गलियारे / भाग 41 / रूपसिंह चंदेल
प्रीति के जाने के बाद सुधांशु के अंदर बवण्डर उठता और शांत होता रहा। जब वह पिछले दिन की बात सोचता उत्तेजित हो उठता, लेकिन कुछ देर बाद विचार उठता, मेरा भ्रम भी हो सकता है। मीणा आया, यह प्रीति ने स्वीकार किया...हालांकि सीधे तौर पर नहीं, लेकिन उसने उसके साथ सम्बन्ध बनाए यह उसने स्वीकार नहीं किया। मेरी आशंका पर उत्तेजित होकर वह चीखी...मुझे गालियाँ दी। नृपेन मजूमदार की बेटी... एक अपर सचिव की बेटी... जिसे अपने संस्कारों पर गर्व था...आखिर उत्तेजित हुई ही क्यों!'धीरे-धीरे शांत होते मन में यह प्रश्न पुन: भूचाल उत्पन्न कर देता,'देहाती कहावत है...काने को काना मत कहो...वह आसमान सिर पर उठा लेता है। कहते हैं चोरी पकड़ी जाने पर चोर दो में से एक रास्ता अपनाता हैं। या तो वह चुप्पी साध लेता है और यूं प्रदर्शित करता है कि वह भोला-सरल है और सामने वाले को ऐसा बनकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता है। सफल भी होता है। दूसरा रास्ता होता है अपने को सही सिध्द करने का...चीख-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठाना और आरोप लगाने वाले को ही ग़लत सिध्द करना। यदि मनोवैज्ञानिकों से पूछा जाये तो वे शायद कहेंगे कि निर्दोष न कभी चुप्पी साधता है और न ही चीखता है। अर्थात दोंनो ही स्थितियाँ असामान्यता सिध्द करती हैं और उसके चोर अर्थात ग़लत होने को ही प्रमाणित करती हैं। जबकि जिसने कुछ किया ही नहीं होता वह सामान्य रहता है। न उत्तेजित होता है और न ही चुप।'
'लेकिन यह भी संभव है।' उसने आगे सोचा, 'झूठे आरोप से व्यक्ति उत्तेजि हो उठे...हो सकता है मैं ग़लत ही रहा होऊँ। प्रीति इसीलिए उत्तेजित हो उठी हो। उत्तेजना में व्यक्ति विवके खो देता है।'
देर तक यही स्थिति रही उसकी।
'फिर मैं क्या करूं! जाऊँ...सम्बन्धों को एक-ब-एक समाप्त करना बुध्दिमानी नहीं...अभी जीना प्रारंभ भी नहीं हुआ...यदि प्रीति से ग़लती हुई है और यह ग़लती अनजाने हुई है...वह यह मान लेती है और भविष्य में वैसी ग़लती न करने का वचन देती है तो...।'
ल्ेकिन विचार ने तुरंत पलटा खाया, 'तुमने देखा क्या है जो यह सोचने लगे कि प्रीति से ग़लती हुई ही है। यह प्रश्न ही उठाना अपने आप में मूर्खता है।' अंतत: लंबी जद्दो-जहद के बाद उसने होटल से चेक आउट करने का निर्णय किया। चेक आउट करना ही था, लेकिन वह इसे शनिवार तक के लिए टाल रहा था। शनिवार वह कहीं मकान देखना चाहता था।
जब वह फ़्लैट में पहुँचा आठ बज चुके थे। प्रीति घर में थी। उसने सफेद सलवार पर काले रंग का कुर्ता पहना हुआ था। उसके पहुँचते ही पानी देती हुई प्रीति ने पूछा, चाय बनाऊँ या कोल्ड ड्रिंक लोगे।
मेहमान हूँ? सुधांशु अभी भी अपने को प्रकृतिस्थ नहीं कर पा रहा था। वह ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गया था।
चाय बनाती हूँ। मैंने भी अभी तक नहीं पी। तब तक आप कपड़े बदल लें। प्रीति किचन की ओर चली गई।
वह देर तक सोचता रहा। बेडरूम में रखी आलमारी में उसके कपड़े थे, जहाँ जाने से वह बच रहा था, लेकिन सूटकेस में भरे कपड़े न केवल गंदे हो चुके थे बल्कि उनसे पसीने की गंध आ रही थी।
उसने कपड़े बदले और पुन: ड्राइंगरूम में आ बैठा। प्रीति चाय के साथ बिस्कुट भी ले आयी और सामने बैठ गयी।
देर तक दोनों के मध्य संवाद नहीं हुआ। छत पर मंडराते पंखे की ही बीच-बीच में चीं-चां की आवाज़ सुनाई दे जाती थी। सरकारी फ्लैट्स में पंखे भी सरकारी अर्थात सी.पी.डब्लू.डी. के होते हैं और सरकारी महकमों में...सी.पी.डब्लू.डी. भ्रष्ट महकमों में शीर्ष पर गिना जाता है। लेकिन ऐसा नहीं कि सभी अफसरों के फ्लैट्स के पंखों का वैसा ही हाल होता है। कुछ अधिकारियों के एक फ़ोन पर सी.पी.डब्लू.डी. के कर्मचारी नंगे पांव दौड़ जाते हैं और रेंगता पंखा हो या कुछ अन्य मेण्टीनेंस ...वे उसे तुरंत दुरस्त करते हैं। लेकिन मामला हॉस्टल का था...जिसके प्रति उनका रवैया किसी बाबू के फ्लैट्स जैसा ही रहता है। हाँ, यदि उसमें रहने वाला अफसर जूनियर होते हुए भी पायेदार तैनाती पर होता है तब वे सिर के बल दौड़ते हैं और काम कर जाते हैं।'
सुघांशु ने उस दिन का अख़बार उठा लिया और उसे देखने लगा। उसने एक बार भी प्रीति की ओर नहीं देखा। नहीं देखा यह कहना उचित नहीं। उसने दो बार उसे कनखियों से अवश्य देखा और दोनों ही बार पाया कि प्रीति उसी पर दृष्टि गड़ाए है। 'उसका इस प्रकार देखना यह सिध्द कर रहा है कि वह अपनी सफ़ाई देना चाहती है।' उसने सोचा, 'अब तुम मनोवैज्ञानिक हो रहे हो।'
सुधांशु ने एक बार जो अख़बार में दृष्टि गड़ाई तो तभी उठाई जब प्रीति ने उसे बिस्कुट लेने के लिए कहा। उसने एक बिस्कुट उठा लिया और छोटे-छोटे टुकड़े कुतरता हुआ चाय पीता रहा और सोचता रहा कि प्रीति उससे संवाद करने के लिए निश्चित ही शब्द तलाश रही है।
चाय जब समाप्त होने वाली थी, प्रीति बोली, चाय है अभी...और लेनी है?
नहीं...।
फिर कुछ देर की चुप्पी।
माता जी की तबीयत की कोई सूचना? सुधांशु ने देखा यह पूछते समय प्रीति के चेहरे पर लालिमा दौड़ गयी थी। अर्थात बहुत ज़ोर लगाने के बाद उसकी ज़ुबान से यह शब्द निकले थे शायद।
डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। अब वह गाँव में हैं।
ओह...। आपको फिर...। लेकिन आगे प्रीति कुछ नहीं कह पायी, जबकि कहना चाहती थी, 'आपको फिर जाना चाहिए।' सुधांशु ने भी उसके उस अधूरे वाक्य का यही अर्थ लिया। लेकिन बोला नहीं।
आपको अचानक रिकार्डरूम में क्यों बैठाया गया और जो काम आप देख रहे थे वह भी ले लिया गया।
मेरी बला से...मैं भ्रष्टाचार में उनका साथ नहीं दे सकता।
भ्रष्टाचार...?
प्रधान निदेशक से लेकर चपरासी तक...ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की बात कर रहा हूँ...रिश्वतखोरी में आकंठ डूबे हुए हैं.. और वही क्यों...जिसका दांव जहाँ लग रहा है...खा रहा है। विकास के नाम पर पूरे देश में भयानक भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। सुधांशु ने सोचा था कि वह नहीं के बराबर संवाद करेगा और कोशिश करेगा कि संवाद ही न करना पड़े...लेकिन उसका निर्णय लड़खड़ा गया था। वह आश्चर्यचकित था। वैसे वह आश्चर्यचकित तब भी हुआ था जब छात्र जीवन में बचते घूमने के बावजूद प्रीति उसे घेरती थी और वह घिरता रहता था।
रात दोनों उसी चिरपरिचित बिस्तर पर सोये, लेकिन किसी अपरिचित की भांति।
तार भेजने के एक सप्ताह बाद सुधांशु को पिता का तार मिला, स्वास्थ्य वैसा ही...डाक्टरों ने जवाब दे दिया।
'मुझे जाना ही चाहिए। यदि यहाँ लाकर एम्स में दिखा दूं तो मन को संतोष होगा। होगा वही जो तय हो चुका है। मर्ज बढ़ चुका है, लेकिन मन में यह कसक नहीं रहेगी कि मैं माँ का इलाज नहीं करवा सका। माँ ने कितने कष्ट सहे हैं मेरे लिए... दोनों ने ही ...मां ने भी और पिता जी ने भी। आज ही मुझे पी.डी. से मिलना चाहिए। यद्यपि मैं उसकी शक्ल नहीं देखना चाहता, लेकिन...।'
और 'लेकिन' ने उसे अटका दिया। फिर भी वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि उसे मिलना ही होगा। वह सीट से उठा और पाल के पी.ए. के पास गया। पी.ए. एक लड़की थी। ...लड़की नहीं पैंतीस वर्षीया महिला। पी.ए. ने कहा, सर, अभी पी.डी. सर मीटिंग में हैं...मैं पूछकर आपको बता दूंगी।
सुधांशु अपनी सीट पर लौट आया और पी.डी. द्वारा बुलाये जाने की प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन उस दिन पाल ने उसे नहीं बुलाया। दूसरे दिन वह पुन: पी.ए. से मिला। पी.ए. ने उसे बैठाया और पाल के पास पूछने गयी। लौटकर बोली, सर ने कहा है कि आप पांच मिनट के लिए मिल सकते हैं।
पांच मिनट के लिए... । सुधांशु बुदबुदाया और सोचने लगा, 'पाल मुझे अपमानित करने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहता।'
ओ.के.।
पाल ने सुधांशु के गुडमार्निंग का उत्तर न देकर कड़क आवाज़ में पूछा, किसलिए मिलना चाहते थे मिस्टर दास?
सर, मुझे एक सप्ताह का अवकाश चाहिए... मां को लाकर एम्स में दिखाना चाहता हूँ। उन्हें कैंसर है।
कैंसर...उसका इलाज कहीं नहीं है। अपना और दफ़्तर का समय नष्ट करेंगे आप और अपना पैसा भी...मुझे आपको यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं मिस्टर दास कि जल्दी ही 'हिन्दी संसदीय समिति' यहाँ आने वाली है। आपको काम की कतई चिन्ता नहीं है। नहीं है तो आप रिजाइन क्यों नहीं कर देते...इत्मीनान से जाइये घर और करवाइये माँ का इलाज। पाल का स्वर और अधिक रूखा हो उठा था, अवकाश नहीं मिलेगा।
सुधांशु ने एक शब्द भी नहीं कहा और पाल आगे कुछ कहता उससे पहले ही वह उसके चेम्बर से बाहर निकल आया। उसका चेहरा लाल था और लग रहा था कि वह रो देगा। गैलरी पार करते और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसे आंखों के सामने धुंधलका-सा प्रतीत होता रहा। एक सीढ़ी पर उसके पैर लड़खड़ाये भी। सीट पर पहुंंच वह आंखें बंद कर कुर्सी पर उढ़क गया और देर तक उढ़का रहा। उसे प्यास लग रही थी। रिकार्ड रूम में बाहर की अपेक्षा गर्मी अधिक थी। खिड़की से आती हवा गर्म थी। वह देर तक आंखें बंद किये बैठा सोचता रहा, 'कितना क्रूर है पाल...पाल ही क्यों इस विभाग के रक्त में ही क्रूरता व्याप्त है और यहीं क्यों दूसरे विभाग भी अछूते नहीं हाेंगे...सर्वत्र एक-सी स्थिति है। अंग्रेज गये, लेकिन उनसे विरासत में मिली क्रूरता घटने के बजाय बढ़ी है। आज ही अख़बार में था कि दो पुलिस वालों ने एक छोले-भठूरे वाले का ठेला इसलिए पलटकर उसके सामान को बिखरा दिया, क्योंकि पहले उसने उन्हें मुफ्त में छोले-भठूरे देने से इंकार किया फिर हफ्ता देने से। अब सिपाही हफ्ता नहीं...ठेले वालों से प्रतिदिन उगाही करते हैं। सड़क के किनारे-पटरी पर बैठने वाले ...गली मोहल्ले में फेरी लगाने वालों से पुलिस पैसे वसूलती है। सड़क पर ट्रैफिक पुलिस चालान काटने के बजाय अपनी जेब गर्माती है। उन्हें प्रतिमाह एक निश्चित रक़म अपने उच्चाधिकारियों को पहुँचानी होती है, जिसका एक हिस्सा मंत्री जी के खाते में जमा होता है। अधिसंख्य मंत्री भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैें। छोटभैय्या नेता तक कमाने में लगे हुए हैं और नेता ...वही बन सकता है जिसके खाते में कुछ अपराध ...हत्या-बलात्कार-लूट-खसोट दर्ज होते हैं। उन्हीं में से ही तो मंत्री बनते हैं।... फिर पाल जैसे क्यों चूकें...इनकी चाकू हमारे जैसों की गर्दनों पर ही चलती है।'
सर...यह फाइल...। इंस्पेक्शन सेक्शन के सेक्शन अफसर की आवाज़ से सुधांशु चौंका। सेक्शन अफसर उसके चेहरे की रंगत देख परेशान था।
सुधांशु ने हाथ के संकेत से फाइल मेज पर रखने के लिए कहा। फाइल रख सेक्शन अफसर वापस जाने के लिए मुड़ा तो भर्राये स्वर में सुधांशु बोला, मिस्टर वर्मा, किसी से कहें कि मेरा पानी का जग भर दे...।
सर, जग मुझे दे दीजिए। वर्मा ने हाथ बढ़ाया।
आप नहीं...।
कोई बात नहीं सर...मैं पानी मंगवा देता हूँ।
सुधांशु ने जग वर्मा की ओर बढ़ा दिया।
सर, गिलास भी दे दीजिए... साफ करवा दूंगा।
गिलास लेने के बाद वर्मा ने पूछा, सर, चाय लेंगे? कैण्टीन वाला लड़का इधर ही है।
लेना चाहूँगा।
मैं उसे इधर ही भेजता हूँ। तब तक पानी मंगवा देता हूँ।
कैण्टीन का चायवाला नेपाली लड़का किसन एक कप थामे हुए आया और सर चाय। कहता हुआ उसकी मेज पर चाय का कप रखकर खड़ा हो गया। सुधांशु ने धन्यवाद कहा तो किसन ससंकोच बोला, सर, कुछ लेंगे...समोसा बहुत अच्छे हैं...ब्रेड पकौड़े भी हैं।
नहीं...शुक्रिया।
किसन वापस लौट गया। वर्मा ने अपने सेक्शन के रिकार्ड क्लर्क से पानी भेजवा दिया था। पानी पीने के बाद सुधांशु को लगा कि उत्तेजना कुछ शांत हुई है। वह चाय पीता रहा और सोचता रहा, 'ऐसे कब तक चलेगा सुधांशु...यह जल्लाद...यह पाल मुझे हलाल करने पर तुला हुआ है। यह मेरा भविष्य बरबाद कर देगा...मेरी गोपनीय रपट खराब कर देगा...। मैंने इसलिए नहीं रात-दिन एक करके आई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी...कि मैं सारी ज़िन्दगी सहायक निदेशक ही बना रहूँ। विभाग में एक-दो मामले ऐसे हैं...जो अपने वरिष्ठों की हाँ-हुजूरी नहीं करते...कम से ऐसे वरिष्ठाें की जो भ्रष्ट हैं और उसकी सजा वे भुगत रहे हैं। अमित कपूर और सुहास बनर्जी के मामले इसी विभाग के हैं...दोनों की ज़िन्दगी बदबाद कर दी उनके सीनियर्स ने। दोनाें अपने समय के ब्रिलियंट छात्रों में थे...नौकरी में भी उनके रिकार्ड अच्छे थे, लेकिन फंस गये पाल जैसों के अधीन...मेरी ही जैसी स्थिति में और आज उनके साथ के... उनके बैच के लोग निदेशक बने बैठे हैं। निदेशक ही नहीं वरिष्ठ निदेशक और वे दोनों संयुक्त निदेशक से आगे नहीं बढ़ पा रहे। डी.पी.सी. (डिपार्टमेण्टल प्रमोशन कमिटी) में उनके नामों पर विचार ही नहीं किया जाता। कपूर ने कैट में केस भी डाल रखा है। इसे कपूर की अनुशासनहीनता मानकर विभाग ने उनके खिलाफ दूसरे मामले तैयार कर दिए हैं और सुहास बनर्जी... उन्होंने अपना मानसिक संतुलन ही खो दिया है। तो यह पाल मुझे भी वैसी ही स्थिति में पहुँचा दे...उससे पहले मुझे'के'ब्लॉक से निकल जाना चाहिए। लेकिन कैसे...?'
'यदि मैं अपने स्थानांतरण की अर्जी देता हूँ तो यह पाल के पास ही भेजी जायेगी। उसकी टिप्पणी उस पर दर्ज होगी और कभी भी मेरे अनुकूल नहीं होगी। दूसरा विकल्प है कि स्थानांतरण के लिए मैं महानिदेशक रामचन्द्रन से मिलूं...लेकिन ऐसे मामलों में महानिदेशक से मिलने के लिए पाल से ही अनुमति मांगनी होगी। यदि मैं पी.ए. के माध्यम से एक अधिकारी होने के नाते महानिदेशक से मिल भी लूं और अपनी बात कह भी दूं तब वह उलट पूछ लेंगे कि मुझे'के'ब्लॉक में ज्वायन किए अधिक समय नहीं हुआ, फिर स्थानांतरण क्यों मांग रहा हूँ। कारण बताउंगा तब वह निश्चित ही पाल से पूछेंगे और पाल को मेरे विरुध्द एक और धारदार औजार हाथ लग जायेगा। महानिदेशक स्थानांतरण के लिए मंत्रालय को मेरी अर्जी रिकमेण्ड करेंगे यह गारण्टी नहीं, लेकिन पाल अनुशासनहीनता के लिए मुझ मेमो थमा देगा, जिसकी प्रविष्टि मेरी निजी फाइल में भी दर्ज होगी और मेरी वार्षिक गोपनीय रपट खराब करने के लिए उतना ही पर्याप्त होगा।'
'कितना दुर्वह है जीवन' उसने दीर्घ निश्वास ली और वर्मा द्वारा लायी फाइल देखने लगा, जिसमें सप्ताह भर की डाक की रिसीप्ट और डिस्पैच मात्र दिखाई गयी थी। पांच मिनट लगे उसे फाइल देखने और हस्ताक्षर करने में।
वह पुन: सोचने की प्रक्रिया में आने ही वाला था कि नीचे से एक चपरासी आया, सर, श्रीवास्तव जी के पी.ए. के पास अपाका फ़ोन है।
सुघांशु हड़बड़ाकर उठा। 'फोन पिता जी का होगा...अवश्य कुछ अशुभ समाचार होगा। मैंने श्रीवास्तव के पी.ए. का ही नंबर दिया था और पी.ए. को भी कह दिया था...।' वह तेजी से सीढ़ियाँ उतरता श्रीवास्तव के पी.ए. के कमरे में...कमरा कहना उचित नहीं होगा उसे...एक कमरे को प्लाई वुड से पार्टीशन करके पी.ए. के लिए छोटा-सा केबिन बना दिया गया था। केबिन इतना छोटा था कि पी.ए. की मेज कुर्सी ही बमुश्किल वहाँ समा सके थे। किसी अन्य के बैठने की गुजांइश नहीं थी, जबकि पाल के पी.ए. का कमरा एक बड़ा हॉल था, जिसे भी प्लाईवुड से पार्टीशन करके दो हिस्सों में बांटा गया था। दरवाज़े से घुसते ही विजिटर्स के लिए बड़ा-सा सोफा था और उसके और पी.ए. के हिस्से के बीच पर्दा लहराता था। फ़र्श पर जे.डी. के कमरे से निकली हुई कॉलीन बिछी थी।
सर...आप इधर आ जायें। पी.ए. विनम्रतापूर्वक केबिन से बाहर निकल आया।
फोन विराट का था।
'सुधांशु जी... आज शाम सात बजे मेरे यहाँ आ जाओ... आना अवश्य... मैं जल्दी में हूँ...। सुकांत दिल्ली में है। सात बजे मेरे यहाँ आ रहा है। मैं ऑफिस से बोल रहा हूँ।
सुधांशु कुछ कहता उससे पहले ही विराट ने फ़ोन काट दिया। वह क्षणभर के लिए द्विविधा में रहा, लेकिन जिस मानसिक संताप में वह जी रहा था उससे कुछ समय के लिए ही सही मुक्ति के लिए उसने विराट के यहाँ जाने का निर्णय लिया और श्रीवास्तव के पी.ए. से बोला, आप एक कष्ट करियेगा...मुख्यालय में प्रीति दास को फ़ोन करके कह दीजिए कि मैं आज रात ग्यारह बजे तक घर पहुँचूंगा...एक मित्र के यहाँ जाउंगा।
जी सर।
दिल्ली आने के बाद विभाग के अधिकारियों से वह सामंजस्य बैठा नहीं पाया था और अन्य लोगों से उसका परिचय नहीं था। रविकुमार राय अत्यधिक व्यस्त रहता था इसलिए उससे वह अब तक मात्र दो बार ही मिला था। वह घूम-फिरकर साहित्य की दुनिया में ही त्राण खोजने का प्रयत्न करता, लेकिन वर्तमान स्थिति में लिखना-पढ़ना असंभव हो गया था। विराट से बात कर उसे सुकून मिलता था, इसलिए सुकांत के आने के समाचार से उसने अधिक न सोच लक्ष्मीनगर जाने का निर्णय कर लिया था।
उस रात जब सुधांशु प्रगतिविहार हॉस्टल पहुँचा बारह बजकर दस मिनट हुए थे। वह नशे में धुत था और उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। उस दिन पहली बार प्रीति को सुधांशु के मुंह से शराब की गंध आयी, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। अधिक कुछ कहने की स्थिति सुधांशु ने बनने ही न दी थी। वह वहाँ रहने तो आ गया था, लेकिन दोनों के सम्बन्ध पहले जैसे नहीं रहे थे। तनाव था और उस तनाव ने दोनों के मध्य निर्वाक दूरी बना रखी थी। प्रीति ने दूरी मिटाने के संकेत दिए, लेकिन सुधांशु ने उस ओर ध्यान नहीं दिया। प्रीति स्पर्श के लिए तरसती रही और सुघांशु उदासीन बना रहा।