गलियारे / भाग 31 / रूपसिंह चंदेल

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गेस्ट हाउस में कोई असुविधा तो नहीं प्रीति। एक दिन डी.पी. मीणा ने प्रीति को अपने पास बुलाकर पूछा।

सर, असुविधा नहीं है, लेकिन पटना से आया सामान गेस्ट हाउस के एक कमरे में बंधा पड़ा है।

सो व्वाट?

सुधांशु का कुछ आवश्यक सामान है उसमें...। वह क्षणभर के लिए रुकी।

चाय लोगी? मीणा ने प्रीति की बात काटकर घण्टी बजायी।

चपरासी दरवाज़ा खोलकर झांका।

दो चाय...फटाफट।

जी सर।

सॉरी, कुछ कह रही थी तुम।

प्रीति ने मीणा के 'तुम' पर ज़ोर दिए जाने पर ग़ौर किया।

सर, सुधांशु का मानना है कि बहुत लंबे समय तक वहाँ नहीं रहा जा सकता...लाजपत नगर में किसी ने ...सुधांशु के कार्यालय में किसी ने दो कमरों का फ़्लैट बताया है, आज वह देखने जाएगा।

ओ.के.। मीणा गंभीर हुआ। उसने घण्टी बजायी। कोई चपरासी नहीं आया। दस सेकेण्ड बाद उसने फिर घण्टी बजायी, तब भी कोई चपरासी प्रकट नहीं हुआ। मीणा अंदर से उबलने लगा। उसने घण्टी पर उंगली रखी और उसे दबाए रहा। घण्टी की घनघनाहट दूर कैण्टीन में चाय लेने गए उसके चपरासी ने सुनी और चाय बनाने वाले लड़के से बोला, साले तूने मरवा दिया। और बिना चाय लिए दौड़ गया।

सर। चपरासी हाँफ रहा था।

किधर ग़ायब था? उफनते हुए मीणा बोला।

सर चाय...। अपराधी-सा कार्पेट पर नजरें झुकाए चपरासी बोला।

एडमिन पांच के एस.ओ. को बुलाकर लाओ।

चपरासी बाहर जाने के लिए दरवाज़ा खोल ही रहा था कि मीणा भारी आवाज़ में बोला, चाय का आर्डर देकर इधर नहीं होना चाहिए था?

सॉरी सर। चपरासी के चेहरे पर घबड़ाहट थी।

ठीक से नौकरी करो मिस्टर वर्ना अण्डमान निकोबार भेज दूंगा।

सर...गलती हो गयी।

प्रीति मीणा की ओर देखती रही और मन ही मन सोचती रही कि अधीनस्थों के साथ नम्रता उन्हें निकम्मा बना देती है।

हाँ, मैं एक लेटर भेज देता हूँ एस्टेट ऑफिस को...वहाँ के डायरेक्टर को फ़ोन भी कर दूंगा। संभव है कि एक सप्ताह के अंदर प्रगतिविहार हॉस्टल मेें जगह मिल जाए। किसी के मकान में किराये पर रहने से दो कमरों के सरकारी हॉस्टल में रहना अधिक सुविधाजनक होगा। किसी का हस्तक्षेप तो नहीं होगा वहाँ।

वह तो है सर, लेकिन हम दोनों का हाउस रेण्ट कटेगा और मिलेंगे दो छोटे कमरे। उतने रेंट में प्राइवेट में अधिक एकमोडेशन मिल जायेगा...कम से कम तीन-चार कमरों का फ्लैट।

तुम सही कह रही हो, लेकिन मैं आज़ादी पसंद व्यक्ति हूँ। आज़ादी किसी भी क़ीमत पर। प्राइवेट में मकान मालिक के नखरे...सोच लो तुम दोनाें।

पन्द्रह मिनट में मीणा तीन बार प्रीति को 'तुम' सम्बोधन कर चुका था और पहली बार इस शब्द पर जितना ज़ोर उसने दिया था वह क्रमश: कम होता गया था। पहली बार सुनकर प्रीति ने जो अचकचाहट अनुभव की थी वह दूसरी...तीसरी बार में कम होती गयी थी या कहें कि अनुभव ही नहीं किया था।

प्रीति कुछ कहने ही जा रही थी कि कैण्टीन के बेयरे ने दरवाज़ा नॉक किया।

यस। मीणा ऊँची आवाज़ में बोला।

बेयरे ने बांये हाथ से दरवाज़ा खोला। दाहिने हाथ में उसने ट्रे थाम रखी थी। सर, चाय।

मीणा कुछ नहीं बोला। बेयरे ने दोनों के सामने चाय रखी और दबे पांव पलट गया। उसने दरवाज़ा खोला ही था कि एडमिन पांच का सेक्शन आफसर अमन अरोड़ा 'मे आई कम इन सर' कहता हुआ मीणा के कुछ कहने से पहले ही चेम्बर में प्रविष्ट हुआ।

अरोड़ा ने झुककर मीणा को गुडमार्निंग किया, जिसका उत्तर मीणा ने नहीं दिया, फिर उसने सीधे खड़े हो प्रीति को 'गुडमार्निंग मैम' कहा। प्रीति ने भी उत्तर नहीं दिया।

अरोड़ा कार्यालय के उन चंद लोगों में से था जो मीणा के चाटुकार थे। वे मीणा के आदेशों का त्वरितता से पालन करते थे। उसके घर-बाहर के सभी कार्य अरोड़ा और उसके मातहत बाबू करते थे, जिसके प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ भी वे लेते थे। एडमिन पांच में अरोड़ा के अतिरिक्त पांच बाबू थे, जो कार्यालय की फाइलों पर कम अधिकारियों के निजी कार्यों में अधिक तैनात रहते थे। उन्होंने कार्यालय के अधिकारियों को श्रेणीबध्द कर रखा था। उसी क्रम से वे उन अधिकारियों को महत्त्व देते थे। उनकी दृष्टि में प्रीति बहुत जूनियर अधिकारी थी, इसलिए जो विनम्रता वे मीणा के समक्ष प्रकट करते वह प्रीति के समक्ष नहीं। प्रीति भी जानती थी और वह यह भी जानती थी कि कुछ वर्षों बाद जब वह मीणा के पद पर पदोन्नत हो चुकी होगी और कभी उस सीट पर बैठी होगी तब ये लोग उसके समक्ष भी झुककर सलाम किया करेंगे।

सर, आपने याद किया...।

अरोड़ा, मैडम प्रीति के लिए एकमोडेशन का फार्म भरवाकर एस्टेट ऑफिस भेजवाया?

सर, सर...। अरोड़ा ने इस प्रश्न की कल्पना नहीं की थी।

व्वाट सर? मीणा भड़क उठा।

सर, मैंने सोचा था कि सुधांशु सर ने अपने दफ़्तर से कर दिया होगा।

इसका क्या मतलब? प्रीति सुधांशु के साथ न रहना चाहे तब...? मीणा ने मुस्कराकर प्रीति की ओर देखा, क्यों प्रीति?

प्रीति के चेहरे पर फीकी मुस्कान तैर गयी।

मीणा पुन: अरोड़ा की ओर उन्मुख हुआ, ओ.के. अरोड़ा ...अभी फटाफट मैडम से फार्म भरवाओ... मेरी ओर से एस्टेट ऑफिस के निदेशक मनोज रंजन के नाम डी.ओ. लिख लाओ... और दोनों ही चीजें एक साथ मनोज रंजन को भेजवा दो।

जी सर।

अरोड़ा के जाने के बाद मीणा बोला, जीवन कैसा चल रहा है प्रीति?

सर, जीवन...? प्रीति समझ नहीं पायी।

एक बात के लिए टोक सकता हूँ?

सर...।

प्रीति, मुझे अब 'सर' मत सम्बाेिधत करना... मुझे डी.पी. कह सकती हो...मुझे यही पसंद है।

सर...आफिस डिकॉरम...।

प्रीति, यह सब दूसरों के लिए है...।

सर, मैं आपसे बहुत जूनियर हूँ...और ऑफिस...।

बहुत सीनियर भी नहीं हूँ...और भाड़ में जाए ऑफिस...मुझे क्या पसंद है...क्या नहीं, यह ऑफिस तय करेगा?

मै कोशिश करूंगी।

जिन्हे मैं अपने निकट मानता हूँ...उनसे यही सम्बोधन सुनना मुझे पसंद है।

जी... । प्रीति ने मुंह से स्लिप होने को उद्यत 'सर' को बलात रोक लिया। डी.पी. उसके मुंह से निकल नहीं पा रहा था और बातचीत जारी रहने पर मीणा को सम्बोधित करना ही होगा सोच वह बोली, बहुत फाइलें पेंडिगं हैं...मैं चलना चाहूँगी। वह उठ खड़ी हुई। मीणा ने दृष्टि उसके चेहरे पर गड़ा दी और अपने चेहरे पर गंभीरता ओढ़े हुए बोला, चाय पीने के लिए धन्यवाद...।

प्रीति जाने के लिए खड़ी तो हो गयी, लेकिन वह कुछ कहना चाहती थी, इसलिए चेहरे पर असमंजस लिए खड़ी रही।

कुछ कहना चाहती हो?

जी।

बोलो।

मुझे लगता है कि मेरी ज़ुबान आपके लिए 'सर' के अलावा कुछ और नहीं कह पायेगी। आप इस धृष्टता के लिए अन्यथा नहीं लेंंगे।

तुम्हारी मर्जी। मैंने अपनी इच्छा बता दी। मैं अपने निकटस्थ लोगों से डी.पी. सुनने का आदी हूँ। तुम भी अब उस दायरे में शामिल हो, लेकिन दबाव नहीं डालूंगा। हाँ चाहूँगा अवश्य कि डी.पी. कहो, बाक़ी तुम पर...जब जो जी चाहे कह सकती हो।

थैंक्यू सर।

प्रीति ने झटके से दरवाज़ा खोला और चली गई। वह देर तक कोई काम नहीं कर सकी और सोचती रही मीणा के विषय में। उसे अपने बैच-मेट्स के साथ में मीणा से हुई पहली मुलाकात याद आ रही थी। उसके बाद दो बार मीणा ने उसे ही अकेले बुलाया था और देर तक बातें करते रहना भी याद आया। उसके और सुधांशु के ट्रांसफर के लिए मीणा ने स्वत: प्रयत्न किया, जबकि केवल एक बार ही उसने मीणा को इस विषय में कहा था।

'आखिर क्या कारण हो सकता है?' वह सोचती रही, 'कहीं मीणा मेरे प्रति...लेकिन मैं सुंधाुशु के अतिरिक्त किसी के विषय में सोच ही नहीं सकती। इतना अच्छा, नेक इंसान है वह ...मैं ही उस पर हावी रहती हूँ...वह मेरी हर बात मान लेता है। वह पति से अधिक आज भी मेरा एक अच्छा मित्र है। यह मात्र संयोग है कि हम दोनों एक ही विभाग का हिस्सा हैं।' उसने सिर को झिटका, 'शायद कुछ लोगों की यह कमजोरी होती है कि वह अपने नाम के लिए विशेष उच्चारण ही सुनना पसंद करते हैं।' प्रीति कितनी ही देर तक सोचती रहती, तभी उसके फ़ोन की घण्टी बजी। रविकुमार राय था।

वॉव। प्रीति खिल उठी। हाउ आर यू?

मैं ठीक हूँ और तुम दोनों।

हम भी बिल्कुल ठीक हैं।

बहुत दुखद बात है।

व्वाट हैपेण्ड?

प्रीति, तुम दोनों पन्द्रह दिनों से अधिक समय से यहाँ...दिल्ली में हो...दो वीकेण्ड बीत गए... मेरे यहाँ आने की फुर्सत नहीं निकाल पाए।

सॉरी भाई साहब। हम इतना उलझे हुए हैं...।

कोई माफ़ी नहीं...आज तुम दोनों मेरे यहाँ डिनर पर आमंत्रित हो। सुधांशु को बता दोगी या मैं बोलूं...।

भाई साहब, आप ही कह दें...आज उन्हें कहीं जाना है। उसे याद आ गया था कि सुधांशु को लाजपतनगर मकान देखने जाना है।

उसे भी कह दूंगा। एक क्षण बाद रवि पुन: बोला, आठ बजे मेरी स्टॉफ कार तुम लोगों को लेने गेस्ट हाउस पहुँच जाएगी...ओ.के. ...फिर हम मिलते हैं।

जी भाई साहब।