गलियारे / भाग 39 / रूपसिंह चंदेल
कॉलेज के दिन, प्रीति के साथ बीते क्षण और उसके बाद घटित घटनाएँ सुधांशु के मस्तिष्क पटल पर घूमती रहीं। टेबल लैंप की मंद रोशनी में वह विराट के खर्राटे और बजती नाक सुनता रहा और सोचता रहा अपनी स्थिति को न समझ पाने के बारे में। लेकिन क्षणांश में उसका विचार पलटा, 'स्थिति मैं भलीभांति समझता था...और इस विषय में बार-बार प्रीति को कहा भी था कि हमारे स्टेटस मेल नहीं खाते...कि मैं एक किसान ...गरीब किसान का बेटा हूँ...लेकिन ग़लती मेरी ही है। मैंने व्यक्ति पहचानने में त्रुटि की और आज भी मुझमें इतनी समझ पैदा नहीं हुई कि व्यक्ति की पहचान कर सकूं। मुझे सोचना चाहिए था कि मीणा क्यों आगे बढ़-चढ़कर प्रीति की मदद कर रहा है, क्यों अविलंब मुख्यालय में ज्वायन करने की अनुमति महानिदेशक से प्राप्त की...उसने सरकारी मकान की सलाह ही नहीं दी बल्कि उसके लिए सिफ़ारिश की...मीणा को मैंने तेज लेकिन सहृदय माना था...लेकिन क्या मीणा ही दोषी है? माना कि प्रकृति से पुरुष लंपट होता है...अधिकांश अपनी उस प्रकृति पर विजय पा लेते हैं...सामाजिक या आत्मिक भाववश, कुछ अवसर मिलने पर उसका लाभ उठाते हैं लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं करते...सहजरूप में उपलब्ध स्त्री ही उनकी भोग्या होती है, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जिनमें स्त्री को आकर्षित करने के विशेष गुण होते हैं। वे छल-छद्म, साम-दाम, दण्ड-भेद का सहारा लेते हैं। नारी कितना भी दंभ भरे कि पढ़-लिखकर स्वावलंबी बनकर उसने अपना मार्ग प्रशस्त कर लिया है कि वह जागरूक है कि वह पुरुषों की दृष्टि पहचानती है कि वह अपनी रक्षा में समर्थ है, लेकिन डी.पी.मीणा जैसे लोगों के समक्ष उनके समस्त अस्त्र-शस्त्र व्यर्थ हो जाते हैं, क्योंकि ऐसे लोगों को उनके अस्त्र-शस्त्रों को कुंद करने के गुण आते हैं।'
'लेकिन क्या प्रमाण है तुम्हारे पास कि प्रीति का मीणा के साथ अनुचित सम्बन्ध बन गया है। संभव है वह केवल खा-पीकर चला गया हो।' सुघांशु के मन के एक कोने से आवाज़ उठी।
'फ्लैट की स्थितियाँ इस बात का सबूत थीं कि केवल खा-पीकर ही वह नहीं गया...प्रीति ने भी उसे बढ़ावा ही दिया होगा...।'
'प्रीति के प्रति तुम्हारा ऐसा सोचना पुरुषीयर् ईष्या है।'
'नहीं, ऐसा नहीं है। प्रीति ने अप्रत्यक्षरूप से स्वीकार किया कि...।' इसी समय उसे विराट का बुदबुदाना सुनाई पड़ा। अस्पष्ट बुदबुदाना...फिर मुस्कराना। वह उसकी ओर देखने लगा। विराट फिर खर्राटे लेने लगा तो, 'गलती मेरी थी। मुझे प्रीति के साथ विवाह नहीं करना चाहिए था। हमारी पृष्ठभूमि भिन्न थीं ...प्रीति से अधिक दोषी मैं ही हूँ। जबर्दस्ती वह मुझे बाँध नहीं लेती। शायद मेरे अंदर भी एक एडीशनल सेक्रेटरी की बेटी से विवाह कर लेने का उत्साह था। अब इतना सब होने के बाद उसके साथ रहना हर दिन मरने जैसा होगा...नहीं अब उसके साथ नहीं रह सकता। उसने टेबल लैंप के विपरीत दिशा में करवट ली और सोने का उपक्रम करने लगा।
सुबह जल्दी ही सुधांशु की नींद खुल गयी। रातभर गर्मी और तनाव के कारण उसे भलीभांति नींद नहीं आयी थी। जब भी नींद आयी दुखस्वप्न आते रहे। स्वप्न जिनको समझना कठिन था उसके लिए। उठने पर उसने उन्हें याद करने का प्रयत्न किया, लेकिन एक भी स्वप्न उसे याद नहीं आया। याद रहा तो केवल इतना ही कि हर स्वप्न उसे डरावना लगता रहा। वह बिस्तर पर बैठ सोचता रहा और निष्कर्ष निकाला कि माँ की दारुण बीमारी, अमपानजनक विभागीय स्थितियाँ और प्रीति के कारण उत्पन्न स्थिति की पीड़ा ही उन अबूझ स्वप्नों का आधार थे। उसने कोमलकांत विराट की ओर देखा, जो सीधा लेटा तब भी खर्राटे ले रहा था। उसने घड़ी देखा, पांच बजे थे। खिड़की के बाहर उजाला स्पष्ट था।
साढ़े पांच बजे उसने सोचा कि विराट को जगा दे, लेकिन यह विचार त्याग टहलने जाने के लिए कपड़े बदले और दरवाज़े पर ताला लगा सीढ़ियाँ उतर गया। मकान पन्द्रह फुट की गली में था जो पांच मिनट पैदल चलने पर विकास मार्ग से जुड़ती थी। वह उसी गली में विकास मार्ग की ओर बढ़ा। वहाँ की सभी गलियाँ एक-सी थीं और अनजान व्यक्ति के भटकने का भय था।
विकास मार्ग पर उतनी सुबह भी वाहन तेज गति से दौड़ रहे थे। क्षणभर वह खड़ा सोचता रहा कि कहाँ टहले। किसी पार्क की जानकारी उसे नहीं थी और विकास मार्ग इस योग्य नहीं था। वह कुछ देर तक सोचता खड़ा रहा। लोग सर्विस लेन में इधर-उधर आते-जाते दिखे उसे। 'क्या ये लोग यहीं टहल रहे हैं।' प्रश्न उसके दिमाग़ में कौंधा, 'नहीं भी टहल रहे हों तो भी...यहीं टहलना सुरक्षित रहेगा।' वह आगे बढ़ा। यद्यपि उस लेन में भी इक्का-दुक्का दोपहिया वाहन और रिक्शा आ-जा रहे थे, लेकिन लोग चल रहे थे बेफिक्र...वह भी चलता गया आगे आने वाली लाल बत्ती तक, जिसके बारे में उसे बताया गया था कि वह मधुबन चौक था। वहाँ से वापस लौटा और तेजगति से गुरुद्वारे तक गया। रास्ते में फुटपाथ पर अख़बार वालों को अख़बार सहेजते और दो पान के दुकानदारों को दुकानें खोलते देखा।
गुरुद्वारा में कुछ सरदार सपरिवार आ-जा रहे थे और गुरुवाणी का वाचन हो रहा था। वह पलटा और विराट के मकान की गली में मुड़ गया। उस गली के कोने के मकान पर 'करिअर पॉइण्ट' का बड़ा-सा बोर्ड लटक रहा था, जिसपर सी.ए.,सी.एस और आई.सी.डब्लू.ए. की कोचिगं की सूचना थी। विराट ने बताया था कि लक्ष्मीनगर ऐसे इंस्टीटयूट्स के लिए विशषरूप से विख्यात है। नोएडा, फरीदाबाद और गुड़गांव से बच्चे वहाँ कोचिगं के लिए आते थे।
लौटकर दरवाज़ा खोलने की आवाज़ से विराट जागा...अंगड़ाई ली और बोला, टहलने गये थे गुरु ...।
हाँ, लेकिन पता ही नहीं था कि पार्क कहाँ है...सर्विस लेन में टहला...।
ऐसी कॉलोनियों में पार्क नहीं होते मित्र...और दिल्ली के चारों ओर ऐसी ही बस्तियाँ हैं...दिल्ली सरकार को लोग टैक्स देते है, लेकिन इनमें सुविधाओं के लिए उन्हें तरसना होता है। यह तो फिर भी लााख गुना बेहतर है, क्योंकि कई राजनीतिज्ञ यहाँ रहते हैं...खैर छोड़ो...चाय पियोगे?
पीना चाहूँगा...आप जब तक चाय बनाओ मैं स्नान कर लेता हूँ।
पन्द्रह मिनट रुक जाओ... मैं फ्रेश हो लूं...।
ओ.के... अखबार कब तक आता है?
सात के आस-पास।
पत्रकार के घर भी सात बजे... ।
यार, काहे के पत्रकार...डेस्क पर काम करने वाला अपने को कुछ भी समझे, लेकिन उसकी औक़ात सरकारी दफ़्तर के क्लर्क से अधिक नहीं होती। कहता हुआ विराट बाथरूम-कम टायलेट की ओर लपक गया।
सुधांशु स्नानकर जब निकला चाय तैयार थी। स्नान करते समय वह जिस प्रश्न पर विचार करता रहा था उसका सामना बाहर आते ही उसे करना पड़ा। चाय उसके सामने रखते हुए विराट ने पूछा, भाभी कितने दिनों के लिए टूर पर गयी हैं?
मैं उनके दफ़्तर में नहीं हूँ। सुधांशु ने फिर टालने की कोशिश की।
जब तक वह टूर पर होंगी तब तक आप इधर ही आ जाया करना। डुप्लीकेट चाबी मैं दे दूंगा।
शायद आवश्यकता नहीं होगी।
परेशान बिल्कुल मत होना। विराट के दिल में भी विराट जगह है और कमरे में भी...कहो तो दूसरी चाबी मकान मालिक के पास छोड़ता जाऊँ।
नहीं। क्षणभर बाद सुधांशु बोला, फिर भी अपना फ़ोन नंबर लिखकर दे दो।
मुझे लौटने में प्राय: देर हो जाती है...ग्यारह भी बज जाते हैं। जाता ही यहाँ से ग्यारह बजे हूँ...एक बार सोच लो...।
आप परेशान न हों...आवश्यकता हुई तब फ़ोन कर लूंगा।
विराट चुप रहा। अख़बार आ गये थे...जनसत्ता और टाइम्स ऑफ इंडिया।
आप अख़बार देखो...मैं आपके लिए ब्रेकफास्ट तैयार कर देता हूँ।
विराट जी... परेशान न हो...दफ्तर में कैण्टीन है।
यार कैण्टीन का खाना कोई खाना होता है।
वहाँ अच्छा खाना मिलता है... नाश्ता भी ...।
ओह, मैं यह भूल ही गया था कि जनाब क्लास वन अफसर हैं और यह कि प्ररवि विभाग में हैं। आप लोगों के लिए विशेष व्यंजन बनते होंगे वहाँ और बाबुओं के लिए अलग।
ऐसा नहीं है...सभी के लिए एक जैसा...।
कोई बात नहीं...वहाँ भी नाश्ता कर लेना। अपने लिए मुझे कुछ करना ही होगा...ब्रेड और मक्खन चलेगा। शुद्ध शाकाहारी नाश्ता?''
ओ.के.।
नाश्ते के बाद चाय।
ओ.के.।
ठीक आठ बजते ही सुधांशु ने सूटकेस उठाया और नीचे आ गया।
मैं नीचे चलता हूँ।
वापस नहीं आउगां। और दोनों ठठाकर हंस दिए।
आने के लिए संकोच नहीं करना...बता देना फ़ोन पर...। विराट सीढ़ियों पर रुक गया। सुधांशु ने उत्तर नहीं दिया।
नीचे उतरकर सुधांशु ने अनुभव किया कि उसने बहुत बड़ी ग़लती कर दी थी। उसे सुबह छ: बजे ही निकल लेना चाहिए था। कहीं आशियाना खोजना ही होगा...व्यवस्था होने तक किसी होटल में रुकना होगा। अब...? दफ़्तर पहुँचने में डेढ़ घण्टा है और दफ़्तर के आसपास के होटल थ्री और फाइव स्टार हैं...उसकी औक़ात से बाहर। तत्काल उसे विचार कौंधा, रविकुमार राय के यहाँ सूटकेस रखने जाना होगा और शाम ऑफस से निकलकर पहाड़गंज या करोल बाग़ के किसी होटल में।
'लेकिन रवि के यहाँ प्रश्नों की झड़ी लग सकती है।' सुधांशु ने सोचा, 'देखा जाएगा...कहीं होटल खोजने का अब वक़्त नहीं है। रवि के यहाँ बापूधाम जाने के लिए ऑटो लेना होगा...।' सोचता हुआ सुधांशु विकास मार्ग पर आ गया। ऑटो से जब वह रवि के यहाँ पहुँचा, रवि ऑफिस जाने के लिए तैयार होकर नाश्ता कर रहा था। स्टॉफ कार बाहर खड़ी थी और ड्राइवर गाड़ी पर कपड़ा मार रहा था।
घण्टी बजाते ही पन्द्रह वर्षीया एक युवती, जो शक्ल सूरत से आदिवासी दिख रही थी, ने दरवाज़ा खोला।
रवि जी हैं?
हैं...मैं पूछती हूँ।
ड्राइंगरूम में नाश्ता करते हुए रवि ने सुधांशु की आवाज़ पहचान ली थी। उसने वहीं से आवाज़ दी, आ जाओ सुधांशु।
सुधांशु को देख रवि उठ खड़ा हुआ, अरे...बाहर से आ रहे हो या प्रीति ने घर से निकाल दिया?
बनारस से आ रहा हूँ। अपने स्वभाव के विपरीत वास्तविकता छुपान के लिए सुधांशु को झूठ बोलना पड़ा।
खैरियत तो है?
मां बीमार हैं।
क्या हुआ आण्टी को?
डाक्टरों ने कैंसर बताया है।
ओह...। कुछ देर तक रवि चुप रहा फिर पत्नी से बोला, जो सुधांशु से हाथ जोड़कर नमस्कार कर रही थी, बीना, सुधांशु के लिए नाश्ता लाओ।
नहीं भाई साहब...मैं दफ़्तर जाउंगा...नाश्ता कर चुका हूँ।
मैं तुम्हे दफ़्तर छोड़ दूंगा...नाश्ता न सही एक कप चाय या कॉफी तो ले ही सकते हो...।
कॉफी ले लूंगा।
बीना...जल्दी कॉफी बनवाओ। रवि ने घड़ी देखी...समय हो रहा है। वह सुधांशु की ओर मुड़ा और उसकी माँ के इलाज के विषय में चर्चा करने लगा।
कॉफी आने के बाद रवि ने विषय बदलते हुए पूछा, प्रीति कैसी है?
ठीक है। यह कहते हुए सुधांशु का चेहरा विवर्ण हो उठा। रवि ने इस पर ध्यान दिया। लेकिन बोला नहीं।
'कुछ गड़बड़ है...सुधांशु कुछ छुपा रहा है।' रवि ने सोचा।
ट्रेन से आए? रवि ने पूछा।
हाँ, लेट थी।
रवि मुस्कराया। जिसे सुधांशु ने देखा और समझ गया कि रवि ने सोच-समझकर यह बात पूछी थी। ट्रेन से आया व्यक्ति इतना धुला-पुछा नहीं हो सकता।
दफ्तर कैसा चल रहा है?
कोई समस्या नहीं है।
तुम्हारा पी.डी., सुनते हैं बहुत भ्रष्ट है।
मुझसे क्या मतलब। आप जानते हैं कि इस देश में पचास प्रतिशत ब्यूराक्रेट्स भ्रष्ट हैं, जिनमें दस प्रतिशत ऐसे हैं जो करोड़ों में खेल रहे हैं और चूंकि वे मंत्रियों की मिलीभगत से खा-कमा रहे हैं, इसलिए उनके विरुध्द कुछ नहीं होता, जबकि फंसते वे हैं जो कम कमा पाते हैं।
भ्रष्टाचार जिन्दाबाद सुधांशु। रवि ने कॉफी का प्याला मेजपर रखते हुए कहा, एक अज्ञात पत्र गृहमंत्री के पास आया था तुम्हारे पी.डी. के विरुध्द, क्या नाम है उसका...?
चमन लाल पाल...।
हाँ, उसके भ्रष्टाचार के विरुध्द सी.बी.आई चांज के लिए... । मेरे पास से गुजरा ...मैंनें अपनी टिप्पणी देकर आगे भेज दिया...वापस लौटकर मेरे पास नहीं आया। क्या एक्शन हुआ...पता नहीं।
उसकी पहुँच ऊँची है...मंत्रियों तक...।
चलें...। रवि उठ खड़ा हुआ।
मैं यह सूटकेस छोड़ जा रहा हूँ। शाम आकर ले जाऊँगा।
बीना, रवि का सूटकेस संभालकर रखवा देना। रवि सुधांशु की ओर मुड़ा, आओ चलें।
रास्ते में रवि और सुधांशु में मात्र इतनी ही बात हुई कि रवि ने सुधांशु की माँ के इलाज के विषय में पुन: चर्चा की और जानना चाहा कि डाक्टरों ने क्या राय व्यक्त की थी।
अधिक संभावना नहीं है...अधिक से अधिक चार माह। तकलीफ पहले से ही रही होगी...मां ने या तो छुपाया या उन्हें पता ही नहीं चला।
पता ही नहीं चला होगा। कुछ रुककर, मानो कहने में रवि को संकोच हो रहा था, उन्हें यहाँ एम्स में दिखा दो...।
सोचता मैं भी हूँ। लेकिन समस्या यह है कि माँ आना नहीं चाहतीं। वह घर के पास...।
मैं समझ सकता हूँ। पुराने लोगों को अपनी मिट्टी से अधिक ही प्यार होता है। गांव-घर छोड़ना नहीं चाहते...मेरे मां-पिता का भी यही हाल है। आये तो एक सप्ताह में ही भागने की सोचने लगते है॥
सर को कहाँ छोड़ना है, सर? ड्राइवर ने सड़क पर नजरें गड़ाए हुए पूछा।
के'ब्लॉक...।रवि बोला,पहले सुधांशु को छोड़ दो...।
जी सर।
ड्राइवर ने तीन मूर्ति की ओर गाड़ी मोड़ी और सेनाभवन के पास से होते हुए पांच मिनट में उसने के' ब्लॉक के गेट पर गाड़ी रोक दी।
मिलते रहा करो सुधांशु...मेरी व्यस्तता तो तुम जानते ही हो...।
जी भाई साहब। सुधांशु ने रवि से हाथ मिलाया और गाड़ी से उतर ऑफिस की ओर बढ़ा। वह गेट में प्रवेश करने ही वाला था कि उसकी नज़र मस्जिद के पास खड़े अरुण कुमार भट्ट पर पड़ी। भट्ट के हाथ में चमकता हुआ ब्रीफकेस था। उसके साथ दो लोग खड़े हुए थे, जिनके हाथ में चमड़े के बैग थे। भट्ट ने उसे देखा लेकिन अनदेखा करता हुआ दोनों व्यक्तियों से बातें करता रहा।
'कांट्रैक्टर्स के प्रतिनिधि होंगे।' सोचता हुआ सुधांशु ऑफिस की गैलरी में आ गया। वह अपनी सीट पर जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने ही वाला था कि सामने बाथरूम से प्रदीप श्रीवास्तव को निकलते देखा। उसने गुडमॉर्निंग कहा, लेकिन श्रीवास्तव यूं तना हुआ अपने चेम्बर की ओर मुड़ गया मानो उसने सुधांशु को देखा ही नहीं था।
'ये सरकारी भैंसे हैं। औगी मारने पर ही सुनते हैं...जल्लाद हैं...कल कैसे मीठे स्वर में बातें कर रहा था...ओर कुछ देर बाद कैसे गिरगिट की भांति इसने रंग बदल लिया था...।' उसने सोचा।
वह सीट पर पहुँचा तो पाया कि रात भर में ही मेज पर धूल जमा हो चुकी थी। दरअसल उसके पीछे खिड़की में कूलर के अगल-बगल कुछ लगाया नहीं गया था। वहाँ से हवा के साथ धूल आती थी। खिड़की पर पर्दा भी नहीं था। सुबह से दोपहर तक वहाँ धूप विराजमान रहती थी। गर्मी थी...कूलर था, लेकिन उसमें पानी नहीं था। उसने निर्णय कर लिया था कि वह उसमें पानी भरने के लिए किसी से नहीं कहेगा। सिर पर पंखा न होता तो वहाँ बैठना कठिन होता। उसके पास पुराना कपड़ा भी नहीं था, जिससे मेज की धूल झाड़ लेता। तभी रामभरोसे प्रकट हुआ, सर, चाय...पानी?
रामभरोसे जी... कोई गंदा कपडा होगा तो देंगे।
सर काम बताएँ।
मेज साफ़ करना है।
अभी किये देता हूँ सर। रामभरोसे गंदा कपड़ा ले आया, जो स्याही से आधा भीगा हुआ था, लेकिन स्याही सूखी हुई थी। मेज साफ़ कर रामभरोसे ने पुन: पूछा, सर चाय!
पानी ले आओ... बस...। सुधांशु ने ड्राअर से निकालकर जग और गिलास रामभरोसे को देते हुए कहा, कोई परेशानी न हो तो!
सर, परेशानी कैसी! यह तो हमारा फ़र्ज़ है सर। कल तक मैं चपरासी ही था। परीक्षा पास की और बन गया रिकार्ड क्लर्क।
बहुत अच्छा हुआ।
सर, यह सब न होता। सुधांशु के कुछ निकट आकर फुसफुसाते हुए स्वर में रामभरोसे बोला, परीक्षा मुख्यालय में हुई थी...भट्ट की दाल नहीं गली। यहाँ होती तो सर मुझ जैसे छोटे लोगाें से भी पास करवाने के नाम पर दो-चार हज़ार रुपये वह ऐंठ लेता।
सुधांशु चुप रहा। 'दीवारों के भी कान होते हैं...फिर यह तो रिकार्ड रूम है, जहाँ रैक्स की ही दीवारें हैं। इस रामभरोसे से भी कल ही परिचय हुआ है...हो सकता है इसे मेरी जासूसी के लिए पाल ने लगाया हो।
पानी ले आओ।
जी सर, अभी लाया। रामभरोसे दोड़ गया और पांच मिनट में लौट आया। गिलास मेज पर और जग स्टूल पर रखता हुआ बोला, सर, आप बुरा न मानें तो कुछ कहूँ।
सुधांशु रामभरोसे की ओर देखने लगा।
सर आपके साथ जो हुआ...अच्छा नहीं हुआ। पूरे दफ़्तर के बाबुओं में गुस्सा है, लेकिन वे मजबूर हैं। यहाँ यूनियन नहीं है और होती भी तो वे आपके लिए नहीं लड़ते। वे स्टॉफ के लिए लड़ते। पाल हरामी...। उसने ज़ुबान काटी, और ये श्रीवास्तव महा कमीना ...घुन्ना और आप इसे कम न समझेंगे सर। जड़ें काटने में यह सबसे आगे रहता है...।
सुधांशु फिर भी चुप रहा और सोचता रहा, 'अमूमन स्टॉफ के लोग अफसरों के सामने ऐसी बातें करने से बचते हैं...अनुशासनहीनता है यह...लेकिन शायद रामभरोसे भी मेरी तरह ही दुखी है...इसीलिए उसने यह सब इस भाषा में कहने का साहस किया।
सर, चाय ले आऊँ?
नहीं। सुधांशु ने उसे पुन: रोका, आपको पीना है?'
ंअभी नहीं सर।
सर, एक बात बताऊँ!
हाँ।
आप यह न सोचेंगे कि स्टॉफ के लोग आपसे कन्नी काटते हैं। बड़ी इज़्ज़त है सभी की नजरों में आपकी...सर आप पहले अफसर हैं जिन्होंने ठेकेदारों की मनमानी रोकने की कोशिश की और इतने कम समय में आप लोंगो की नजरों में भले और ईमानदार अफसर के रूप में जम गए... लेकिन ये पाल, श्रीवास्तव और भट्ट ...इनके भय से लोग न आपकी सराहना कर पाते हैं और न आपके सामने अपना आदर प्रकट कर पाते हैं। इनके जासूस दफ़्तर में फैले हुए हैं...छोटे-से लाभ के लिए भी लोग जासूसी करते हैं। भट्ट किसी को एक बोतल रम प्रर विभाग की कैण्टीन से दिला देता है और वह भी मुफ्त में नहीं, प्रर विभाग के किसी जवान के कोटे से उसको मिलने वाले भाव पर...सर आप जानते हैं कि बाज़ार में वही रम एक सौ दस-बीस की मिलती है जबकि एक जवान को पचास-पचपन की। साल में एक रम और वह आदमी भट्ट के लिए काम करने लगता है।
रामभरोसे ने भट्ट को उधर ही लपककर आते देखा और चुप हो गया। भट्ट लंबे डग भरता झूमता हुआ आया और सुधांशु को नमस्कार कर आफिस आर्डर उसके सामने रखकर तनकर खड़ा हो गया। ऑफिस आर्डर सुधांशु और विनीत खरे के काम के बटवारे को लेकर था। विनीत खरे को ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन के साथ प्रशासन का काम भी सौंपा गया था। उसे वे सभी अनुभाग दिए गये थे, जिन्हें भट्ट संभालता था। साथ में कुछ अतिरिक्त अनुभाग भी थे। सुघांशु को अब रिकार्ड सेक्शन और हिन्दी सेक्शन का इंचार्ज बनाया गया था। हिन्दी सेक्शन तक बात ठीक थी, हालांकि वह सेक्शन एक हिन्दी अधिकारी के अधीन था, जिसे सीधे श्रीवास्तव को रपट देनी होती थी। हिन्दी अनुभाग का काम बाहर भेजे जाने वाले और बाहर से आने वाले कुछ पत्रों के अंग्रेज़ी से हिन्दी और कभी-कभी हिन्दी से अंग्रेज़ी अनुवाद करना होता था। वर्ष में एक बार हिन्दी की कार्य प्रगति रपट मंत्रालय को भेजनी होती थी और दो या तीन वर्षों में हिन्दी संसदीय समिति की बैठक आयोजित कर दफ़्तर की हिन्दी प्रगति प्रदर्शित करने का काम करता था।
हिन्दी संसदीय समिति विशेषाधिकार प्राप्त समिति थी, जिससे सम्बध्द लोग देश के विभिन्न कार्यालयों के दौरे करते थे। उन्हें पंच सितारा होटल में ठहराया जाता था। उनको हवाई यात्रा का संवैधानिक अधिकार प्राप्त था। प्राय: गर्मियों में वे ठण्डी जगहों में अवस्थित कर्यालयों का निरीक्षण करते, जबकि सर्दियों में दक्षिण भारत जाते। जिस स्टेशन पर होते हैं कार्यालय उन्हें उस स्थान और उसके आसपास के क्षेत्रों का भ्रमण करवाता है। आभिप्राय यह कि हिन्दी संसदीय समिति को नियमानुसार जो सुविधाएँ मिलनी चाहिए विभाग या कार्यालय उससे कई गुना अधिक उपलब्ध करवाता है। बड़ा से बड़ा फन्ने खां अफसर, अपने कार्यालय में जिसका आतंक व्यप्त होता है, हिन्दी संसदीय समिति के समक्ष हाथ जोड़े एक टांग पर खड़ा रहता है। समिति का कोप भाजन बनने से बचने के लिए यदि समिति का कोई सदस्य उसे मुर्गा बन जाने के लिए कह दे तो वह बन जाने को तैयार रहता है। समिति यदि उसके विरुध्द केवल यह लिख दे कि उक्त अधिकारी ने अपने कार्य में कोताही बरती...हिन्दी के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया तो उसके लिए मंत्रालय उसे कठोर दण्ड देने के लिए अपनी कमर कस लेता है। उसे स्थानांतरण से लेकर डिमोशन तक का सामना करना पड़ सकता है।
सुधांशु के हिन्दी सेक्शन का कार्यभार सौंपने के पीछे पाल की विशेष योजना थी। दो महीने के अंदर हिन्दी संसदीय समिति का दौरा उस कार्यालय में होना था। तारीख तय हो चुकी थी और ऐसा पहली बार हुआ था कि समिति गर्मियों मेें दिल्ली के उस कार्यालय का दौरा कर रही थी।
सर। तने हुए भट्ट बोला।
सुधांशु ने ऑफिस आर्डर पर सरसरी दृष्टि डाली और हस्ताक्षर कर दूसरी प्रति भट्ट को लौटा दी। रामभरोसे भट्ट के आते ही अपनी सीट पर जा बैठा था।
ऑफिस आर्डर मेज पर रख सुघांश सोचने लगा, 'कितना विचित्र काम...हिन्दी सेक्शन ठीक... रिकार्ड सेक्शन ...दोनों ही सेक्शन सामने हैं। लेकिन डिस्पैच-रिसीप्ट देखने का काम एक सहायक निदेशक करे...यह अपमान ही है मेरा। जिस कार्य को एक वरिष्ठ बाबू या अधिक से अधिक अनुभाग अधिकारी को करना चाहिए वह मैं...एक सहायक निदेशक...।' क्रोघ की लहर उसके मस्तिष्क में उभरी, लेकिन तभी मन ने कहा, 'सुघांशु, धैर्य से काम लो... आगे पता नहीं और कैसी स्थितियों का सामना करना होगा...धैर्य से ही उन स्थितियों से जूझा जा सकता है। फिर क्रोध तो तुम्हारी प्रकृति नहीं...और कर भी लो तो क्या उससे कुछ होने वाला है।' वह कुर्सी से उढ़क गया और सोचने लगा, कितना खराब वक़्त है मेरा...मां मृत्यु से लड़ रही है। मैं उसके पास नहीं रह सकता...दफ्तर मुझे हर क़दम पर अपमानित करने पर तुला हुआ है और प्रीति के साथ जीवन जीने का स्वप्न भी कमजोर कांच के बर्तन की भांति टूट कर बिखर गया है। विभाग का चयन मैं नहीं कर सकता था। वह अधिकार मुझे नहीं था। मेरी रैंक से ही तय होना था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी इतने गहरे तक जमा हुआ है। उसके विरुध्द सोचने-कुछ करने वाले को ही रास्ते से हटा दिया जाता है। लेकिन मुझे इससे इतनी पीड़ा नहीं...मुझ जैसे कितने ही और होंगे जो मुझसे भी अधिक अपमान, पीड़ा और प्रताड़ना सह रहे होंगे...लेकिन प्रीति...।'
उसे लगा कि मस्तिष्क शून्य हो गया है। प्रीति का चेहरा उसके सामने घूमने लगा।
'मुझे शाम फ़्लैट में जाना चाहिए? कहते हैं पति-पत्नी में नोक-झोंक होती ही रहती है। लेकिन क्या वह मात्र नोक-झाेंक थी। प्रीति ने स्पष्ट संकेत दिया कि मैं उसके योग्य नहीं। उसने यह भी जता दिया कि मीणा के साथ उसकी नजदीकी अपराध नहीं। शराब का गिलास...मुचड़ा बिस्तर...बेडरूम में रखे कॉफी के प्याले...निश्चित ही प्रीति के योग्य मैं नहीं था। हालांकि उसके पिता एक अच्छे छवि के अधिकारी थे...मेरी ही भांति शेल्फमेड और प्रीति अपने पिता से प्रभावित भी थी, लेकिन यह सब शादी तक ही रहा। सही कहना होगा कि आई.ए.एस. में आने तक रहा, लेकिन जैसे ही उसका चयन हुआ उसका रंग बदलने लगा था।'
'भावुक होना अच्छा है, लेकिन अति भावुक व्यक्ति सदैव धोखा खाता है। विश्वासघात का शिकार होता है। अति भावुक सामने वाले व्यक्ति को समझने का प्रयास ही नहीं करता, वह सहजता से उस पर विश्वास कर लेता है और दूसरा उसका इस्तेमाल कर अनुपयोगी होने पर उसे दूध की मक्खी की भांति अपने से अलग कर देता है। कई बार अपमानित करके... । प्रीति ने ऐसा क्यों किया...मैं उसे कितना चाहता था, लेकिन देहरादून पोस्ट होते ही उसने एक दूरी बनानी प्रारंभ कर दी थी। मैंने समझा क्यों नहीं! जिन बातों के लिए प्रारंभ में मैं उसे आगाह करता था और वह हंसी में उड़ा देती थी...बाद में उसे कचोटने लगी होंगी। मेरा गरीब किसान परिवार से होने के विषय में उसने देहरादून पोस्ट होने के बाद सोचना प्रारंभ किया होगा। यदि ऐसा था भी तो वह मुझे कह देती...मैं उसके जीवन से अपने को अलग कर लेता, लेकिन उसे मीणा जैसे धूर्त और लंपट के साथ नैकट्य स्थापित नहीं करना चाहिए था। कितना पीड़ाजनक है यह सब।' एक दीर्घ निश्वास लिया सुधांशु ने।
सर, अब गाज मुझ पर आ गिरी।
हुंह। विचार श्रृखंला टूट गयी। रामभरोसे सामने खड़ा था।
सर, भट्ट ने अभी-अभी मुझे बुलाकर हुक्म दिया कि मैं दिल्ली केैण्ट चला जाऊँ...वहाँ के सहायक निदेशक कार्यालय में ज्वायन करने...।
हुंह...।
सर, आप जानते हैं...ऐसा क्यों किया गया!
समझ सकता हूँ। अभी भी अपने विचारों में खोये हुए सुधांशु ने कहा।
सर, श्रीवास्तव से कहकर भट्ट ने मेरा ट्रांसफर करवा दिया है। आपसे बातें करते देखा था उसने...श्रीवास्तव ने मैडम प्रीति दास को फ़ोन करके कहा...सर।
हूँ...अ...। प्रीति का नाम सुन सुधांशु ने रामभरोसे की ओर देखा।
सर, प्रीति मैडम से आप कह दें...वह चाहें तो मुझे मुख्यालय बुला लें...। मेरे लिए दिल्ली केैण्ट दूर पड़ेगा। मैं फरीदाबाद रहता हूँ सर।
रामभरोसे, आप अभी वहीं जाकर ज्वायन कर लो। हालात को समझो...।
सर...। रामभरोसे रुआंसा हो उठा।
मैं ठीक कह रहा हूँ।
जी सर...। रामभरोसे हाथ मलता हुआ वहाँ से चला गया।
उसके जाते ही सुधांशु पुन: विचारों की अंधी गुफा में प्रवेश कर गया।