गलियारे / भाग 29 / रूपसिंह चंदेल

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पटना में सुधांशु ने गृहस्थी का पर्याप्त सामान एकत्रित कर लिया था। सामान ट्रक से बुक करवा कर वह दिल्ली आ गया। शनिवार था...अवकाश का दिन। सुबह जब सुधांशु गेस्ट हाउस पहुँचा, प्रीति सो रही थी। देर तक कमरे की घण्टी बजाने के बाद आंखें मलती हुई प्रीति ने दरवाज़ा खोला, तुम आ गए? प्रीति की आंखों में अभी भी नींद छायी हुई थी।

प्रीति के प्रश्न से सुधांशु अचकचा गया। समझ नहीं पाया कि वह क्या उत्तर दे। वह चुप रहा। दूसरे बेड पर अपना सूटकेस रख उसने प्रीति की ओर देखा। नींद में वह झूम रही थी।

प्रीति तुम सो रहो...।

सॉरी सुधांशु...देर से सोयी थी...तीन बजे... । मुझे दस बजे जगा देना।

अच्छा। सुधांशु बाथरूम चला गया। लौटा तो प्रीति को खर्राटे लेते पाया। स्नान करते हुए उसे आठ बज गए। ब्रेकफास्ट के लिए दयाल ने दरवाज़ा नॉक किया। दरवाज़े के पर्दे को हटा सुधांशु ने दरवाज़ा खोला और बाहर आ गया।

गुड मॉर्निंग सर। सोत्साह दयाल बोला। वह सुधांशु को पहचान गया था।

वेरी गुड मॉर्निंग।

सर ब्रेकफास्ट तैयार है...आप...।

प्रीति अभी सो रही है। मैं मेस में आ जाउंगा।

थैंक्यू सर। दयाल ने झुककर कहा और दूसरे कमरों की ओर बढ़ गया, जिनमें दो अन्य अधिकारी सपत्नीक ठहरे हुए थे, उनमें एक प्र।र। विभाग का था। प्ररवि विभाग के उस गेस्ट हाउस में जब कभी कमरे खाली होते प्र।र। विभाग के अफसरों को ठहरने की सुविधा दे दी जाती थी। दोनों विभाग एक-दूसरे की सुविधाओं का खयाल रखते थे।

ब्रेकफास्ट करके साढ़े नौ बजे जब सुधांशु कमरे में लौटा प्रीति तब भी सो रही थी। एक घण्टा तक सुधांशु अल्बेयर कामू का उपन्यास 'द फॉल' पढ़ता रहा। साढ़े दस बजे उसने प्रीति को आवाज़ दी।

उठती हूँ। दस मिनट। प्रीति ने पुन: चादर तान ली। वह ग्यारह बजे उठी और उठते ही बाथरूम चली गई। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने के बाद उसने पूछा, सुधांशु, तुमने ब्रेकफास्ट कर लिया?

हाँ।

और लोगे?

बिल्कुल नहीं।

प्रीति ने दयाल को फ़ोन मिलाया।

गुड मॉर्निंग मैम। दयाल फ़ोन पर ही झुक गया था।

ब्रेक फॉस्ट में कुछ बचा है?

आप क्या लेना पसंद करेंगी मैम?

कुछ भी हल्का...वेज सैंडविच...।

अभी लाया मैम।

और पांच मिनट के अंदर दयाल प्लेट में दो सैण्डविच लेकर आ पहुँचा।

मैम, चाय या कॉफी? मेज पर प्लेट रखता हुआ दयाल बोला, सर आप क्या लेंगे? वह सुधांशु से पूछ रहा था, जो मोटी तकिये का सहारा लिए उपन्यास पढ़ रहा था।

थैंक्स...नथिंग।

कॉफी ले लो सुधांशु। प्रीति बोली।

कुछ समय पहले ही पी थी।

सर, काफ़ी समय हो गया आपको कॉफी पिए हुए... । दयाल के स्वर में चाटुकारिता स्पष्ट थी।

यहाँ की कॉफी अच्छी होती है सुधांशु। प्रीति ने दयाल की ओर देखा, जो विनय की प्रतिमूर्ति बना हुआ खड़ा था।

मन नहीं है।

डू यू नो सुघांशु।...। प्रीति सैण्डविच कुतरते हुए बोली, मैं गेस्ट हाउस की इंचार्ज हूँ इन दिनों। इसलिए मेरे लिए ये लोग अच्छी कॉफी बनाते हैं।

मैम, हम सभी के लिए अच्छी ही बनाते हैं...।

प्रीति ने घूरकर दयाल को देखा।

सॉरी मैम।

जाओ, दो अच्छी-सी कॉफी लेकर आओ।

दयाल चला गया तो सैण्डविच की प्लेट थामे हुए प्रीति सुधांशु के निकट आयी, रात प्रोजेक्ट पर डिस्कशन होता रहा...।

कौन-सा प्रोजेक्ट? प्रीति की बात काट दी सुधांशु ने।

हेडक्वार्टर ऑफिस की नई बिल्डिंग बननी है। उसी के बजट पर चर्चा थी होटल सम्राट में।

मुख्यालय का कांफ्रेंस हॉल छोटा पड़ रहा था?

यार, सुधांशु कैसी बातें करते हो। अब तुम किसान नहीं हो...क्लास वन अफसर हो। उसी प्रकार बातें सोचा और किया करो।

मतलब?

देखो, चर्चा में कई लोगों को शामिल होना था...महानिदेशक, अपर महानिदेशक प्रशासन और ऑडिट, डी.पी.मीणा, मैं और बिल्डर मनीष अग्रवाल थे।

हेडक्वार्टर के कांफ्रेंस रूम में पचीस से अधिक लोगों के बैठने की जगह है।

ओफ्फोह। प्रीति जो सुधांशु के बेड पर बैठने ही जा रही थी, रुक गयी। खड़े हुए ही उसने सैण्डविच का टुकड़ा मुंह में लिया और बोली, बुरा मत मानना सुधांशु...क्लास वन अफसर होकर भी तुम्हारी सोच अभी गाँव वाली ही है।

सो व्वाट? उपन्यास बिस्तर पर रखकर सुधांशु तनकर बैठ गया, गांव वाले...गांव वाले...क्या गाँव वाले इंसान नहीं होते?

मैंने यह नहीं कहा। प्रीति को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। 'मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था' उसने सोचा, सॉरी। लेकिन इतना सच है कि बड़ी बातें छोटे ढंग से नहीं सोची जातीं।

क्या मतलब?

मतलब यह कि बड़े कामों पर विचार के लिए भी एक अच्छे वातावरण की आवश्यकता होती है वैसे ही जैसे जब तुम्हें कुछ रचनात्मक लिखने के लिए एक अलग वातावरण की आवश्यकता होती होगी।

मैं कूड़ाघर के पास बैठकर भी लिख सकता हूँ।

फिर तो लिखी गई चीज कूड़ा ही बनती होगी।

सुधांशु का मन विचलित हो उठा। 'यह मेरे रचनाकार का अपमान है।' उसने सोचा, लेकिन बोला कुछ नहीं।

मुझे अफ़सोस है सुधांशु। तुम्हे आहत करना मेरा उद्देश्य नहीं था। प्रीति ने आगे बढ़कर उसके गाल सहला दिए। तभी घण्टी बजी।

कम इन। प्लेट थामे प्रीति दरवाज़े की ओर बढ़ी, जहाँ पर्दा उठाकर ट्रे में कॉफी के प्याले सजाए दयाल प्रकट हुआ।

मेरी कॉफी मेज पर और साहब की उन्हें दे दो।

दयाल द्वारा बढ़ाया गया कप सुधांशु ने बेमन ले लिया और पीने भी लगा। अभी भी वह प्रीति की कही बात सोच रहा था।

दयाल चला गया तो प्रीति बोली, रामचन्द्रन सर चाहते थे कि बैठक गुप्त रहे। जब तक मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से प्रपोजल की अनुमति नहीं मिल जाती, किसी को पता न चले और दूसरा कारण यह कि दफ़्तर में खाने-पीने का इंतज़ाम हो नहीं सकता था...खाने का हो जाता लेकिन पीने का...सरकारी दफ़्तर में वह सब वर्जित है। इसलिए... । प्रीति ने प्लेट मेज पर रखी, कॉफी उठायी और सुधांशु के चेहरे की ओर देखती रही।

सुधांशु चुप रहा।

बुरा मान गए?

बुरा क्या मानना। रामचन्द्रन साहब ने कुछ नया नहीं किया। नया तब करते जब यह मीटिगं दफ़्तर में होती...लेकिन वह भी इस देश के लाखों ब्यूरोक्रेट्स में से एक हैं...उन जैसे ही और उन्हीं की तरह सोचने-करने वाले। निश्चित ही होटल सम्राट का हजारों रुपयों के बिल का भगतान कार्यालय ने किया होगा और कर्यालय को पैसा मंत्रालय से मिलता है। मंत्रालय को जनता से...अर्थात आम जनता के पैसों पर देश के विकास के नाम पर अफसर, मंत्री-नेता गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। जितना धन देश के विकास में ख़र्च होता है उससे कई गुना अधिक इन लोगों की मस्ती में और उनकी जेबों में जाता है। जनता गरीब है...गरीब रहेगी, क्योंकि उसे गरीब बनाए रखने में ही इनके हित सधते रहेंगे...इनकी तिजोरियाँ भरती रहेंगी...यही सच है प्रीति और मैं अनुभव कर रहा हूँ। उसने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि डाली, मैं अनुभव कर रहा हूँ कि कल तक आदर्श की बातें करने वाली तुम अब उसी ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बनती जा रही हो जो जनता के धन का दुरुपयोग कर रही है।

मैं ऐसा नहीं मानती। हम काम करते हैं...काम करने वाले को अपने ढंग से काम करने की छूट मिलनी ही चाहिए... मैं नहीं समझती कि होटल सम्राट में मुख्यालय की नई बिल्डिंग के प्रोजेक्ट पर चर्चा करना कोई अपराघ था।

माफ करना। सुधांशु ने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, जब इस मसले पर कांफ्रेंस रूम में चर्चा हो सकती थी तब हजारों ख़र्च करने का औचित्य समझ में नहीं आता...।

तुम नहीं समझोगे सुधांशु, क्योंकि जैसा तुम सोचते हो...देश का विकास उससे होने वाला नहीं है...।

मुझे अफ़सोस है कि मैं नहीं समझूंगा...कह सकती हो कि समझना ही नहीं चाहता।

छोड़ो इस बहस को। मीटिंग महानिदेशक ने तय की थी। हम व्यर्थ क्यों बहस करें उस पर।

क्योंकि तुम उसे सही सिध्द कर रही थी।

गलत मैं उसे कभी भी नहीं कहूँगी। मैं महानिदेशक होती तब मैं भी यही निर्णय लेती।

हुंह।

छोड़ो यार इस मीटिंग प्रकरण को। यह बताओ सामान कब आ रहा है?

दो-तीन दिनों में।

हमे कहीं एकमोडेशन देखना चाहिए?

इस शहर के बारे में मेरी जानकारी अधिक नहीं है ... खासकर दक्षिण दिल्ली की...।

ठीक है, मैं पता करूंगी।

प्रीति ने डी.पी. मीणा सहित कई लोगों को फ़ोन किया और सभी ने दक्षिण दिल्ली में उनके लिए कहीं स्थान तलाश देने का भरोसा दिया लेकिन पलटकर उत्तर किसी ने नहीं दिया। सामान दिल्ली पहुँचने की सूचना कैरियर कंपनी ने सुधांशु को दे दी थी। जब किसी ने सहायता नहीं की तब सुधांशु ने रविकुमार राय को फ़ोन किया, वस्तुस्थिति बतायी और समस्या रखी।

कुछ करता हूँ सुधांशु ...।

रविकुमार राय ने अपने एक सेक्शन अफसर को यह काम सौंपा। सेक्शन अफसर ने अपने अधीनस्थ एक बाबू को कहा जिससे उम्मीद थी कि वही वह कार्य कर सकता था। बाबू ने लाजपत नगर के एक प्रापर्टी डीलर से बात की जिसने एक सप्ताह बाद पता करने के लिए कहा।

सर एक सप्ताह में सुधांशु सर को मकान मिल जाएगा...पहले भी मिल सकता है। बाबू ने अपने सेक्शन अफसर को बताया और उसने आगे रविकुमार राय को रपट दी।

ध्यान रखना। रवि ने सेक्शन अफसर से कहा और उस बात को भूल गया।