गलियारे / भाग 36 / रूपसिंह चंदेल

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सुधांशु को तीन दिन के लिए अवकाश बढ़ाना पड़ा। माँ को बनारस लाना पड़ा जहाँ डाक्टरों ने अनेक टेस्ट लिख दिए। पिता के लिए वह सब कठिन समझ उसने उसी आधार पर तीन दिन अवकाश बढ़ाने का अनुरोध तार द्वारा प्रधान निदेशक को भेज दिया। प्रीति को फ़ोन कर कहा, तीन दिन का अवकाश बढ़ाने का तार मैंने पी.डी. को भेजा है। तुम मेरे संयुक्त निदेशक श्रीवास्तव को फ़ोन करके बता देना।

माता जी की तबीयत कैसी है?

गंभीर...मैं बनारस में हूँ। उनके कई टेस्ट होने हैं।

डाक्टरों ने क्या बताया?

कैंसर का अनुमान है...बाकी आकर बताऊँगा। तुम मेरे आफिस...।

डोंट वरी...टेक केयर...।

ल्ेकिन जब सुधांशु कार्यालय पहुँचा, भट्ट ने उसे सूचित किया कि पी.डी. सर का आदेश है कि आप आते ही उनसे मिल लें। सुधांशु कमरे में जाने ही वाला था जब चमनलाल पाल का आदेश उसे भट्ट ने सुनाया। उसने अटैची भट्ट के हवाले की, इफ यू डोंट माइण्ड मिस्टर भट्ट...इसे आप मेरे कमरे में रख दें...मैं...।

इट्स माय प्लेजर सर। भट्ट ने अटैची थाम ली और दो क़दम सुधांशु के साथ चलते हुए पूछा, सर सीधे स्टेशन से आ रहे हैं?

एयर पोर्ट से...।

जी सर...। भट्ट अपने कमरे की ओर मुड़ गया। पी.डी. के चेम्बर की ओर जाते हुए सुधांशु सोचता रहा कि भट्ट उसके कमरे में अटैची रखने न जाकर अपने कमरे की ओर क्यों मुड़ा!

सुधांशु को देखते ही पाल का चेहरा पहले की अपेक्षा अधिक तन गया। उसने उसके गुडमॉर्निगं का उत्तर नहीं दिया। सुधांशु कुर्सी पर बैठने-न बैठने की उहापोह में था कि पाल ने पूछा, मिस्टर दास, मेरा खयाल है कि डिपार्टमण्ट में आपकी सर्विस को कई वर्ष हो चुके हैं।

सर। सुधांशु ने बैठने का इरादा त्याग दिया। समझ गया कि पाल उसे अपमानित करना चाहता है।

आज तक आप यह नहीं समझे कि विभाग के अपने कुछ नियम-कानून और मर्यादा होती है।

मैं समझा नहीं सर।

किस गधे ने आपको आई.ए.एस. बनाया? आप इतनी मामूली बात भी नहीं समझ पाए तब आप सरकार की सेवा क्या करेंगे।

सर, मेरा चयन करने वाले लोग भी योग्य थे और मुझे भी अपनी योग्यता पर विश्वास है।

ओह। चेहरे पर व्यंग्यात्मक भाव लाकर पाल बोला। यह पहला अवसर था कि किसी कनिष्ठ अफसर ने उसे इस प्रकार उत्त्र दिया था। वह तिलमिला उठा। लोगों का अपमान करना उसने अपना जन्म सिध्द अधिकार माना हुआ था। उसे कैम्ब्रिज से पढ़े होने का गर्व था और जब तब वह अपने समकक्षों के समक्ष यह शेखी बघारता रहता था। यही नहीं वह अपने समकक्षों की भी खिल्ली उड़ाता, लेकिन उसकी उजड्डता के कारण कोई उसे तरजीह नहीं देता था। लोग विवाद बढ़ाए बिना मुस्करा कर टाल जाते थे, जिससे पाल का अहम तुष्ट होता था और उसके हौसले बढ़ जाते थे। कई अवसरों पर उसने महानिदेशक को भी दो टूक बातें कही थीं, जिसके पद की गरिमा का खयाल रखते हुए विभाग के सभी अधिकारी चुप रहा करते थे।

आपको किस दिन रिपोर्ट करनी थी?

सर माँ को बनारस लाना पड़ा।

तो...?

बहुत से टेस्ट करवाने थे...उन्हें कैंसर है।

सरकारी सेवा शर्तें आपने पढ़ी हैं?

जी सर...।

सभी के यहाँ कोई न कोई बीमार होता ही रहता है...ऐसे तो दफ़्तर ही बंद कर दिया जाना चाहिए... करवायें जाकर सभी अपने रिश्तेदारों के इलाज...।

सुधांशु चुप रहा।

मिस्टर दास, नौकरी करनी है तब ढंग से करें वर्ना जाकर मूंगफली बेचें और करवायें अपने घरवालों के इलाज...डिपार्टमण्ट ने किसी की बीमारी का ठेका नहीं लिया। ओ.के. ...। पाल उठा और बाथरूम की ओर बढ़ते हुए बोला, माइण्ड इट।

पाल के बाथरूम में प्रवेश करते ही सुधांशु उसके चेम्बर से बाहर निकल आया। उसका चेहरा उदास था और वह अनुभव कर रहा था कि उसकी स्थिति किसी गुलाम से कम न थी।

'कहने के लिए ही हम आज़ाद भारत में सांस ले रहे हैं। यहाँ जब मुझ जैसे क्लास वन अधिकारी की सांस पर उच्चाधिकारियों का अंकुश है तब आम आदमी-गरीब आदमी की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। अधिकारीवर्ग में उच्च वर्ग से आये लोगों की सामंती मानसिकता नहीं बदली। वे सामान्य परिवारों ...समाज के नीचे तबके से आए लागों के प्रति आज भी अपमानजनक रुख रखते हैं। विभाग में सभी सबसे पहले यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि कौन-किस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आया है और उसी अनुरूप व्यवहार करते हैं। यदि यह कहा जाये है कि देश की अस्सी प्रतिशत जनता आज भी गुलामी के साये में जी रही है तो अत्युक्ति न होगी।'

गंभीर सोच में डूबे सुधांशु ने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला। अपनी सीट पर एक नया चेहरा देख वह चौंका। उस पर दृष्टि पड़ते ही चेहरा उठ खड़ा हुआ, गुडमॉर्निंग सर। आय एम विनीत खरे...।

खरे ने मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया।

हाथ मिलाकर, चेहरे पर मुस्कान ला, जिसके विषय में वह जानता था कि वह कृत्रिम थी, सुधांशु ने खरे को बैठने का इशारा किया, आपने कब ज्वायन किया मिस्टर खरे ?

सर, कल...बैठें सर।

खरे से सुधांशु को ज्ञात हुआ कि वह मेरठ के निदेशक कार्यालय से आया था। उसने कहा, सर, परसों शाम चार बजे मुख्यालय से डी.पी. मीणा सर ने फ़ोन कर मुझे कल सुबह यहाँ ज्वायन करने का आदेश दिया था। खरे क्षणभर के लिए रुका, उन्होंने कहा था कि मेरा ट्रांसफर आर्डर बाद में भेज दिया जाएगा...फिलहाल मैं आपकी सीट का काम देखने के लिए यहाँ पहुँचूं।

ओ.के.। सुधांशु सोचने लगा, 'अच्छा ही हुआ...इस सीट से मैं आजिज आ चुका था...।'

सर चाय लेंगे? सुधांशु आगे कुछ सोचता कि खरे बोला।

नो...थैंक्स...आपको मालूम है कि मुझे किधर बैठना है!

सर, ज्वायंट सर को पता होगा...मैं तो कल ही...।

ओ.के... मैं उनसे पता कर लेता हूँ।

सुधांशु उठ खड़ा हुआ। उसने अपने विरुध्द षडयंत्र की गंध अनुभव की। उसे कार्यालय की हवा दमघोंटू प्रतीत हो रही थी।

गैलरी में वह ज्वायंट डायरेक्टर के चेम्बर की ओर शिथिल कदमों से बढ रहा था कि पाल के चेम्बर से फाइल थामे भट्ट आता दिखाई दिया। सुधांशु को लगा कि भट्ट के चेहरे पर उसे देख व्यंग्यात्मक मुस्कान थी। 'मुझे उस सीट से हटाये जाने से भट्ट सर्वाधिक प्रसन्न हुआ होगा।' सुधांशु ने सोचा, 'भ्रष्टाचार की ये सब छोटी मछलियाँ हैं...बड़ी मछलियाँ संसद से लेकर ब्यूरोक्रेसी के ऊँचे पायदान पर विराजमान हैं और इनमें से कभी किसी का कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं। इनवेस्टिगेटिंग एजेंसीज जांच करती हैं...दो-चार के घरों-दफ्तरों में छापे मारे जाते हैं...वे सस्पेण्ड होते हैं और वे सब वे अधिकारी होते हैं जो मंत्रियों-नेताओं से ताल-मेल नहीं बैठा पाते या जो उनकी मुंह मांगी रकमें नहीं दे पाते...लेकिन किसी नेता के घर छापेमारी नहीं होती...हुई भी तो भी उसे जेल नहीं होती...क्योंकि व्यवस्था इतनी भ्रष्ट है कि उसके विरुध्द समय से आरोप पत्र तैयार नहीं होते और हुए भी तो उसमें जान-बूझकर इतनी खामियाँ खोज लेता है आरोपित का वकील कि केस कमजोर हो जाता है...सभी जानते हैं कि वे कमियाँ उसे बचाने के लिए ही छोड़ी जाती हैं।'

'इस देश में एक क्रांति की आवश्यकता है...भ्रष्टाचार के विरुध्द एक क्रांति...।'

सर आपकी अटैची मेरे कमरे में रखी है। भट्ट की आवाज़ से उसका चिन्तन टूटा, ठीक है। उसने अनुमान लगाया कि भट्ट ने जे.डी. के चेम्बर की ओर जाते हुए मुड़कर उसे देखा था।

सुधांशु जे.डी. के पी.ए. से मिला, जो डिक्टेशन टाइप कर रहा था।

जे.डी. सर, सुबह से ही आपका इंतज़ार कर रहे हैं। आप चले जाइये सर। डिक्टेशन टाइप करते हुए ही पी.ए. बोला।

जे.डी. प्रदीप श्रीवास्तव के पी.ए. ने बजर देकर सुधांशु के मिलने आने की सूचना श्रीवास्तव को दी और सुधांशु से बोला, जाइये सर।

सुधांशु के चेम्बर में प्रवेश करते ही श्रीवास्तव ने मुस्कराकर कहा, आपकी माँ कैसी हैं?

मां ...उन्हें कैंसर डिटेक्ट हुआ है सर...लंग्ज कैंसर...सत्तर प्रतिशत...।

सो सैड...। श्रीवास्तव ने दुख प्रकट किया और देर तक कैंसर पर बोलता रहा और बताता रहा कि किस प्रकार उसके पिता कैंसर का शिकार होकर असमय मौत के मुंह में जा चुके थे। अंत में वह बोला, आप बहुत एकांत प्रिय व्यक्ति हैं। इतने दिनों से इस कार्यालय में हैं, लेकिन पहले दिन के बाद आप आज दूसरी बार मेरे चेम्बर में आए हैं।

सुधांशु ने उत्तर नहीं दिया। वह अपनी सीट के बारे में जानने को उतावला था। पूछना चाहता था लेकिन श्रीवास्तव ने तब तक अवसर नहीं दिया था।

पी.डी. सर से मुलाकात हो गयी? श्रीवास्तव स्वयं मुद्दे पर आ गया।

जी सर।

मुस्कराया श्रीवास्तव, सुधांशु कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं, लेकिन न ही उससे हताश होना चाहिए और न ही अपमानित। यह दफ़्तर है। दफ़्तर को उसी भाव से लेना चाहिए। आओ तब दफ़्तर के हो रहो, जाओ तब इसे झाड़कर बाहर निकलो...दफ्तर को लेकर भावुक होने वाले लोग सदैव दुखी रहते हैं।

सुधांशु ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।

पाल सर, दिल के बुरे व्यक्ति नहीं हैं। लेकिन कुछ अधिक ही अनुशासनप्रिय हैं। आपका तीन दिन अवकाश बढ़ाना उन्हें अनुशासनहीनता लगा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि आपने तार भेजा ...उनसे फ़ोन पर चर्चा नहीं की। आपने प्रीति को फ़ोन किया, उसने मुझे कहा...यदि आप स्वयं पी.डी. सर को फ़ोन कर देते तो शायद उन्हें बुरा नहीं लगता। श्रीवास्तव, जो लंबा, सांवला, छरहरा, स्मार्ट लगभग चालीस वर्षीय व्यक्ति था, हल्की मूंछे रखता था और प्राय: मुस्कराता रहता था, क्षणभर तक सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि गड़ाए रखकर बोला, आप समझ सकते है।...वह कितना वरिष्ठ हैं...जल्दी ही महानिदेशक बनने वाले हैं...उनका बुरा मानना लाजिमी है।

जी सर। सुधांशु कुछ भी नहीं कहना चाहता था लेकिन उसके मुंह से निकल गया और उसने तत्काल सोचा, 'आगे चलकर आपको भी पाल की सीट पर बैठना है श्रीवास्तव जी और संभव है आज जैसे मधुर आप तब न रहें...आप भी उतना ही संवेदनशून्य हो जायें...क्योंकि जो मलाई पाल आज खा रहा है, कल आपके सामने प्रस्तुत होगी। आप इंकार कर पायेगें? आप करना भी चाहेंगे तब भी नहीं कर पायेंगे, क्योंकि कांट्रैक्टर्स की पहुँच इस दफ़्तर के गलियारों से लेकर संसद के गलियारों तक होती है। आप उनके काम में दखलंदाजी नहीं कर पायेगें...मेरा हस्र आपके सामने है।'

कुछ सोच रहे हैं।

नहीं सर।

चलिए मैं आपको आपकी सीट बता देता हूँ।

सर, आप क्यों परेशान होंगे...मैं आपके पी.ए. से पूछ लूंगा।

नो प्राब्लम सुधांशु। श्रीवास्तव उठ खड़ा हुआ।

सुधांशु को उस कार्यालय के रिकार्ड रूम के एक कोने में रिकार्ड्स के रैक हटाकर जगह दी गई थी। उसकी सीट के पीछे एक खिड़की थी जिसमें कूलर लगा हुआ था। ऊपर पंखा था और चारों ओर रैक्स थे। वास्तव में उस सीट पर रिकार्ड क्लर्क बैठता था, जिसे हटाकर गैलरी में बैठा दिया गया था। चारों ओर गंदगी, धूल और शोर था। रिकार्ड्स रूम के अगल-बगल और गैलरी के दूसरी ओर कई सेक्शन थे। दिनभर बाबुओं की चप-चप की आवाजें गूंजती रहती थीं। उसे एक पुरानी खुरदरी मेज दी गई थी जिसपर टेबलग्लास नहीं था। फाइलें रखने के लिए कोई छोटा रैक भी नहीं दिया गया था। उसके पास आने वाले के बैठने के लिए लकड़ी की एक केन की कुर्सी थी जिसकी केन कई जगह टूटी हुई थी।

अपने बैठने की व्यवस्था देख सुधांशु का हृदय चीत्कार कर उठा। 'मुझसे जूनियर विनीत खरे वेल फर्निश्ड कमरे में...और मैं...।' लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।

अगली व्यवस्था तक आप यहाँ बैठें सुधांशु...। श्रीवास्तव मुड़ने को उद्यत होता हुआ बोला।

धन्यवाद सर।

श्रीवास्तव मुड़ने लगा तो सुधांशु ने पूछ लिया, सर, मुझे कौन-से सेक्शन्स दिए गए हैं?

ओह...हाँ, यह बताना भूल गया था। अभी यह मसला पी.डी. सर से डिस्कस होना है। तब तक आप आराम करें।

सुधांशु का चेहरा उतर गया।

'किसी अफसर को अपमानित करने का नायाब ढंग...उसे कोई काम न दो...उसके स्वाभिमान को अधिक से अधिक आहत करो...श्याम अंग्रेजों का क्रूरतम तरीका।'

श्रीवास्तव जा चुका था।

'सुधांशु तुम भयानक षडयंत्र का शिकार हुए हो...ईमानदार होने की सजा...।' उसका मन पुन: चीत्कार कर उठा। कुर्सी पर बैठने के बाद उसे एहसास हुआ कि वह कुर्सी भी केन की बुनी हुई लकड़ी की थी, जिसमें हत्थे नहीं थे।