गलियारे / भाग 34 / रूपसिंह चंदेल

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कोमलकांत विराट के दिल्ली आ जाने से सुघांशु पुन: साहित्य से जुड़ गया। विराट लक्ष्मीनगर में दो कमरे का फ़्लैट किराये पर लेकर रहता था। अकेला था, इसलिए प्रत्येक रविवार दोपहर बाद दिल्ली के दो-तीन कवि-कहानीकार उसके यहाँ आ उपस्थित होते थे। वे सब अपनी कहानी-कविताएँ सुनाते-सुनते और दूसरों की प्रकाशित रचनाओं पर चर्चा करते। महीने में एक बार सुधांशु भी वहाँ जाता। विराट से पहली मुलाकात के दो सप्ताह के अंदर प्रीति को प्रगतिविहार हॉस्टल में एकमोडेशन मिल गया था। मीणा द्वारा मनोज रंजन को लिखे पत्र और उससे फ़ोन पर की गई बात का ही प्रभाव था कि इतने कम समय में उन्हें हॉस्टल मिल गया था।

विराट और उसके परिचित साहित्यकारों के संपर्क में आने का प्रभाव था कि सुधांशु कार्यालय के बाद का समय पढ़ने और लिखने में देने लगा था। दो कमरो के उस फ़्लैट में प्रीति के सो जाने के बाद वह दूसरे कमरे में जाकर रात एक-दो बजे तक लिखता-पढ़ता। पुस्तकें खरीदने के साथ ही वह केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय और दिल्ली पब्लिक पुस्तकालय का सदस्य बन गया था और लंच के समय शास्त्रीभवन जाकर केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय से पुस्तकें ले आता था। यह पुस्तकालय उसके कार्यालय से मात्र पन्द्रह मिनट पैदल और पांच मिनट बस यात्रा की दूरी पर अवस्थित था। उसके साथ के दूसरे अधिकारी जहाँ बस से चलने में अपनी तौहीन समझते थे, वहीं सुधांशु अपने को वैसे ही मानता जैसे वह दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था।

सुधांशु की कविताएँ हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। समसामयिक विषयों पर उसके अंग्रेज़ी में लिखे आलेख पुन: अंग्रेज़ी दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगे थे, जिनका सिलसिला उसके दिल्ली आने के बाद बंद हो चुका था। उसकी पहली कहानी कादंबनी में प्रकाशित हुई जिसके साथ उसका छोटा-सा परिचय और चित्र भी प्रकाशित हुआ। कादम्बनी से उसके विभाग में अधिकारियों और स्टॉफ के लागों को जानकारी मिली कि सुघांशु दास के नाम से जनसत्ता में प्रकाशित होने वाला रचनाकार वही था। कादम्बनी की वह प्रति चमनलाल पाल के पास भी पहुँची। चमनलाल पाल उस दिन से, जिस दिन भट्ट द्वारा दिया जाने वाला कमीशन का लिफाफा सुधांशु ने लौटा दिया था और भट्ट ने चमनलाल पाल को तुरंत उस बात से अवगत करा दिया था, सुधांशु से ख़फ़ा था। वह लंबे समय से इंतज़ार कर रहा था कि शायद सुधांशु उस गतिविधि में शामिल हो लेगा, जिसमें ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन के लोग शामिल थे, लेकिन सुधांशु ने अपनी कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं किया। वह भलीभांति कांट्रैक्टर्स के बिलों का ऑडिट करता, मामूली-सी त्रुटि पर भी उन्हें लौटा देता और पुन: प्रस्तुत करने के लिए स्वयं पत्र लिखता। उसकी छवि ईमानदार-मूर्ख और अड़ियल अधिकारी की बन चुकी थी। इस बात से कांट्रैक्टर्स, प्र।र।विभाग के अधिकारी तथा चमनलाल पाल परेशान थे। प्र।र। विभाग के अधिकारी कहीं अधिक परेशान थे, क्योंकि ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन को कांट्रैक्टर्स जहाँ दो प्रतिशत कमीशन देते, वहीं वह प्र।र। विभाग के अधिकारियों को पांच प्रतिशत देते थे।

चमनलाल पाल के पास प्र।र। विभाग का बड़ा अधिकारी एक दिन आकर सुधांशु की शिकायत कर गया था और चमन लाल पाल सुधांशु के विरुध्द क्या कार्यवाई करे यह सोच रहा था। उसे उस सीट से हटा देना चमनलाल पाल के अधिकार क्षेत्र में था, लेकिन वह तुरंत ऐसा करना नहीं चाहता था। वह चाहता था कि उस बिगड़े बैल को बातों से लीक पर ले आयेगा। औगी की आवश्यकता नहीं पडेगी, लेकिन यदि बातों से वह नहीं माना तब दूसरे विकल्प उसके पास सुरक्षित थे।

कादम्बनी में सुधांशु का चित्र, परिचय और कहानी भट्ट ने देखा और उसे लेकर पाल के पास गया। पाल से अधिक भट्ट सुधांशु से चिढ़ा हुआ था, लेकिन सुधांशु के विरुध्द कुछ भी करने की हैसियत उसकी नहीं थी। सुधांशु के कारण दो वर्ष में दस लाख कमा लेने के अपने स्वप्न पर पानी पड़ता उसे दिखाई दे रहा था। ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की पोस्टिंग दो वर्ष के लिए होती थी और उन्हीं व्यक्तियों को उस सेक्शन में भेजा जाता था, जो पाल की जेब गरमाते थे। दो वर्ष की उस पोस्टिंग के लिए लेखाधिकारी एक लाख, सेक्शन अफसर पचास हजार, बाबू पचीस हज़ार देते थे। लेकिन सहायक निदेशक की नियुक्ति पाल बिना कुछ लिए करता था और इसके लिए वह प्राय: ऐसे युवक अधिकारी का चयन करता जो नया होता था। नये अधिकारी पर वह अपनी वरिष्ठता का दबाव बनाकर ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की पूर्व प्रक्रिया जारी रहने देता। नया सहायक निदेशक वही करता जैसा होता आ रहा था। वहाँ जो भी नियुक्त होता उस पंक का हिस्सा बनकर प्रसन्नता अनुभव करता। दो वर्ष में लाखों की मोटी कमाई कोई नहीं छोड़ना चाहता, वह भी तब जब वह रक़म उस तक पहुँचाई जाती थी, वह लेने नहीं जाता था। लेकिन सुधांशु ने वैसा न करके सांप के बिल में हाथ डाल दिया था।

अरुण कुमार भट्ट ने कादमबनी का वह पृष्ठ खोलकर पाल के सामने रखा।

ओह, सुधांशु...बहुत खूब! पाल ने पत्रिका के पन्ने पलटे, यह पत्रिका अभी भी निकल रही ह?ै... हिन्दी की दूसरी पत्रिकाएँ तो शायद बंद हो चुकी हैं।

जी सर।

तो हमारे सुधांशु लेखक भी हैं।

जी... सर।

पत्रिका छोड़ जाओ। पाल ने घण्टी बजायी। चपरासी अंदर आया।

मिस्टर दास। पाल जैसे उच्चाधिकारी किसी को बुलाने के लिए चपरासी से केवल उसका नाम लेते हैं, शेष अर्थ चपरासी समझ लेता है। चपरासी अपने अफसर के संकेतों के अर्थ उसी प्रकार समझ लेता है जैसे कोई पालतू कुत्ता अपने मालिक के संकेत।

सुधांशु को बुलाने के लिए जैसे ही चपरासी दरवाज़ा खोल बाहर निकला, पाल ने भट्ट की उपस्थिति नजरंदाज करते हुए एक फाइल उठा ली और उसे देखने लगा। भट्ट के लिए यह वहाँ से जाने का संकेत था। भट्ट भी जानता था कि उसके अतिरिक्त उस कार्यालय के सभी लेखाधिकारियों को पाल उपेक्षा की दृष्टि से देखता था और मामूली-सी बात पर उनका अपमान करता रहता था। उसे वह इसलिए बर्दाश्त करता था क्योंकि एक लाख की रक़म पाल की जेब में डालकर वह ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन का लेखाधिकारी बना था।

अरुण कुमार भट्ट के पाल के चेम्बर से निकलते ही सुधांशु ने दरवाज़ा खोला। क्षणभर वह दरवाज़ा खोलकर खड़ा रहा, लेकिन पाल, जो कनखियों से उसे देख चुका था और सुधांशु ने भी देखा था कि पाल ने उसे देख लिया था, लेकिन पाल फाइल पर झुका रहा। अंतत: सुघांशु को अंदर जाने के लिए पूछना पड़ा। 'कम' कहकर पाल ने पुन: सिर फाइल पर झुका लिया। सुधांशु पाल के सामने कुर्सी पर बैठ गया और पाल के कुछ कहने की प्रतीक्षा करता रहा। पन्द्रह मिनट बीत गए। चेम्बर में दीवार घड़ी की टिक-टिक के अतिरिक्त सन्नाटा था।

पन्द्रह मिनट बाद पाल ने फाइल बंद की। सुधांशु की ओर उन्मुख हुआ और पूछा, दफ्तर रास आ रहा है सुधांशु?

कोई समस्या नहीं सर। मुस्कराकर सुधांशु बोला और पाल के चेहरे पर दृष्टि डाली। उसका चेहरा भाव-शून्य था, जैसा कि प्राय: होता था।

पाल कुछ देर तक चुप छत पर धीमी गति से रेंगते पंखे को देखता रहा, फिर बोला, काम अधिक है?

ऐसा नहीं सर...और यदि है भी तो उसे करने के लिए ही नौकरी कर रहा हूँ।

दैट्स राइट...दैट्स राइट...बहुत ऊँचे खयालात हैं। सभी को ...अफसर हो या कर्मचारी...ऐसे खयालात रखने चाहिए। राष्ट्र की प्रगति आप जैसे युवा अधिकारियों की कर्तव्यनिष्ठा पर ही निर्भर है। आप एक अच्छे लेखक ही नहीं अच्छे अधिकारी भी हैं।

'अच्छे लेखक' से चौंका सुधांशु। वह नहीं चाहता था कि विभाग के लोगों को यह जानकारी मिले, लेकिन पाल तक को यह सूचना पहुँच चुकी थी, सोचकर वह हैरान हुआ। पाल को धन्यवाद कहा।

आपकी एक कहानी देखी...भई पढ़ नहीं पाया। वह कौन-सी हिन्दी पत्रिका है...हाँ कादम्बनी। कादम्बनी में है कहानी...देखी। मेरी हिन्दी अच्छी नहीं है...इसलिए देखने की बात की...अंग्रेजी में होती तब पढ़ता भी, लेकिन आप शायद अंग्रेज़ी में भी लिखते हैं?

सर, कभी-कभी...। सुधांशु ने समझ लिया कि साहित्य छुपाकर नहीं लिखा जा सकता। प्रकाश में आते ही वह सार्वजनिक हो जाता है...बुरा क्या है...यदि पाल जान गया...अच्छा ही हुआ।

आपने विभाग से लिखित अनुमति ले ली होगी अपने लेखन के लिए।

अनुमति...सर, वह तो नहीं ली अभी तक।

यह सरकारी नियम है।

सर, आज ही आवेदन कर दूंगा।

आपको एक डिक्लेरेशन देना होगा कि आप विभाग, या सरकार के विरुद्ध कुछ नहीं लिखेगें और न ही कोई राजनीतिक आलेख आदि।

जी सर।

आपको यह भी लिखकर देना होगा कि सरकारी समय ओर सरकारी वस्तुओं का उपयोग नहीं करेंगे।

जी सर।

वैसे तो आप सरकारी समय में यह काम नहीं ही करते होंगे, लेकिन यदि खाली हों तब क्या करना पसंद करेंगे?

सर, ऐसा अवसर कभी नहीं आया, लेकिन यदि आया भी तब भी मैं लिखने-पढ़ने का काम कभी नहीं करूंगा।

लेकिन लंच के समय आपके हाथ में कोई न कोई पुस्तक देखी गई है।

जी सर, अवश्य देखी गई होगी। लंच के अतिरिक्त मैं कभी ऐसा नहीं करता।

यह अच्छी बात है, लेकिन इतने सबके बावजूद आपके विरुद्ध शिकायतें बहुत हैं।

सर, शिकायतें ? पुन: चौंका सुधांशु। उसे यह बिल्कुल जानकारी नहीं थी कि कुछ कांट्रैक्टर्स और प्र।र। विभाग के उच्च अधिकारी उसके विरुध्द पाल से मिल चुके थे।

हाँ, शिकायतें। पाल के स्वर में रुक्षता उभर आयी थी, कुछ कांट्रैक्टर्स और प्र।र। विभाग के उच्च अधिकारियों ने शिकायत की कि आप कांट्रैक्टर्स के बिल रोक लेते हैं...लौटा देते है।...उन्हें समय पर भुगतान नहीं होता...वे सप्लाई रोक देने की धमकी देने लगे हैं और यदि वैसा हुआ तब जवानों का क्या हाल होगा...आपने सोचा है। आप क्या दो दिन भूखे रह सकते हैं? पाल ने सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि डाली।

सर, जिन बिलों में अनियमितता देखी उन्हें ही ...।

मामूली त्रुटियो के लिए भारी-भरकम बिल रोकने से कांट्रैक्टर्स को लाखों का नुक़सान होता है। आप उन्हें यहाँ बुलाकर कमियाँ दूर कर लिया करें, लेकिन बिल रोकें नहीं।

मैं नियमानुसार ही काम करता हूँ सर। कुछ भी ग़लत नहीं...।

कांट्रैक्टर्स के आरोप हैं कि आप उनसे अधिक कमीशन की अपेक्षा के कारण ऐसा करते हैं। पाल के स्वर में रूखापन बरकरार था।

सर कमीशन...झूठा आरोप है यह।

देखो सुधांशु कांट्रैक्टर्स जितना कमीशन देता है उससे अधिक वह दे नहीं सकता। उसे प्र।र। विभाग के अफसरों से लेकर मंत्री तक को देना होता है। इस स्थिति में वह अधिक कैसे दे सकता है।

सर, कमीशन का आरोप झूठा है। न मैंने लिया और न ही लूंगा, लेकिन यह भी सच है कि उनके ग़लत बिल भी क्लियर नहीं करूंगा।

सुधांशु, व्यवस्था ऐसे नहीं चलती...अड़ियल नहीं होना चाहिए। जो मिलता है, लेते रहो और बिल क्लियर करते रहो। वे कुछ हेरा-फेरी करते हैं, लेकिन उस ओर से आंखें मूंदने में ही भलाई है हम ब्यूरोक्रेट्स की, क्योंकि सभी कांट्रैक्टर्स की मंत्री तक सीधी पहुँच होती है और वे भी कौन-सा जेब से कमीशन देते हैं। पांच रुपए की वस्तु सरकार को पन्द्रह-बीस में सप्लाई करते है।

सर, रिश्वत से मुझे घृणा है।

बहुत उच्च विचार हैं आपके, लेकिन इसे रिश्वत मत कहो। इन मोटी खाल वालों से यह सब लेना अनुचित नहीं माना जाता। उम्मीद है कि आप समझदारी से काम लेंगे...कहीं ऐसा न हो कि बात मंत्री जी तक जा पहुँचे...तब न यह आपके हित में होगा और न ही मेरे। पाल ने सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि डाली, जो अंदर से उठते उबाल के कारण लाल था।

अब आप जा सकते है। पाल के कहते ही सुधांशु उठ गया, लेकिन उसे लग रहा था कि वह चक्कर ख़ाकर वहीं गिर जाएगा।