गलियारे / भाग 43 / रूपसिंह चंदेल
सुधांशु ने चार दिन के अवकाश के लिए आवेदन किया था। अगले दिन प्रदीप श्रीवास्तव के पी.ए. ने सुघांशु का प्रार्थना पत्र श्रीवास्तव को देते हुए कहा, सर, यह एप्लीकेशन सुधांशु सर मुझे देकर गये थे...।
मैंने भट्ट को देने के लिए कहा था।
सर, भट्ट साहब जा चुके थे।
हुंह। श्रीवास्तव ने सुधांशु की एप्लीकेशन लेकर मेज पर पेपरवेट से दबा दिया और पीए. से बोला, भट्ट को भेज दो।
भट्ट को एप्लीकेशन देते हुए श्रीवास्तव बोला, नोट के साथ इसे मेरे पास भेज दो।
भट्ट ने अपनी ओर से एक नोट लिखा और सुधांशु की एप्लीकेशन उसके साथ नत्थी कर उसे श्रीवास्तव को देने जाने लगा, लेकिन एक बार पुन: एप्लीकेशन और नोट पढ़ने का विचारकर वह कुर्सी पर बैठ गया। एप्लीकेशन पुन: पढ़ने के बाद उसे अपने पर कोफ्त हुई। 'सुधांशु दास ने इस पर अपना लीव एड्रेस तो लिखा ही नहीं।' वह सोच रहा था, 'इस बात का उल्लेख मुझे नोट में करना होगा। पी.डी. सर बाल की खाल निकालते हैं...सुधांशु दास के मामले में वह अधिक ही सतर्कता बरतेंगे...।'
भट्ट ने पहले वाला नोट फाड़ दिया और दूसरा लिखने लगा, जिसके अंत में उसने लिखा कि मिस्टर दास ने अपना अवकाश कालीन पते का उल्लेख अपने प्रार्थना-पत्र में नहीं किया है। नोट के साथ प्रार्थना पत्र नत्थी कर उसे एक खाली फाइल कवर के साथ टैग कर श्रीवास्तव को देने गया। श्रीवास्तव ने उसे मेज पर रख देने का इशारा किया और किसी से फ़ोन पर बातें करता रहा।
फोन पर वार्तालाप समाप्त कर श्रीवास्तव ने भट्ट के नोट के नीचे अपना नोट लिखा, जिसपर विशेषरूप से उसने सुधांशु द्वारा पते का उल्लेख न करने का ज़िक्र किया और चपरासी से उसे चमनलाल पाल के पास भेज दिया।
पाल को भट्ट से कल की घटना की सूचना पहले ही मिल चुकी थी और उसे यह भी भट्ट ने बता दिया था कि दास की एप्लीकेशन को नोट के साथ उसने जे.डी. के पास भेज दिया है। पाल श्रीवास्तव की टिप्पणी के साथ एप्लीकेशन आने की प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही सुधांशु की एप्लीकेशन उसके पास पहुँची, उसने श्रीवास्तव के नोट के नीचे अपना नोट लिखा, अवकाश स्वीकृत। अवकाश कालीन पता दर्ज न करने के लिए मिस्टर दास के लौटने पर उनसे स्पष्टीकरण मांगा जाए और संतोषजनक उत्तर न मिलने पर अनुशासनात्मक कार्यवाई की जाए।'
फाइल कवर पांच मिनट में श्रीवास्तव के पास वापस पहुँच गया और उसने अपनी टिप्पणी के साथ उसे भट्ट के पास भेज दिया जो उन दिनों एएफपीओ सेक्शन के साथ प्रशासन एक अनुभाग का काम भी देख रहा था। भट्ट ने आवश्यक बॉक्स में फाइल सुरक्षित रख दी।
इधर सुधांशु के प्रकृतिस्थ होने पर पिता सुबोध दास ने उससे कहा, बेटा, मुझे अफ़सोस है कि तुम अम्मा के अंतिम दर्शन नहीं कर पाये, लेकिन अधिक रोकने से मिट्टी के खराब होने का ख़तरा था। वैसे भी कल चार बजे शाम उनकी मृत्यु हुई थी।...अब तो जो होना था हो गया...बेटा मन को धीरज दो और उनके बचे कारज पूरा करो।
सुधांशु पिता की बातें सुनता रहा। पिता ही आगे बोले, अम्मा की तेरहवीं करने का निर्णय किया है। तुम कितने दिन की छुट्टी लेकर आए हो?
एक हफ्ते की...।
छुट्टी तो बढ़ावैं का पड़ी बेटा। तेरह दिन मा तेरहवीं... तुम एक हफ्ता की छुट्टी और बढ़ा देव।
सुधांशु सोच में पड़ गया। माँ के अंतिम दर्शन नहीं कर पाया, लेकिन उनकी आत्मा की शांति के लिए उनकी तेरहवीं तक रुकना ही चाहिए... मेरे पास छुट्टियाँ हैं और ऐसे अवसर पर कोई भी छुट्टियाँ देने से इंकार नहीं करेगा...पाल भी नहीं।'लेकिन तभी उसे पिछली यात्रा से लौटने के बाद की पाल की कही बात याद आयी,'विभाग ने आपकी माँ का ठेका नहीं लें रखा मिस्टर दास।'लेकिन इस बार मामला ही और है। मुझे आज ही कस्बे से एक सप्ताह के लिए अवकाश बढ़ा देने के लिए तार भेज देना चाहिए। लेकिन जब तक मैं कस्बे के पोस्ट आफिस पहुँचूंगा...वह बंद हो चुका होगा। तार कल भी भेजा जा सकता है।'
और सुधांशु ने अगले दिन तार देकर एक सप्ताह के लिए अवकाश बढ़ाने का अनुरोघ प्रधान निदेशक पाल को भेज दिया। उसने माँ की मृत्यु और तेरहवीं के लिए अवकाश बढ़ाने का कारण बताया था, लेकिन जब एक विशेष फोल्डर में रखकर पी.ए. ने तार पाल के पास प्रस्तुत किया वह फुंकार उठा। पी.ए. को बुलाया और डिक्टेशन लिखने का आदेश दिया। उसने चार पंक्ति का पत्र डिक्टेट किया, जिसमें कहा गया था कि माननीय प्रधान निदेशक ने आपके अवकाश बढ़ाने के प्रार्थना पत्र पर सहानुभूतिपूर्वक वियार किया, लेकिन हिन्दी संसदीय समिति के आगमन को दृष्टिगत रखते हुए आपकी उपस्थिति अपरिहार्य मानकर अधो-हस्ताक्षरकर्ता को आपको सूचित करने का निर्देश दिया कि आपके पूर्व प्रार्थना-पत्र के आधार पर आपको प्रदत्त अवकाश के आगे अवकाश स्थगित करने की अनुमति आपको नहीं दी जा सकती। अत: आप अविलंब कार्यालय में उपस्थित हों।
डिक्टेशन देने के बाद पाल ने टेलीग्राम पी.ए. को देते हुए कहा, डिक्टेशन टाइप करके इसके साथ भट्ट को दे देना। उसे कहना कि मुझसे बात कर ले।
यस सर।
डिक्टेशन और टेलीग्राम भट्ट को देते हुए पी.ए. ने कहा, आप इसके साथ तुरंत पी.डी. सर से मिल लें।
पाल ने डिक्टेशन चेक करने के बाद भट्ट से कहा, इसे विनीत खरे के हस्ताक्षर से स्पीड पोस्ट से सुधांशु दास को भेज दो।
सर, एप्लीकेशन में उन्होंने अपना लीव एड्रेस नहीं दिया।
मिस्टर दास ने कार्यालय में अपना स्थयी पता लिखा होगा।
जी सर।
फिर...मेरा मुंह क्यों तक रहे हो। जाकर काम करो।
सुधांशु के तार ने पाल के दिमाग़ को गर्मा दिया था। 'पार्लियामण्टरी कमिटी आने वाली है और यह व्यक्ति पुरानी परंपराओं से चिपका हुआ है। दिल्ली में तीन-चार दिनों में सब कुछ सम्पन्न हो जाता है...तेरह दिन...।' यह सोचते ही उसकी बौखलाहट बढ़ गयी थी।
जी सर। भट्ट यूं भागा मानो पुलिस उसके पीछे थी।
पत्र सुघांशु को तेरहवीं से एक दिन पूर्व मिला। रजिस्टर्ड डाक से भेजा गया वह पत्र कदम-कदम चला। एक दिन वह प्रधान निदेशक कार्यालय के रिकार्ड सेक्शन में पड़ा रहा, क्योंकि वह वहाँ पहुँचा तब था जब सेक्शन के लोग जाने वाले थे। अगले दिन वह जी.पी.ओ. में आराम करता रहा...और इस प्रकार जब पहुँचा तब सुधांशु के लिए समय से पहुँचने के अवसर उसने छीन लिए थे। सुधांशु का आरक्षण बनारस से अगले दिन था। उसने रजिस्ट्री स्वीकार की और हस्ताक्षर के नीचे तारीख डाल दी। उसे आंशका पहले से ही थी कि पाल उसके अवकाश बढ़ाने से चिढ़ जाएगा, बल्कि वह व्यक्तिगत रूप से अगले दिन मिलकर अवकाश पर जाने की अनुमति न लेने से ही चिढ़ चुका होगा और अवकाश बढ़ाने के तार ने घी में आग का काम किया होगा। उसने भविष्य में घटित होने वाली किसी भी अप्रिय घटना को मस्तिष्क से निकालने का प्रयत्न किया और पिता के साथ तेरहवीं की व्यवस्था में जुट गया। वास्तव में व्यवस्था उसी को करना था, क्योंकि पिता तेरहवीं में बैठे हुए थे। कुछ करने की अनुमति उन्हें नहीं थी। सुधांशु को ही घर, जानवर, निमंत्रण, हलवाई आदि की व्यवस्था करनी थी। यद्यपि उसके सहयोग के लिए पास-पड़ोस के लोग सन्नध्द थे। गाँव में सुधांशु के प्रति लोगों में प्रेम और आदर था। गाँव का नाम रौशन किया था उसने आई.ए.एस. बनकर। लोगों को आशाएँ थीं उससे...अपने बच्चों को लेकर। जैसाकि सभी गाँव के लोगों को गाँव के किसी युवक के अच्छे पद पर पहुँचने पर होती है। जब तक वह आशा उन्हें बनी रहती है उनकी दृष्टि में वह गाँव का हीरो रहता है, लेकिन जब अपनी तमाम उलझनों, व्यस्तताओं, विडंबनाओं और सीमाओं के कारण वह युवक गाँव के लोगों की आशाएँ पूरी नहीं कर पाता गाँव वालों की दृष्टि में उसका महत्त्व घटने लगता है। कुछ सक्षम स्थिति में होने पर भी कन्नी काट लेते हैं। गाँव से अपने को विमुक्त कर लेते हैं, लेकिन बहुत-से ऐसे होते हैं जो अनेक कारणों से कुछ कर नहीं पाते और दोनों ही गाँव वालों की आलोचना का शिकार होने लगते हैं।
सुधांशु से अभी तक लोगों को अपेक्षाएँ थीं। अभी वह ख़ुद ही व्यवस्थित हो रहा है। उस पर माँ की ग़मी...इससे उसे उबरने में बखत लगेगा...लेकिन औरों की तरह नहीं है वह...जरूर कुछ करेगा अपना सुधांशु। यहाँ तक कि जो विद्यार्थी सुधांशु के कक्षाएँ-दर कक्षाएँ फलांगने पर डाह करते थे अब वे भी उसकी प्रशंसा करने लगे थे और गाँव का हर घर उसे अपनी डयोढ़ी एक बार लांघता देखना चाहता था। लेकिन सुधांशु ने अपने को अपने घर तक ही सीमित कर लिया था। उसने आते ही पिता की सहायता के लिए गाँव के ही एक गरीब अधेड़ को काम पर रख लिया था, जिसका नाम ममतू था। ममतू चालीस के लगभग मझोले कद, कृष्णवर्ण, चमकती आंखों और दोहरे बदन का व्यक्ति था, जिसके तीन बच्चे...दो लड़के और एक लड़की और पत्नी...पांच का परिवार था उसका। कमाई का ठोस आधार नहीं था। लड़की छोड़ पूरा परिवार मजदूरी करता था। पढ़ने की उम्र में लड़के जमींदारों के घर दिनभर काम करते थे। ममतू के प्रति गाँव में रहते हुए सुधांशु सहृदय रहा करता था और यही कारण था कि उसकी सहायता करने के विचार से गाँव आते ही उसने उसे अपने यहाँ काम करने का प्रस्ताव किया। ममतू के लिए यह मुंह मांगी मुराद थी। ममतू और उसकी पत्नी ने जानवरों, खेत और घर के कामों का भार अपने सिर ले लिया था।
तेरहवीं का कार्यक्रम निर्विघ्न समाप्त हो गया। इस दौरान कितनी ही बार उसने कार्यालय में घटित होने वाली स्थिति की कल्पना की और सोचा कि प्रीति के दिल्ली लौटने के पश्चात माँ की मृत्यु का समाचार क्या उसे नहीं मिला होगा! घर में मेरी अनुपस्थिति पर उसने मेरे कार्यालय से मेरे बारे में जानने का प्रयत्न नहीं किया होगा! वह आ नहीं सकती थी...आना भी नहीं चाहती होगी, लेकिन टेलीग्राम द्वारा शोक संदेश ही भेज देती।'उसने सोचा,'उसके पास गाँव का पता नहीं होगा। होना चाहिए। नहीं था तो वह मेरे कार्यालय से ले सकती थी। मुख्यालय में सभी क्लास वन अधिकारियों की निजी फाइलें हैं जिसमें उनका सारा विवरण दर्ज होता है। प्रीति तो वहीं है। लेकिन उसके लिए रिश्तों का कोई महत्त्व नहीं रहा अब। फिर मैं ही क्यों रिश्तों को ढोता रहूँ,! केवल समाज को दिखाने के लिए कि हम पति-पत्नी हैं। जब उसने पत्नी धर्म की धज्जियाँ उड़ा दीं तब...श्रीवास्तव के कहने पर मैं फ़्लैट में रहने चला गया...किसलिए... केवल सामाजिक भयवश...रिश्तों को पुन: स्थिापित करने...मन में भावना नहीं थी। ग़लतियाँ इंसान से ही होती हैं, यदि इंसान ग़लती को मान ले और पुन: उसे न होने देने का निर्णय करे तो पुरानी स्थिति बहाल करना असभंव नहीं...एक परिवार छिन्न-भिन्न होने से बचता है...मैंने यही सोचा था, लेकिन लगता नहीं कि प्रीति भी ऐसा ही सोचती है। शायद वह मुझे कवच की भांति धारण किए रखना चाहती है, लेकिन मैं क्यों बनूं उसका कवच...यदि वह इतना ही स्वार्थग्रस्त है तब मैं उसकी स्वार्थपूर्ति का साधन क्यों बनूं! मुझे अपने सम्बन्धों की गहनता से समीक्षा करने की आवश्यकता है।'
'मैं कितने मोर्चों पर लड़ूं! क्ार्यालय में पाल, घर में प्रीति और अब पिता की समस्याएँ। माँ थीं तब निश्चिंतता थी, लकिन अब पिता जी अकेले गाँव में रहें यह उचित नहीं होगा। मुझे प्रीति से अलग व्यवस्था करना ही होगा...पिता जी को दिल्ली ले जाना ही उचित होगा।' और चलते समय उसने पिता से अपना विचार व्यक्त किया। सुनकर सुबोध बोले, सुधांशु तुम मेरी चिन्ता छोड़ो...गांव के बिना मैं जी नहीं सकूंगा। गाँव मेरे रक्त में बसा हुआ है। तुम्हारे पास मैं तुम्हारी अम्मा के साथ पटना में रहकर देख चुका हूँ। शहर में मेरा दम घुटता ह,ै बेटा। तुम दोनों सुखी रहो...कभी-कभी बहू के साथ गाँव के चक्कर लगा जाया करना। कभी मन ऊबेगा और तुम नहीं आ पाओगे तब मैं भी आ जाया करूंगा...दो-चार दिनों के लिए... लेकिन शहर ...वह भी दिल्ली जैसे शहर...जहाँ लोग दौड़ रहे होते हैं...जिन्दगी भाग रही होती है...वहाँ मुझ जैसे गंवई-गांव के आदमी का दम घुट जाएगा। यहाँ रहकर दस साल जी लूंगा तो वहाँ...।'पिता के सामने उसके तर्क नहीं चले थे। पिता के तर्कों के उत्तर में उसने कहा,आप जहाँ सुकून अनुभव करें...वहीं रहें।
तुमने ममतू को मेरी मदद के लिए लगा दिया है...यही बहुत है। तुम सुखी रहो...। और सुबोध की आंखें गीली हो गयीं थीं, सुख के दिन जब आए तब तुम्हारी अम्मा साथ छोड़ गयीं। अच्छे लागों के साथ यही होता है। ख़ूब साथ निभाया उसने...। सुबोध सिसकने लगे। सुधांशु भी अपने को रोक नहीं पाया और वह भी सिसक उठा।