गलियारे / भाग 38 / रूपसिंह चंदेल

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सुधांशु सोफे पर ही पसर गया था और दिनभर की थकान उसकी सोच को परे धकेल उस पर काबिज हो गयी थी। वह गहरी नींद में था और दुखस्वप्न का सिलसिला प्रारंभ हुआ ही था कि घण्टी बजी। स्वप्न में वह देख रहा था कि वह एक लंबे मैदान से गुजर रहा है, जिसमें बीच-बीच में झाड़-झंखाड़ हैं। वह कुछ ही आगे बढ़ा था कि सामने उसके अपने खेत दिखाई पड़े और खेतों में काम करते माँ और पिता। वह माँ के पास पहुँचा। कुछ कहना चाहता था, लेकिन लगा जैसे उसके मुंह में ज़ुबान ही न थी। माँ भी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन वह भी एकटक उसे देख रही थी, बोल नहीं रही थी। पिता ने दूर से उसे देखा और काम करते रहे। अचानक दृश्य बदला और उसने अपने को अस्पताल में माँ के बेड के पास पाया। उसके आगे कुछ देखता कि घण्टी बजी और वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। क्षणभर तक समझ ही नहीं पाया कि वह था कहाँ। प्रकृतिस्थ होने का प्रयत्न कर ही रहा था कि घण्टी दोबारा बजी।

सुधांशु ने दरवाज़ा खोला। प्रीति थी।

हेलो, सो रहे थे?

सुधांशु आंखें मलता सोफे पर बैठ गया। उत्तर नहीं दिया। प्रीति बेडरूम में गयी, पर्स मेज पर और ब्रीफकेस, जिसमें वह कर्यालय की आवश्यक फाइलें, जिन्हें वह घर में देखती थी, बेड पर रखा और बाथरूम में घुस गयी। बाथरूम से निकल तौलिया से हाथ-मुंह पोछती हुई उसने वहीं से सुघांशु से पूछा, चाय बनाऊँ?

सुधांशु ने उत्त्र नहीं दिया।

चाय का पानी चढ़ाकर प्रीति ड्राइंगरूम में आयी। हॉस्टल के दो कमरों के उस फ़्लैट के पहले कमरे को उन्होंने ड्राइंगरूम दूसरे को बेडरूम बना रखा था। ड्राइंगरूम में ही एक ओर सुधांशु ने अपनी पसंदीदा साहित्यिक पुस्तकों का रैक रखा हुआ था। केन का छोटा सोफा और एक तिपाई थे वहाँ। शेष जगह इतनी कि लोग संभलकर निकल सकते थे।

अरे, तुम फिर लेट गये। चाय नहीं पीनी? मैंने पानी चढा दिया है।

नहीं पीनी...धन्यवाद।

चाय का पानी चढ़ाते समय प्रीति ने किचन में फैले बर्तन समेट दिए थे और बेडरूम में रखे कप वॉशबेसिन में डाल दिए थे। शराब का गिलास विम से साफ़ कर बर्तनों के बीच रख दिया था। उसे आशंका थी कि सुधांशु ने यह सब देखा होगा, 'लेकिन वह यह भी सोच रही थी कि सुधांशु का सूटकेस ड्रांइगरूम में ही पड़ा हुआ है फिर शायद ही वह किचन में गया हो और यदि देखा भी होगा ...तो क्या अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीने का हक़ मुझे नहीं। पराश्रिता हूँ नहीं कि पति के आगे-पीछे होती रहूँ...किसे बुलाना है, किससे मिलने जाना है...टिपिकल भारतीय महिलाओं की भांति पतियों से पूछकर हर काम करूं?'

किचन में काम करने की आहट सुधांशु को मिलती रही और वह सोचता रहा कि अवश्य प्रीति शराब का गिलास धोकर हटा रही होगी।

तुमने फ़ोन क्यों नहीं किया? कुछ लाड़ भरे स्वर में प्रीति ने पूछा।

सुधांशु आंखें बंद किए लेटा रहा। बोला नहीं।

मां जी की तबीयत कैसी है?

ैजैसी थी। आंखे बंद किए हुए ही सुधांशु ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

प्रीति किचन की ओर जाने लगी तो पुन: एक बार पूछा, तुम्हारे लिए भी चाय का पानी चढ़ाया हुआ है...आधा कप ले लो...थकान दूर हो जायेगी।

सुधांशु फिर भी नहीं बोला।

यार, क्या बात है, बोलते क्यों नहीं?

क्या बोलूं?

यही कि चाय लाऊँ या नहीं।

शराब है?

व्वॉट नानसेंस?

नानसेंस...थकान चाय की अपेक्षा शराब से जल्दी मिटती है। वह हो तो ले लाओ। सुधांशु उठ बैठा ।

तुम लड़ने के मूड में हो? कहती हुई प्रीति किचन की ओर चली गई। दो मिनट में चाय लेकर लौटी... आधा कप चाय सुधंांशु के लिए भी लेती आयी। चाय पियो...थकान दूर हो जायेगी...गुस्सा भी।

चाय से थकान नहीं मिटेगी...शराब है तो...।

लगातार क्या बकवास किये जा रहे हो? सामने सोफे पर बैठती हुई प्रीति बोली।

बकवास ?...बेड के नीचे जो शराब का गिलास पड़ा हुआ था...वह क्या था? किसने पी... कौन आया था यहाँ?

तुमसे मतलब...कौन आया...कौन नहीं...इसका उत्तर मैं क्यों दूं? मैं अधिकारी हूँ...दफ्तर के काम से लोग आएँगे ...मैं सभी का लेखा-जोखा तुम्हें देती रहूँ?

दफ्तर के काम से आने वाला यहाँ बैठकर कॉफी पीएगा...शराब नहीं।

किसीने शराब नहीं पी। प्रीति का स्वर ऊँचा था।

नहीं पी... बेड के नीचे जो गिलास रखा था...।

कोई गिलास नहीं था।

ओह...।

मेरे पीछे मेरी जासूसी करने का क्या मतलब?

गिलास बेड के नीचे पड़ा हुआ था...उसे तुमने अभी हटा दिया...क्या नहीं था ?

था...उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं।

क्यों नहीं है। यह घर किसी शराबी के लिए नहीं है।

प्रशासनिक सेवा में हो सुधांशु ...तुम शराब नहीं पीते इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे भी न पियें।

लोग पियें...छककर पियें...उल्टी करें...नाबदान में गिरें...लेकिन वे मेरे घर में नहीं पी सकते।

यह घर तुम्हारा कब से हो गया?

क्या मतलब?

मतलब यह सुधांशु दास जी... । चाय समाप्त कर प्रीति ने कप तिपाई पर रखा, आपने एकमोडेशन के लिए आवेदन ही नहीं किया था...वह तो डी.पी. की सलाह पर मैंने किया और डी.पी. की सिफ़ारिश पर वहाँ के निदेशक ने तुरंत कार्यवाई करते हुए मेरे नाम से इसे एलाट किया...तो यह घर किसका हुआ! सुधांशु के क्रोध को शांत करने के उद्देश्य से प्रीति मुस्कराई।

ओह! क्षणभर चुप रहकर सुधांशु बोला, समझ गया।

क्या समझ गये?

सुधांशु कुछ कहता उससे पहले ही प्रीति बोली, अवश्य समझना चाहिए। आप जैसे...शंकालु व्यक्ति ही बाल की खाल निकालने में प्रवीण होते हैं...छिन्द्रानिवेषण में आनंद लेते हैं।

प्रीति का 'तुम' से 'आप' कहना सुधांशु ने अनुभव किया।

शंका निर्मूल नहीं है।

दरअसल इसमें आपका दोष नहीं, जिस परिवेश में आप पले-बढ़े और जिस पृष्ठभूमि से आप आए हैं...दोष वहाँ छुपा हुआ है।

यह सब तुम्हें पहले से ही पता था...फिर भी...।

मुझे यह ज्ञात नहीं था कि वर्षों दिल्ली जैसे महानगर में रहनेवाला व्यक्ति, आई.ए.एस. करने वाला व्यक्ति आज भी गंवई-गांव की सड़ांध अपने मस्तिष्क में लिए घूम रहा है...यही नहीं वह इतना कमजोर, मूर्ख और जिद्दी है कि उसे दफ़्तर में नापसंद किया जाता है। उसे एक अपमानजनक जगह पर बिना काम के बैठा दिया जाता है...।

प्रीति मैं शंकालु, कमजोर और मूर्ख हूँ, लेकिन चरित्रभ्रष्ट नहीं...समझौतापरस्त भी नहीं।

कहना क्या चाहते हो?

समझ सकती हो तो समझो और समझ नहीं रही ऐसा नहीं है। जो डी.पी. मीणा जैसे धूर्त और लंपट व्यक्ति के प्रभाव में हो उसे मुझमें मूर्ख के ही दर्शन होंगे।

प्रीति तिलमिला उठी।

आप डी.पी. के लिए ऐसा नहीं कह सकते। आपने उन पर जो आरोप लगाए... उसके... क्या प्रमाण हैं आपके पास।

प्रमाण...पलंग के नीचे पड़ा शराब का गिलास...। मीणा नहीं तो कौन आया था यहाँ?...किसने पी यहाँ शराब...कॉफी...और...और...।

यू ब्रूट...मुझ पर लांछन लगाते हुए शर्म नहीं आ रही...अपनी पत्नी पर लांछन...। चाय का कप फ़र्श पर पटकती हुई प्रीति चीखी, यू गेट लास्ट...आय कांट लिव विद यू... बास्टर्ड...गेट लास्ट...गेट...ला ऽ...ऽ...स्ट...। उसने अपना चेहरा हाथों से ढक लिया और बेडरूम में बेडपर ढहकर फफककर रोने लगी।

सुधांशु ने सूटकेस उठाया, दरवाज़ा खोला और सीढ़ियाँ उतर नीचे आ गया। कुछ दूर पैदल चलने के बाद उसे एक खाली ऑटो मिला। इशारा कर उसे रोका, लक्ष्मीनगर।

ऑटोवाले ने न नुकर किया, लेकिन उसके ना-नुकर पर सुधांशु ने ध्यान नहीं दिया। ऑटो में बैठा रहा। दो मिनट तक उसके उतर जाने की अपेक्षा करने के बाद ड्राइवर ने ऑटो आगे बढ़ा दिया।

सुधांशु जब कोमलकांत विराट के कमरे में पहुँचा रात के दस बज चुके थे। विराट के कमरे में ताला बंद था, 'रात डयूटी पर है शायद।' सीढ़ियों पर सूटकेस रख सुधांशु सोचता रहा, 'कुछ देर प्रतीक्षा कर लेना उचित होगा...पान खाने जा सकता है। उसे पान का शौक है...।'

सूटकेस सीढ़ियों से उठाकर उसने कमरे के दरवाज़े से सटाकर रखा और नीचे उतरने लगा पान की दुकान तक जाकर विराट को देख आने के लिए। गर्मी अधिक थी। वहाँ खड़ा रहना कठिन हो रहा था। वह चार सीढ़ियाँ ही उतरा था कि सूटकेस का खयाल कर लौट पड़ा। 'कोई ले जा सकता है...बहुत कुछ है उसमें...यहाँ लोग आँख का काजल तक पोछ डालते हैं।' उसने सोचा, 'लेकिन कब तक विराट की प्रतीक्षा करूंगा। नहीं आया तब...कुछ देर करना ही चाहिए... सूटकेस में अधिक वज़न नहीं है, उसे लेकर ही नीचे जाना उचित होगा।' उसने सूटकेस उठाया और सड़क पर आ गया।

सुधांशु दस क़दम ही आगे बढ़ा था कि सामने से विराट आता दिखा।

अरे, आप? बहुत खूब...। कहाँ से सवारी आ रही है?

वह सब बाद में...पहले यह बताओ... मेरे रात यहाँ रहने पर आपको कोई... ।

क्या बात करते हैं सुधांशु भाई... आपके लिए कष्ट...। सुधांशु के कंधे पकड विराट बोला, पहले यह बताओ, आ कहाँ से रहे हो? वह वहीं रुक गया।

घर गया था...मां अस्वस्थ हैं ...।

क्या हुआ अम्मा को?

कैंसर ...।

सो सैड। क्षणभर रुककर विराट ने पूछा, सीधे स्टेशन से आ रहे हो ?

दफ्तर से।

इतनी लेट...।

बस यूं ही...। सुघांशु विराट की बात टाल गया।

भाभी दिल्ली में नहीं हैं।

हूँ...ऊँ...। सुधांशु इस प्रश्न को भी टालते हुए बोला, बहुत दिनों से आपसे मिला नहीं था...इसलिए... ।

अहो भाग्यम...सुधांशु जी, भाभी जब भी दिल्ली में न हों...टूर पर हों...आप मेरे यहाँ ही आ जाया करियेगा। ये सरकारी नौकरी भी मौज की होती है...अफसर लोग ख़ूब टूर बनाते रहते हैं। अपने मां-पिता से मिलने जाना है और उस स्टेशन में उनके विभाग का कोई छोटा-सा भी कार्यालय है तो टूर...मुफ्त आना-जाना और वहाँ के स्टॉफ की सेवा अलग...भई सुधांशु जी... नौकरी आपकी ही है...यहाँ तो हम अख़बार के दफ़्तर में मजदूरी कर रहे हैं। ज़रा भी अकड़ दिखायी कि सम्पादक बाहर का रास्ता दिखाने में वक़्त बरबाद नहीं करता। वह नहीं दिखायेगा तो मैनेजमण्ट से कहकर दिखवा देता है। वह जो चाहेगा, करना होता है...। धाराप्रवाह बोलने के बाद विराट को याद आयी सुधांशु के भोजन की बात।

कविवर, आप कार्यालय से सीधे आ रहे हैं...हाथ में सूटकेस है...मतलब यह कि आप स्टेशन से सीधे कार्यालय गये थे...घर की चाबी आपके पास रही नहीं होगी और भाभी के बारे में भी आपको दिल्ली पहुँचकर पता चला होगा। कोई बात नहीं मित्र...सही जगह आ गये हो...चिन्ता छोड़ो...यह लो चाबी। विराट ने जेब से कमरे की चाबी निकाली, चलकर हाथ मुंह धोओ... फ्रेश हो...मैं आपके लिए खाना लेकर आता हूँ।

खाने की चिन्ता न करें आप।

आप भी कैसी बात करते हैं सुधांशु भाई। माना कि आप बड़े अफसर हैं और मैं फटीचर पत्रकार-कवि-लेखक, लेकिन आप मेरे पास आएँ और भूखे रहें...कितना बड़ा पाप होगा...आप चलो...मैं आया।

आध घण्टा बाद विराट छोले-भटूरे और आर.सी. की बोतल के साथ लौटा। सुधांशु कपड़े बदल कुर्सी पर उस दिन के जनसत्ता के पन्ने पलट रहा था। विराट के कमरे के साथ ही किचन और बाथरूम थे। सुधांशु से बिना बात किए वह किचन में गया और प्लेट में छोले-भटूरे लाकर सुधांशु के सामने रख गया।

अपने लिए नहीं लाए?

मैं खाना ख़ाकर ही लौट रहा था। आप शुरू करो...पानी लाया। विराट बोला और फ्रिज खोलकर, जो उसने एक सप्ताह पहले ही खरीदा था, पानी की बोतल तिपाई पर रख दी, शुरू करो। कहता हुआ वह किचन में जा घुसा। लौटा तो उसके हाथ में आर.सी और दो गिलास थे। एक ट्रे में दालमोठ थी। सुधांशु के सामने गार्डन चेयर पर बैठते हुए उसने बोतल, गिलास और नमकीन तिपाई पर रखा और झुककर बोतल की डॉट खोलने लगा। डॉट खोलकर वह दो पेग बनाने लगा।

दूसरा किसके लिए विराट?

कैसे कवि हो...एक पेग लेकर देखो...खाने का।आनंद आ जाएगा।

नहीं भाई, मैं मुंह नहीं लगाउंगा।

खाना खाते जाओ... और बीच-बीच में सिप करते जाओ... भोजन का असली आनंद मिलेगा। नुक़सान नहीं करेगी। गिलास में शराब ढाल सुधांशु को दिखाते हुए उसने कहा, इतनी दवा है। इससे अधिक नशा...। आप बस इतनी लें...मेरे आग्रह को टालेंगे नहीं...फिर हम कविताएँ सुनेंगे एक-दूसरे की।

मैंने न पीने की शपथ ली है।

यार, यह शपथ भाभी जी से ली है न! लेकिन दवा के रूप में लेने की शपथ थोड़े ही ली है...नशे की ली है। सो वह है नहीं। गिलास सुधाशु के सामने रख विराट बोला।

सुधांशु के अंतर्मन में आत्ममंथन चल रहा था, 'लूं या नहीं...शपथ मैंने किसी से नहीं स्वयं ही से ली है...और कुछ घण्टे पहले जो घटित हुआ...कुछ घण्टे पहले ही क्यों... आज सुबह से ही मेरे साथ जो हो रहा है...उसमें एक-दो पेग मानसिक राहत देंगे। लोग यही कहते हैं...अनुभव करके देखना चाहिए।

खाना ख़त्म करके थोड़े ही लोगे सुधांशु भाई। लेते जाओ साथ-साथ।

सुधांशु ने गिलास उठाया और एक हल्का-सा घूंट लिया। लगा गला छिल गया है। थोड़ी देर बाद उसने दूसरा घूंट लिया। दिमाग़ में झन्नाहट हुई... लगा दिनभर का अपमान वह भूलता जा रहा है। सुखद। उसने गिलास खाली कर दिया। सामने सुधांशु का गिलास खाली देख विराट ने पुन: उसमें शराब और पानी भर दिया।

लो...बस आज इतना ही। इससे अधिक मैं स्वयं आपको लेने नहीं दूंगा। पहला दिन है...इतने में ही टुन्न हो जाओगे।

जब दोनों बिस्तर पर गये, विराट सुधांशु से कविताएँ सुनाने का आग्रह करने लगा।

दिनभर का थका हुआ हूँ। सोना चाहूँगा...कविताएँ फिर कभीं

कोई गिला नहीं। विराट बोला और कमरे की बत्ती बुझाकर टेबल लैंप जला लिया और सुघांशु से पहले खर्राटे भरने लगा, जबकि सुधांशु के दिमाग़ में प्रीति और डी.पी.मीणा देर तक घूमते रहे और घूमता रहा चमनलाल पाल का चेहरा।