गलियारे / भाग 42 / रूपसिंह चंदेल

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एक सप्ताह बीत गया। तनाव बरकरार रहा घर-दफ्तर ...दोनों स्थानों में। प्रीति से नहीं के बराबर संवाद होता था सुधांशु का। माँ के समाचारों के लिए वह तरस रहा था। वह प्रतिदिन पिता जी के फ़ोन और तार का इंतज़ार करता लेकिन कुछ भी नहीं आ रहा था। हिन्दी संसदीय समिति के आने के दिन निकट आ रहे थे। कार्यालय की साफ-सफाई शुरू हो गयी थी। वह ऊपर बैठता था, लेकिन खिड़की से सब देख पा रहा था। नई कालीनें खरीदी जा रही थीं। उसे स्पष्ट था कि पुरानी कालीनों को छोटे अधिकारियों के कमरों में सटा दिया जाएगा। पी.सी. (पार्लियामेण्ट कमिटी) के लिए आठ लाख का बजट सैंक्शन हुआ था, यह बात हिन्दी अधिकारी ने उसे बताया था, खर्च चार से अधिक का नहीं है...शेष का क्या होगा ईश्वर ही जानता है सर।'हिन्दी अधिकारी मुदित शर्मा ने कहा तो वह मुस्कराकर बोला,आपके कार्याकाल में कितनी बार पीसी यहाँ आयी है?'

सर दूसरा अवसर है।

उसने कुछ नहीं कहा। वह शर्मा को भी संदेह से परे नहीं मानता था। उससे कुछ भी एप्रूव होने के बाद शर्मा स्वयं पहले श्रीवास्तव और फिर पाल के पास ले जाता था। वह उन स्वामिभक्त अधिकारियों में था जो उच्चाधिकारी के संपर्क में बने रहने में गर्व अनुभव करते हैं। पाल के दो मीठे वचन उसके लिए शंकराचार्य के उपदेश से कम नहीं होते और सप्ताह ही नहीं महीने भर तक उसका चित्त प्रसन्न रहता है।

शर्मा ने अंग्रेज़ी में गुड सेकण्ड डिवीजन में आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. किया था। उसे अपने अंग्रेजी-हिन्दी ज्ञान पर गर्व था। उसकी हस्तलिपि अच्छी थी और उसे लगता कि पी.डी. उससे प्रसन्न था। इस बात की चर्चा वह कितनी ही बार अपने सहयोगियों से कर चुका था, पी.डी. सर ने पीठ थपथपाते हुए कहा कि तुम हिन्दी के विकास के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हो शर्मा।

पी.डी. ने एक बार उससे ऐसा कहा था। यदि उसने लिखकर दिया होता तब निश्चित ही शर्मा उसे फ्रेम करवाकर अपने ड्राइंगरूम में रख लेता।

शर्मा फूले चौड़े गालों वाला मध्यम कद का सांवला पचपन साल के आस-पास का एक गदबदा व्यक्ति था, जिसने विभाग में ऑडिटर अर्थात यू.डी.सी. के रूप में प्रवेश किया था, लेकिन उसे क्लर्की में आनंद नहीं आ रहा था। वह कुछ बौध्दिक काम करना चाहता था, विभाग में उसकी गुंजाइश नहीं थी। लेकिन तभी उसने एक सर्कुलर देखा जिसमें विभाग में अनुवादकों के लिए आवेदन मांगे गये थे। शर्मा ने आवेदन किया और चुना गया। कुछ दिन तक मुख्यालय में कनिष्ठ फिर वरिष्ठ अनुवादक के रूप में काम करने के बाद प्रमोशन पर उसे 'के' ब्लॉक भेज दिया गया। उसने प्रारंभ से ही नौकरी की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शर्तों को समझ लिया था और उनके पालन का प्रयत्न करता था। वह मुरादाबाद का रहने वाला था और नि:संतान था और संतानहीनता की ग्रंथि का शिकार था। उस ग्रंथि के कारण उसे दूसरे का कुछ भी अच्छा चुभने लगता था, लेकिन प्रकट में वह उसकी प्रशंसा के लिए शब्दकोश के अलंकृत शब्द खोज लेता। परन्तु जब भी अवसर देखता उसकी बुराई करने में नहीं चूकता था और उस खूबसूरती के साथ कि जिस व्यक्ति से उस प्रशंसित की बुराई करता उसे यह भ्रम रहता कि शर्मा उस व्यक्ति की बुराई कर रहा था, तटस्थता दिखा रहा था या प्रशंसा कर रहा था।

यद्यपि सुधांशु को शर्मा के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी...वास्तव में उसे उस कार्यालय के लोगों के विषय में ही जानकारी नहीं थी और न ही उसे इसमें रुचि थी, लेकिन अनुभव से उसने जाना था कि यदि बिना पूछे ही कोई किसी से दूसरे के विषय में नकारात्मक चर्चा करता है या रहस्यमय प्रश्न उछालता है, जैसा कि शर्मा ने उसके सामने पार्लियामण्टरी कमिटी के लिए प्राप्त राशि को लेकर उछाला था तब उस व्यक्ति से सावधान रहना चाहिए। उसके यह कहने पर, आपके लिए यह सब पहेली नहीं होना चाहिए शर्मा जी।' शर्मा का चेहरा उतर गया था।

शर्मा के वापस जाने के बाद सुधांशु सोचने लगा, 'यह व्यक्ति निश्चित ही पी.डी. का जासूस होगा...भले ही पीडी ने इसे मेरी जासूसी के लिए नियुक्त नहीं किया हो, लेकिन इसे मेरी स्थिति की जानकारी है और अपने नंबर बढ़ाने के लिए मेरी प्रतिक्रिया को नमक मिर्च लगाकर वह पाल से कह सकता है। आजकल वैसे भी यह अधिक ही उससे मिलता रहता है।'

'मुझे सभी से सावधान रहना चाहिए।'

उस रात डिनर के बाद जब सुधांशु अख़बार पढ़ने लगा, क्योंकि सुबह पूरा अख़बार वह नहीं पढ़ पाता था, उस समय प्रीति उसके सामने सोफे पर आ बैठी। उसके हाथ में कुछ फाइलें थीं जिन्हें वह मेज पर रखे बैग में रखती रही। फाइलें रखने के बाद पांच मिनट तक वह चुप अख़बार पढ़ते सुधांशु को देखती रही। सुघांशु ने समझ लिया कि वह उसे देख रही है। पांच मिनट बाद वह बोली, कल सुबह की फ्लाइट से मुझे टुअर पर कलकत्ता जाना है।

ओ.के.। सुधांशु बोला और अख़बार पढ़ने लगा।

आज ही डी.जी. सर ने वहाँ जाकर वहाँ के कार्यालय के कंप्यूटराइजेशने के लिए सर्वे करने के लिए कहा था। वह सफ़ाई देने लगी।

हुंह।

संवाद यहीं समाप्त हो गया। प्रीति तैयारी में लग गयी। सुबह पांच बजे स्टॉफ कार आकर उसे ले जाने वाली थी। छ: बजे एयर पोर्ट पर रिपोर्टिंग थी और सात बजे इंडियन एयरलांइस की फ्लाइट।

अगले दिन सुबह सुधांशु ने रिकार्ड सेक्शन के बाबू को बुलाकर कहा, जितने भी ऑफिस आर्डर मुख्यालय से आया करें उन्हें एक फोल्डर में डालकर पहले मुझे दिखा दिया करो उसके बाद पी.डी. के पास भेजा करो।

सर, यदि किसी अफसर के नाम से कोई लिफाफा हो ...।

केवल वही डाक मुझे दिखाओ जो आप खोलकर पी.डी. के पास भेजते हो। किसी के नाम से आए लिफाफे खोलने के लिए आपको नहीं कह रहा हूँ।

जी सर।

रिकार्ड सेक्शन में दिन भर डाक आती थी और पी.डी. के आदेशानुसार दिन में दो बार उसका वितरण किया जाता था। सुबह आने वाली डाक बारह बजे से साढ़े बारह बजे और दोपहर बाद की डाक तीन से चार बजे के मध्य पी.डी. यानी पाल को प्रस्तुत की जाती थी।

सर, एक निवेदन है...आप डाक जल्दी देख लिया कीजिएगा...पी.डी. सर डाक समय से न पहुँचने पर मुसीबत खड़ी कर देते हैं।

ठीक है।

सुबह की डाक बारह बजे सधांशु को प्रस्तुत की गई, जिसे वह स्वयं दस मिनट में रिकार्ड सेक्शन में जाकर दे आया।

दरअसल एक अधिकारी होने के नाते डाक का फोल्डर उसे भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। कार्यालय के नियमानुसर पी.डी. के बाद डाक जे.डी. संयुक्त निदेशक) फिर डी.डी. (उप निदेशक) होते हुए ए.डी. (सहायक निदेशक) के पास जानी चाहिए... केवल उन गोपनीय पत्रों को छोड़कर जिन्हें केवल पी.डी. (प्रधान निदेशक) या जे.डी. तक ही जाना होता या उन्हें जो किसी के नाम से होते थे। अतिगोपनीय पत्रों को पी.डी. निकाल लेता था और सम्बध्द अधिकारी को सौंपकर कार्यवाई के निर्देश देता था। लेकिन उसे रिकार्ड रूम में बैठा देने के बाद इस मामले में भी उसकी उपेक्षा की जाने लगी थी। डाक का फोल्डर उस तक नहीं पहुँचता था। विनीत खरे, जो उससे जूनियर था, तक जाकर भट्ट के पास भेज दिया जाता, जो डाक का वितरण सम्बध्द अनुभागों में करवाता था। अब जबकि रिकार्ड सेक्शन उसी के अधीन था पी.डी. के पास भेजे जाने से पहले उसने डाक देखने का निर्णय किया।

उस दिन अपरान्ह जो डाक उसके समक्ष आयी उसमें दो ऑफिस ऑर्डर थे। एक प्रीति के उसी दिन कलकत्ता जाने और कार्य समाप्त कर चार दिन बाद लौटने का था और दूसरा डी.पी. मीणा के दो दिन बाद कलकत्ता जाने और प्रीति के लौटने वाले दिन ही मुख्यालय लौटने का था। प्रीति कब लौटेगी यह न उसने उससे पूछा था और न ही उसने उसे बताया था। वैसे उमूमन ऐसे टुअर के आदेशों में लिखा जाता है कि अफसर अमुक दिन जाएगा और कार्य समाप्ति के पश्चात लौटेगा। लेकिन उस ऑर्डर में लौटने की तिथि तय कर दी गई थी।

उस दिन शाम जब वह कार्यालय से निकलने वाला था एक चपरासी दौड़ता हुआ उसके पास आया। वह श्रीवास्तव का चपरासी था, सर पी.ए. साहब के पास आपका फ़ोन है।

'विराट का ही होगा।' उसने पिछले दिन की भांति कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। आराम के साथ सामान ब्रीफकेस में रखा और ब्रीफकेस मेज पर छोड़ नीचे उतरा। छ: बजने में पन्द्रह मिनट शेष थे। उसे देख पी.ए. केबिन से बाहर निकल आया। पी.ए. के चेहरे पर तनाव देख उसने अनुमान लगाया कि उसे अवश्य ही किसी बात परश्रीवास्तव से डांट पड़ी होगी।

उसने बिना किसी हड़बड़ी के फ़ोन का रिसीवर उठाया तो वह कट चुका था।

यह तो कट गया।

ओह। पी.ए. ने खेद प्रकट किया।

किसका था?

सर, आपके घर से था।

घर से...। सुधांशु चीख उठा, कोई संदेश...?

सर, आपकी मदर सीरियस हैं।

ओह। वह पी.ए. की सीट पर बैठ गया और फ़ोन आने की प्रतीक्षा करने लगा। दस मिनट तक वह सीट पर बैठा रहा, लेकिन फ़ोन नहीं आया। इस बीच श्रीवास्तव बाथरूम जाते और लौटते हुए उधर से निकला और उसने उसे पी.ए. की सीट पर बैठा और पी.ए. को बाहर खड़ा देखा। लौटते समय श्रीवास्तव ने पी.ए. को अपने पास आने का आदेश दिया। पी.ए. डर गया और समझ भी गया कि श्रीवास्तव उसे क्यों बुला रहा था। नोट बुक और पेंसिल थाम वह श्रीवास्तव के चेम्बर में पहुँचा तो श्रीवास्तव ने कड़क आवाज़ में उससे पूछा, यह साहब तुम्हारे केबिन मेें क्या कर रहे हैं?

सर, उनके घर से फ़ोन आया था...कट गया...दोबारा आने का...।

आपने इन्हें अपना नंबर इस्तेमाल क्यों करने दिया? ई.पी.बी.एक्स. नंबर भी तो है।

सॉरी सर।

जाओ और ध्यान दो कि कोई गोपनीय पत्र इनके हाथ न लगे...और भविष्य में अपना फ़ोन इस्तेमाल मत होने दो।

यस सर।

सभी फाइलें...डाक्यूमेण्ट्स मेज से हटा दो।

सर हटा चुका हूँ...उसके बाद...।

अधिक नहीं बोलो...।

सॉरी सर।

पी.ए. सिर पर पैर रखकर श्रीवास्तव के चेम्बर से बाहर निकला और अपने केबिन की ओर लपका। सुधांशु को उसी चिन्तित मुद्रा में बैठा देखा तो बोला, सर, अब शायद ही आए... आएगा तब मैं आपको बुला दूंगा...वैसे संदेश यही था कि आपकी मदर...।

हुंह। सुधांशु उठ खड़ा हुआ। वह असमंजस में था कि क्या करे। 'उसे घर जाना ही चाहिए... मेरे पहुँचने तक माँ जीवित भी मिलेंगी या...।' वह कांप उठा। चेहरे पर दो बूंदें टपक गयीं। वह गैलरी में खड़ा रहा क्षणभर तक इस उहापोह में कि स्टेशन छोड़ने से पहले अनुमति लेना आवश्यक है और इसके लिए वह श्रीवास्तव के पास जाए या पाल के पास। जाना पाल के पास ही होगा। वह कार्यालय का इंचार्ज है। उसे ही अनुमति का अधिकार है। उसकी अनुपस्थिति में श्रीवास्त से पूछा जा सकता है। वह पाल के पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा। पाल के पी.ए. का कमरा खाली था। इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर प्लास्टिक के कवर से ढका हुआ था। मेज साफ़ थी। न कोई फाइल न कोई काग़ज़। पी.ए. का पर्स तक मौजूद नहीं था, 'मतलब पी.डी. दफ़्तर में नहीं है।' उसने सोचा, फिर भी पाल के चेम्बर की ओर बढ़ा। चेम्बर के दरवाज़े पर कुंडी लगी हुई थी। दरवाज़े के ऊपर जलने वाली लाल या हरी बत्ती गुल थी और चपरासी की कुर्सी खाली थी, जो दरवाज़े के साथ सटी रखी होती थी।

'पी.डी. चले गये।' सुधांशु ने सोचा, 'श्रीवास्तव भी जाने वाले होंगे।' वह तेजी से श्रीवास्तव के पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा। पी.ए. सामान समेट रहा था।

आप श्रीवास्तव जी को बता दें कि मैं उनसे तुरंत मिलना चाहता हूँ...बहुत आवश्यक है अभी मिलना। यह कहते हुए उसने अनुभव किया कि उसका गला भरभरा रहा था।

जी सर। पी.ए., जो अपना लंच बॉक्स बैग में रख रहा था, उसे मेज पर छोड़ श्रीवास्तव के चेम्बर की ओर बढ़ गया और एक मिनट में ही लौट आया, सर, बिल्कुल जाने को तैयार खड़े हैं। गाड़ी लग चुकी है। चपरासी उनका ब्रीफकेस लेकर जा चुका है। सर, आप लपक कर मिल लें।

सुधांशु को लगा कि वह एक क्लास वन अफसर नहीं उस दफ़्तर का चपरासी है। दुखी मन और दुखी हो उठा, लेकिन मिलना अपरिहार्य था। वह श्रीवास्तव के चेम्बर में बिना नॉक किये प्रविष्ट हुआ। श्रीवास्तव चहल-कदमी कर रहा था।

यस, मिस्टर दास। उसकी ओर देखे बिना ही श्रीवास्तव बोला।

सर, कुछ देर पहले आपके पी.ए. के पास घर से फ़ोन आया था, माँ सीरियस हैं। मेरा अनुमान है कि वे शायद अब जीवित नहीं रहीं।

आप कैसे कह सकते हैं कि वे जीवित नहीं हैं।

मेरा अनुमान है...।

आपने फ़ोन अटेण्ड किया था?

नहीं सर, पी.ए. ने किया था। उसके संदेश से ही मैं ऐसा सोच रहा हूँ...।

श्रीवास्तव ने टेबल पर रखे फ़ोन का बजर दबाया। पी.ए. ने फ़ोन उठाया तो उसे आने का आदेश दिया। पी.ए. के आने पर पूछा, मिस्टर दास का फ़ोन आपने अटेण्ड किया था?

यस सर।

क्या बताया गया था?

सर, यही कि साहब की मदर सीरियस हैं। उसके बाद फ़ोन कट गया...अभी तक नहीं आया।

ओ.के। श्रीवास्तव ने पी.ए. को जाने का इशारा किया।

आप क्या कहना चाहते हैं मिस्टर दास। मेरे पास वक़्त कम है। वाइफ के साथ कहीं जाना है।

सर, मैं घर जाना चाहता हूँ...एक सप्ताह का अवकाश चाहिए।

वह तो पी.डी. सर से पूछे बिना नामुमकिन है।

सर, यदि मां...। सुधांशु का गला रुंध गया। उसे लगा वह रो देगा, लेकिन वह जिस पद पर था उस व्यक्ति को खुलकर आंसू बहाना भी मना होता है...पद की गरिमा का प्रश्न...गरिमा भले ही बाथरूम के बाहर बैठा देने से नष्ट होती हो, लेकिन तब भी घुटने के अतिरिक्त अपनी पीड़ा व्यक्त करना अपराध माना जाता है।

श्रीवास्तव पुन: टहलने लगा था और बार-बार घड़ी भी देखता जा रहा था।

आप एक प्रार्थना-पत्र, जिसमें सारे विवरण लिख दें...फोन आने...किसने अटैण्ड किया, क्योंकि वह उसका गवाह होगा और माँ की स्थिति बताकर स्टेशन छोड़ने की अनुमति देना आदि लिखकर भट्ट को दे दें। मैं भट्ट को कह दूंगा...ओ.के... सॉरी...मुझे जल्दी है। आपके साथ मेरी हमदर्दी है और ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपकी माँ को शीघ्र ही स्वस्थ करे।

सुधांशु ने श्रीवास्तव को धन्यवाद कहा और उसके पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा जिससे काग़ज़ लेकर उसे प्रार्थना-पत्र लिखना था। श्रीवास्तव भट्ट से कुछ भी कहे बिना गाड़ी में जा बैठा था।

दास का आभिप्राय समझ पी.ए. मन ही मन खीजा, क्योंकि उसे पन्द्रह-बीस मिनट का विलंब होने वाला था। काग़ज़ लेकर सुधांशु पी.ए. की सीट पर बैठकर प्रार्थना-पत्र लिखने लगा, लेकिन तत्काल उसे याद आया कि कहीं भट्ट चला न जाये। पाल के जाने का समाचार दफ़्तर में फैलते ही लोग जाने लगते थे। जो देर तक बैठते थे वे भी छ: बजते ही गेट पर नज़र आते । उसने पी.ए. से कहा, एक तकलीफ करेंगे आप मेरे लिए?

जी सर।

भट्ट को बोल आएँ कि मैं पांच मिनट में एप्लीकेशन लिखकर ला रहा हूँ। श्रीवास्तव जी ने उन्हें कह दिया होगा। मेरे आने तक वह रुके रहें।

जी सर।

पी.ए. ने लौटकर बताया, सर भट्ट मुझे गैलरी में मिले ...बोले श्रीवास्तव जी ने उन्हें कुछ नहीं कहा और वह रुक नहीं सकते, क्योंकि उन्हें अपनी बेटी को कत्थक के कार्यक्रम में लेकर जाना है, जो सात बजे प्रारंभ होगा।

फिर...? प्रार्थना-पत्र लिखते हुए सुधांशु के हाथ रुक गये।

आप पांच मिनट रुकें...मैं आपको ही दे दूंगा। आप सुबह श्रीवास्तव जी को दे देंगे।

जी सर।

सुधांशु जब तक एप्लीकेशन लिखता रहा, पी.ए. बेचेनी के साथ केबिन के बाहर टहलता रहा। कार्यालय बंद करने वाले चपरासी और बाबू उसके पास आए और बोले, का हो पी.ए. साहब ...सारा दफ़्तर चला गया आप यहाँ क्यों मक्खी मार रहे हो? आज हमें भी जल्दी घर जाने दो।

पी.ए. ने सुधांशु की ओर इशारा किया तो दोनों सकपका गये।

पी.ए. को एप्लीकेशन देकर सुधांशु ने कार्यालय बंद करने वाले चपरासी से पूछा, रिकार्डरूम बंद कर आए?

जी सर।

मेरा ब्रीफकेस मेज पर रखा है, जाकर ले आओ।

चपरासी दोड़ता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ने लगा और दो मिनट में सुधांशु का ब्रीफकेस ले आया। सुधांशु ने उन सभी को धन्यवाद दिया और गेट की ओर बढ़ा यह सोचते हुए कि कनॉट प्लेस के जिस एजेण्ट से वह एयर टिकट बुक करवाता है, वह मिल गया तो रात की किसी भी फ्लाइट से बनारस चला जाएगा।

लेकिन उसे अगले दिन सुबह की सहारा की टिकट मिली। जब वह गाँव पहुँचा, माँ की अत्येंष्टि की जा चुकी थी। उसका मन चीत्कार कर उठा। ज़िन्दगी में पहली बाद वह फूट-फूटकर रोया।