गलियारे / भाग 40 / रूपसिंह चंदेल
दिनभर सुधांशु प्रीति और अपने विषय में सोचता रहा। कार्यालय में उसके साथ जो हो रहा था उसे वह भूल गया था। रामभरोसे के जाने के बाद उसके लिए चाय या पानी ला देने वाला भी अब कोई नहीं था। उसके स्थान पर एक नया रिकार्ड क्लर्क आया, लेकिन वह उसे नमस्ते कहकर नदारत हो गया था। जब भी वह कार्यालय के बारे में सोचना प्रारंभ करता प्रीति का व्यवहार याद आ जाता या माँ का चेहरा घूमने लगता। 'वह कैसी होगी...पिता अकेले क्या कर पा रहे होंगे?' वह सोचने लगता। दिनभर के चिन्तन के बाद उसने निर्णय किया कि वह एक क्लास वन अधिकारी है...उसके जूनियर विनीत खरे को यदि चपरासी उपलब्ध है तो उसके लिए भी एक चपरासी की व्यवस्था की जानी चाहिए। साथ ही उसे भी कमरे में बैठने का अधिकार है। वह उठकर हिन्दी कक्ष में गया। उसने हिन्दी अधिकारी मुदित शर्मा को अपने पास आने के लिए कहा। शर्मा उसके पीछे उसकी सीट तक आया। स्वयं सीट पर बैठते हुए सुधांशु ने कहा, शर्मा जी, मेरी ओर से मेरे लिए एक चपरासी और बैठने के लिए कमरे का उल्लेख करते हुए एक नोट तैयार कर लाएँ।
जी सर।
अभी तैयार कर लायें और हिन्दी की जो भी प्रगति रिपोर्ट्स हैं वह कल प्रस्तुत करें।
यस सर।
शर्मा चला गया तो वह पुन: सोचने लगा कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। प्रीति को समझाया जा सकता है। दोनों के जीवन का प्रश्न है। ग़लती इंसान से ही होती है, लेकिन ग़लती करने वाले को संभलने के अवसर भी दिए जाने चाहिए और उसे भी इस विषय में सोचते हुए अपने को संभाल लेना चाहिए। अल्पना शर्मा का मामला उसके सामने है। मुझसे पांच वर्ष सीनियर है। इस समय चण्डीगढ़ में उपनिदेशक है। इंटेलीजेंस ब्यूरो के एक बड़े अधिकारी की बेटी... दुबली और सुन्दर अल्पना को जब मैंने देखा था तब वह बेहद स्मार्ट थी। ओ.एन.जी.सी के किसी अधिकारी ...कोई श्रीवास्तव था...से प्रेम विवाह किया था। एक बच्ची है अल्पना के, लेकिन वैवाहिक जीवन दो वर्ष से अधिक नहीं चला। इस विभाग के लंपटों के संपर्क में आयी और एक बार पैर फिसला तो अपने को संभाल नहीं पायी। फिसलती गयी और आज उसकी स्थिति यह है कि यूं चलती है मानो क्षय रोग की मरीज है।'
'वैसे लंपट किस विभाग में नहीं हैं। पुरुष प्रकृति से ही लंपट होता है और ऐसे पुरुषों की संख्या नगण्य है जो स्त्री के प्रति सहज रह पाते हैं। लेकिन प्ररवि विभाग, खासकर अधिकारी वर्ग में लंपटों की संख्या अधिक है। मैं पटना में था तब मुझे बताया गया था कि प्रर विभाग में ऑडिट में जाने वाले अधिकारियों को प्रर विभाग के लोग न केवल थ्री स्टार होटलों में ठहराते हैं बल्कि होटल मैनेजर के माध्यम से वे यह संदेश भी देते हैं कि उनके रात मनोरंजन के लिए समस्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं। ऐसा इसलिए कि प्रर विभाग की खरीद में वे जो करोड़ों के घोटाले करते हैं उसे ऑडिट अधिकारी बिना किसी नुक्ताचीनी के पास कर दें। एक बार भी यदि अधिकारी उसके विरुध्द टिप्पणी देगा तो महीनों ही नहीं वर्षों के लिए मामला लटक जाने के ख़तरे के साथ ही घोटालेबाज प्रर विभाग के अधिकारियों की नौकरियों पर भी बन आने का ख़तरा होता है। प्रर विभाग द्वारा समस्त सुविधाओं को भोगने वाला अधिकारी कैग के ऑडिट में उन अनियमिताओं से बचने के लिए उन्हें रास्ता सुझाता है और बदले में चलते समय अपनी जेब भी गर्माता है। जेब उसके साथ गये बाबुओं की भी गर्मायी जाती है। रात मनोरंजन के साधन भले ही उन्हें उपलब्ध न करवाये गये हों।'
'भ्रष्टाचार में संपूर्ण व्यवस्था डूबी हुई है।'
सर नोट...। हिन्दी अधिकारी की आवाज़ सुनकर सुधांशु चौंका। उसने नोट पढ़ा और हस्ताक्षर करके उसे तुरंत श्रीवास्तव के पास भेज देने का निर्देश हिन्दी अध्किारी को दिया। फिर घड़ी पर दृष्टि डाली...सवा पांच बजे थे। 'मुझे लोधी रोड नहीं जाना चाहिए। मुझे कोई होटल खोजना होगा। लेकिन मेरा अधिकांश सामान लाधी रोड में ही है।' उसने सोचा, 'किसी दिन लंच के बाद आधा दिन का अवकाश लेकर सामान होटल ले जाउंगा।'
छ: बजे वह उठा और नाक की सीध में गेट की ओर बढ़ा। बाबुओं की भीड़ बसों के लिए लपक रही थी। बस उसे भी लेनी थी, लेकिन उसने कुछ देर पैदल चलकर केन्द्रीय सचिवालय से बस लेने का निर्णय किया और साउथ ब्लॉक के गेट की ओर बढ़ा।
सुधांशु ने करोल बाग़ के एक होटल में कमरा लिया। होटल सामान्य श्रेणी का था। अच्छे में वह रह नहीं सकता था। रात ढाबे में खाना खाने के बाद उसने बनारस उस अस्पताल में फ़ोन मिलाया जहाँ माँ इलाज के लिए भर्ती थीं। बहुत देर बाद नर्स की आवाज़ सुनाई दी। उसने माँ का वार्ड, कमरा नंबर और नाम बताकर अनुरोध किया कि वह उसके पिता से बात करवा दे, जो वहीं पास ही वार्ड के बाहर मरीजों के रिश्तेदारों के बीच उसे मिल जाएँगे।
कुछ देर तक फ़ोन होल्ड करवाने के बाद नर्स बोली, सुबोध दास नाम का कोई व्यक्ति बाहर नहीं है।
सिस्टर, आप एक बार माँ के कमरे में जाकर देख लें...प्लीज ...मैं दिल्ली से बोल रहा हूँ।
क्षणभर की चुप्पी के बाद रिसीवर में आवाज़ गूंजी, उन्हें आज छुट्टी दे दी गई है।
उसने फ़ोन काट दिया और होटल लौटकर बिस्तर पर ढहकर मां, पिता और अपने भावी जीवन के विषय में सोचने लगा। उसने सोने का प्रयास किया, लेकिन नींद नहीं आयी। माँ और पिता के चेहरे सामने आ उपस्थित हुए। खेतों में काम करती मां, घर में खाना पकाती, घर की सफ़ाई करती मां, उसे डांटती और प्यार करती मां, पिता के साथ जानवरों के लिए चारा-पानी में उलझी माँ और पिता। पिता के चेहरे पर दाढ़ी उगी हुई थी जब वह माँ को देखने गया था। दुबले हो गए थे।
'मैंने कोन-सा सुख दिया मां-पिता को। मेरे लिए... मेरी ज़िन्दगी बनाने के लिए कौन-से कष्ट नहीं सहे उन्होंने...जो नौकरी मेरी जैसी पृष्ठभूमि वाले युवकों के लिए स्वप्न होती है, उसे पाकर भी और उसे पाने का श्रेय मां-पिता के खून-पसीना बहाते उनके अथक श्रम को है, मैंने उन्हें क्या दिया! पटना लाकर उन्हें रखना चाहा, लेकिन रख नहीं सका। क्या वे सच ही रहना नहीं चाहते थे या प्रीति के अपने प्रति शुष्क व्यवहार ने उन्हें गाँव जाने के लिए प्रेरित किया था। मुझे उसी समय कारण जानना चाहिए था, लेकिन तब कार्यालय के प्रति...विभाग के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा ने इस दिशा में सोचने के अवसर ही नहीं दिए थे, लेकिन विभाग ने मुझे क्या दिया!'
'मुझे पुन: अवकाश के लिए आवेदन करना चाहिए।' वह सोचता रहा। अवकाश के लिए आवेदन करते ही पाल बौखला उठेगा, फिर...गांव में माँ के स्वास्थ्य की जानकरी प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। बनारस में प्ररवि का कोई कार्यालय नहीं है...होता तो क्या मैं वहाँ के अधिकारी इंचार्ज को अनुरोध कर सकता था कि वह किसी को मेरे गाँव भेजकर माँ के स्वास्थ्य की जानकारी प्राप्त कर मुझे बताए! मेरे प्रति पाल के दुर्व्यवहार की कहानी क्या वहाँ नहीं पहुँचती! इस विभाग के सभी प्रथम श्रेणी अधिकारी देश के किसी भी कोने में किसी अधिकारी के साथ घटित ऐसी बातों को एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचाते रहते हैं। उनमें परनिन्दा सुख की प्रवृत्ति किसी भी आम व्यक्ति जैसी ही होती है। पद ही उनके बड़े होते हैं और उनका यह बड़ापन अपने अधीनस्थों या आम जनता के प्रति गंभीर रहने तक ही होता है। निजी जीवन में वे सब दयनीय और निम्न विचारों का शिकार होते हैं। कोई ही कर्म-धर्म में सामजंस्य बनाकर चलने वाला होता है। शेष सभी उन तमाम अवगुणों का शिकार होते हैं जो किसी भी साधारण जन में पाया जाता है।'
रात दो बजे तक वह करवटें बदलता रहा, सोचता रहा और सामने दीवार पर टंगी घड़ी देखता रहा। आंखें बोझिल हो रही थीं और दो बजे के बाद आंखों की बोझिलता ने कब उसकी सोच प्रक्रिया पर आधिपत्य जमाया वह जान नहीं पाया। वह सोया तो स्वप्नों की दुनिया में प्रवेश कर गया। उसने स्वप्न देखा कि वह गाँव गया है। घर में ताला बंद है। अटैची पड़ोस में रख वह मां-पिता को खोजता खेतों की ओर गया। दूर से ही खेतों में काम करते पिता और माँ दिखायी दिए। पास ही पीपल के पेड़ से बंधे उसके बैल खड़े दिखे और उनके निकट खड़ी थी बैलगाड़ी। यह सब वैसा ही था जैसा उसने कॉलेज जाने से पहले देखा था। उसने तेज चलने का प्रयत्न किया, लेकिन गाँव से नहर तक तेज चलने वाले उसके क़दम भारी हो चुके हैें। वह दौड़ने का प्रयत्न करता है लेकिन दोड़ नहीं पाता। हर क़दम उसे बोझ प्रतीत होता है और माँ तक पहुँचना कठिन। मां-पिता दिख रहे हैं, लेकिन उनके निकट पहुँचने के उसके प्रयत्न व्यर्थ हो रहे हैं। वह चैतू पासी के बाग़ के खिरनी के पेड़ के पास रुक जाता है। गाँव में वही एक मात्र खिरनी का पेड़ था। बचपन में उसने लुक-छिपकर उसकी खिरनी खायी थीं, लेकिन वह पेड़ अब सूख रहा था। पेड़ पर दृष्टि गड़ा वह उस पर अफ़सोस प्रकट करता है और पुन: आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। लेकिन पैर हैं कि उठ ही नहीं रहे। वह नाले के किनारे खड़े शीशम के पेड़ों और राजाराम पासी के खेत के बीच की पगडण्डी पर रुक जाता है और वहीं से पिता को आवाज़ देता है और उसे प्रसन्नता होती है कि पिता ने उसकी आवाज़ सुन ली है। उन्होंने हाथ के इशारे से उसे आने के लिए कहा है और वह आगे बढ़ना भी चाहता है, लेकिन क़दम हैं कि बढ़ ही नहीं रहे। वह परेशान हो उठता है। जितना ही मां-पिता तक पहुँचने का प्रयत्न करता है, उतना ही क़दम भारी प्रतीत होते हैं। वह पुन: चीखकर पिता को आवाज़ देता है।
आवाज का प्रभाव होता है। पिता हाथ में हसिया थामे उसकी ओर आते दिखाई दे रहे हैं। वह प्रसन्न है, लेकिन यह क्या...मां साथ नहीं हैं। पिता निकट आते हैं...और निकट आते हैं। वह भी दो क़दम आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है और पिता और उसके मध्य दस फुट की दूरी रह जाती है। वह चीखकर पूछता है, मां कहाँ हैं पिता जी... कुछ देर पहले वह दिखाई दे रही थीं...लेकिन अब...।
पिता निर्वाक उसे देखते रहते हैं देर तक और वह उत्तर सुनने के लिए विकल उन्हें देखता रहता है। लेकिन तभी पिता गर्दन झुका लेते हैं और वापस जाने के लिए मुड़ जाते हैं। वह चीखकर पुन: पिता से माँ के विषय में पूछना चाहता है, लेकिन पिता जा चुके होते हैं। वह घबड़ा उठता है और उसकी नींद खुल जाती है। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके हृदय की धड़कन तेज थी। उसने आंखें मलीं और घड़ी देखा। पांच बजे थे।
अगले दिन सुधांशु ने रिकार्ड अनुभाग से तार का फार्म मांगकर पिता के नाम माँ के स्वास्थ्य की जानकारी देने के लिए फार्म भरा और रिकार्ड अनुभाग के कलर्क को पेैसे देकर उसे तुरंत भेज देने के लिए कहा। तार में कार्यालय का फ़ोन नंबर लिखकर पिता को कहा कि वह चाहें तो कस्बा जाकर उसे उक्त नंबर पर फ़ोन करके सूचना दे दें।
काम कुछ था नहीं। रिकार्ड सेक्शन का कार्य वह क्या देखता। डाक आती और जाती थी और उसका रिकार्ड तैयार करना वहाँ के ऑडिटर और रिकार्ड क्लर्क का काम था। डाक बाटने के लिए स्टॉफ अलग था और कार्य की प्रगति देखने के लिए इंस्पेक्शन सेक्शन के सेक्शन अफसर को जिम्मदारी सोंपी गई थी। उसने उस सेक्शन अफसर को बुलाकर कहा कि कोई भी डाक, जाने या आने वाली, के वितरण में विलंब नहीं होना चाहिए... और उत्तर में मुंहफट सेक्शन अफसर ने कहा, सर, आज तक ऐसा नहीं हुआ...मैं दो वर्षों से सेक्शन देख रहा हूँ। आगे भी नहीं होगा।
हिन्दी अध्किारी संसदीय समिति सम्बन्धी दो फाइलें उसकी मेज पर रख गया था। उनमें कार्य प्रगति को प्रदर्शित किया गया था। वर्ष में कितने पत्र हिन्दी में भेजे गए और कितने बाहर से आए। कितने पत्रों या अन्य सामग्री का हिन्दी में अनुवाद किया गया और हिन्दी दिवस किस उत्साह से मनाया गया। कितनी प्रतियोगिताएँ आयोजित की गर्इं और कितने पुरस्कार दिए गये...आदि।
'कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की राजभाषा के साथ ऐसा होता है। चौदह सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में जाना जाता है। विचित्र विडंबना है। वर्ष में एक दिन हिन्दी में काम करने की घोषणाएँ की जाती हैं। अफसर से लेकर क्लर्क तक हिन्दी में काम करने के संकल्प व्यक्त करते हैं। कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। हर कार्यालय में हजारों रुपये ख़र्च कर दिए जाते हैं केवल उस दिवस को मनाने के नाम पर ...आमजन के धन का दुरुपयोग...कुछ प्रतियोगिताएँ...कुछ पुरस्कार और बाबू से लेकर अफसर तक प्रसन्न कि उन्होंने हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्य निभा दिए। यदि भूल से भी किसी बाबू ने हिन्दी में कोई नोट तैयार किया तो अधिकारी सम्बध्द अनुभाग अधिकारी या उसके लेखाधिकारी को उसका अंग्रेज़ी तर्जुमा करवाने के लिए कहता है। वर्ष भर काम अंग्रेज़ी में और एक दिन रोना हिन्दी विकास का...।'
फाइलें देखने के बाद उसने उन्हें मेज पर बायीं ओर रख दिया। दूसरे अफसरों की भांति देखने के बाद फाइलों को फ़र्श पर पटकना वह अनुचित मानता था। उन दो फाइलों के बाद शेष दिन उसका मां-पिता और प्रीति के विषय में सोचते हुए बीता। कार्यालय का कोई अफसर न उससे मिलने आया और न ही वह गया। शाम दस नंबर बस लेकर वह सीधे होटल गया और रात जल्दी ही सो गया।
अगला दिन भी उसका उसी प्रकार बीता।
बनारस से लौटने के तीसरे दिन प्रीति उसके कार्यालय आयी। प्रीति उसके पास न आकर प्रदीप श्रीवास्तव के पास गयी। श्रीवास्तव के चपरासी ने आकर उसे कहा, सर, श्रीवास्तव सर आपको बुला रहे हैं।
अपने प्रति श्रीवास्तव की उपेक्षा वह अनुभव कर चुका था। वह सोचने लगा, 'अवश्य कुछ ख़ास बात है।'
चपरासी खड़ा रहा।
साथ लेकर आने का हुक्म है श्रीवास्तव जी का?
नहीं सर। चपरासी अचकचा गया।
चलो...मैं आ रहा हूँ।
चपरासी चला गया तो वह बाथरूम गया और वहाँ से बाथरूम के बगल से जाने वाली सीढ़ियाँ उतरने लगा। यह नीचे...किसी अफसर के पास जाने का छोटा रास्ता था...जो पतली सीढ़ियों से गुजरता था। श्रीवास्तव का चेम्बर सीढ़ियों से नीचे उतरते ही लाल रंग की बिछी कार्पेट वाली गैलरी में दाहिनी ओर था। चेम्बर के बाहर लाल बत्ती जल रही थी। अर्थात पहले से ही या तो कोई अंदर था या श्रीवास्तव किसी अतिमहत्वपूर्ण कार्य में व्यस्ता था जिससे किसी के भी अंदर न आने के लिए उसने बत्ती जला दी थी।
सुधांशु ने दरवाज़ा नॉक किया।
कम इन। श्रीवास्तव की आवाज़ थी, जो हंसते हुए उसने कहा था। उस क्षण वह प्रीति की किसी बात पर हंस रहा था।
दरवाजा खोल अंदर धंसते ही सुधांशु परेशान हो उठा। सामने प्रीति बैठी थी।
आओ सुधांशु...कैसे हो? श्रीवास्तव का स्वर उसे सुनाई तो दिया लेकिन प्रीति की उपस्थिति से वह इतना उलझन में था कि समझ नहीं पाया कि श्रीवास्तव ने कहा क्या था।
बैठो...। सामने कुर्सी पर प्रीति के बगल में बैठने का इशारा करते हुए श्रीवास्तव बोला। सुधांशु हैरान था कि ऊपर रिकार्डरूम में बैठा आने के बाद से श्रीवास्तव ने उसके प्रति जो रुख अपना रखा था आज उसके विपरीत उतना ही मधुर हो गया था जितना वहाँ छोड़ने जाने से पूर्व था। कुछ गड़बड़ है।' उसने सोचा।
श्रीवास्तव ने पी.ए. को बजर देकर तीन चाय भेजने का आदेश दिया और सुधांशु और प्रीति की ओर मुड़कर बोला, आप दोंनो यों बैठे हैं जैसे एक-दूसरे से अपरिचित हैं। खैरियत तो है?
सुधांशु गंभीर रहा। कुछ बोला नहीं, प्रीति श्रीवास्तव के कथन पर केवल मुस्करा दी।
आपके बैठने के लिए जल्दी ही कुछ व्यवस्था करवाता हूँ मिस्टर दास। ऊपर तो खासी गर्मी होगी?
सर, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
ऐसा? श्रीवास्तव ने अपने प्रति इसे व्यंग्य समझा।
सुधांशु चुप रहा।
मिस्टर दास, आप बेहद कर्मठ और जीवट वाले व्यक्ति हैं। रिकार्डरूम में खड़ा होना भी कठिन होता है गर्मी में, लेकिन आप वहाँ...।
सर, गाँव का हूँ। गाँव वालों को हर स्थिति से जूझने की आदत होती है।
वेरी नाइस...आपके विचार बहुत उच्च हैं। विभाग को आप जैसे कर्मठ और ईमानदार अफसर पर गर्व है।
धन्यवाद सर। सुधांशु सोचने लगा, 'तभी न केवल मुझे वहाँ बैठाया गया है बल्कि काम के नाम पर कुछ भी नहीं दिया गया। यह ईमानदारी और कर्मठता की सजा है न कि विभागीय गर्व का पुरस्कार।'
प्रीति, श्रीवास्तव प्रीति की ओर उन्मुख हुआ, हेडक्वार्टर में सब ठीक ...आप प्रसन्न हैं।
जी सर।
रामचन्द्रन जैसा महानिदेशक मिलना कठिन है प्रीति। बेहद सीधे...अपने में गुम...। श्रीवास्तव ने दोनों को सुनाते हुए कहा।
जी सर, बहुत ही भले व्यक्ति हैं। प्रीति बोली।
आपको एडमिन के अलावा और भी कुछ कार्य सौंपा गया है?
सर, कंप्यूटर सेक्शन...आजकल रामचंन्द्रन साहब इसी काम में लगे हुए हैं ...बहुत कठिनाई से यहाँ आ पायी हूँ। वह पूरे विभाग का कंप्यूटरीकरण करना चाहते हैं। छोटे-से छोटे कार्यालय में काम कंप्यूटर में होता देखना चाहते हैं।
यह अच्छी बात है।
आजकल उसी के लिए मीटिंग्स का दौर चलता रहता है। मुझे और डी.पी. मीणा सर को इन्वाल्व कर रखा है। डी.पी. मीणा का नाम लेते समय प्रीति ने सुधांशु की ओर कनखियों से देखा। इसके लिए अब हमें टूर पर भी जाना होगा। क्षणभर के लिए रुकी प्रीति। उसने सुधांशु पर दृष्टि डाली और बात जारी रखते हुए बोली, इसके अलावा गुड़गांव में कार्यालय की बिल्डिंग बनाने के लिए भी गहमागहमी है...बहुत ही व्यस्तता है सर।
सो तो होगी ही...मुख्यालय जगह ही ऐसी है।
सुधांशु चुप दोनों की बातें सुन रहा था। प्रीति ने मीणा का नाम लेते समय जब कनखियों से उसकी ओर देखा था तब भी वह निर्विकार बना रहा था।
अब असली मुद्दे पर आना चाहिए। पी.डी. साहब कभी भी इंटरकॉम बजा सकते हैं। श्रीवास्तव बोला।
प्रीति ने पुन: कनखियों से सुधांशु की ओर देखा।
तभी चपरासी चाय ले आया। श्रीवास्तव चुप हो गया। चपरासी ने तीनों के सामने चाय रखी और लौट गया। श्रीवास्तव ने क्रमश: प्रीति और सुधांशु की ओर देखा और बोला, सुधांशु ...आप आजकल कहाँ रह रहे हैं?
सर, मैंने दफ़्तर में अपना पता लिखा रखा है।
यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ। श्रीवास्तव का स्वर उत्तेजित था, आप एक ज़िम्मेदार अफसर हैं। आपको वही कहना चाहिए जो सच हो।
सुधांशु चुप रहा।
मैनें आपसे कुछ पूछा है मिस्टर दास।
सुधांशु को बार-बार उसे मिस्टर दास कहा जाना चुभ रहा था। उसे लग रहा था मानो श्रीवास्तव उस पर कोड़े बरसा रहा था।
होटल में।
कहाँ?
'कमाल है। यह सब पूछने का हक़ इस व्यक्ति को किसने दिया। यह कह देना चाहिए।' सुधांशु ने सोचा, 'मेरा जीवन है, जहाँ चाहूँ रहूँ।' लेकिन कहा नहीं।
करोल बाग़ में।
लेकिन कार्यालय में आपने जो पता लिखवाया है वह लोधी एस्टेट के प्रगतिविहार हॉस्टल का है।
जी सर।
आप वहाँ क्यों नहीं रह रहे और नहीं रह रहे तो आपने यह सूचना कार्यालय को क्यों नहीं दी। आप जानते हैं कि ऐसा न करना यानी पता छुपाना या ग़लत पता देना कानूनन अपराध है। कार्यालय से कोई भी सूचना छुपाने पर कार्यालय को अनुशासनात्मक कार्यवाई का अधिकार है।
सुधांशु चुप सोचता रहा, 'फिर कर्यालय ने कायवाई की क्यों नहीं ...करनी चाहिए ...ऊब गया हूँ इस कार्यालय से...मुझे ट्रांसफर कर दो...।'
क्या बात है प्रीति...सुधांशु आपसे रूठे हुए हैं? श्रीवास्तव मुस्कराया।
सर, इन्हीं से पूछें...।
सुधांशु क्रोध से उबलने लगा। 'कितना झूठ ...इसको कुछ नहीं मालूम ...सारा दोष मेरे सिर...। लेकिन इसे यह मुकदमा श्रीवास्तव की अदालत में ले आने के लिए किसने सुझाया! मुझे नीचा दिखाना चाहती है। स्वयं को निर्दोष सिध्द करना चाहती है। मैं इसके साथ एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता।'
सुधांशु, अभी आप युवा हैं...युवावस्था में पति-पत्नी के बीच खट-पट होती रहती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि आप पत्नी को बिना बताए कहीं बाहर रहें। यदि पत्नी ऐसा करे तब आप क्या सोचेंगे। आप भाग्यशाली हैं कि आपको प्रीति जैसी नेक पत्नी मिली है। इनकी प्रशंसा मैंने अपर महानिदेशक और महानिदेशक से भी सुनी है। इंटेलिजेण्ट और परिश्रमी...।
सर, निकम्मा तो मैं ही हूँ। सुधांशु का चेहरा लाल था।
यह आप क्या कह रहे हैं? श्रीवास्तव ने सुधांशु से यह सुनने की आशा नहीं की थी। वेैसे भी इतने वरिष्ठ के समक्ष कनिष्ठ अफसर दो टूक बोले और वह भी तब जब वह सीधे उसका मातहत हो...उस विभाग की कार्यशैली में असंभव था।
आप भी उतने ही परिश्रमी और इंटेलीजेण्ट हैं मिस्टर दास। आप यह न समझें कि आपसे ए.एफ.पी.ओ. ग्रुप का कार्य लेकर रिकार्डरूम में बैठाकर आपके गुणों की अवमानना की गई है। कभी-कभी हमारे पी.डी. सर ऐसा करते हैं और वे ऐसा उसी के साथ करते हैं जिसे वह बेहद चाहते हैं। आप उनके बेटे की भांति हैं। मैं तो आपको अपने छोटे भाई की तरह मानता हूँ। मेरा यही सुझाव है कि आपस में एक-दूसरे को समझो मिस्टर सुधांशु दास ...पति-पत्नी का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है...उसे संभालकर रखना होता है। यह तभी संभव है जब एक कहे और दूसरा सुनकर उसे हवा में उड़ा दे। हो सकता है, मुझे मालूम नहीं वास्तविकता क्या है आपकी नाराजगी की, लेकिन हो सकता है प्रीति ने किसी बात पर आपसे कुछ कह दिया हो, इसका अर्थ यह नहीं कि आप घर छोड़ दें। यदि छोड़ भी आए तो भी इतने दिनों में वह क्रोध शांत हो जाना चाहिए। आप आज घर जायें। होटल में रहकर जीवन नहीं काटा जा सकता। श्रीवास्तव के लंबे वक्तव्य को सुधांशु ने सुना, बोला कुछ नहीं।
आप होटल जाकर अभी चेक आउट कर आयें...चपरासी को साथ ले जायें...वह आपका सामान आपके घर पहुँचा देगा।
चपरासी की आवश्यकता नहीं सर...मैं कर लूंगा।
वेरी गुड। श्रीवास्तव उठ खड़ा हुआ, आशा करता हूँ कि सब कुछ ठीक होगा।
श्रीवास्तव के खड़े होते ही प्रीति और सुधांशु भी उठ खड़े हुए।
ओ.के. गुडलक प्रीति...सुघांशु।
थैंक्स सर। प्रीति बोली। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। लेकिन सुधांशु चुप था। दोंनो बाहर निकले तो गैलरी में प्रीति बोली, शाम मैं जल्दी आ जाऊँगी ...आप होटल से चेक आउट कर आइये।
सुधांशु के अंदर उथल-पुथल चल रही थी। उसने प्रीति की ओर देखा, जिसका अर्थ था, 'देखूंगा', लेकिन बोला कुछ नहीं।