गलियारे / भाग 45 / रूपसिंह चंदेल

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घटनाएँ इतनी तेजी से घटीं कि उसकी कल्पना सुधांशु कर ही नहीं सकता था। उसने यह तो सोचा था कि उसके अवकाश बढ़ा लेने से चमनलाल पाल ने अपने नाखून और तेज और नोकीले कर लिए होंगे और कार्यालय में उसके क़दम रखते ही उसका क्रोध उस पर फट पड़ेगा, लेकिन बात यहाँ तक पहुँच जाएगी उसने नहीं सोचा था। सुबह जब वह सोकर उठा हल्का सिर दर्द था। 'रात अधिक पी गया था। उसने सोचा,'मुझे पीना नहीं चाहिए था। पीकर अपने को भूलने-भुलाने का तर्क उचित नहीं है। जो कुछ हुआ उसके लिए मैं स्वयं ज़िम्मेदार हूँ, लेकिन पिता और समाज के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं, पीकर उनसे मैं भटक जाउंगा। यदि पिता जी को पता चले तो वे क्या सोचेगें! वह कल्पना ही नहीं कर सकते कि मैंने शराब पी थी। मुझे अपने को संभालना चाहिए। पटना में भी विराट, सुकांत आदि पीते थे...सिन्हा ने कितनी ही बार कहा था, 'कैसे अफसर हो सुधांशु जी। एक घूंट लेकर देखो...पीकर साहित्य अच्छा लिखा जाता है।' सिन्हा की बात का मैंने खंडन किया था, 'मैं नहीं समझता कि महान रचनाएँ लिखते समय उनके रचयिता धुत रहे थे...और सच यह है कि जो ऐसा मुगालता पालते हैं मुझे नहीं लगता कि वे कभी अच्छी रचनाएँ लिख पाते हैं...जब मस्तिष्क ही स्वस्थ नहीं होगा तब विचार स्वस्थ कैसे हो सकते हैं!' उसने कहा था।

यह बहस का मुद्दा हो सकता है। सिन्हा ने ठहाका लगाया था, आप कोल्ड ड्रिंक से ही काम चलाइये सुधांशु जी।

'लेकिन वही मैं अब विराट के कहने मात्र से पीने बैठ गया। शायद इसलिए... क्योंकि पटना में जीवन इतना अशांत नहीं था...घात-प्रतिघात और विश्वासघात जैसा कुछ नहीं घटित हुआ था। कार्यालय में शांति थी। सभी प्रशंसा करते थे...कोई खींचतान नहीं थी। ऐसा नहीं कि वहाँ रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार नहीं था। उतना ही था जितना प्ररवि विभाग के किसी भी कार्यालय में है या कहना चाहिए कि उससे बिल्कुल कम नहीं जितना अन्य सरकारी महकमों में पाया जाता है। वहाँ प्रर व प्ररवि विभाग के अधिकारियों के बीच सांठ-गांठ थी। लेकिन मुझे जिन अनुभागों का काम सौंपा गया था वे इस सबसे मुक्त थे।'

'लेकिन तनाव का अर्थ यह नहीं कि कोई अपने संस्कारों को ताक पर रख दे और वह सब करने लगे जिसके विषय में उसने कभी सोचा भी न हो। यदि सोचा भी हो तो उसे हेय दृष्टि से देखा हो।' बिस्तर पर पड़े-पड़े ही वह सोचता रहा और खर्राटे लेते विराट को देखता रहा, 'कितना मस्त जीवन है पट्ठे का। शादी की नहीं...फिलहाल करने का विचार भी नहीं...जबकि मुझसे तीन वर्ष बड़ा है। फिर मैंने ही क्यों की...यदि रुका होता तब शायद प्रीति की वास्तविकता प्रकट हो चुकी होती। क्या उसने मुझे साधन के रूप में इस्तेमाल किया...क्या उसे मुझ जैसे एक मूर्ख की आवश्यकता थी। मैंने नहीं ही किया होता यदि मुझे इसकी यह वास्तविकता पता चल जाती कि उसके जीवन का लक्ष्य मौज-मस्ती है। सिध्दांत, नैतिकता और संस्कारों का उसके लिए कोई महत्त्व नहीं। भले ही शादी तक इसने उनके मुखौटे चढ़ा रखे थे, लेकिन शादी के बाद धीरे-धीरे वे उतरने लगे थे। तो क्या पिता नृपेन मजूमदार और कमलिका मजूमदार भी बेटी को समझ नहीं पाये थे!'

'ऐसा हो नहीं सकता। उन्होंने बहुत सोच-समझकर मेरे साथ उसके विवाह का निर्णय किया होगा। वे जानते रहे होंगे और उन्होंने सोचा होगा कि मुझ जैसे गरीब और संस्कारवान युवक के साथ ही प्रीति का निर्वाह हो सकता है। फिर भी अपनी बेटी के इस अध:पतन की कल्पना उन्हें कतई नहीं रही होगी और यदि होती तब भी वे वही करते जो प्रीति चाहती। उसने सोचा होगा कि वह मुझे नियंत्रित कर लेगी...मनमानी कर सकेगी और यही उसकी भूल थी। इस भूल की क़ीमत उसे कितनी चुकानी होगी नहीं जानता लेकिन अपनी भूल की क़ीमत मुझे चुकानी ही होगी।'

'मुझे अब करना क्या चाहिए!' सुधांशु पुन: उलझन में पड़ गया। रविवार तक विराट के साथ रहूँ या पुन: किसी होटल की शरण लूं और विराट की सहायता लेकर कहीं एकमोडेशन किराए पर लूं। आज सामान विराट के यहाँ छोड़कर ऑफिस के बाद प्रापर्टी डीलर्स से मिलकर जगह तलाश करूंगा। कुछ दिनों बाद पिता जी को ले आने का प्रयत्न करूंगा...। लेकिन प्रीति के साथ रहना तो दूर उसकी शक्ल भी देखना मुझे स्वीकार नहीं। वह अब शायद ही प्रदीप श्रीवास्तव या किसी अन्य अधिकारी से दबाव डालने का प्रयत्न करे। उसे आभास हो गया होगा कि रात दरवाज़ा खटखटाने वाला मैं था। संभवत: डी.पी. ने मुझे जाते हुए देखा भी था...।'

सुधांशु बेड से जब उठा एक दृढ़ संकल्प उसके मन में था प्रीति के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर। उसके कार्यालय के लिए निकलने तक विराट सोया हुआ था। उसने उसे जगाया और सूचित किया कि उस दिन भी वह उसके यहाँ ही आएगा।

दूसरी चाबी लेते जाओ... मेरा क्या ठिकाना। पत्रकारिता की जिन्दगी...बहुत रात हो जाती है।

उसने चाबी ली और सीढ़ियाँ उतर गया था।

कार्यालय में अपनी सीट पर बैठे उसे आध घण्टा भी नहीं हुआ था कि लंबे डग भरता झूमता हुआ अरुण कुमार भट्ट बाथरूम की ओर की सीढ़ियों से ऊपर आता दिखाई पड़ा। उसके हाथ में गत्ता चढ़ा एक पतला रजिस्टर था, जिसमें से एक काग़ज़ झांक रहा था। दूर से ही भट्ट ने मुस्कराकर उसे गुडमार्निंग कहा।

'वेरी गुडमार्निंग' वह भट्ट के चेहरे की ओर देखने लगा।

सर ये आर्डर रिसीव कर लें। भट्ट उसकी मेज के पास तनकर खड़ा हो गया।

भट्ट ने उसके सामने रजिस्टर खोला और आर्डर उसकी ओर बढ़ा दिया। पत्र मुख्यालय से भेजा गया ट्रांसफर आर्डर था। विषय के अंतर्गत केवल 'ट्रांसफर-एस्टै्रब्लिशमेण्ट' लिखा था। लेकिन दूसरी पंक्ति में बोल्ड अक्षरों में अपना नाम देखते ही उसके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी।

उसने ट्रांसफर आर्डर ले लिया। उसे मद्रास के प्रधान निदेशक कार्यालय स्थानांतरित किया गया था। आर्डर में डी.पी. मीणा के हस्ताक्षर थे। लिखा था कि मुख्यालय यह सूचित करते हुए हर्ष अनुभव कर रहा है कि मंत्रालय ने प्रधान निदेशक कार्यालय मद्रास के लिए उसका स्थानांतरण करने का निर्णय किया है। मंत्रालय के निर्देशानुसार उसे तत्काल प्रभाव से प्रधान निदेशक कार्यालय 'के' ब्लॉक से कार्यमुक्त किया जाता है और सरकारी नियमानुसार उसे दस दिन के ज्वाइनिंग समय, व्यवधान, सामान ले जाने और यात्रा आदि भत्तों का प्रवधान है।'

सुधांशु पत्र पढ़ ही रहा था कि भट्ट बोला, सर, आप नीचे आकर अपना रिक्यूजीशन भर दें...जिससे शाम तक आपको भत्तों का भुगतान किया जा सके।

रिक्यूजीशन फार्म यहीं भेज दीजिए... भरकर भेजवा दूंगा।

सर, अन्यथा नहीं लेंगे...। भट्ट ने उसी प्रकार तने हुए कहा, ... अगर आप सेक्शन में आ जायेंगे तब सब फटा-फट हो जायेगा।

ठीक है।

भट्ट चला गया।

स्थानांतरण से एक क्षण के लिए सुधांशु विचलित हुआ था, लेकिन तत्काल सोचा था, 'मैं तो यही चाहता था...पाल की छाया से मुक्ति...प्रीति से दूर...।' मन में एक राहत का भाव उत्पन्न हुआ, लेकिन वह अधिक देर तक टिका नहीं। उसके अंदर एक टीस उठी...लगा कुछ दरक गया है। अपूर्णता के एहसास ने उसे आ घेरा। वह अतीत में खोने वाला ही था कि हिन्दी अधिकारी ने आकर कहा, सर नीचे से इंटरकॉम आया था कि आप जाकर जल्दी से अपना रिक्यूजीशन भर दें।

ओ. के.। उसने दीर्घ निश्वास ली और उठ खड़ा हुआ और एडमिन सेक्शन में जाने के लिए बाथरूम की ओर की सीढ़ियाँ उतरने लगा।

शाम पांच बजे तक सुधाशु कार्यालय में रहा। भट्ट के बाद कैशियर ही उससे मिलने आया। उस दिन उसने स्वयं कूलर तक जाकर पानी का गिलास भरा। स्टॉफ के लोग उससे कतराते रहे थे... बल्कि एक प्रकार का सन्नाटा उसने उनमें अनुभव किया था। रिकार्ड सेक्शन और हिन्दी सेक्शन में होने वाला शोरगुल उस दिन थमा रहा था। लोग फुसफुसाकर बातें कर रहे थे। 'शायद मेरे ट्रांसफर का आतंक सभी पर छाया हुआ है।' उसने सोचा। उससे मिलने न कोई अधिकारी आया, न ही किसी ने बुलाया और ना ही स्टॉफ के किसी सदस्य ने उसकी ओर रुख किया, जबकि वह अनुभव कर रहा था कि उसके ट्रांसफर की ख़बर कार्यालय में सभी को थी। यही नहीं दिल्ली के सभी कार्यालयों में भी यह ख़बर आग की लपट की भांति फैल चुकी होगी और संभव है कि बाहर ...कम से कम पटना तो पहुँची ही होगी। पटना वालों के लिए यह चौंकाने वाली ख़बर रही होगी।

'लेकिन नहीं, इस ख़बर ने किसी को भी नहीं चौंकाया होगा। स्टॉफ को अफसरों के आने-जाने से अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता। पड़ता उन्हे्रं कुछ अवश्य है जो किसी अफसर से लाभान्वित हो रहे होते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को भी अधिक इसलिए नहीं क्योंकि अफसरों से लाभ उठाना उनके रक्त में होता है। जो भी आता है उसीसे वे नैकटय स्थापित कर लेते हैं। भ्रष्ट और रिश्वतखोर एक दूसरे को तुरंत पहचान लेते हैं। वे एक ही गलियारे से गुजरने वाले राही होते हैं...गलियारे जो देश को पतन के अंधकार तक ले जा रहे हैं। गलियारे जहाँ पाल जैसे लोग सुरक्षित और आश्वस्त हैं। ये आज़ादी के बाद का वह इतिहास रच रहे हैं जिसकी कल्पना गांधी, सुभाष, भगतसिंह और उनके साथियों ने नहीं की थी।' बीच-बीच में वह प्रीति के विषय में भी सोचने लगता।

'क्या उसे मेरे ट्रांसफर की सूचना नहीं होगी! ल्ेकिन मैं उसके विषय में सोच ही क्यों रहा हूँ...नहीं मुझे उसे पूरी तरह दिल-दिमाग से निकाल देना चाहिए। भूल जाना होगा सुधांशु। उसने विश्वासघात किया है...एक अक्षम्य अपराध।'

'लेकिन मुझे उसके यहाँ से सामान लेने जाना ही होगा। यह अच्छा है कि चाबी मेरे पास है। आज समय नहीं मिला तब कल चला जाऊँगा...लेकिन कल यदि वह ताला बदल दे...उसे आज ही ट्रांसफर की जानकारी हुई होगी...लेकिन जानकारी पहले से भी हो सकती है। मीणा ने उसे अवश्य बताया होगा। लेकिन हो सकता है कि मंत्रालय से आदेश आने के तुरंत बाद महानिदेशक ने मीणा को पत्र भेजने का आदेश दिया हो और मंत्रालय से आदेश आज ही आया हो। लेकिन मेरी स्थानंतरण की प्रक्रिया प्रारंभ होने के समय से ही मीणा इस बात को जानता रहा होगा।'के'ब्लॉक से मेरे स्थानातंरण के लिए पाल ने महानिदेशक को कहा होगा...मंत्रालय केवल पदोन्नति के समय स्वयं स्थानातंरण करता है शेष स्थानातंरण मुख्यालय की अनुशंसा पर किये जाते हैं। पाल के कहने के बाद महानिदेशक ने मीणा को स्थानातंरण का मसौदा मंत्रालय को भेजने का आदेश दिया होगा। इससे मीणा निश्चित ही प्रसन्न हुआ होगा...।'

प्रीति और मीणा के प्रति उसकी घृणा बढ़ गयी। वह बाथरूम तक गया और वॉशबेसिन में थूककर मुंह धोया।

पांच बजे कैशियर ने आकर उसके भत्तों का भुगतान किया। पैसे जेब में रखकर वह कार्यालय से बाहर आ गया। दिमाग़ तेजी से चल रहा था। उसने पैण्ट की जेब टटोली...दो चाबियाँ थीं। स्पष्ट था कि एक प्रगति विहार हॉस्टल की थी। उसने दोनों चाबियाँ निकाल लीं ...देखा और आश्वस्त हुआ कि प्रीति के फ़्लैट की चाबी थी उसके पास। मस्जिद के पास कुछ दूरी पर एक टैक्सी स्टैण्ड था। उसने टैक्सी ली और हॉस्टल पहुँचा। रास्ते में सोचता रहा, 'यदि प्रीति फ़्लैट में मौजूद हुई तब...मुझे अपना सामान लेना है...उसका नहीं। होगी तब क्या वह मुझे मेरा सामान ले जाने से रोग सकेगी। मुझे सोफा-बेड-मेज-कुर्सी और किचन का कोई सामान नहीं लेना...यह सब ले जाकर मैं क्या करूंगा। मद्रास में मुझे गृहस्थी नहीं जोड़नी...केवल कपड़े और पुस्तकें ही समेटना है।'

फ्लैट में वही ताला बंद था जिसकी चाबी सुधांशु के पास थी। ताला खोल वह अंदर गया तो उसे यह अहसास हुआ कि किताबें और कपड़े वह कैसे ले जायेगा। बैग या सूटकेस तो है नहीं । क्षणभर ही उसने सोचने में नष्ट किया और बेड कवर उठा लिया। 'यह भी मेरा ही है।' उसने सोचा और बीस मिनट में उसने कपड़े, पुस्तकें, डायरी, फाइलें, पासपोर्ट, बैंक की पास बुक और चेक बुक आदि बेड कवर में बाँधा। वज़न अधिक था, इसके लिए उसे ड्राइवर को नीचे से सहायता के लिए बुलाकर लाना पड़ा।

जब वह प्रीति के फ़्लैट से बाहर निकला सवा छ: बजे थे। उसने राहत की सांस ली।

उस रात भी विराट के साथ उसने चार पेग पी और सब कुछ भूलकर गहरी नींद सोया।