गलियारे / भाग 33 / रूपसिंह चंदेल
यह ड्रॉफ्ट है? प्रीति के स्वर में खीज थी, अंग्रेजी नहीं आती तो परचून की दुकान कर लो...किसने बनाया आपको एकाउण्ट्स अफसर?
सॉरी मैम। अपराधी-सा एकाउण्ट्स अफसर झुककर फाइल में अपनी त्रुटि देखने का प्रयत्न कर रहा था। टांगे उसकी कांप रही थीं और वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उस युवती के समक्ष बावन वर्षीय उसकी टांगों में कंपन किसी बीमारी के कारण हो रहा था, वृध्दावस्था की ओर उन्मुख उसकी काया के कारण या सामने बैठी उस युवा अधिकारी के कारण। वह यह भी समझ नहीं पा रहा था कि जिस ड्रॉफ्ट को उसने और उस मामले से सम्बध्द यूडीसी, जिसे उस विभाग में ऑडीटर कहा जाता था, ने बहुत परिश्रम के साथ तैयार किया था वह खराब कैसे था।
आपने सम्बध्द चीजें पढ़ीं...गहराई तक गए? आपने जिन नियमों का उल्लेख किया है उनके कुछ महत्त्वपूर्ण क्लॉज इसमें नदारत हैं। आपके उत्तर को प्र।र। विभाग ढाल बना लेगा...हम वैसे भी उनकी मनमानी नहीं रोक पा रहे। वे आइटम्स पहले खरीद लेते हैं और प्रपोजल बाद में भेजते हैं...केवल इसलिए कि हम यह मानकर उन्हें स्वीकार कर लेंगे क्योंकि मामला राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। क्या यह जानना आवश्यक नहीं कि इस आइटम की पिछली खरीद प्रति आइटम किस दर से की गई थी और प्र।र। विभाग ने क्या दर प्रस्तुत की है। प्रीति के स्वर में खीज अब कम थी।
जी मैम।
आप जानते हैं कि कितना भ्रष्टाचार है वहाँ। चार-पांच गुना कीमतों में चीजें खरीदी जाती हैं और जमकर कमीशन खाया जाता है।
एकाउण्ट्स अफसर चुप रहा। उसने अब तक की नौकरी में सीखा था कि जब एक अधिकारी दूसरे के खिलाफ बोल रहा हो तब उसे चुप रहना चाहिए। वह यह भी जानता था कि अफसर जब किसी विभाग के खिलाफ बोल रहा हो तब भी अपनी प्रतिक्रिया नहीं देना चाहिए, क्योंकि उस समय अफसर अपने को सर्वज्ञ समझ रहा होता है और अपनी बात उसे सही लग रही होती है, लेकिन अधीनस्थ की बात उसे कभी स्वीकार नहीं होती भले ही अधीनस्थ कितना ही सही बोल रहा हो। वह यह भी सोच रहा था कि मिसेज दास क्या यह नहीं जानतीं कि प्र।र।विभाग के साथ उनका विभाग भी कमीशन खाने में कम नहीं है। लेकिन वह चुप प्रीति की बात सुनता रहा। बिना प्रतिक्रिया दिए अफसर की बात सुनने से अफसर का अहम तुष्ट होता है।
आप इस नोट को ले जायें। दोबारा लिखें।
जी मैम।
एकाउण्ट्स अफसर फाइल उठा ही रहा था कि फ़ोन की घण्टी बजी। प्रीति ने फ़ोन उठाया।
हाँ, बोलो।
फोन सुधांशु का था और प्रीति के इस प्रकार बोलने से वह क्षणभर के लिए सोच में पड़ गया कि बात करे या नहीं।
तुम चुप क्यों हो?
तुम व्यस्त हो?
नहीं...कुछ ख़ास नही...।
प्रीति ने फाइल मेज पर ठीक अपने सामने रखी हुई थी और सुधांशु से बात करती हुई उसने अपना बांया हाथ उस पर रख लिया था। एकाउण्ट्स अफसर के बढ़े हुए हाथ ठहर गये थे और फाइल उठाने के लिए मेज पर झुकने के बाद वह पुन: सीधा खड़ा हो गया था।
तुमने किसलिए फ़ोन किया?
मैं आज कुछ देर से आऊँगा।
क्यों?
पटना का एक साहित्यकार-पत्रकार मित्र दिल्ली में है...उसने कहीं से मेरा फ़ोन नंबर हासिल कर लिया है ...कुछ देर पहले उसका फ़ोन आया था...कुछ साहित्यिक लोग उसके यहाँ एकत्र हो रहे हैं...।
यार, तुम कहाँ फंस रहे हो इन साहित्य के कबाड़ियों के चक्कर में।
बात क्या है प्रीति...तुम्हें विभाग भी कबाड़खाना लग रहा है और साहित्यकार भी...किसी से उलझ गयी हो?
ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन अब मुझे अपने पर और तुम पर तरस आ रहा है...। इतना कहने के साथ ही प्रीति ने अनुभव किया कि सामने खड़ा एकाउण्ट्स अफसर उन दोनों की बातें सुन रहा है।
एक मिनट सुधांशु। उसने रिसीवर एक ओर किया और एकाउण्ट्स अफसर की ओर देखकर बोली, आप खड़े क्यों हैं? फाइल ले क्यों नहीं लेते। उसने फाइल पर से अपना हाथ हटाया और मेज पर एकाउण्ट्स अफसर की ओर फाइल खिसकाकर बोली, इसे जल्दी से तैयार करके ले आओ।
जी मैम। फाइल उठाता हुआ एकाउण्ट्स अफसर बोला और दरवाज़ा खोलकर तेजी से बाहर निकल गया।
हाँ, तो तुम देर से आओगे...मैं डिनर कर लूंगी। मेस वाले को बोल दूं कि वह तुम्हारे लिए डिनर रख लेगा।
जरूरत नहीं होगी...मैं शायद ख़ाकर आऊँगा।
ओ.के. डियर, लेकिन पीकर मत आना।
आज तक पी? सुघांशु, जिसके स्वर में सदैव शालीनता रहती थी, कुछ उत्तेजित स्वर में बोला।
यार, उखड़ गये...मैं जानती हूँ कि तुम मेरे होंठो का पान करके ही संतुष्ट हो लेते हो...तुम कभी कुछ और नहीं पिओगे। वह क्षणभर के लिए रुकी, फिर पूछा, लेकिन पटना के यह साहित्यकार महोदय हैं कौन?
कोमलकांत विराट नाम है उसका। वह पेशे से पत्रकार है और उसने यहाँ जनसत्ता ज्वायन किया है, लेकिन वह कहानियाँ और कविताएँ भी लिखता है।
ओ.के. डियर।
सुंधाशु से बात समाप्त कर प्रीति कुर्सी पर पसर गयी और आंखें बंद कर लीं...कुछ क्षण विश्राम करने के उद्देश्य से।
प्रीति से बात करके सुधांशु ने जैसे ही फ़ोन रखा, ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन का एकाउण्ट्स अफसर यानी लेखाधिकारी दरवाज़ा नॉक करके अंदर प्रविष्ट हुआ। यह वही सेक्शन था, जहाँ कांट्रैक्टर्स के बिल चेक किए जाते और पास होने के बाद उनके चेक बनते थे। सुधांशु के उस प्रधान निदेशक कार्यालय को ज्वायन करने के पश्चात उस सेक्शन में अटके हुए अपने बिलों के चेक पाने के लिए कुछ कांट्रैक्टर्स ने सुधांशु को फ़ोन करने प्रारंभ किये थे। प्रारंभ में उनके दबाव में आकर सुधांशु ने उनके ऑडिट में कम ध्यान देते हुए उनके बिल पास कर चेक बनवा दिए थे, लेकिन जैसे ही एकत्रित बिल ख़त्म हुए उसने एक-एक बिल पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना प्रारंभ किया और जिनमें किचिंत भी अनियमितता पाता उन्हें वापस लौटा देता और पुन: प्रस्तुत करने का आदेश देता। इससे न केवल ठेकेदार परेशान थे, बल्कि उस सेक्शन का लेखाधिकारी, अनुभाग अधिकारी और बाबू...यहाँ तक कि चपरासी तक परेशान थे, लेकिन अफसर के निर्णय का विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। प्र।र। विभाग के पश्चिमी भाग के अधिकारियों और जवानों के लिए खाद्य सामग्री सप्लाई करने वाले ठेकेदार का बिल वापस भेज दिया गया था जिसमें नौ करोड़ बीस लाख चार हज़ार पैंतीस रुपये और पैंसठ पैसों की अनियमितता पायी थी सुधांशु ने। वास्तव में उस राशि का सामान सप्लाई ही नहीं किया गया था, लेकिन बिल में वह प्रदर्शित था। अरबों के सौदागर के लिए यह चुनौती थी। ऐसा पहली बार हुआ था, जबकि वह साल में कम से कम दो ऐसे बिल बनाकर उनका भुगतान लंबी अवधि से प्राप्त करता आ रहा था। उसे एक ऐसे अफसर ने चुनौती दी थी, जिसकी नौकरी बमुश्किल तीन वर्ष पुरानी थी। उसने प्रघान निदेशक से मिलकर सुधांशु की शिकायत की थी।
सुधांशु नया है...युवा है...आदर्शवादी है...विभाग के चरित्र को समझने में उसे कुछ वक़्त लगेगा। प्रधान निदेशक ने कांट्रैक्टर को समझाते हुए कहा था, सुधांशु द्वारा निकाली गयी कमिओं को आप दुरस्त करके बिल पुन: प्रस्तुत कर दें...चेक बन जायेंगे।
सर...इस प्रकार हमारे लिए इस बिजनेस में बने रहना कठिन हो जाएगा...यह सब घाटे का मामला होगा।
ऐसा नहीं होगा...सुधांशु स्वयं स्थितियों को समझ लेगा। कहा न कि नया है...चीजें बदलने में वक़्त लगता है।
इनसे पहले भी तो अफसर थे...वे भी नये ही थे...लेकिन...।
कांट्रैक्टर की बात बीच में काटी चमनलाल पाल ने, सभी की कार्यशैली अलग होती है। आप इस बिल को पुन: प्रस्तुत करें...आगे के लिए मैं स्वयं सुधांशु से बात करूंगा।
काण्ट्रैक्टर को मन मारकर बिल पुन: प्रस्तुत करने पड़े थे। कांण्ट्रैक्टर्स के बिल सुधांशु सहजता से क्लियर नहीं कर रहा यह बात उनसे पहले लेखाधिकारी ने प्रधान निदेशक को बतायी थी लेकिन उस समय इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया था चमनलाल पाल ने। उसने हंसकर बात टाल दी थी। बात आयी गयी हो गई थी और सुधांशु अपने ढंग से कार्य करता रहा था। उसे यह पता नहीं था कि उसकी कार्यशैली से न केवल ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन के लोग परेशान थे, बल्कि प्रधान निदेशक भी परेशान थे।
और उस दिन जब लेखाधिकारी प्रधान निदेशक के पास कमीशन की राशि पहुँचाने गया तब पाल ने पूछ लिया, सुधांशु का खयाल रखा?
सर, हमारा साहस नहीं उन तक जाने का।
पहले उन्हें देकर आओ।
सर...। चमनलाल पाल की आज्ञा का पालन करने के लिए लेखाधिकारी उल्टे पैर वापस लौट लिया था।
जिस समय वह सुधांशु के कमरे में दाखिल हुआ सुधांशु जाने की तैयारी कर रहा था। मेज पर एक फाइल शेष थी, जिसके नोट को वह पढ़ चुका था और उस पर अपनी टिप्पणी दर्ज कर रहा था। वह फाइल टेण्डर कमिटी मीटिंग से सम्बंन्धित थी। बीस करोड़ के एयर कण्डीशनर सप्लाई करने के टेण्डर से सम्बन्धित फाइल थी, जिसमें प्रधान निदेशक कार्यालय के एक अफसर को शामिल होना था। मीटिंग प्र।र। मुख्यालय में होनी थी। सेक्शन अफसर ने लेखाधिकारी के नाम की संस्तुति की थी, जिसे काटकर सुधांशु ने एक अन्य सहायक निदेशक का नाम लिखा था। वह नोट पर हस्ताक्षर कर ही रहा था कि लेखाधिकारी प्रकट हुआ था।
कहें भट्ट जी। हस्ताक्षर करता हुआ सुधांशु बोला।
सर, एक काम है।
निजी?
नहीं सर...दफ्तर का।
उसके लिए इस प्रकार क्यों खड़े हैं? बैठिये। क्या काम है?
भट्ट, जिसका पूरा नाम अरुण कुमार भट्ट था, सुधांशु के सामने कुर्सी पर बैठ गया।
बताएँ। अपने ब्रीफकेस में विक्टर ह्यूगो का उपन्यास 'ले-मिजेराबल', जिसे वह लंच के समय पढ़ता था, रखते हुए सुधांशु ने पूछा।
सर, यह आपके लिए है। एक लिफाफा सुधांशु की ओर बढ़ाते हुए भट्ट बोला।
इसमें क्या है?
सर, आपका शेयर। कुछ देर पहले तक भट्ट के चेहरे पर विद्यमान संकोच ग़ायब हो चुका था।
शेयर? कैसा शेयर?
सर, काण्ट्रैक्टर्स की ओर से ... उनके बिलों के चेक...। प्रधान निदेशक भट्ट के साथ था इसलिए वह बेखौफ बोल रहा था।
शेयर ...यानी कमीशन...? कितना कमीशन देते हैं काण्ट्रैक्टर्स? लिफाफे को हाथ लगाए बिना ही सुधांशु ने अत्यंत शांत स्वर में पूछा।
सर, दो प्रतिशत।
ओ.के.। कुछ देर तक सुधांशु भट्ट ओैर मेज पर रखे लिफाफे की ओर देखता रहा, फिर बोला, किस-किसको जाता है?
सर, ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन से जुड़े सभी लोगों को...। इस बार उत्तर देते समय भट्ट के चेहरे पर कुछ परेशानी झलक आयी थी। परेशानी इसलिए कि जब से वह उस सेक्शन को देख रहा था, सुधांशु उस सीट पर तीसरा अफसर था। उससे पहले किसी ने भी ऐसे प्रश्न नहीं किए थे। 'कहीं सुधांशु सी.बी.आई को सूचित न कर दें।' यह प्रश्न भट्ट के दिमाग़ में कौंधा, वह उस विषय में सोचता तभी दूसरा प्रश्न उपजा, 'कहीं सुधांशु स।बी.आई का ही आदमी न हो।' उसने सुना था कि सी.बी.आई कुछ विभागों में अपने आदमी तैनात करवा देती है जिससे वहाँ की सूचनाएँ उसे मिलती रहें।
ए.एफ.पी.ओ. से कौन-कौन जुड़ा हुआ है?
सर, एक चपरासी, दो बाबू, सेक्शन अफसर...।
आप और मैं...। सुधांशु ने धड़ी देखते हुए कहा, जी सर।
आप घबड़ाएँ नहीं भट्ट जी... मैं नया आदमी हूँ इसलिए पूछ रहा हूँ।
जी सर...घबड़ाने की कोई बात नहीं।
इसके अतिरिक्त...?
सर, बड़े साहब भी...।
अच्छा।
सर, हम न भी लेना चाहें तो भी काण्ट्रैक्टर्स देंगे ही...।
क्यों? भट्ट की बात बीच में काटकर सुघांशु ने पूछा।
सर उन्हें जल्दी से जल्दी चेक चाहिए होता है।
वह तो अपने समय पर उनके पास पहुँचते ही होंगे।
सर, मेरी नौकरी बरकरार रहे...। भट्ट ने अभयदान चाहा।
उसे कोई ख़तरा नहीं है। आप खुलकर कहें।
सर, काण्ट्रैक्टर्स के प्रतिनिधि मस्जिद के पास चाय की दुकान में आ जाते हैं। चपरासी उसे चेक दे आता है और कमीशन की राशि ले आता है। अगले दिन केवल वाउचर रजिस्टर्ड डाक से काण्ट्रैक्टर्स को भेज दिया जाता है। इसप्रकार वे कुछ दिन पहले भुगतान पा लेते है।...उन्हें बहुत लाभ होता है।
महीने में कितनी बार कमीशन की राशि मिलती है?
सर, दो बार।
मेरा कितना हिस्सा है इस लिफाफे में?
सर, बीस हज़ार दो सौ पचास रुपए।
इस लिफाफे को संभालें भट्ट जी और सभी में इस राशि को बांट दें। मुझे इससे मुक्त रखें। मुझे कोई शिकायत नहीं और न ही कहीं शिकायत जायेगी। क्षणभर रुका सुधांशु, मुझे अफ़सोस है...लेकिन यह मेरे सिध्दांत के विरुध्द है...। सीट से उठ खड़ा हुआ वह और ब्रीफकेस उठाते हुए बोला, मुझे जल्दी है।
भट्ट दरवाज़ा खोलने के लिए लपका, लेकिन सुधांशु उसके दरवाज़ा खोलने से पहले ही दरवाज़ा खोल चुका था।
सर, मेरी नौकरी...। भट्ट गिडगिड़ाया।
निश्चिंत रहो...।
शुक्रिया सर।