गलियारे / भाग 46 / रूपसिंह चंदेल

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प्रधान निदेशक कार्यालय 'के' ब्लॉक में उस दिन एक साथ दो घटनाएँ घटी थीं। पहली यह कि सुबह सुधांशु को ट्रांसफर आर्डर पकड़ाया गया था और दूसरी तब घटी जब सुधांशु उस दफ़्तर को अलविदा कह अकेला दफ़्तर से बाहर निकला था, जो कि उस कार्यालय के इतिहास में पहली बार हुआ था। स्टॉफ के लोग प्राय: स्थानातंरित होकर बेगाने की भांति जाते ही रहते थे, लेकिन उस प्रकार जाने वाला वह पहला आई.ए.एस. अफसर था। वह जानता था कि सभी उगते सूर्य को सलाम करते हैं, लेकिन वह तो उगने से पहले ही बुझ रहा था...स्टॉफ के रिक्रियेशन क्लब के लोगों तक को उसकी याद नहीं आयी जो कार्यालय से अवकाश ग्रहण करने या स्थानांतरण पर जाने वाले अफसर से लेकर चपरासी तक की विदाई पार्टी आयोजित करते थे।

टैक्सी लेकर सुधांशु प्रगतिविहार हॉस्टल की ओर रवाना ही हुआ था कि कार्यालय में शोर मचा कि चमनलाल पाल का प्रमोशन महानिदेशक पद पर हो गया है। महीने की अंतिम तिथि को महानिदेशक सी.रामचन्द्रन के अवकाश ग्रहण से एक दिन पूर्व पाल को महानिदेशक से कार्यभार ग्रहण करना होगा। इस आशय का पत्र कुछ देर पहले ही पाल को मिला था। चेहरे पर साल-छ: महीने में एक बार मुस्कान लाने वाले पाल का चेहरा खिल उठा था और समाचार पूरे दफ़्तर में फैल गया था। सभी अफसर पहले 'मैं' के तर्ज पर पाल को बधाई देने पहुँच रहे थे। बाबू भी कैसे पीछे रहते। उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि पाल के आतंक से उन्हें चंद दिनों बाद मुक्ति मिल जायेगी।

सुधांशु ने निर्धारित तिथि को मद्रास में ज्वाइन किया। उसके ज्वाइन करने के दो दिन बाद उसे प्रीति का फ़ोन मिला, जिसने उस पर अपने दस हज़ार रुपये उड़ा ले जाने का आरोप लगाया। सुधांशु के इंकार के बावजूद वह अपनी बात पर अड़ी रही और बहुत सख्त लहजे में बोली, हमारे सम्बन्ध जब इतने कटु हो चुके थे तब मेरी अनुपस्थिति में किस अधिकार से आप मेरे फ़्लैट में गये थे। जब आपने यह उचित नहीं समझा कि जिसके साथ आपने विवाह किया उसे अपने स्थानातंरण की बात बताते...चर्चा करते...आप चोरी से यूं भागे मानो मैं आपको बाँध लेती। आपने अपने सारे अधिकार स्वयं खोये...सामान के साथ मेरे रुपये भी ले उड़े...।

मैं केवल अपनी पुस्तकें, कपड़े, बैंक के काग़ज़ात और पासपोर्ट आदि ही लाया हूँ...मुझे ...।

अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विराट और उसके साथियों ने आपको बरबाद कर दिया...।

और आपको किसने बरबाद किया...? सुधांशु संतुलन बनाये नहीं रख सका।

यू शट अप...रॉस्कल...यू बीस्ट...तुम जैसे व्यक्ति की शक्ल भी मैं देखना पसंद नहीं करती...। और प्रीति ने फ़ोन काट दिया।

दिन भर परेशान रहा था सुधांशु। वहाँ के गेस्ट हाउस में ठहरा था वह और शाम वहाँ जाते समय उसने रम खरीदी थी और देर रात तक पीता रहा था।

घटनाएँ तेजी से घट रही थीं। मद्रास में उसे एक महीना ही बीता था कि पिता की मृत्यु की सूचना मिली। सूचना चार दिन बाद प्रधान कार्यालय 'क'े'ब्लॉक नई दिल्ली के माध्यम से मिली थी। स्पष्ट था कि पिता की अत्येंष्टि की जा चुकी थी। वह गाँव गया और घर-खेत ममतू को देखभाल करने...कमाने-खाने के लिए देकर वापस लौट आया। उसके बाद वह कभी गाँव नहीं गया। मद्रास कार्यालय में काम करने का उसका रिकार्ड अच्छा रहा और नियत समय पर उसे प्रमोशन मिला। आगे भी वह प्रमोशन पाता रहा, लेकिन उसके साथ ही उसके पीने की मात्रा भी बढ़ती गई। उसने अपने को घर-दफ्तर तक ही सीमित कर लिया था। सदैव विभाग के अधिकारियों से दूरी बनाकर रखी। उसके पास यदि कोई मिलने आया, प्रेम से किला, लेकिन घर का रास्ता उसने किसीको नहीं बताया। हर प्रमोशन के साथ वह अलग शहरों में स्थानातंरित होता रहा। प्राय: वह अकेले ही पीता और घर में पीता। पीते हुए वह अपने अतीत पर सोचता और ऐसा करते हुए कई बार उसे घण्टो बीत जाते। वह भोजन करना भूल जाता और अंत में एक बात कहता,'मैंने ग़लत निर्णय लिया था...।

लिखना-पढ़ना उसका पूरी तरह छूट गया था। हालांकि कभी-कभी वह चाहता कि कुछ लिखे, लेकिन विचार स्थिर नहीं रह पाते थे। विराट और उसके साथियों से संपर्क टूट चुका था। यहाँ तक कि रविकुमार राय से भी उसने सम्बन्ध तोड़ लिया था। उसने अपने को एक प्रकार से पिंजरे में क़ैद कर लिया था जहाँ वह था, दफ़्तर था और शराब थी। बढ़ती उम्र के साथ वह इतना पीने लगा कि उसके फेफड़े खराब हो गये। किडनी में भी समस्या पैदा हो गयी। वह प्राय: अस्पताल के चक्कर लगाने लगा। उसने सदैव यह प्रयास किया कि प्रीति से कभी उसकी मुलाकात न हो...यहाँ तक कि विभागीय विषय पर कभी चर्चा का अवसर भी न आए। न उसने तलाक के विषय में सोचा और न प्रीति ने।

दो वर्ष पहले सुघांशु प्रमोशन पाकर निदेशक बनकर मेरठ पोस्ट हुआ। मेरठ पोस्ट होते ही उसके अस्पताल के चक्कर बढ़ गये थे। डाक्टरों ने उसे शराब से तौबा करने की सलाह दी ,लेकिन उसने डाक्टरों की एक न सुनी। उसने अपनी तीमारदारी के लिए एक नौकर रख लिया था जो उसके सर्वेण्ट क्वार्टर में रहता था। वह सुधांशु को डाक्टरों के कहे अनुसार चलने का सुझाव देने का साहस नहीं जुटा पाता था। वह वही करता जैसा सुधांशु उसे कहता। प्रतिदिन रात सुधांशु उसे पेग बनाने का आदेश देता। वह पीता और कुछ-कुछ बुदबुदाता, जिसके कुछ कतरे ही नौकर सुन पाता, 'मैंने ग़लत निर्णय किया...मैंने ग़लत...।

सुधांशु इतना कमजोर हो चुका था कि चलते समय उसके पैर डगमगाते रहते थे और उस दिन उस पर सांघातिक हृदयाघात हुआ। मेरठ मेडिकाल कॉलेज के डाक्टरों ने उसकी स्थिति नाज़ुक बतायी थी। डॉक्टर उसे ऑपरेट करने पर विचार कर रहे थे। तभी उसे कुछ समय के लिए होश आया था और वह अपने पास से गुजर रही डॉक्टर को प्रीति समझ बैठा था। लेकिन बमुश्किल एक घण्टा बाद वह पुन: बेहोश हो गया था।

और देर रात प्ररवि विभाग का सुधांशु दास नामका वह इंसान इस संसार से विदा हो चुका था।

सोमवार को कार्यालय पहुँचने पर प्रीति को सुधांशु की मृत्यु का समाचार मिला। बताने वाले ने उसे यह भी बताया कि सुधांशु की अंत्येष्टि कार्यालय वालों ने अगले दिन यानी रविवार शाम तक उसकी प्रतीक्षा करने के बाद कर दी थी।

दीर्घ निश्वास ले प्रीति शुक्रवार को चन्द्रभूषण को दिया डिक्टेशन देखने लगी थी जिसे चन्द्रभूषण ने टाइप कर उस दिन कार्यालय से जाने से पहले उसकी मेज पर उसकी कुर्सी के ठीक सामने रख दिया था।