गलियारे / भाग 35 / रूपसिंह चंदेल
चमनलाल पाल के अप्रत्यक्ष संदेश को सुधांशु ने समझा और अपने कमरे में जाकर कुर्सी पर ढहकर देर तक उसकी बातों पर विचार करता रहा।
'पाल क्या करेगा...इस सीट से हटा देगा...हटा द,े मैं यही चाहता हूँ। रिश्वतवाली सीट पर मैं काम करना भी नहीं चाहता। पूरा माफियाओं का गिरोह है...चपरासी से लेकर मंत्री तक। किसी ने सही कहा है...इस देश को ब्योरोक्रेट्स, नेता और व्यापारी मिलकर खोखला कर रहे हैं। विकास के नाम पर भयानक लूट...दलालों की एक नयी कौम पैदा हुई है आज़ादी के बाद। इनके खरबों रुपये विदेशी बैंकों में जमा हैं। विपक्षी वह धन वापस लाने का शोर मचाते हैं, लेकिन सत्ता में होने पर वे चुप्पी साघ लेते हैं। कारण...उनके अपने लोग भी इस हमाम में नंगे हैं। जिसके पास जितना धन है वह उतना ही भर लेना चाहता है। आज़ादी के बाद अफसरों की एक ऐसी जमात पनपी जिसके लिए नैतिकता का अर्थ रिश्वतखोरी हो गयी। मंत्रियों को भी वे रास्ता बताने-दिखाने लगे और उनके बहाने स्वयं अपनी भावी पीढ़ियों के लिए धन-संग्रह में संलग्न हो गये। इस बीमारी ने आज संक्रमण का रूप धारण कर लिया है। स्थिति भयानक है ...।'
सर, मैं अंदर आ सकता हूँ? भट्ट एक फाइल थामें दरवाज़े पर खड़ा था।
कुर्सी पर संभलकर बैठते हुए सुधांशु बोला, इसे कल सुबह पुट-अप करना।
सर अर्जेण्ट है। पी.सी एण्ड संस की फाइल है। भट्ट दरवाज़े पर ही खड़ा रहा।
होगी। सुधांशु को लगा कि भट्ट हल्के-हल्के मुस्करा रहा था।
'पी.डी. (प्रधान निदेशक) और इसमें ख़ूब छनती है...कमीशन का बिचौलिया भट्ट ही है। मेरे खिलाफ किसी और ने कुछ कहा या नहीं, लेकिन इसने अवश्य कहा होगा।' सुधांशु सोच रहा था।
भट्ट, मैं इस केस को कल ही देखूंगा, फाइल आप बेशक रख दें।
जी सर। भट्ट ने फाइल सुधांशु की मेज पर रखा और वापस लौट पड़ा।
मिस्टर भट्ट, आपने पी.डी. साहब को मेरे लिखने-पढ़ने के सम्बन्ध में कुछ कहा था?
सर, लिखना-पढ़ना...मैं समझा नहीं, सर।
साहित्यिक लेखन से आभिप्राय है।
सर, आप लिखते हैं? कितना अच्छा है सर! मुझे यकीनन पता नहीं था, लेकिन यह तो बड़ी अच्छी बात है सर। मेरा भाग्य कि आपके साथ काम करने का सौभाग्य मिला मुझे। सर, कलाकार होना कितनी बड़ी बात है। कभी मैंने भी...जब बेकार था, कुछ कविताएँ लिखी थीं, लेकिन ज़िन्दगी की गाड़ी में बैल बनते ही सब अतीत की बातें हो गयीं। सर, आप अपनी प्रतिभा को चमकाएँ, सर...।
हुंह...। भट्ट का बोलना सुधांशु को अप्रिय लग रहा था। कमीशन देने वाले दिन से ही उसे उसकी शक्ल से चिढ़ हो गयी थी, लेकिन भट्ट को पी.डी. का आशीर्वाद प्राप्त था इसलिए उस जैसा कनिष्ठ अफसर उसके विरुध्द कुछ कर नहीं सकता था।
सर, जाने से पहले इस केस को देख लेंगे तो...।
कल ही देखूंगा...।
ठीक है सर। भट्ट दो क़दम दरवाज़े की ओर बढ़ा, फिर ठिठक कर बोला, सर अगर पी.डी. सर ने इस फाइल के बारे में पूछ लिया?
कह देना मेरे पास पुट-अप है।
जी सर। भट्ट के बाहर जाते ही सुधांशु पुन: कुर्सी से सिर टिका पीछे झुककर लेट गया और सोचने लगा अपने विभाग के बारे में।
उस दिन के बाद चमनलाल पाल ने सुधांशु को बुलाना बंद कर दिया। उसके अनुभागों की किसी फाइल या किसी केस पर चर्चा करना होता तब पाल सुधांशु को न बुलाकर उसके अधीनस्थ अधिकारियों...कभी लेखाधिकारी तो कभी अनुभाग अधिकारी को बुलाकर विचार-विमर्श करता और उस पर अपनी टिप्पणी दर्ज कर देता। इस बात की जानकारी सुघांशु को तब होती जब फाइल उसके पास वापस नहीं आती थी, जबकि पाल के पास फाइल उसके माध्यम से जाती थी। एक-दो दिन बाद वह उस फाइल को मंगवाता और देखकर हैरान नहीं होता। ऐसा क्यों हो रहा था वह भलीभांति समझ रहा था और इसीलिए उसने कांट्रैक्टर्स के अधिकांश मामले पाल के पास भेजने शुरू कर दिए थे। यद्यपि एक करोड़ रुपयों तक के भुगतान के लिए निर्णय का अधिकार उसे था, लेकिन अब वह वे सभी मामले, जिनमें वह अनियमितता पाता, पाल के पास भेजने लगा था। अपने प्रति पी.डी. के विचार वह समझ चुका था। पी.डी. केन्द्रीय मंत्रालय के एडीशनल सेक्रेटरी के समकक्ष पद का व्यक्ति था, जिसे उसके विरुध्द अनुशासनात्मक कार्यवाई का अधिकार था और वह नहीं चाहता था कि जो स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी उसमें पाल उसकी किसी चूक के लिए उसके विरुध्द कोई कार्यवाई करे।
लेकिन एक दिन पाल ने उसे बुला लिया। इतने वर्षों की नौकरी में सुधांशु ने विभाग के मिज़ाज को भलीभांति समझ लिया था। वह जानता था कि पी.डी. ने उसे क्यों बलाया था।
पाल ने उसे बैठने के लिए नहीं कहा, लेकिन वह उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया। पाल का चेहरा प्राय: की भांति तना हुआ था। विभाग में यह कहावत प्रसिध्द थी कि जिस दिन पाल मुस्करा देता है उस दिन मौसम सुहाना होने की संभावना समझना चाहिए और जिस दिन वह हंसे समझना चाहिए कि उस दिन वर्षा अवश्य होगी। बेहद शुष्क प्रकृति का माना जाता था पाल।
आपने याद किया सर।
आप ये फाइलें देख रहे हैं? मेज पर लगे फाइलों के अंबार के पीछे से पाल बोला।
सुधांशु चुप रहा।
आपको मालूम नहीं कि कौन-से मामले मुझे भेजे जाने चाहिए!
सर, वह हर केस आपके संज्ञान में लाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ जिसमें कुछ भी अनियमितता है।
क्यों? मेरा काम बढ़ाने और परेशान करने के लिए।
सर, आपको परेशान करने के विषय में मैं सोच भी नहीं सकता। आप हमारे इंचार्ज हैं और आपको ऐसे हर मामले की जानकारी हानी चाहिए... ।
एक करोड़ तक के मामले जब आप सवयं निबटा सकते हैं तब उतने या उससे कम के बिलों के बारे में मुझे बताना...मेरा काम बढ़ाना...आपको उचित लगता है...?
सर, बिल न पास करने की शिकायतें मेरे विरुध्द आप तक पहुँचें उससे पहले आपको मामले की जानकारी देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ।
अच्छा...आप चाहते हैं कि अब आपके काम भी मैं करूं...फिर विभाग को आपकी क्या आवश्यकता...?
सुधांशु ने चुप रहना उचित समझा।
दरअसल, आप एक नाकाबिल अफसर हैं। आप अपने अधिकार के निर्णय स्वयं नहीं ले सकते...अपने वरिष्ठों की परेशानी बढ़ाने में आपको आनंद आता है।
आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं सर।
सही समझ रहा हूँ। आप अपनी इन हरकतों पर यदि नियंत्रण नहीं रख पाये तब आपके विषय में मुख्यालय बात करनी होगी। क्रोध पाल के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था।
सुधांशु का मन हुआ कि वह कह दे कि वह ग़लत बिलों का भुगतान नहीं करेगा...भले ही पाल जो चाहे करे। लेकिन वह चुप रहा। जानता था कि दो वर्ष के अंदर उसका प्रमोशन होगा, वह उप-निदेशक बनेगा और यदि चिढ़कर पाल ने एक भी वार्षिक गोपनीय रपट खराब लिख दी, उसका प्रमोशन रुक जायेगा।
ये फाइलें मैं भेजवा रहा हूँ...विवेकानुसार निर्णय लें, लेकिन खयाल रखें कि कांट्रैक्टर्स को परेशानी न हो। और पाल उठकर चेम्बर के साथ संलग्न बाथरूम चला गया।
सुधांशु अपनी सीट पर वापस लौटा। वह कुर्सी पर बैठा ही था कि अरुण कुमार भट्ट ने दरवाज़ा खटखटाया।
यस। ऊँची आवाज़ में सुधांशु बोला।
भट्ट कमरे में प्रविष्ट हुआ, सर, पी.डी. सर ने फाइलें वापस ले जाने के लिए कहा है...मंगवा लूं सर?
मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? सुधांशु का स्वर उत्तेजित था।
सर, उन्होंने अभी बुलाकर मुझे कहा।
'उनकी आज्ञा की अवहेलना कर पायेंगे?
जी नहीं सर।
फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?
सॉरी सर। भट्ट वापस लौट गया। कुछ देर बाद ही ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की सभी फाइलें चपरासी सुधांशु की मेज पर रख गया।
सुधांशु ने समय नष्ट न कर सभी फाइलों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। सुझाव लिखे और जिन बिलों में कमियाँ थीं उन्हें लौटाने और शेष जिनमें सामान्य त्रुटियाँ थीं उन्हें कांट्रैक्टर्स के प्रतिनिधियों को बुलाकर दुरस्त करवाने की टिप्पणी दर्ज कर सेक्शन को लौटा दिया। फाइलें वापस मिलते ही भट्ट ने सभी कांट्रैक्टर्स को फ़ोन किया और बिल वापस ले जाने और उन्हें पुन: प्रस्तुत करने के लिए कहा। फ़ोन करते समय उसका सेक्शन अफसर पास बैठा था।
सुधांशु सर ख़ुद भी मरेंगे और मुझे भी ले डूबेंगे। चिड़चिड़े स्वर में अनुभाग अधिकारी से भट्ट ने कहा।
अनुभाग अधिकारी चुप रहा। उसकी नौकरी नौ वर्ष पुरानी थी जबकि भट्ट पचीस वर्ष पूरे कर चुका था। अनुभाग अधिकारी समझता था कि उसे कभी भी और कहीं भी सुधांशु के साथ काम करना पड़ सकता है और तब वह उसका संयुक्त निदेशक, निदेशक या प्रधान निदेशक... कुछ भी होगा।
बड़े देशभक्त बनते हैं सुधांशु जी। दुनिया अपना घर पहले देखती है...लेकिन इन्हें अपनी चिन्ता ही नहीं...हो भी क्यों...बीबी भी बराबर कमा रही है, लेकिन मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति का खयाल भी रखना चाहिए न इन्हें। ख़ुद न लो, लेकिन हमारी कमाई में टांग भी मत अड़ाओ। फ़ोन का रिसीवर पटक भट्ट अनुभाग अधिकारी से बोला, सभी बिलों के साथ वापसी का पत्र लगा दो...खुद ही हस्ताक्षर कर देना।
सर, पत्रों पर सुधांशु सर के हस्ताक्षर होने चाहिए।
होने तो चाहिए... लेकिन उससे और विलंब होगा। आप ही कर देना।
जी सर।
अपने बहुत से बिल वापस लौटने से कांट्रैक्टर्स सकते में आ गए। पुन: पाल के पास शिकायतें पहुँचीं, लेकिन पाल ने न कांट्रैक्टर्स को मिलने का समय दिया और न ही सुधांशु को बुलाया। उसने सुधांशु की हर गतिविधि पर दृष्टि रखने के लिए भट्ट को निर्देश दिया, लेकिन सुधांशु पहले से ही सतर्क था। वह जानता था कि दाढ़ में खून लगने के बाद वह न मिलने पर पशु और अधिक हिंस्र हो उठता है।
इस मध्य उसे गाँव से पिता का तार मिला माँ की गंभीर अस्वस्थता का। तार नत्थीकर उसने पांच दिन के अवकाश का प्रार्थना पत्र पाल के पास भेज दिया। पाल ने पांच दिन के स्थान पर तीन दिन का अवकाश प्रदान किया। सुधांशु को यह अपमानजनक लगा। उसने प्रीति को फ़ोन किया और कहा कि वह तीन दिनों के लिए गाँव जा रहा है। वह मुख्यालय के लिए अधिकारियों को एयर टिकट बुक करवाने वाले एजेंट से रात बनारस की किसी फ्लाइट की टिकट की व्यवस्था करवा दे। मुख्यालय में यह काम अमन अरोड़ा करता था। प्रीति ने यह बात अरोड़ा से न कहकर मीणा से कही और मीणा ने अरोड़ा को बुलाकर टिकट मंगाने का निर्देश दिया।
जाने का ही या आने का भी? मीणा ने प्रीति से पूछा। प्रीति ने सुधंांशु से पूछा। सुधांशु ने चौथे दिन सुबह लौटने की फ्लाइट का टिकट भी मंगाने के लिए कहा। मीणा के निर्देश पर अरोड़ा ने एक घण्टे के अंदर टिकटों की व्यवस्था कर दी। प्रीति ने सुधांशु को फ़ोन कर बताया, आठ बजकर पैंतालीस मिनट की फ्लाइट है। तुम घर जाकर तैयार हो, मैं स्टॉफ कार लेकर घर से तुम्हे पिक-अप कर एयरपोर्ट छोड़ दूंगी।
और प्रीति ने वैसा ही किया।
प्रीति ने अमन अरोड़ा से स्टॉफ कार उपलब्ध करवाने और उसके न होने पर एजेंसी से मंगवा देने के लिए कहा। अरोड़ा ने डी.पी. मीणा से चर्चा की। उसके संज्ञान में यह बात आना आवश्यक था। मीणा को पता चला तो उसने प्रीति को इंटरकॉम करके बुला लिया।
प्रीति, तुमने अरोड़ा को स्टॉफ कार के लिए क्यो कहा?
सॉरी सर।
तुम मुझे ग़लत समझ रही हो। मैंने यह इसलिए पूछा, क्योंकि ये छोटे लोग हैं...धूर्त हैं...दुष्ट...तुम्हारे लिए एक काम करेंगे और तुमसे दस काम करवाना चाहेंगे। मीणा रुका, सुधांशु को एयरपोर्ट छोड़ने जाना है?
जी... ।
नो प्राब्लम। ट्रेवल एजेंसी को गाड़ी के लिए फ़ोन करवा देता हूँ। सुधांशु को छोड़ने के बाद मुझसे अवश्य मिल लेना। आय विल बि इन ऑफिस...।
यस सर।
सुधांशु को एयरपोर्ट छोड़कर प्रीति आठ बजे जब मुख्यालय पहुँची मीणा उसका इंतज़ार कर रहा था। दफ़्तर खाली था। गेट में सेक्योरिटी के जवान तैनात थे और कार्यालय में सेवा अनुभाग का एक बाबू और एक चपरासी थे। वैसे जब भी मीणा देर तक कार्यालय में रुकता, प्रशासन एक का अनुभाग अधिकारी या लेखाधिकारी और बाबू भी बैठे रहते थे, लेकिन उस दिन उसने किसी को नहीं रोका था।
प्रीति के पहुँचते ही मीणा ने घण्टी बजाकर सेवा अनुभाग के बाबू को बुलाया और दो कोल्ड ड्रिंक लाने का आदेश दिया।
सर, आवश्यकता नहीं।
मैं पीना चाहता हूँ...साथ रहेगा।
प्रीति चुप रही। मीणा ने प्रीति के चेहरे पर नजरें टिका दीं, तुम्हारी मदर इन-लॉ की क्या उम्र है?
अनुमान नहीं है।
फिर भी साठ के आसपास होंगी ही...।
मे बी।
हुंह। मीणा ने प्रीति के चेहरे पर से नजरें हटा लीं और गंभीर होकर कुछ सोचने लगा।
सेवा अनुभाग का बाबू कोल्ड ड्रिंक ले आया था।
ड्रिंक पीते हुए चेहरे पर गंभीरता ओढ़े हुए ही मीणा बोला, आज मेरी बेगम साहिबा इस समय घर पर नहीं हैं...रात देर से लौटेंगी, इसीलिए यहाँ बैठा हूँ।
प्रीति ने कुछ नहीं कहा। वह धीमी गति से कोल्ड ड्रिंक पीती रही।
दरअसल मेरी साली साहिबा दिल्ली में हैं...आज उनके बच्चे का जन्मदिन है। बेगम दावत ख़ाकर आयेंगी। मीणा ने फिर प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, तुम आज मेरे साथ डिनर लो...।
घर में ही लेना पसंद करती हूँ। प्रीति ने धीमे स्वर में कहा।
ऐसी भी क्या बात है। डिनर के बाद मैं तुम्हे घर छोड़ दूंगा।
प्रीति चुप रही। उसकी चुप्पी को स्वीकृति मान मीणा साढ़े आठ बजे उठ खड़ा हुआ और प्रीति से बोला, लेट अस गो...खान मार्केट में किसी रेस्टॉरेण्ट में कुछ खा लेंगे। पास ही तुम्हारा घर है...। उसने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ा पूछा, एनी प्राब्लम...?
प्रीति चुप रही।
ओ.के.। मीणा तेजी से गेट की ओर बढ़ा।
मीणा प्रीति को उसके फ़्लैट तक छोड़ने गया। प्रीति का फ्ैलट प्रथम तल पर था। मीणा उसके साथ ऊपर तक गया। ताला खोल प्रीति जब कमरे में जाने लगी मीणा दरवाज़े पर खड़ा रहा। प्रीति द्विविधा में पड़ गयी। वह मीणा को अंदर आने के लिए कहना नहीं चाहती थी। हाथ में ताला लिए वह खड़ी रही यह सोचती हुई कि मीणा वापस लौटने के लिए कहेगा। कार से उतरते समय ही उसने यह सोचा था कि उसके उतरते ही मीणा वापस चला जाएगा, लेकिन जब मीणा ने कार पार्क कर, मैं तुम्हें फ़्लैट तक छोड़ आता हूँ, कहा तब वह मना नहीं कर पायी थी।
प्रीति के असमंजस को भांप मीणा बोला, चिन्ता न करो प्रीति...पांच मिनट रुकूंगा...। और वह पहले कमरे में सोफे पर बैठ गया। प्रीति फिर भी खड़ी रही।
एक कप चाय पिलाओ... डिनर के बाद चाय की आदत है। घर में मिलेगी नहीं...।
यस सर।
यार, घर में भी यह सर...सर...ठीक नहीं लगता...मैंने एक दिन कहा था कि मुझे अपनों से डी.पी. सुनना पसंद है। मुझे डी.पी. कहो...।
जी।
प्रीति चाय बनाने किचन में गयी तो मीणा ने उठकर हल्के से दरवाज़ा भेड़ दिया, जो तब तक खुला हुआ था और प्रीति के पीछे किचन तक जा पहुँचा। प्रीति चाय के लिए कप में पानी ले रही थी। वह दबे पांव आते मीणा को नहीं जान पायी। मीणा ने पीछे से उसे पकड़ लिया, प्रीति आय लव यू... लव यू प्रीति...।
सर...प्लीज सर...।
प्रीति ...माय डियर...। मीणा ने प्रीति को गोद में उठा लिया। प्रीति छटपटाती रही...लेकिन अधिक विरोध भी नहीं किया। मीणा को लेकर जो सकारात्मक भाव उसके मन में पिछले कुछ दिनों से चल रहा था उसने उसके विरोध को कुंद कर दिया था। मीणा उसे लेकर बेडरूम में गया। उसे बिस्तर पर डाल उसने लपक कर दरवाज़ा बंद किया। मीणा की मज़बूत पकड़ से प्रीति के शरीर में घंटिया बजने लगी थीं। उसे सुधांशु की पकड़ याद आयी, जो उस क्षण उसे लिजलिजी और बेजान का एहसास करा गयी थी।