही अधिक है।'
स्वामीनाथन मुख्यालय में आने से पूर्व मद्रास में था और अपेक्षाकृत सुखी था। यद्यपि ब्यूरोक्रेट्स को उसने वहाँ भी उसी रूप में देखा-जाना था, लेकिन जिस सेक्शन में था वहाँ का वातावरण इतना दमघोंटू नहीं था। मुख्यालय में वह अनुभव करता था कि पूरे कार्यालय में कोई काली छाया मंडराती रहती है। कहीं कोई चोर आँख है जो उन पर नज़र रख रही है और उनकी क्षण-क्षण की गतिविधियों की सूचना मीणा सहित अन्य उच्च अधिकारियों तक पहुँचाती रहती है।
स्वामीनाथन मुख्यालय के दमघोंटू वातावरण के विषय में तमिल भाषा में सोचता था। वह प्राय: कहता कि हर व्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सोचता है। काम की भाषा भले ही उसकी कुछ भी क्यों न हो, लेकिन सोच की भाषा उसकी मातृभाषा ही होती है।
मीणा के चेम्बर में खड़े रहते उसे जब पन्द्रह मिनट बीत गए, वह बेचैन हो उठा। 'अधिक देर रुकना ठीक नहीं।' उसने सोचा। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला और गैलरी में झांककर देखा, 'शायद मीणा आ रहा हो, लेकिन मीणा उसे नहीं दिखा। गैलरी में बिछी लाल कार्पेट की चमक थी या हर अफसर के दरवाज़े पर स्टूल पर मुस्तैदी से बैठा चपरासी था। वातावरण में एक अजीब-सी गंध व्याप्त थी। वह गंध थी कमरों में आने-जाने वालों के साथ बाहर आती रूम फ्रेशनर की मिली-जुली गंध। अफसरों के कपड़ों में बसी डियोड्रेण्ड की गंध भी वहाँ बस चुकी थी, लेकिन उस मिश्रित गंध के अतिरिक्त उसने एक और ऐसी गंध अनुभव की जिसने उसके अंदर एक उदासीनता उत्पन्न कर दी। उसकी बेचैनी बढ़ गयी और उसने तेजी से दबे पांव गैलरी पार की और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
मीणा ने महानिदेशक से सुधांशु और प्रीति की फाइलों में आदेश ले लिया और तत्काल मंत्रालय में अपने समकक्ष अधिकारी के नाम एक डेमी ऑफीशियल पत्र लिखकर स्वामीनाथन से कहा, इसे एक घण्टे के अंदर डिलवर करवा दो।
जी सर। स्वामीनाथन वह पत्र लेकर मीणा के चेम्बर से निकलने ही वाला था कि मीणा बोला, स्वयं चले जाओ।
जी सर। स्वामीनाथन जानता था कि अफसर का आदेश आदेश होता है और वह अपने कमरे में न जाकर कार्यालय से बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद मीणा ने मंत्रालय में अपने समकक्ष अधिकारी को फ़ोन पर स्वीमीनाथन के आने का उद्देश्य समझा दिया।
दो दिन बाद मंत्रालय से सुधांशु और प्रीति के स्थानांतरण के साथ उज्वल सूद के स्थानांतरण के आदेश आ गए थे। उज्वल सूद को उसी दिन शायं कार्यालय से निकलने के बाद, लेकिन गेट से बाहर जाने से पहले चपरासी से वापस बुलवाया गया था और स्वामीनाथन ने उसे बंद लिफाफे में उसका ट्रांसफर आर्डर पकड़ा दिया था।
उज्वल सूद ने वहीं लिफाफा खोलकर ट्रांसफर आर्डर देखा था और उसका चेहरा मुर्झा गया था। उसने केवल इतना ही कहा था, थैंक्स स्वामीनाथन...आपके बॉस जीते...मैं हारा...।
सॉरी सर।
सूद ने स्वामीनाथन के पास ट्रांसफर आर्डर की दूसरी प्रति पर पावती देकर अपना आदेश जेब में रखा था और चुपचाप गेट से बाहर चला गया था।
स्वामीनाथन 'आपके बॉस जीते...मैं हारा।' के अर्थ तलाशता अपने कमरे में लौट गया था। उसे वह घटना याद आ गयी थी, जिसे लेकर मीणा उज्वल सूद पर बरस पड़ा था, लेकिन उज्वल सूद मीणा से जूनियर होते हुए भी अपनी बात पर अड़ा रहा था।
विवाद दो कर्मियों के ट्रांसफर को लेकर था। एक पुरुषकर्मी पिछले दस वर्षों से दिल्ली में था जबकि उसका परिवार जबलपुर में था। विभागीय नियमानुसार दस वर्ष के बाद दिल्ली से बाहर लोगों के स्थानांतरण कर दिए जाते थे, लेकिन यह आवश्यक नहीं था कि उन्हें मनचाहे स्थान पर ही भेजा जाए। वह एक कुशल कर्मी था...विनम्र भी, लेकिन उसकी कमी यह थी कि न वह चाटुकारिता करता था और न ही अधिक व्यवहारकुशल था। कार्यदक्ष होने के बावजूद उसके अंदर बैठा गंवई व्यक्ति उसे सही समय पर सही निर्णय नहीं लेने देता था। हुआ यह कि एक दिन डी.पी. मीणा उसके अनुभाग में गया। वह एक ऑडिट अनुभाग था। ऑडिट में प्रशासन के किसी अधिकारी का पहुँचना अप्रत्याशित-सी घटना थी। उसके पहुँचते ही पूरे सेक्शन में हड़कंप मच गया। सेक्शन अफसर हाथ में पेन थामे सीट से उछल पड़ा तो बाबू कैसे बैठे रह सकते थे। सभी खड़े हो गये थे जैसे किसी कक्षा में विद्यालय के आचार्य के पहुँचने पर छात्र खड़े हो जाते हैं। नहीं खड़ा हुआ तो वह कर्मी, जो मात्र सीनियर ऑडीटर यानी वरिष्ठ यूडीसी था। दो मिनट ही रुका था मीणा उस अनुभाग में, लेकिन उस सीनियर ऑडीटर के बैठे रहने को उसने नोट किया था। अपने कमरे में पहुँचने के बाद उसने उस ऑडिट अनुभाग के अनुभाग अधिकारी को इंटरकॉम पर उस सीनियर ऑडीटर को भेजने के लिए कहा था।
घबड़ाया हुआ वह सीनियर ऑडीटर जब मीणा के चेम्बर में दाखिल हुआ तब गंभीर और रूखे स्वर में पूछा था डी.पी. मीणा ने, कितने दिनों से विभाग में हो?
सर पन्द्रह वर्ष हो चुके हैं।
पहले कहाँ थे?
जबलपुर में सर। कांपते स्वर में सीनियर ऑडीटर बोला था।
कहाँ जाना चाहते हो?
सर, सर...। सीनियर ऑडीटर को लगा कि उसका भय सही नहीं है, मीणा सर तो उसकी मन की बात पूछ रहे हैं।
मैंने जो पूछा, सुना नहीं? इस बार मीणा की आवाज़ कुछ और ऊँची थी।
सर, मेहरबानी होगी...जबलपुर भेज दें...बच्चे ...।
उसकी बात बीच में ही काटकर मीणा चीखा, तुम्हारे बच्चों का ठेका ले रखा है डिपार्टमण्ट ने...डिपार्टमण्ट से पूछकर बच्चे पैदा किए थे। इस विभाग में आते समय नहीं जाना था कि आल इंडिया ट्रांसफरेबुल जॉब है?
सर...। सीनियर ऑडीटर को लगा कि उसकी पैण्ट गीली हो गयी है।
किसी सीनियर अफसर को आदर देना नहीं जानते और चाहते हो कि तुम्हें मनचाही जगह ट्र्रांसफर दे दिया जाये। कब से मुख्यालय में हो?
सर दस साल हो चुके।
ओ.के... । मीणा ने उसे घूरकर देखा और बोला, गेट आउट।
सर...सर...मुझे माफ़ कर दें...सर। सीनियर ऑडीटर की आंखें छलछला आयीं। अब उसे अपनी ग़लती का एहसास हो रहा था।
आय से... गेट आउट...। मीणा इतनी ज़ोर से चीखा कि बाहर गैलरी में बैठे चपरासी सकते में आ गए।
सीनियर ऑडीटर बाहर निकला तो मीणा ने उज्वल सूद को तलब किया, मिस्टर सूद सीनियर ऑडीटर का नाम बताकर मीणा बोला, अंडमान निकोबार के लिए इसका ट्रांसफर आर्डर तैयार कर लाओ।
सर, पिछले दिनों आपने ही इसके जबलपुर ट्रांसफर की स्वीकृति दी थी।
अब मैं जो कह रहा हूँ... वह करो।
सर पुन: नोट पुट अप करना होगा। आप ही अपनी स्वीकृति को बदल सकते है...। सूद कहना चाहता था कि यदि उसने उस स्वीकृति के बावजूद उस ऑडीटर को अंडमान निकोबार स्थानांरित किया तो कल को मीणा ही उसकी गर्दन पकड़कर पूछ सकता है कि ऐसा कैसे हुआ, जबकि उसने उसे जबलपुर के लिए स्वीकृत किया था।
नोट पुट अप करने में विलंब मत करो...सीधे ट्रांसफर आर्डर तैयार कर दो।
सर...।
व्वॉट?
उसे इस प्रकार ट्रांसफर आर्डर देना आपकी स्वीकृति की अवहेलना होगी।
मैं कह जो रहा हूँ।
ठीक है सर, मैं दस मिनट में नोट लिख लाता हूँ...।
मिस्टर सूद...।
जी सर।
आप मुझसे जूनियर होकर मेरी बात की उपेक्षा कर रहे हैं।
माफी चाहूँगा सर, मैं वहीं कर रहा हूँ, जो नियमानुसार है। सूद भी डायरेक्ट आई.ए.एस. अलाइड में था और उसे भी इस बात का गरूर था।
ठीक है...नोट पुट अप करो।
सूद ने नोट पुट अप कर उस सीनियर ऑडीटर के पूर्व तय स्थानांतरण को निरस्त कर कार्यालय बंद होने से पूर्व उसे अंडमान का ट्रांसफर आर्डर पकड़ा दिया था। अंडमान निकोबार का ट्रांसफर आर्डर देख वह सीनियर ऑडीटर अपनी सीट पर ही मूर्छित होकर गिर गया था। दफ़्तर में अफरा-तफरी मच गयी थी, लेकिन सभी बाबुओं को घर जाने की जल्दी थी इसलिए वे रुके नहीं थे और दूसरे अधिकारियों ने उस ओर इसलिए ध्यान देना उचित नहीं समझा था क्योंकि सब तक यह सूचना पहुँच चुकी थी कि उसकी मूर्छा का कारण उसका ट्रांसफर आर्डर था और ट्रांसफर मीणा की नाराजगी का परिणाम था। मीणा के मामले में टांग अड़ाने का साहस किसी में नहीं था। वरिष्ठ अधिकारियों तक ऐसे मसले जाते ही न थे। बाबुओं के लिए चिन्तित होना उनकी पद-प्रतिष्ठा के प्रतिकूल था।
बात मीणा तक पहुँची। मीणा ने उस सीनियर ऑडीटर के सेक्शन अफसर को कहलवाया कि उस बला को ऑटो में डालकर वह उसे उसके घर पहुँचा दे और सेक्शन अफसर ने मीणा के आदेश का पालन किया था।
दूसरा मामला एक युवा महिला कर्मी का था, जो अपना स्थानांतरण मेरठ चाहती थी, क्योंकि वह वहीं की रहने वाली थी और उसे प्रतिदिन मेरठ से दिल्ली आना-जाना होता था। दिल्ली में अकेले रहना उसे ख़तरनाक लगता था और डेली पैसेंजरी के अपने ख़तरे थे। यह ख़तरा तब और बढ़ता प्रतीत होता जब मेरठ शटल, जिससे वह लौटती थी, रात देर से मेरठ पहुँचती थी। जब यह समाचार अखबारों में छपा और मेरठ शटल में चर्चा का विषय बना कि दिल्ली-पलवल शटल की एक दैनिक यात्री युवती को चार युवकों ने चेन पुलिंग कर ट्रेन से उतारकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया तब से वह अधिक ही परेशान रहने लगी थी। उसे तीन वर्ष हो चुके थे नियुक्ति पाये और प्रारंभ से ही वह मुख्यालय में नियुक्त थी। अपने स्थानांतरण के लिए वह उज्वल सूद से मिली थी। सूद ने आश्वासन दिया था। उसने उसका केस मीणा के समक्ष प्रस्तुत किया था। मीणा चुप सुनता रहा था। लेकिन कोई आश्वासन नहीं दिया था। वह महिला कर्मचारी आगे भी तीन बार उज्वल सूद से मिली। तीसरी बार उज्वल सूद ने उसे मीणा से मिलने की सलाह दी, मीणा सर ओ.के. कर देंगे तभीे आपके ट्रांसफर पर विचार संभव होगा। उज्वल यह नहीं कह सकता था कि वह ट्रांसफर कर ही देगा।
मीणा के पी.ए. के माध्यम से युवती मीणा से मिली। युवती को देखते ही मीणा की आंखें चमक उठीं और उसने कहा, एक सप्ताह बाद पता कर लेना।
एक सप्ताह बाद मीणा ने उससे कहा, फिलहाल संभव नहीं है...आप दो महीने बाद मिलें।
दो महीने बाद मीणा ने युवती से जो प्रस्ताव किया उसे सुन युवती के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी थी। मीणा का प्रस्ताव सुनते ही वह फूट-फूटकर रोने लगी थी। उसे रोता देख मीणा ने घण्टी बजायी थी और चपरासी से उज्वल सूद को बुला लाने के लिए कहा था। युवती को चेम्बर से बाहर निकल जाने का आदेश दिया था।
उज्वल मेरठ की जिस लड़की के ट्रांसफर की आपने चर्चा की थी...मुझसे मिलने की सलाह उसे आपने दी थी?
सर, मैंने आपसे पूछ लिया था।
ओ.के... उसे आज ही दिल्ली कैण्ट कार्यालय भेज दो...इस कार्यालय योग्य नहीं है वह। मुझे काम करने वाले लोग चाहिए रोने वाले नहीं।
लेकिन सर।
लेकिन क्या?
कैण्ट से डेली पैसेंजरी उसके लिए... ।
इसका ठेका विभाग ने नहीं लिया।
लेकिन फिर भी सर...मुझे उसमें कोई कमी नहीं दिखती ...।
सूद, मैं जो कह रहा हूँ वह करो...आप पहले भी मुझे चलाने की कोशिश कर चुके हो...इट्ज एनफ...।
और उसी 'एनफ' का खामियाजा भुगतने के लिए सूद को मद्रास स्थानांतरित किया गया था।