गलियारे / भाग 37 / रूपसिंह चंदेल

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प्ररवि विभाग में सूचनाएँ विद्युतगति से भी तेज एक स्थान से दूसरे स्थान दौड़ती थीं और चन्द मिनटों में देश के विभिन्न शहरों में अवस्थित विभाग के निदेशक स्तर के कार्यालयों में चर्चा का विषय बन जाती थीं। सुधांशु दास को चमनलाल पाल ने रिकार्ड रूम में बैठा दिया था, जो बाथरूम के सामने था, यह सूचना सबसे पहले मुख्यालय पहुँची। मुख्यालय में सहायक और उप-महानिदेशकों ने फ़ोन पर आपस में इस विषय पर चर्चा की। मीणा ने प्रीति को इंटरकॉम किया, प्रीति सुना तुमने कुछ?

--क्या?

अपने पतिदेव के बारे में।

क्या हुआ सुधांशु को...वह घर गया है।

आज आना था?

शायद।

शायद?

डी.पी. पहेलियाँ न बुझाइये...बात क्या है? प्रीति अब अकेले में डी.पी.मीणा को डी.पी. पुकारने लगी थी, जबकि अन्य अधिकारियों या स्टॉफ के सामने 'सर'।

इधर आओ।

प्रीति कोई केस स्टडी कर रही थी। फाइल खुली छोड़ मीणा के पास जा पहुँची।

बैठो।

बैठूंगी नहीं...एक केस अभी महानिदेशक सर के पास भेजना है।

यार, अब तुम मुझे अकेले में तुम तो कह ही सकती हो।

सुधांशु की क्या बात थी?

कुछ देर पहले 'के' ब्लॉक से प्रदीप श्रीवास्तव का फ़ोन आया था। उन्होंने बताया कि चमनलाल पाल सुधांशु से किसी बात से इतना ख़फ़ा हैं कि उन्होंने सुधांशु की सीट रिकार्डरूम में लगवा दी है, जो बाथरूम के सामने है। यही नहीं सुधांशु के स्थान पर काम के लिए उन्होंने महानिदेशक साहब को एक सहायक निदेशक तुरंत पोस्ट करने के लिए कहा था। विनीत खरे की पोस्टिगं सुधांशु के स्थान पर कल हुई। फिलहाल सुधांशु को कोई काम नहीं दिया पाल ने।

इसका मतलब कि वह आज वापस आ गया है।

वह कौन?

सुधांशु।

आने पर ही यह सब हुआ...लेकिन यह अच्छा नहीं हुआ...। मीणा ने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ाकर कहा, दुष्ट आदमी।

यहाँ सभी दुष्ट हैं। प्रीति बोली और वापस लौटने के लिए मुड़ी।

लेकिन मैं दुष्ट नहीं हूँ...सभी में तो मैं भी आ गया।

प्रीति ने मीणा को घूरकर देखा और दरवाज़ा खोलने लगी।

ऐसे न घूरो...यहाँ कुछ होने लगा है। मीणा ने छाती पर हाथ रखकर कहा और मुस्करा दिया। प्रीति ने उसके मुस्कराने पर ध्यान नहीं दिया और बाहर निकल गयी।

श्रीवास्तव के जाने के बाद सुधांशु लंबे समय तक इस प्रतीक्षा में रहा कि इस आशय का आफिस आर्डर उसके पास भेजा जायेगा जिसमें उसके लिए आबंटित अनुभागों की सूचना होगी। उसे यह भी देखकर आश्चर्य था कि उसकी मेज बिल्कुल खाली थी। किसी अधिकारी की मेज पर सजे रहने वाले पेपर वेट, पेन-पेंसिल सहित पेन स्टैण्ड जैसी चीजें उस पर नहीं थीं और न ही किसी को बुलाने के लिए घण्टी की व्यवस्था थी। रिकार्ड रूम की उस व्यवस्था को उसने अस्थायी व्यवस्था माना, जैसा कि श्रीवास्तव ने कहा था, लेकिन उसमें बिजली की धण्टी न सही, सामान्य घण्टी तक नहीं थी।

'दो घण्टे बीत गये थे। एक बार बाथरूम जाने के अतिरिक्त वह कुर्सी पर ही बैठा रहा और बाथरूम आते-जाते लागों को देखता रहा।

रिकार्डरूम प्रथम तल पर था और वह बाथरूम स्टॉफ के लिए था। रिकार्ड रूम के सामने रिकार्ड सेक्शन था, जहाँ दफ्तरी और रिकार्ड क्लर्क बैठते थे और उनकी चकचक वह पिछले दो घण्टे से सुन रहा था। वे चार थे, तीन रिकार्ड क्लर्क और एक दफ्तरी। वे आपस में बहस कर रहे थे डाक बांटने जाने को लेकर। किसी एक को मंत्रालयों तथा अन्य कार्यालयों में डाक लेकर जाना था, दूसरे को स्थानीय पोस्ट ऑफिस में पत्र डालने और रजिस्ट्री तथा स्पीड पोस्ट करवाने और शेष दो को वहीं बेैठकर ऑफिस की डाक व्यवस्थित करनी थी तथा दूसरे स्थानीय कार्यालयों से आयी डाक को छांटना और बांटना था।

रिकार्ड सेक्शन के साथ सटा हुआ था हिन्दी सेक्शन और उससे सटा हुआ था इंस्पेक्शन सेक्शन। ये तीनों अनुभाग एक बड़े हॉल में थे। बाथरूम जाते हुए हिन्दी सेक्शन के लोगों को सुधांशु ने सिर गड़ाए अनुवाद करते देखा था। रिकार्ड रूम और इन तीनों अनुभागों के मध्य एक गैलरी थी। वास्तव में गैलरी जैसा स्पष्टरूप से कुछ नहीं था। था यह कि जिस ओर रिकार्ड रूम था वह भाग अधिक चौड़ा था। रिकार्ड रूम के साथ सटे हुए दो ऑडिट सेक्शन थे और उस हिस्से के चौड़ा होने के कारण व्यवस्था इस प्रकार बनायी गयी थी कि चार फीट का भाग दोनों ओर के मध्य छूटा हुआ था जो गैलरी का प्रभाव देता था।

हिन्दी और ऑडिट अनुभागों में प्रवेश के लिए एक बड़ा गेट था। उस गेट से पहले दस गुणा दस का चौड़ा हिस्सा था, जिसके बायीं ओैर दायीं ओर दो-दो कमरे थे। बायीं ओर के एक कमरे में फोटोस्टेट मशीन लगी हुई थी और उसके बगल के कमरे में ऑडिट का एक लेखाधिकारी बैठा था। दायीं ओर के एक कमरे में हिन्दी अधिकारी और दूसरे में इंस्पेक्शन सेक्शन देखने वाला लेखाधिकारी थे।

सुधांशु ने जब 'के’ ब्लॉक में ज्वाइन किया था तब पूरा कार्यालय घुमाकर उसे दिखाया गया था। जब वह रिकार्डरूम की ओर गया था तब वहाँ के शोर से उसे ऐसा लगा था मानो वह किसी मछली बाज़ार में पहुँच गया था लेकिन अब पिछले दो घण्टे से वह उस शोर को सुनने के लिए विवश था।

'अब यह रोज़ का हिस्सा होगा। यह सोच समझकर किया गया है। मुझे मेरे कमरे में ही बैठा रहने दिया जा सकता था। मुझे यहाँ बैठाकर पाल ने यह संदेश देना चाहा है कि अपने अधीनस्थों से वह'यस सर'के अतिरिक्त कुछ भी सुनना नहीं चाहता...अपने अस्तित्व को उसके अस्तित्व में विलीन करके... अपने स्व की हत्या करके ही कोई उसके साथ काम कर सकता है। भले ही मैं कमीशन न लेता, इसमेें उन्हें लाभ ही था...उनके कमीशन की राशि बढ़ जाती, लेकिन बिना किसी ऑडिट के मैं कांट्रैक्टर्स के बिल पास करता रहता। पाल और उसके गुर्गे यही चाहते थे। उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे देशद्रोह कर रहे थे...वे इसे अपना हक़ मानते हैं...देशद्रोह की परिभाषा उन जैसे लोगों ने बदल ली है, लेकिन मुझे यहाँ बैठना मंजूर है...पाल की शर्तों पर काम करना झुकना स्वीकार नहीं।'

'लेकिन तुम जिस व्यवस्था का अंग हो सुधांशु वहाँ ईमानदार को मुंह की खानी पड़ती है। भ्रष्ट लोगों का संगठित समूह है। एक भ्रष्ट अधिकारी दूसरे के भ्रष्टायार को ढकने का काम करता है, वेैसे ही जैसे नेता...भले ही वह किसी भी दल का हो...सत्ता से बाहर वे भ्रष्टायार के लिए गला फाड़ते रहते हैं, लेकिन जब स्वयं सत्ता में आते हैं तब प्रतिपक्ष में रहते हुए उन्होंने जिन लोगों के विरुध्द आरोप लगाए थे, उनके विषय में चुप्पी साध लेते हैं, क्योंकि वे पिछली सरकार के दौरान हुए घोटालों से कहीं बड़े घोटाले करने लगते हैं। चोर...चोर ...मौसेरे भाई... ।'

रिकार्ड रूम में अकेले बैठे सुधांशु ने सोचते हुए घण्टे-दर घण्टे बिता दिए। न कोई अधिकारी उससे मिलने आया और न ही स्टॉफ का कोई व्यक्ति। उसे धीरे-धीरे स्थिति स्पष्ट होती जा रही थी।

'कार्यालय का एक वर्ग पाल की भांति भ्रष्ट है और मेरे इस अपमान से वह प्रसन्न होगा, जबकि दूसरा वर्ग, जिसकी संख्या बड़ी है, मुझसे मिलने से इसलिए कतरा रहा होगा, क्योंकि पाल ने मेरे सामने के अनुभागों में अपने जासूस बैठा दिए होंगे, जो मुझसे मिलने आने वाले की सूचना उस तक पहुँचा देंगे और पाल मुख्यालय फ़ोन करके उनका तबादला करवा देगा।'

अपरान्ह तीन बजे रिकार्ड रूम की देखरेख करने वाले क्लर्क के साथ श्रीवास्तव तेज कदमों से वहाँ आया। श्रीवास्तव को देखते ही सुधांशु उठ खड़ा हुआ। वह कुछ कहना ही चाहता था, लेकिन श्रीवास्तव ने जिस उपेक्षा का प्रदर्शन किया उससे सुधांशु भौंचक था। 'सुबह की श्रीवास्तव की सौजन्य क्या नाटक थी?' उसने सोचा।

श्रीवास्तव ने कुछ पुस्तकें चुनी जिन्हें रिकार्ड क्लर्क ने रैक से निकाला और उन्हें थामकर वह श्रीवास्तव के पीछे हो लिया। पन्द्रह मिनट बाद रिकार्ड क्लर्क लोटा और उसके पास आकर पूछा, सर आपके लिए चाय लाऊँ?

धन्यवाद तत्काल सुघांशु ने सोचा उसका नाम पूछ लेना चाहिए, क्योंकि कभी किसी बात की आवश्यकता होने पर उससे कहा जा सकता है।

आपका नाम क्या है?

सर, रामभरोसे।

रामभरोसे, चाय नहीं, पानी ला सकते हैं?

क्यों नहीं सर।

रामभरोसे छरहरे बदन का पांच फीट आठ इंच लंबा लगभग पैंतीस वर्षीय व्यक्ति था। उससे पानी के लिए कहते समय सुधांशु को खयाल आया कि उसे पानी पीने के लिए गिलास और जग तक नहीं दिये गये। रामभरोसे पानी ले आया तो उसने पूछा, मुझे गिलास और जग कौन देगा?

सर...। क्षणभर सोचते रहने के बाद रामभरोसे बोला, सर, स्टोर बाबू...। लिखकर देना होगा। आपका पी.ए... सर...।

रामभरोसे को द्विविधा में देख सुधांशु बोला, मुझे एक काग़ज़ ला दो...मैं ही लिख देता हूँ।

रामभरोसे हिन्दी अनुभाग में दौड़ गया और एक काग़ज़ ले आया। कुछ ही देर में वह गिलास, जग, तौलिया, धण्टी, काग़ज़, पेन सेट आदि, जो कुछ भी सुधांशु ने लिखकर दिया था, ले आया।

शाम छ: बजे तक सुधांशु ने किसी प्रकार वक़्त काटा और रामभरोसे के अतिरिक्त किसीसे भी उसका संवाद नहीं हुआ।

छ: बजे जब वह कार्यालय से जाने लगा, सीढ़ियाँ उतरते हुए ऊपर बैठने वाले लेखाधिकारी उसे मिले, जो अपने ब्रीफकेस थामे सीढ़ियाँ उतर रहे थे। उसे देख तीनों दुबककर खड़े हो गये और तीनों ने समवेत स्वर में उससे नमस्कार किया। तीनों को उत्तर देकर वह एक सीढ़ी और नीचे उतरा ही था कि उसे अपनी अटैची याद आयी। वह पलटा और उतरी सीढ़ियाँ चढ़कर वापस रिकार्डरूम की ओर बढ़ा। रामभरोसे किरमिच का थैला लटकाए गैलरी में उसे आता दिखा। निकट आने पर वह बोला, रामभरोसे, मेरी अटैची ए.के. भट्ट के पास रखी है...मैं गेट के बाहर रुकता हूँ...आप उसे लेकर वहीं आ जाओ।

जी सर...अभी लाया। और रामभरोसे तेजी से सीढ़ियाँ उतरता भट्ट के कमरे की ओर लपक गया और वह गेट के बाहर खड़े होकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा। रामभरोसे को लौटने में लगभग दस मिनट लगे और उस मध्य कार्यालय के हर स्तर के लोग उसके सामने से गुजरे। उसने अनुभव किया सभी उससे चेहरा छुपा रहे थे।

सड़क पर पहुँचते ही मस्जिद के पास से उसने ऑटो लिया जिसने पन्द्रह मिनट में उसे प्रगति विहार हॉस्टल छोड़ दिया। डुप्लीकेट चाबी से दरवाज़ा खोल वह कमरे में पहुँचा तो देखकर हैरान हुआ कि दोनों कमरे अस्तव्यस्त पड़े हुए थे। सामान इधर-उधर बिखरा हुआ था। किचन में भी वही आलम था। बेड रूम में बेड पर प्रीति की नाइटी और गाउन पड़े हुए थे...बेड की चादर मुचड़ी हुई थी और तिपाई पर दूध पिये दो गिलास रखे थे। किचन में कॉफी के दो गंदे कप रखे थे। बेड के नीचे उसे एक गिलास दिखा। उसे उठाया तो शराब की गंध नाक के रास्ते फेफड़ों तक जा पहुँची। गिलास की तलहटी पर मामूली मात्रा में शराब शेष थी।

'प्रीति कब से शराब पीने लगी?' उसने सोचा, 'लेकिन कॉफी के दो कप...दूध के दो गिलास...मटन बिरियानी की दो प्लेटें...इसका मतलब यह कि प्रीति के अलावा यहाँ कोई और भी था ...कौन था?' सुधांशु का सिर चकराने लगा। वह ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गया और प्रीति के आने का इंतज़ार करने लगा।