गलियारे / भाग 4 / रूपसिंह चंदेल
रविकुमार राय ने मुखर्जीनगर में दो कमरों का फ़्लैट किराए पर ले रखा था। घर से समृध्द था। पिता जमींदार थे। यद्यपि एक व्यक्ति के लिए दो कमरों की आवश्यकता न थी। एम.ए. करने तक वह विश्वविद्यालय के जुबली हॉस्टल में रहा था। यूनियन में सक्रियता के कारण मित्रो का दायरा बड़ा था और हॉस्टल में उसका कमरा उसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति में मित्रो से भरा रहता था। वह चाहता तो एम.ए. करने के बाद भी हॉस्टल में बना रह सकता था, जैसा कि प्राय: सीनियर छात्र करते थे, लेकिन जब उसने आई.ए.एस. की तैयारी का निर्णय किया, हॉस्टल छोड़ दिया। उसने मित्रो से भी अपने को अलग करने का प्रयत्न किया, लेकिन न चाहते हुए भी कुछ ऐसे मित्र थे जो जब-तब उसके यहाँ पहुँच ही जाते थे। पहुँच ही नहीं जाते थे, रात ठहर भी जाते थे। प्रारंभ में वह एक कमरे के एकमोडेशन में रहता था, लेकिन जब वह अपने को मित्रो से नहीं बचा पाया, उसने दो कमरों का एकमोडेशन ले लिया।
सुधांशु के लिए रवि देवदूत सिद्ध हुआ। रवि ने न केवल उसके एडमिशन में सहायता की, प्रत्युत सेशन शुरू होते ही विजयनगर और मुखर्जीनगर में आठवीं और दसवीं के कुछ बच्चों के ट्यूशन भी उसे दिलवा दिए। दो महीने में ही सुधांशु इस स्थिति में पहुँच गया कि विजय नगर में एक कमरा किराए पर ले लिया और मुखर्जीनगर के ट्यूशन छोड़ विजयनगर में ही चार और ट्यूशन पकड़ लीं। हिन्दू कॉलेज में उसे हिस्ट्री ऑनर्स में प्रवेश मिल गया था। छ: महीनें बीतते न बीतते ट्यूशन में उसके विद्यार्थियों की संख्या बढ़ गयी थी।
रविकुमार राय को आई.ए.एस. के पहले प्रयास में सफलता नहीं मिली। सुधांशु जब-तब उसके यहाँ जाता और जब भी जाता उसे पढ़ता हुआ पाता। पहले प्रयास की असफलता ने रवि को केवल अपने कमरों तक सीमित कर दिया था। उसने विश्वविद्यालय जाना और मित्रो से मिलना छोड़ दिया था। जाने पर सुधांशु से भी वह अधिक बात नहीं करता था।
उन्हीं दिनों सुधांशु का परिचय प्रीति मजूमदार से हुआ। हुआ यों कि कॉलेज में वार्षिक उत्सव की तैयारी चल रही थी। सुधांशु भले ही छात्रों से अलग-अलग रहता था, लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उसकी रुचि थी। इण्टर के दौरान उसने वहाँ के सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया था और कॉलेज की ओर से प्रस्तुत किए गए एक हिन्दी नाटक में अभिनय भी किया था। इस बात का उल्लेख उसने अपने एक-दो सहपाठियों से किया था। यही नहीं सेकण्ड इयर में उसे सितार सीखने की धुन सवार हुई। उसके पड़ोसी कमरे में प्रीतीश बनर्जी नाम का छात्र रहता था, जो उसी के कॉलेज में थर्ड इयर में पढ़ता था। प्रीतीश उन छात्रों में था जिनकी दुनिया अपने तक ही सीमित रहती है। प्राय: शाम पांच बजे के आस-पास प्रीतीश के कमरे से उभरते सितार का मधुर स्वर सुधांशु का ध्यान आकर्षित करता और वह मंत्रमुग्ध हो जाता।
लंबे समय तक यह सिलसिला चला। वह समय सुधांशु के ट्यूशन पढ़ाने जाने का होता था। आख़िर एक दिन उसने प्रीतीश का कमरा नॉक किया। सितार ठहर गया। प्रीतीश ने दरवाज़ा खोला। पहली बार दोनों छात्र एक-दूसरे से उन्मुख थे, यस? प्रीतीश बोला।
सॉरी फॉर डिस्टरबेंस...।
प्रीतीश चुप रहा। सुधांशु ने अनुभव किया कि एक कलाकार के रियाज़ के समय उसे बाधित नहीं करना चाहिए था।
मैं एक बात पूछना चाहता हूँ...आपको सितार बजाता सुन...। वह क्षणभर के लिए रुका, क्या आप मुझे सितार बजाना सिखा सकते हैं?
नहीं। रूखा-सा उत्तर था प्रीतीश का। सुधांशु बुझ गया। लेकिन तभी उसने प्रीतीश को कहते सुना, पास में कमला नगर है, वहाँ गंधर्व महाविद्यालय की ब्रांच है... आप वहाँ सीख सकते हैं।
थैंक्स।
और सुधांशु ने कमला नगर के गंधर्व महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया। कुछ अड़चन थी। वहाँ सितार की कक्षाओं का जो समय था वही समय उसकी ट्यूशन का था और यह संभव नहीं था कि एक बैच को ट्यूशन पढ़ाकर वह कमला नगर जाता और फिर दूसरे-तीसरे बैच को पढ़ाने के लिए पुन: विजयनगर। उसके पढ़ाने के अच्छे परिणाम का लाभ यह हुआ था कि एक वर्ष में ही वह पांच-पांच बच्चों के तीन बैच पढ़ाने लगा था। उसने किसी प्रकार दोनों में सामंजस्य स्थापित किया और सितार सीखने लगा।
दूसरे वर्ष के वार्षिकोत्सव में कॉलेज की ओर से 'मैकबेथ' का मंचन होना था और उसमें एक भूमिका उसे भी मिली थी। प्रीति मजूमदार उससे एक वर्ष जूनियर थी। वह अंग्रेज़ी ऑनर्स से ग्रेज्यूएशन कर रही थी। नाटक में प्रीति भी अभिनय कर रही थी। रिहर्सल के दौरान सुधांशु का परिचय उससे हुआ था।
'मैकबेथ' में अभिनय के अतिरिक्त सुधांशु का प्रीतीश बनर्जी के साथ सितार बजाने का कार्यक्रम भी था और दोनों में ही उसने वाह-वाही पायी थी।
वार्षिकोत्सव के बाद प्रीति मजूमदार से मिलने का सिलसिला चल निकला था। कक्षाएँ समाप्त होने के बाद प्रीति उसे कैण्टीन खींच ले जाने का प्रयत्न करती, लेकिन प्रारंभिक कुछ अवसरों के बाद उसने कैण्टीन जाने या कमला नगर-जवाहर नगर के किसी रेस्टॉरेण्ट में जा बैठने से एक दिन स्पष्ट इंकार कर दिया।
मेरा साथ पसंद नहीं? एक दिन प्रीति ने पूछा।
ऐसा नहीं है।
आप अब कहीं भी जाने से इंकार करने लगे हैं।
देर तक चुप रहने के बाद सुधांशु बोला, प्रीति, सच जानना चाहोगी?
क्यों नहीं।
मैं इन जगहों में जाना-बैठना अफोर्ड नहीं कर सकता। उसका चेहरा उदास हो उठा था। प्रीति ने उसके चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, इसका मतलब है कि आप अपने में और मुझमें अंतर करते हैं।
एक छात्र के रूप में नहीं ...लेकिन पारिवारिक स्थितियाँ हमारी भिन्न हैं। मैंने आज तक यह नहीं जाना कि आपके पिता क्या करते हैं या पारिवारिक स्थिति क्या है आपकी, लेकिन अनुमान लगा सकता हूँ। हाँ, मैं आज आपको स्पष्ट कर दूं कि मेरे पिता एक साधारण किसान हैं और मैं उनसे बिल्कुल ही आर्थिक सहायता नहीं लेता। लेना चाहूँ भी तब भी नहीं...क्योंकि वह कर सकने की स्थिति में ही नहीं हैं।
यू आर सो ग्रेट सुधांशु...मेरी दृष्टि में आपका महत्त्व बहुत बढ़ गया। मेरे पिता भी सेल्फ मेड व्यक्ति हैं... वह मिनिस्ट्री ऑफ एजूकेशन में एडीशनल सेक्रेटरी हैं। मुझे तुम्हारी साफगोई अच्छी लगी। प्रीति ने अपना होठ काटा। उसके मुंह से सुधांशु के लिए 'तुम' फिसल गया था। सच यह था कि वह सोच समझकर 'तुम' बोली थी। लेकिन सुधांशु को सहज देख वह आगे बोली, कभी पिता से मिलवाउंगी...ही इज सो नाइस...सो डिवोटेड टु हिज वर्क...सुबह आठ बजे निकल जाते हैं ऑफिस के लिए और रात नो बजे से पहले नहीं लौटते।
मैं समझ सकता हूँ।
डैड अपने सिध्दांतों से टस से मस नहीं हो सकते... मुझे वेंकटेश्वर कॉलेज में भी एडमिशन मिल रहा था, लेकिन मैंने पहले ही उन्हें स्पष्ट कर दिया था कि साउथ कैम्पस तभी चुनूंगी जब नार्थ के किसी कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलेगा और जब यहाँ मिल गया तब उन्होंने कहा था, प्रीति तुम यह मत सोचना कि स्टॉफ ड्राइवर तुम्हे छोड़ने कॉलेज जाया करेगा। 'यू' स्पेशल लो या किसी दूसरी बस से जाओ-आओ। नृपेन मजूमदार दूसरे अफसरों की भांति सरकारी सुविधा का दुरुपयोग नहीं करेगा।'तो ऐसे हैं मेरे डैड।
आप रहती कहाँ हैं?
लोधी एस्टेट।
सीधी छब्बीस नंबर बस है वहाँ से।
हूँ क्षणभर चुप रहकर प्रीति बोली, सुधांशु, मेरा नाम प्रीति है...आप नहीं।
ओ.के... प्रीति...।
किसी दिन डैडी से मिलने चलना।
रात नौ बजे के बाद मिलेंगे न वे।
ओह...यह तो मैं भूल ही गयी थी। वह कुछ सोचने लगी, फिर बोली, ऐसा कर सकते हो...किसी सण्डे को आ जाओ घर।
सोचकर बताउंगा। सुधांशु बोला, जिस सण्डे को वे ऑफिस नहीं जाएगें...।
तुम्हें कैसे पता कि डैडी सण्डे को भी ऑफिस जाते हैं।
कर्मठ अधिकारियों के विषय में कहा जाता है कि वे ऐसा करते हैं और बीस प्रतिशत अधिकारियों-कर्मचारियों की बदौलत सरकार चलती है।
यह आंकड़ा सही नहीं है, लेकिन यह चर्चा तो है ही कि सरकार के कुछ ही अफसर और कर्मचारी काम करते हैं।
और आपके डैडी उनमें से एक हैं। सुधांशु के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी थी।