गलियारे / भाग 30 / रूपसिंह चंदेल
'के' ब्लॉक, जहाँ के प्रधान निदेशक कार्यालय में सुधांशु दास ने ज्वायन किया, वहाँ दस वर्ष पहले तक हटमेण्ट्स का एक बड़ा कैम्पस था, जिसमें अन्य अनेक सरकारी कार्यालय थे। उसके आसपास ऐसे कई हटमेंट्स थे, जिनमें से दो को तोड़कर दो मंजिलें भवन बनाए गये थे। सबसे पहले 'के' ब्लॉक के हटमेंट्स को तोड़ा गया था। इस ब्लॉक के बहुत निकट एक मस्जिद थी, जिसकी देखरेख ऑकिऍलॉजिकॅल सर्वे ऑफ इंडिया करता था। इस ब्लॉक के आसपास सभी ब्लॉक्स में सरकारी कार्यालय, विशेषरूप से सुरक्षा बलों से सम्बन्धित कार्यालय थे। कहते हैं कि उन हटमेण्ट्स का निर्माण भी द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किया गया था, जहाँ अमेरिका और ब्रिटिश फौजों के कार्यालय थे। अमेरिकी सैनिक दिनभर वहाँ कार्य करते ओर शामें उनकी उन महिलाओं के साथ गुलजार होतीं, जिन्हें विशेषरूप से उनके लिए सेना में भर्ती किया गया था। यही नहीं, कहते हैं कि उन दिनों दिल्ली कार्लगर्ल्स की मंडी में तब्दील हो चुकी थी। देश के कोने-कोने से युवतियाँ दिल्ली लायी गई थीं...दलालों के दल सक्रिय थे और एक हिन्दी साप्ताहिक की रपट के अनुसार दिल्ली में पहली बार यह सब व्यवस्थित रूप से प्रारंभ हुआ था।
'के' ब्लॉक के निकट स्थित मस्जिद, जिसके चारों ओर गोलाकार सड़क निकलती थी और पूरे समय वाहनों की व्यस्तता बनी रहती थी, का नाम मोती मस्जिद था। यह एक छोटी मस्जिद थी, जिसके विषय में कोई ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं थे। यह इतनी छोटी थी कि एक साथ सात-आठ लोग ही उसमें नमाज पढ़ सकते थे। बाहर भी इतना स्थान नहीं था और जो था वह ऑकिऍलॉजिकॅल विभाग की उपेक्षा के कारण टूटा-फूटा और यत्र-तत्र छोटी झाड़ियों से घिरा हुआ था। मस्जिद में बिजली की व्यवस्था नहीं थी और उसके दरवाज़े पर खड़े होने पर उसके अंदर कबूतरों की गुटरूगूं सुनाई देती और उनके बीट की उबकाई पैदा करती गंध के साथ सीलन की बदबू भी नथुने फुलाने लगती थी। इस सबके बावजूद मस्जिद की टूटी-फूटी जगह पर उत्तर-पूर्व की ओर एक अधेड़ व्यक्ति ने चाय की दुकान सजा रखी थी। सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक उसका स्टोव जलता रहता और आसपास के कार्यालयों के दो-चार बाबू वहाँ हर समय चाय पी रहे होते। उस चाय वाले के सामने सड़क पार फुटपाथ पर एक और चायवाले की दुकान थी। उस चाय वाले की दुकान के पीछे किसी एम.पी. का बंगला था। मस्जिद के निकट वाली चाय की दुकान की अपेक्षा एम.पी. के बंगले की पिछली दीवार के साथ फुटपाथ पर की दुकान में अधिक बाबू चाय पीते थे। वहाँ खुली जगह थी, जिससे बाबुओं को झुण्ड में खड़े होकर गप्प लगाने में असुविधा नहीं होती थी। प्राय: दफ़्तर से ऊबे, काम के बोझ से दबे बाबू दोनों दुकानों में चार-छ: के ग्रुप में आते और आध घण्टा डी.ए.,वेतन, महगाई और सरकारी भ्रष्टाचार पर चर्चा करते हुए अपने को हल्का करते। इनमें वे बाबू भी सक्रिय भागीदारी निभाते जो सीट पर होते ही ठेकेदारों से कमीशन की बातें करते थे। लेकिन जब भ्रष्टाचार की चर्चा छिड़ती वे सबसे आगे चर्चा में भाग लेते थे।
‘के’ ब्लॉक में प्ररवि विभाग के उस प्रधान निदेशक कार्यालय में प्रधान निदेशक चमनलाल पाल के अतिरिक्त एक संयुक्त निदेशक, एक उप निदेशक और दो सहायक निदेशक थे। एक सहायक निदेशक का पद रिक्त था और उसी रिक्त स्थान पर सुधांशु को पद-स्थापित किया गया था। पहली मुलाकात में प्रधान निदेशक चमनलाल पाल ने सुधांशु को लंबा भाषण दिया, जिसे 'यस सर' के कथन की निरंतरता के साथ सुधांशु ने सुना।
हमें इस प्रकार काम करना होता है जिससे न प्रर बलों को कठिनाई हो और न ही उनकी सेवा में नियुक्त कांट्रेैक्टर्स को।
सर, कांट्रेैक्टर्स का उनकी सेवा में नियुक्त होना...।
सेवा में नियुक्त होना...आई मीन ...उनके लिए समय से माल सप्लाई करना। प्रर बलों के लिए जो भी सामान...सुई से लेकर शराब की बोतलें, खाने के सामान से लेकर रेफ्रिजरेटर...अर्थात आवश्यकता की हर वस्तु कंाट्रैक्टर्स द्वारा ही सप्लाई होता है। उनका भुगतान यह कार्यालय करता है, क्योंकि हम उनके ऑडिट अफसर हैं। हमें देखना यह होता है कि कांट्रैक्टर ने यदि समय से माल भेज दिया है और उसके बिल के साथ प्रर विभाग के प्रशासनिक अधिकारी का इस आशय का नोट नत्थी है कि सप्लाई हो चुकी है तब उसके बिलों के भुगतान में अधिक समय नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। करोड़ों की सप्लाई का भुगतान चार-छ: दिन विलंब से मिलने पर कांट्रैक्टर को लाखों का नुक़सान होता है।
सर, आप बेफिक्र रहें। सुधांशु सोच रहा था कि इस बात के लिए मिस्टर लाल ने इतना लंबा भाषण क्यों दिया।
अपने चौड़े मुंह पर चौड़े होठ फैलाते हुए मुस्कराये प्रधान निदेशक, आपसे यही उम्मीद थी।
चमन लाल पाल पांच फीट आठ इंच लंबा, सांवला, चौड़े शरीर का व्यक्ति था, जिसके गालों पर जवानी के मसों जैसे दाने उसके पचपन पार उम्र में भी स्पष्ट थे। वह जब हंसता उसके बड़े दांत उसके चेहरे को विचित्र बनाते। वह काफ़ी सख्त अफसर माना जाता था, जिसके विषय में बाबुओं में चर्चा थी कि घर में उस पर उसकी बीबी का आतंक था, जो एक अंग्रेज महिला थी। चमल लाल पाल पंजाब के होशियारपुर के एक समृध्द परिवार से था। पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए वह आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गया था, वहीं उसकी मुलाकात लिलि ब्राउन से हुई थी। लिली उसके साथ पढ़ती थी। लिली को सांवला, खोथरे चेहरे वाला, मज़बूत कद-काठी का चमन लाल पाल भा गया था और वह उससे प्रेम करने लगी थी। उसकी नीली आंखों ने भांप लिया था कि पाल के हाथों उसका भविष्य सुखमय रहेगा चाहे वह ब्रिटेन में रहे और चाहे भारत में। अपने अंग्रेज प्रेमी को छोड़ वह पाल को प्रेम करने लगी थी और पाल के मन लिली पहले से ही चढ़ी हुई थी। प्रेम अपने परिणाम तक पहुँचा और दोनों ने लंदन के एक मंदिर में शादी कर ली। लिली के परिवार के लोगों के अलावा पाल के कुछ भारतीय मित्र इस बात के गवाह बने थे।
शिक्षा समाप्त कर जब चमनलाल पाल भारत वापस लौटा लिली उसके साथ थी। चमन पहले से ही जानता था कि उसके परिवार में लिली का स्वागत होगा, भले ही उसके बारे में उसने घर वालों को नहीं बताया था और वैसा ही हुआ। पंजाब की धरती की यह खूबी है कि वह हर चीज को पचा लेती है, अपने में रचा-बसा लेती है और अपना लेती है। लिली पहले ही दिन से चमन लाल पाल के परिवार का हिस्सा बन गयी, लेकिन उसे अधिक समय तक होशियारपुर में नहीं रहना पड़ा। आई.ए.एस. की तैयारी के लिए चमन चण्डीगढ़ गया और लिली उसके साथ गयी...जाना ही था। वह अंग्रेज बाला चमन के अतिरिक्त किसी के साथ रह भी नहीं सकती थी।
चमन के प्ररवि विभाग में नियुक्त होने के कुछ वर्षों बाद लिली के तेवर बदलने लगे थे। हालात ये हुए कि कार्यालय में अधीनस्थों को मामूली और उपेक्षणीय मामलों पर अपमानित करने वाला चमन लाल पाल घर में लिली के सामन भीगी बिल्ली बन जाता था। लिली को अपने सौन्दर्य का अहसास था और यह भी अहसास था कि उस पर मुग्ध लाल पर वह शासन करने के लिए ही पैदा हुई थी जबकि लाल दफ़्तर के बाबुओं और अपने अधीनस्थ अधिकारियों पर शासन के लिए जन्मा था।
पाल और लिली की एकमात्र संतान थी उनकी बेटी शेफाली, जो उन दिनों पचीस के लगभग थी और जब वह पांच वर्ष की थी, लिली ने उसे अपने भाई के पास लंदन भेज दिया था। तीन-चार वर्षों में कभी सप्ताह-दस दिनों के लिए वह उनके पास आती, वर्ना लाल और लिली ही उससे मिलने जाते। बेटी माँ की प्रतिरूप थी और लिली का मानना था कि जवानी की गफलत में उसने लाल जैसे काले व्यक्ति को पसंद किया और पहले प्रमी को छोड़ जो लाल के गले में बाहें डालीं तो किसी दूसरे की ओर देखने का अवसर उसे नहीं मिला जबकि वह नहीं चाहती थी कि उसकी बेटी किसी काले भारतीय की पत्नी बने। वह अंग्रेज महिला से जन्मी थी और उसका विवाह अंग्रेज युवक से ही होना चाहिए। लिली भारत की उस संस्कृति की आलोचक थी जहाँ उन्मुक्त प्रेम प्रतिबन्धित था, लेकिन लुक-छुपकर वह सब होता जैसा ब्रिटेन में भी उसने नहीं देखा था। यद्यपि उसे लगता कि अपने प्रेम और समर्पण से उसने लाल को अपने बाहुपाशों में क़ैद कर रखा था, लेकिन कभी-कभी वह शंकालु हो उठती और उसकी आशंका निर्मूल न थी। लिली से आतंकित लाल स्टॉफ और सहयोगियों में आश्रय खोजता रहता और कभी-कभी सफल भी होता। स्टॉफ में अपने आतंक को वह हथियार के रूप में प्रयोग करने लगा था और जहाँ भी तैनात रहा, किसी न किसी महिला कर्मचारी के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा करने में सक्षम रहा, जिससे या तो वह उसकी शर्तें स्वीकार करने के लिए विवश होती या उसे नौकरी त्यागने के लिए या दूर-दराज स्थानांतरण पर जाने की तैयारी करनी पड़ती।
ऐसे प्रधान निदेशक से लंबा भाषण सुनकर वापस लौटे सुधांशु ने अपने कमरे में पहुँच एक-एक कर अपने अधीनस्थ अनुभाग अधिकारियों की बैठक की और उनसे कार्य की जानकारी प्राप्त की। ज्ञात हुआ कि उसे वे सेक्शन आबंटित किए गए थे, जो कांट्रेक्टर्स के बिलों का ऑडिट करते, सही पाये जाने पर उनके चेक तैयार करवाते और उन्हें डिस्पैच करवाते थे।
सुधांशु से पूर्व उस पद पर नियुक्त सहायक निदेशक के पदोन्नत होकर पूना जाने के बाद दो सप्ताह से वह पद खाली था। लाल उस कार्य को दूसरे सहयाक निदेशक को सौंपना नहीं चाहता था। उस कार्यालय का इंचार्ज होने के नाते वह वहाँ के समस्त कार्य के लिए उत्तरदायी था, लेकिन कुछ फाइलें ही उसके पास जाती थीं। खासकर वे फाइलें जिनपर निर्णय लेने का अधिकार दूसरे अधिकारियों को नहीं होता था...उन पर लाल ही निर्णय ले सकता था। उस बिल की फाइल जिसका भुगतान एक करोड़ रुपयों से अधिक होता, उसकी संस्तुति के लिए जाती थी। कांट्रैक्टर्स के बिल जिस सेक्शन में ऑडिट होते और जहाँ से उनके चेक बनते उस सेक्शन को ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन कहा जाता था। सहायक निदेशक के पदोन्न्त होकर जाने के बाद उस सेक्शन का काम लाल स्वयं देखता रहा था।
मीटिंग में अनुभाग अधिकारियों से काम समझने के बाद सुधांशु ने लेखाधिकारी के माध्यम से फाइलें भेजने के लिए उन्हें आदेश दिया। उसके बाद उसने सम्बध्द लेखाधिकारी को बुलाया और उस विषय पर चर्चा की। कुछ ही समय में फाइलों से सुघांशु की मेज भर गयी। फाइलें देखते हुए उसे आध घण्टा ही बीता था कि उसके पास कांट्रैक्टर्स के फ़ोन आने प्रारंभ हो गए। सुधांशु जिस सेक्शन की फाइल देखता उसके सेक्शन अफसर को बुला लेता। हुआ यह कि जिन दो कांट्रैक्टर्स के फ़ोन उसके पास आए उनके बिल से सम्बन्धित सेक्शन अफसर से उन्हीं के केस वह समझ रहा था। उसे आश्चर्य हुआ। 'ऐसा कैसे हुआ कि जिस समय वह उनके केस देख रहा है उसी समय वे फ़ोन कर रहे है।' सुधांशु सोचने लगा। लेकिन इसे उसने संयोग माना।
सर मैं...कंपनी से बोल रहा हूँ...मेरा सत्तर लाख का बिल दो सप्ताह से रुका हुआ है। प्लीज आप उसे आज ही क्लियर कर दें...मेहरबानी होगी सर। कंपनी का एक्जीक्यूटिव बोल रहा था। सुधांशु ने सेक्शन अफसर की ओर देखा, वह फाइल में नजरें गड़ाए ऐसा प्रकट कर रहा था कि उसने कुछ सुना ही नहीं था।
मैंने आज ही ज्वायन किया है। जहाँ दो सप्ताह धैर्य रखा...एक-दो दिन और रुकें...आपके चेक डिस्पैच हो जायेंगे।
सर, मेरा एक्जीक्यूटिव पर्सनली आकर ले जाएगा।
ऐसा नियम नहीं है। चेक आपको स्पीड पोस्ट से मिल जाएगा।
और एक्जीक्यूटिव की बात सुने बिना ही सुधांशु ने फ़ोन काट दिया। उसने फाइल पर नज़र डाली ही थी कि दूसरी कंपनी के डायरेक्टर का फ़ोन आ गया। उसे भी उसने वही जवाब दिया। इनको मेरा नाम भी पता था और कब ज्वायन किया यह भी...यह कैसे हुआ? सुधांशु ने सेक्शन अफसर से पूछा, जो अभी भी फाइल में कुछ पढ़ रहा था।
सर, ये पता लगाते रहते हैं। मुख्यालय से लेकर मंत्रालय तक ये पता करते रहते हैं। भुगतान के मामले में एक दिन का विलंब भी इन्हें बर्दाश्त नहीं। मंत्रालय भी इनके पक्ष में रहता है, क्योंकि एक दिन भी विलंब से इनकी सप्लाई पहुँचने से हमारे प्रर बलों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। खासकर खाने-पीने के बिलों के भगतान में...।
हुंह...। सुधांशु विषय की गंभीरता समझ रहा था और उसने उन दोनों कांट्रैक्टर्स के बिलों को न केवल पास किया, बल्कि दो घण्टे के अंदर उनके चेक बनवाकर सेक्शन अफसर को उन्हें डिस्पैच करने का आदेश भी दिया।