गलियारे / भाग 3 / रूपसिंह चंदेल

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सुधांशु कुमार दास बनारस के एक गाँव का रहने वाला था। पिता सामान्य किसान। इण्टर के बाद जब सुधांशु ने पढ़ना चाहा, पिता ने आर्थिक विवशता प्रकट करते हुए पढ़ाने से इंकार कर दिया। लेकिन सुधांशु अपनी प्रतिभा को गाँव में पड़े रहकर नष्ट नहीं करना चाहता था। उसने किसी प्रकार पिता को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वे उसे केवल दिल्ली तक जाने के लिए पैसों की व्यवस्था कर दें। बहुत कसमसाहट और जद्दोजहद के बाद पिता तैयार हुए। एक बीघा खेत दो वर्ष के लिए रेहन रखे गए। सुधांशु ने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी। ट्रेन में उसकी मुलाकात रवि कुमार राय से हुई जो पटना से ट्रेन में चढ़ा था। यह एक संयोग था। रवि का आरक्षण जिस गाड़ी से था वह उससे छूट गयी थी। उसके पास अगली ट्रेन में अनारक्षित यात्रा करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। सुधांशु रवि के डिब्बे में चढा और उसके बगल में जगह देखकर बैठ गया। लगभग दो घण्टे दोनों के संवादहीनता में बीते। इस दौरान रवि फ्रण्ट लाइन पत्रिका पढ़ता रहा। पढ़कर जब वह पत्रिका बैग में रखने लगा, सुधांशु ने पत्रिका पढ़ने की इच्छा प्रकट की। फ्रण्ट लाइन से सुधांशु का वह पहला परिचय था।

श्योर रवि ने पत्रिका उसे थमाते हुए कहा।

सुधांशु ने पत्रिका लेते हुए पूछा, आप दिल्ली जा रहे हैं?

जी।

बात इससे आगे नहीं बढ़ी। सुधांशु पत्रिका के आलेखों से बहुत प्रभावित हुआ, लेकिन उसके मस्तिष्क में एक ही बात घूम रही थी कि वह साथ वाले युवक से दिल्ली के विषय में, खासकर दिल्ली विश्वविद्यालय के विषय में जानकारी कैसे प्राप्त करे! पढ़ते हुए भी वह आलेखों को आधा अधूरा ही पढ़ता रहा। लगभग एक घण्टा बीत गया। अंतत: संकोच तोड़ वह बोला मैं भी दिल्ली जा रहा हूँ।

हुंह...। रवि ने उत्सुकता नहीं दिखाई। सुधांशु का दिल बैठ गया। आध घण्टा उसने इस उहापोह में बिता दिए कि साथ बैठे युवक से वह कुछ पूछे और वह उत्तर ही न दे। लेकिन उस अनजान शहर के बारे में जानना आवश्यक था उसके लिए। उसने अब तक केवल कस्बे को ही जाना था।

आप दिल्ली में जॉब करते हैं? पूछते हुए सुधांशु के चेहरे पर सकुचाहट थी।

नहीं। युवक के संक्षिप्त उत्तर ने उसे पुन: निर्वाक कर दिया। कुछ देर बाद फिर द्विविधा में बीते। उसने फिर साहस बटोरा और बोला, दरअसल मैं पहली बार दिल्ली जा रहा हूँ।

अच्छा। सुधांशु को लगा कि जैसे युवक उससे बात करने का इच्छुक नहीं है।

कुछ पल और बीते।

आप वहाँ बहुत दिनों से रह रहे हैं?

छ: वर्षों से। सधांशु के लिए यह राहत की बात थी, क्योंकि युवक के शब्दों की संख्या बढ़ी थी। उसका उत्साह भी बढ़ा।

मैं वहाँ विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाहता हूँ, लेकिन मुझे वहाँ के विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है। आप कुछ गाइड कर देंगे?

कितने प्रतिशत माक्र्स हैं?

सेवण्टी सिक्स...।

ओ.के.। युवक ने पुन: चुप्पी ओढ़ ली। ट्रेन धड़धड़ाती रही। डिब्बे में यात्रियों का शोर था। दो यात्री सीट को लेकर झगड़ रहे थे और सुधांशु के चेहरे पर तनाव था। वह रह-रहकर पास बैठे युवक के चेहरे पर नजरें डाल लेता और फिर बिना पढ़े पत्रिका के पन्ने पर टिका लेता। साथ बैठा युवक कुछ सोच रहा था।

बहुत देर की चुप्पी के बाद युवक बोला, साइंस थी...या...।

आर्ट्स...।

कॉलेजों के फार्म भरने होंगे...।

कहाँ से मिलेंगे फार्म?

मिल जाएँगे...कैम्पस में ही... कल से फार्म भरने का प्रॉसेस शुरू हो रहा है। सही समय पर दिल्ली जा रहे हो। सुधांशु को लगा कि युवक अब अपने खोल से बाहर आ रहा है।

मैं अंदाज़ से ही जा रहा था। कभी अख़बार में पढ़ा था कि जून में दिल्ली विश्वविद्यालय के एडमिशन फार्म भरने का काम शुरू होता है। याद था...।

किस विषय में प्रवेश चाहते हो? सुधांशु को युवक अब बेहतर मूड में दिखा।

अंग्रेजी या हिस्ट्री ऑनर्स।

किस कॉलेज में...?

मुझे वहाँ के कॉलेजों के विषय में बिल्कुल ही जानकारी नहीं है।

कैम्पस के किसी न किसी कॉलेज में आपको प्रवेश मिल जाएगा। लेकिन फार्म सभी कॉलेजों के भरने होंगे...बल्कि कैम्पस के बाहर के कॉलेजों के भी...।

जी... । सुधांशु क्षणभर बाद बोला, स्टेशन से सीधे विश्वविद्यालय चला जाऊँगा। उसने युवक की ओर देखा, कितनी दूर होगा स्टेशन से...?

पहली बार दिल्ली जा रहे हो?

जी ...बताया था। कस्बे से बाहर दो बार निकला...बनारस गया था। गाँव से कस्बा तीन मील है...जहाँ मेरा इण्टर कॉलेज है। पैदल आना-जाना होता था। बनारस भी कॉलेज की ओर से गया था... उसे भी अधिक नहीं जान पाया।

ओह...। युवक ने सुधांशु के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, आप बनारस के हैं...?

जी। कुछ रुककर सुधांशु बोला, जी, बनारस से मेरा गाँव पचास किलोमीटर दूर है।

दिल्ली में कोई जानकार नहीं है?

जी नहीं... पहले ही कहा था... मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित-अनजान शहर है।

युवक ने पुन: दीर्घ निश्वास ली।

आप कहाँ के रहने वाले हैं?

रांची का ...पटना में पढ़ता था।

दिल्ली में आप...?

सुधांशु की बात छीन ली युवक ने, मैंने वहाँ से अंग्रजी में एम.ए. किया है। अब आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा हूँ।

वेरी गुड। सुधांशु के मुंह से अनायास निकला। वह समझ नहीं पाया कि क्या कहे। वह युवक के चेहरे की ओर देखता रहा और सोचकर प्रसन्नता अनुभव करता रहा कि संभवत: वह एक भावी आई.ए.एस. के साथ बैठा है।

काफी देर बाद सुधांशु बोला, सर, दिल्ली में कोई ऐसी जगह... मेरा मतलब है...धर्मशाला जैसी कोई जगह, जहाँ मैं महीना-दो महीना ठहर सकूं।

यार, तुम मुझे 'सर' क्यों कह रहे हो? युवक सहज स्वर में बोला, मैं तुम्हारी समस्या समझ सकता हूँ... पहली बार जा रहे हो न !

जी। सुधांशु को युवक के तुम में आत्मीयता दिखी।

मेरा नाम रविकुमार राय है। तुम मेरे साथ चल सकते हो। कोई परेशानी नहीं।

आप मेरे लिए परेशानी...।

कोई परेशानी नहीं...मैं विश्वविद्यालय यूनियन में सचिव हुआ करता था...एक-दूसरे की सहायता से ही दुनिया चल रही है। युवक अब पूरी तरह खुल गया था।

मैं...मैं...। सुधांशु भावुक हो उठा।

मित्र, परेशान न हो... मेरे साथ चलना...बाद में कोई न कोई व्यवस्था हो जाएगी।