गलियारे / भाग 44 / रूपसिंह चंदेल

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यह अप्रत्याशित था, लेकिन घटित हुआ। लखनऊ और शाहजहाँपुर के बीच एक स्थान पर रेल दुर्घटना हो गयी थी। किसी एक्सप्रेस ट्रेन की टक्कर मालगाड़ी से हुई थी। दुर्घटना रात के समय घटी और स्थान किसी गाँव के स्टेशन के निकट जंगल का था। दुर्घटना इतनी भीषण थी कि एक्सप्रेस गाड़ी की चार बोगियाँ उलट गयी थीं और शेष ट्रेन पटरी से उतर गयी थी। इंजन दौड़कर पटरी से दूर ज़मीन में जा धंसा था। दोनों गाड़ियों के ड्राइवरों सहित कितने लोगों की मृत्यु हुई थी इसका सही अनुमान नहीं था। केबिनमैन ने दोनों ओर के सिग्नल लाल कर दिए थे और स्टेशन मास्टर से बात करने का प्रयत्न किया था, लेकिन केबिन में मौजूद फ़ोन की सांसे उखड़ी हुई थीं। केबिनमैन टार्च लेकर लाइन के किनारे स्टेशन की ओर दौड़ा था स्टेशन मास्टर को सूचित करने के लिए। स्टेशन पहुँचने पर उसे स्टेशन मास्टर अपने कमरे में नहीं मिला था। एक खलासी सामान ढोने वाली हाथगाड़ी पर लेटा ऊँघता दिखा था। स्टेशन पर सौ वॉट के दो बल्ब टिमटिमा रहे थे, जिनकी बीमार रोशनी में केवल चीजों का आभास ही मिल पा रहा था। स्टेशन मास्टर के कमरे में टयूबलाइट जल रही थी और उसकी मेज पर लॉगबुक और उस पर पेन रखा हुआ था। 'मास्टर जी यहीं कहीं होंगे।' केबिनमैन ने सोचा और बेचैनी से टहलने लगा। पांच मिनट गुजर गये, लेकिन स्टेशन मास्टर का पता नहीं था। एक्सप्रेस गाड़ी आने का समय हो रहा है।'केबिनमैन परेशान हो उठा। वह दौड़कर खलासी के पास चहुंचा,क्यों रे हरबू, मास्टर जी कहाँ गये? वह स्टेशन मास्टर को मास्टर जी कह रहा था।

घर गये होंगे।

केबिनमैन घर की ओर दौड़ा तो स्टेशन मास्टर को पैण्ट संभालते आते देखा। स्टेशन मास्टर का पेट गड़बड़ था और वह उस एक्सप्रेस ट्रेन के गुजरने के लिए रुका रहा था। उसके गुजरते ही वह घर की ओर लपका था। पेट में ऐसी घुड़घुड़ाहट हो रही थी कि बैठते ही बम फटने लगे थे और उसे दुर्घटना का आभास तक नहीं मिला था।

सर, जल्दी कीजिए... अभी जो एक्सप्रेस गुजरी थी केबिन से आगे भयानकरूप से दुर्घटनाग्रस्त हो गयी है। मैं उधर न जाकर पहले आपको बताने आया...आप सभी स्टेशनों को सूचित कर दें...दूसरी एक्सप्रेस गाड़ी आने में अभी आध घण्टा है।

स्टेशन मास्टर का चेहरा आतंक से फैल गया। बोल नहीं फूटे।

सर, मैं उधर ही जा रहा हूँ...आप आगे जहाँ भी सूचना दे सकते हैं...दें...पता नहीं वहाँ क्या हाल होगा। केबिनमैन ने स्टेशन मास्टर के चेहरे पर दृष्टि डाली...उसका चेहरा राख हो रहा था।

दरअसल स्टेशन मास्टर दुर्घटना के समाचार से इतना घबड़ा गया था कि उसके मुंह से आवाज़ नहीं निकली।

केबिनमैन दुर्घटना स्थल की ओर दौड़ गया।

दुर्घटना इतनी भीषण थी और उसकी आवाज़ इतनी तेज कि आसपास के गांवों तक पहुँची थी और जब केबिनमैन वहाँ पहुँचा चारों ओर से टार्च और लालटैनें लिए ग्रामीणों को दौड़कर आते देखा। कुछ ने मशालें जला रखी थीं।

'दुर्घटना की इतनी भीषण आवाज़ को स्टेशन मास्टर कैसे सुन नहीं सके थे।' केबिनमैन आश्यर्यचकित था। यदि उसे यह जानकारी होती कि पेट की गड़बड़ और फूटते बमों ने स्टेशन मास्टर के होश उड़ा रखे थे तो वह वैसा नहीं सोचता।

सुधांशु की ट्रेन को दुर्घटना स्थल से तीन स्टेशन पहले रोक दिया गया। रेलवे ट्रैक खाली होने तक आठ धण्टे लगे। अनेक गाड़ियों को कानपुर के रास्ते दिल्ली भेजा गया लेकिन उसकी ट्रेन ऐसे स्थान पर रुकी हुई थी कि उसका रास्ता बदलना संभव नहीं था। ट्रेन दस घण्टे विलंब से नई दिल्ली पहुँची। कार्यालय का समय समाप्त हो चुका था, जबकि सुधांशु को उस दिन कार्यालय पहुँचना आवश्यक था। जिस स्टेशन पर उसकी ट्रेन को रोका गया था वहाँ से ट्रंकाल करना संभव नहीं था।

'आज कार्यालय न पहुँचना पाल की दृष्टि में अक्षम्य अपराध है। लेकिन ऐसी स्थिति में कोई कर भी क्या सकता है। मैं अपना टिकट सुरक्षित रखूंगा...वह ट्रेन दुर्घटना के विषय में चाहे तो पता कर सकेगा।' नई दिल्ली स्टेशन पर उतरते हुए सुधांशु ने सोचा।

'आखिर मैंने ऐसा क्या किया जिससे पाल मेरे विरुध्द है?' ऑटो में बैठते ही विचार उसके दिमाग़ में घूमने लगे।

'किया ...तुमने कांट्रैक्टर्स के बिल रोके... उनकी अनयमितताएँ पकड़ीं। बिना माल सप्लाई किए प्रस्तुत बिलों को रोककर उनके विरुध्द कठोर कार्यवाई की सिफारिशें की...यह सब उस व्यक्ति से जो स्वयं ठेकेदारों की जेब में बैठा है। भ्रष्टाचार के विरुध्द बोलना इस देश में अपराध की श्रेणी में गिना जाने लगा है। बदलते समय में अपराध की परिभाषा बदलने लगी है। जो अपराधी है वह शेर की भांति सीना ताने विचरण करने के लिए सवतंत्र है और उसके विरुध्द उंगली उठाने वालों को वह अपना शिकार समझता है। यह आज़ादी भी व्यवस्था ने उसे दे रखी है, क्योंकि उसका सम्बन्ध सत्ता के गलियारों तक है। सत्ता...जो जनता के वोट के बल पर संसद और विधानसभाओं में काबिज होती है...वह किस प्रकार वोट के लिए नोटों का खेल खेलती है...यह अब छुपा नहीं रहा। तमिलनाडु जैसे राज्यों में बड़ा-छोटा नेता जनता के वोट खरीदने के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाते हैं, क्योंकि एक बार सत्ता हाथ आने पर उसके सौ गुना उनकी जेब में होने की गारण्टी सत्ता उन्हें देती है। बात तमिलनाडु ही क्यों...कोई भी राज्य पीछे नहीं...कोई भी नेता पीछे नहीं...चाहे केन्द्र के लिए चुनाव लड़ने वाला हो या राज्य के लिए। बहुमत के अभाव में सरकार बचाने के लिए सांसद...विधायक खरीदे जाते हैं... करोड़ों कहाँ से आते हैं...जनता का धन जनप्रतिनिधियों की जेब में जाता है और वहाँ से स्विस बैंकों में...देश आज़ाद कहाँ है! मुलाम था तब अंग्रेज शिकारी थे... आज अपने ही राजनीतिज्ञों से लेकर भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स...पूंजीपति...सभी शिकारी हैं। अपने-अपने ढंग से वे जनता का शिकार कर रहे हैं और जनता किंकर्तव्यविमूढ़ है। ये शिकारी इतना क्रूर हैं कि अपने विरुध्द कहने वालों को समाप्त करने के सभी हथकंडे अपनाते हैं...।' वह सोचता रहता कि ऑटोवाले ने उसे टोका, साहब, किधर मोड़ना है।

उसने उसे प्रगतिविहार हॉस्टल का रास्ता बताया।

ऑटो का किराया चुकता करते हुए उसकी दृष्टि सफेद मारुति आठ सौ पर जा टिकी, जो उसके फ़्लैट की सीढ़ियों के पास खड़ी थी। 'यह गाड़ी नंबर मैंने पहले भी देखा है। कहाँ ?' पर्स से रुपये निकालते उसके हाथ क्षणभर के लिए रुक गये। उसने उचटती नज़र ऑटो ड्राइवर पर डाली, जो अपनी सीट पर बैठा पर्स की ओर देख रहा था... 'पैसे मिलें और वह जाये' वाले भाव से।

'कहाँ देखा...।' सुधांशु ने गहनता से सोचा और तभी उसे याद आया कि उस गाड़ी को उसने मुख्यालय यानी महानिदेशालय के बाहर खड़ा देखा था। यह याद आते ही उसने पर्स से रुपये निकाले, गिने और ऑटोवाले को पकड़ाकर अपना सूटकेस और बैग उतार सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

फ़्लैट के दरवाज़े पर पहुँच उसने बैग नीचे रखा और दरवाज़े को नॉक किया। अंदर दो लोगों की आवाजें उसे सुनाई दीं। एक प्रीति की थी और दूसरी को उसने पहचानने का प्रयत्न किया। नॉक करते ही आवाजें फुसफुसाहटों में बदल गयीं।

समबडी इज देअर?' प्रीति की फुसफुसाती आवाज़ थी।

शायद। पुरुष स्वर। फिर शांति।

दो मिनट बीत गये। दरवाज़ा नहीं खुला। सुधांशु ने पुन: नॉक किया। किसीके कदमों की आवाज़ और पीछे से प्रीति की फुसफुसाहट जस्ट वेट डी.पी.। मैं गाउन डाल लूं।

'ओह! तो डी.पी. मीणा है।' सुधांशु को लगा कि उसका दिमाग़ चकरा रहा है। वह गिर जायेगा, लेकिन संभलने में उसने समय नष्ट नहीं किया। फ़र्श पर रखा बैग उठाया और धड़धड़ाता हूुआ सीढ़ियाँ उतर गया। ऑटो ड्राइवर तब तक गया नहीं था। गाड़ी मोड़कर वह फ़्लैट के सामने एकांत पाकर अंधेरे का लाभ उठाता पेशाब कर रहा था। ऑटो की ओर बढ़ते हुए सुधांशु ने पिच से डी.पी. मीणा की गाड़ी पर थूका और लपककर ऑटो में बैठ गया। ड्राइवर पैण्ट की चेन चढ़ाता हुआ लौट आया था।

मित्र, लक्ष्मीनगर चलना है।

लक्ष्मीनगर... साहब...। ड्राइवर द्विविधा में पड़ गया।

यहाँ से तो चलो...आगे बात करेंगे। ड्राइवर ने जब ऑटो स्टार्ट किया, सुघांशु को फ़्लैट की बालकनी से डी.पी.मीणा झांकता दिखाई पड़ा।

सुधांशु का दिल तेजी से धड़क रहा था और घृणा से भरा हुआ था। 'विश्वासघात' शब्द उसके मस्तिष्क को मथे डाल रहा था।

खान मार्केट की ओर से ऑटो ले लेना। शायद कोई पी.सी.ओ. की दुकान खुली हो...एक फ़ोन करना है।

जी साहब। ड्राइवर उधर ही से जा रहा था।

खान मार्केट में उस समय भी अच्छी रौनक थी। एक दुकान से सुधांशु ने कोमलकांत विराट को पहले धर फ़ोन किया, लेकिन विराट घर में नहीं था। उसने जनसत्ता कार्यालय मिलाया, ज्ञात हुआ कि विराट कुछ समय पहले ही घर के लिए निकला था।

'घर पर ही मिलेगा।' सोचता हुआ सुधांशु लौट आया।

जब वह लक्ष्मीनगर विराट के धर पहुँचा विराट ताला खोल रहा था। सुघांशु को देखते ही बोला, आइये कवि...आज मैं आपको दिन भर याद करता रहा। आपके कार्यालय फ़ोन मिलाया तो ज्ञात हुआ कि आपकी माता जी की तबीयत गंभीर थी...आप घर गये हैं। कैसी है तबीयत अम्मा जी की?

शी इज नो मोर।

ओह, आय एम सॉरी सुधांशु। ईश्वर अम्मा की आत्मा को शांति प्रदान करे और दुख सहने के लिए आपको बल दे। विराट ने कमरे का दरवाज़ा खोला तो अंदर से गर्मी के भभके ने उनका स्वागत किया।

आज गर्मी कुछ अधिक है। विराट बोला, घर से आ रहे हो?

हाँ। सुधांशु ने बैग और सूटकेस सोफे पर पटका और बोला, 'ठण्डा पानी पिलाओ विराट...प्यास से दिमाग़ फटने को हो रहा है।

एक मिनट। विराट ने पंखा चलाया, फिर खिड़की का पर्दा हटाकर कूलर चला दिया, इधर...कूलर के सामने बैठो...आराम मिलेगा। दिनभर बंद रहने से कमरा तप जाता है। पन्द्रह मिनट में ठंडा हो जाएगा।

सुधांशु कूलर के सामने बैठ गया।

भोजन तो करोगे?

इच्छा नहीं है।

इच्छा को रखो ताक पर...मुझे भूख लग रही है। बहुत सही समय पर आये हो। आध घण्टा लगेगा...एगकरी और चावल बनाता हूँ...। जब तक अण्डे उबलेंगे ...चाय बना लूं?

नहीं।

कोल्डड्रिंक ले लो। फ्रिज में रखा है।

आवश्यकता नहीं है।

कमरा ठंडा हो गया है। नहाना चाहो तो...।

नहीं, उसकी भी आवश्यकता नहीं है। विराट की बात बीच में ही काट दी सुधांशु ने।

कपड़े बदलकर बेड पर आराम करो...बाकी बातें बाद में...भोजन के समय करेंगे।

विराट भोजन पकाने में व्यस्त हो गया और सुधांशु कपड़े बदलकर बेड पर लेट गया। उसके मस्तिष्क में तूफान चल रहा था और वह निरंतर प्रीति और मीणा के विषय में सोच रहा था...'आज सब समाप्त हो गया। यह सब कल्पनातीत है।' मन के एक कोने से आवाज़ आयी, 'लेकिन यह कटु सत्य है। इसे स्वीकार करो और प्रीति के साथ घुट-घुटकर जीवन बिताओ या अपने जीवन में उसके आने को एक हादसा मान उसे भूल जाओ। उससे मुक्ति ही तुम्हारे जीवन का त्राण हो सकती है। जब उसने तुम्हारी चिन्ता नहीं की...सम्बन्धों की पवित्रता की परवाह नहीं की...पिछली बार इसे मेरी मात्र आशंका क़रार दिया था...लेकिन अब वास्तविकता आंखों के सामने थी...जानकर भी ज़हर पी लूं...मैं शिव नहीं...सामान्य इंसान हूँ...छल-छद्म से प्रभावित होने वाला सामान्य इंसान।'

'मुझे करना क्या होगा!' उसने करवट ली और आंखें बंद कर लीं। अभी तक आंखें खोले दीवार की ओर देखता रहा था, जहाँ कलेण्डर लटका हुआ था। वह सोचने लगा, 'कल किसी होटल में...फिर कहीं कमरा किराये पर लेकर...अलग...प्रीति की छाया से दूर।'

'हमारा अलग रहना विभाग में चर्चा का विषय नहीं बनेगा? उसने आंखें खोल लीं,'दूसरों की परवाह कर अपनी आत्मा पर प्रहार करूं...उसे मार लूं...नहीं। विभाग में वैसे भी चर्चा कम नहीं...पाल ने मुझे रिकार्ड रूम में बैठा दिया...इस पर क्या लोगों ने जुगाली नहीं की होगी। कोई आप पर अत्याचार करता रहे और आप उसे बर्दाश्त कर उसके सामने घुटने टेके रहें यह भी उतना ही बड़ा अपराध है जितना बड़ा उसका आप पर अत्याचार करना। अपराधी वह भी है जो अपराध करने वाले को बर्दाश्त करता है और उसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति कितना ही ईमानदार क्यों न हो, लेकिन यदि वह अपने भ्रष्ट मंत्रियों को बर्दाश्त करता है...और वह भी महज़ इसलिए कि वह सत्ता सुख भोगता रहे तो देश के लिए वह भी उतना ही गुनाहगार है जितना उसके मंत्री...बावजूद इसके कि वह बेहद-बेहद ईमानदार व्यक्ति है।' उसने पुन: आंखें बंद कर लीं।

'बहुत हुआ...अब बिल्कुल नहीं...।'

अरे क्या बहुत हुआ...क्या बिल्कुल नहीं कविवर। विराट बेड के पास खड़ा पूछ रहा था।

सुधांशु हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसका चेहरा पसीने से तरबतर था, कुछ नहीं...मुझे याद नहीं मैंने क्या कहा। थकान के कारण तंद्रिल अवस्था में मुंह से निकल गया होगा।

ऑफिस से आ रहे हो?

बनारस से...रास्ते में ट्रेन दुर्घटना हो गयी थी। गाड़ी दस घण्टे विलंब से पहुँची। ऑफिस नहीं जा पाया।

भाभी कहीं गई हैं?

हुंह। सुधांशु इस प्रसंग को यहीं विराम देना चाहता था, भोजन तैयार हो गया ?

अभी लाया। विराट किचन की ओर बढ़ गया।

खाना परोसते हुए विराट ने पूछा, सुधांशु जी, शोक से लौटे हैं आप...पूछना धृष्टता लग रही है लेकिन...बुरा न मानें तो एक-एक पेग हो जाये।

सुधांशु ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी। 'दिमाग जिस दुर्घटना से बोझिल है, एक पेग राहत देगा।' उसने सोचा और एक ही पर उसने विराम नहीं लिया। वे दोनों बोतल समाप्त होने तक पीते रहे और जब सुधांशु बेड पर गया आर.सी. के पांच पेग उसके पेट में पहुँच चुके थे। उसके बाद उसे होश नहीं रहा कि वह कहाँ था।