गलियारे / भाग 5 / रूपसिंह चंदेल
रविकुमार राय का दूसरा अटैम्प्ट भी व्यर्थ गया। लेकिन वह हताश नहीं हुआ। एक अवसर उसे और मिलना था। उसने पूरी तरह से अपने को अपने मित्रो और मिलने-जुलने वालों से काट लिया। मकान भी बदल लिया और पीतमपुरा में एक एम.आई.जी. फ़्लैट में शिफ्ट हो गया। कभी-कभी ही वह विश्वविद्यालय जाता। उसने दाढ़ी रख ली और वह इस ओर ध्यान नहीं देता था कि उसे दाढ़ी की ट्रिमिंग करवानी है। एक दिन रवि सेण्ट्रल लाइब्रेरी से निकल रहा था। विवेकानंद की मूर्ति के पास सुधांशु और प्रीति बैठे हुए थे। रवि ने दोनों को देखा, लेकिन अनदेखा कर दौलतराम कॉलेज की ओर बढ़ने लगा। सुधांशु ने उसे आवाज़ दी, रवि भाई साहब।
रवि ने आवाज़ सुनी, लेकिन ऐसा प्रकट करता हुआ कि उसने सुना नहीं गति बढ़ा दी।
रवि भाई साहब ऽ ऽ। लपककर सुधांशु उसके निकट जा पहुँचा।
ओह! नाटकीय ढंग से रवि बोला।
जल्दी में हैं?
रवि खड़ा हो गया, घड़ी देखी, पन्द्रह-बीस मिनट बैठ सकता हूँ।
प्रीति भी पहुँच गयी।
भाई साहब, ये प्रीति है...प्रीति मजूमदार।
रवि ने सिर हिलाया।
भाई साहब...।
तुम्हारा थर्ड इयर है न!
जी भाई साहब।
कुछ सीखा नहीं तुमने दिल्ली से।
सुधांशु रवि की बात का अर्थ नहीं समझ पाया। उसका चेहरा उतर गया। उसने रवि के चेहरे पर नजरें टिका दीं।
गांव से बाहर निकल आओ।
सुधांशु अभी भी निर्वाक था। वह रवि की बात के अर्थ तलाश रहा था।
परेशान मत हो...मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि तुम मुझे 'रवि' कहा करो... ये भाई साहब...मुझे पसंद नहीं है।
सुधांशु किचिंत प्रकृतिस्थ हुआ, लेकिन 'रवि' उसकी ज़ुबान पर फिर भी नहीं चढ़ा। उसने 'आप' से काम चलाया और बोला, आपका अधिक समय नहीं लूंगा...एक कप चाय...।
चाय नहीं लूंगा। यहीं कुछ देर बैठूंगा। और रवि विवेकानंद की मूर्ति की ओर चल पड़ा। तीनों लॉन में बैठे। बैठते ही रवि ने पूछा, थर्ड इयर के बाद क्या इरादा है?
जी सोचता हूँ...। सुधांशु के सामने घर की आर्थिक स्थिति घूम गयी और घूम गया ट्यूशन आधारित स्वयं का जीवन।
क्या सोचते हो?
सिविल सर्विस की तैयारी मैं भी करना चाहता हूँ लेकिन ...
लेकिन क्या?
देर तक चुप रहा सुधांशु। प्रीति उसके और रवि के चेहरे की ओर बारी-बारी से देखती रही।
आप से कुछ भी छुपा नहीं है...। सुधांशु ने सकुचाते हुए कहा।
हुंह। कुछ देर चुप रहकर रवि बोला, तुमने देख लिया न कि मेरे दो अटैम्प्ट व्यर्थ गए। केवल एक बचा है... तो कुछ भी हो सकता है, लेकिन बिना जोखिम उठाए कुछ मिलता भी नहीं...।
लेकिन मेरी पारिवारिक स्थितियाँ मुझे ग्रेज्यूएशन के बाद ही नौकरी के लिए बाध्य कर रही हैं।
तुम्हारे ट्यूशन तो सही चल रहे हैं?
उनका क्या भरोसा!
दिल्ली में ट्यूशन का कभी संकट न होगा... ग्रेज्यूएशन के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन में प्रवेश ले लेना। हॉस्टल बना रहेगा...रहने की समस्या न रहेगी। एम.ए. में प्रवेश हॉस्टल के लिए लेना...शेष आई.ए.एस. के लिए अपने को झोक देना। रवि रुका। उसने प्रीति की ओर देखा, जो घास की पत्तियाँ मसल रही थी। वह आगे बोला, मैंने एक ग़लती की...वह तुम न करना।
सुधांशु के साथ प्रीति भी रवि की ओर देखने लगी।
मैंने एम.ए. करते हुए आई.ए.एस. की तैयारी नहीं की। दरअसल तब मुझमें प्राध्यापक बनने की झोंक सवार थी। अच्छा डिवीजन बनाने, एम.फिल। फिर पी-एच.डी. का ख़्वाब था। यह सब ठीक था, लेकिन प्राध्यापकी मेरे लिए आसान न थी। दरअसल मैं दूसरे यूनियन नेताओं की भांति न था। वे व्यवस्था से लड़ते भी हैं और लाभ उठाने के लिए उसके आगे-पीछे दुम भी हिला लेते हैं। मैं ऐसा नहीं कर सकता था। अपने विभागाध्यक्ष से मैं एक विद्यार्थी के लिए भिड़ गया था और विभागाध्यक्ष की इच्छा के विरुध्द इस विश्वविद्यालय के किसी भी कॉलेज में आप प्राध्यापक बन जाएँ ऐसा मुमकिन नहीं है। वह आपको न जानता हो। आप किसी विशेषज्ञ के कण्डीडेट हों और विशेषज्ञ विभागाध्यक्ष पर भारी हो तब तो ठीक, वर्ना दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी को एक स्वप्न ही समझना चाहिए। यू.पी-बिहार या दूसरे राज्यों में जहाँ सिफ़ारिश के साथ रिश्वत की मोटी रकमें देनी होती हैं यहाँ सिफ़ारिश जान-पहचान काम आती है।
ठीक कह रहे हैं आप?
यहाँ कम से कम पचास प्रतिशत टीचिगं स्टॅफ की पत्नियाँ, बच्चे, साला-साली या भाई-भतीजे प्राध्यापक मिलेगें। शेष स्टॉफ का हाल भी यही है। जैसे राजनीति में वंशवाद की जड़ें मज़बूत हैं, उसी प्रकार विश्वविद्यालय की स्थिति है और यह स्थिति केवल दिल्ली विश्वविद्यालय की है... ऐसा नहीं है। सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की है।
प्रतिभाओं का मूल्याँकन नहीं है?
चयनित व्यक्ति योग्य है या नहीं यह मायने नहीं रखता। मायने रखता है कौन किसका बंदा है।
इस अराजकता को रोक पाना शायद कठिन है। इतनी देर बाद प्रीति बोली।
कठिन नहीं है... बस सरकार को...यू.जी.सी... को चयन प्रक्रिया और सेवा शर्तों के नियमों में कुछ परिवर्तन करने होंगे।
सुधांशु रवि के चेहरे की ओर देखने लगा।
परिवर्तन... भाई-भतीजावाद समाप्त करने, अयोग्य... अयोग्यता से आभिप्राय ऐसे लोगों से नहीं जो प्राध्यापकी के लिए निर्धारित योग्यता से कम योग्य हैं, बल्कि उनसे जो डिग्रीधारी तो होते हैं, लेकिन पढ़ा लेने की क्षमता जिनमें नहीं होती। उपाधियाँ प्राप्त कर लेना एक बात है और उपाधि के साथ पढ़ाने की क्षमता रखना दूसरी बात... समझे?
जी।
संक्षेप में कहना चाहूँगा कि चयन प्रक्रिया ऐसी हो जिसमें उस विश्वविद्यालय-कॉलेज के लोग हों ही न चयन बोर्ड में जहाँ के लिए चयन होना है। लेकिन यह कैसे हो? यू.जी.सी. या सरकार को यही सोचना होगा।
आपका मतलब यह तो नहीं कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों, चाहे वह लेक्चरर हो, रीडर या प्रोफेसर के चयन का काम यू.पी.एस.सी. जैसी किसी संस्था को सौंप दिया जाना चाहिए।
एक्जैक्टली।
शायद तभी गैर सिफारिशी प्रतिभाओं को बाहर का रास्ता दिखाने का खेल बंद हो पाएगा।
उत्तर प्रदेश जैसे उच्च शिक्षा आयोग गठित करने से काम नहीं चलेगा। तुम जानते हो वहाँ क्या होता है?
सुधांशु और प्रीति दोनों ही रवि के चेहरे की ओर देखने लगे।
वहाँ लाखों की रिश्वत चलती है। बिना जेब गरमाए कोई प्राध्यापक बन ही नहीं पाता। सो ही हाल मेरे गृहप्रांत का है। सभी प्रदेशों में नोट और सिफ़ारिश दोनों का खेल होता है...भाई हालात बहुत खराब हैं।
और ये जो आई.आई.टी.जैसी संस्थाएँ हैं...। सुधांशु ने जिज्ञासा प्रकट की।
उनके विषय में मैं नहीं जानता, लेकिन वहाँ चयन प्रक्रिया उचित ही होगी। वहाँ बुध्दू मास्टर काम नहीं आएगा। रवि रुका कुछ क्षण, फिर बोला, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए केवल इतना ही नहीं...इन अध्यापकों की नौकरियाँ ट्रांसफरेबुल होनी चाहिए, लेकिन करे कौन? हमारे जो मंत्री जी हैं न ... शायद इस कौम से डरते हैं या उनके भी कुछ निहित स्वार्थ होंगे...बात जो भी हो। कितनी ही बार चर्चा चली कि मास्टर साहबों के काम के घण्टे बढ़ा दिए जायें ...लेकिन बढ़ाए नहीं जा पाए।
'क्यों?
क्योंकि केन्दीय विश्वविद्यालयों के अध्यापकों की यूनियन की हड़ताल की एक धमकी से मंत्री जी की कांछ गीली हो जाती है। जब दूसरे विभागों की हड़तालों को अवैध घोषित कर सकते है तब विश्वविद्यालय शिक्षकों की हड़ताल को क्यों नहीं। यही नहीं उनकी हड़ताल पर स्थायी प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिए। चयन शर्त में लिखा होना चाहिए कि यदि वह हड़ताल में शामिल हुआ तो एक माह की नोटिस पर उसे नौकरी से बर्खाश्त किया जा सकता है। कमाल यह है कि चाटुकारिता करके नौकरी हासिल करने वाले लोग सरकार को बंधक बना लेते हैं। कितने ही अवसरों पर अध्यापक अपराधियों जैसा व्यवहार करते हैं। रवि ने घड़ी देखी, अरे बहुत देर हो गयी।
कोई बात नहीं। बहुत दिनों बाद मिले हैं, पता नहीं फिर कब मिलेगें... आई.ए.एस. करते ही कौन पकड़ पाएगा आपको...अभी आपने मकान बदल लिया है...।
रवि चुप रहा। उसने स्पष्टीकरण देना उचित नहीं समझा।
कुछ देर चुप्पी रही।
मैं कह रहा था कि उस हेड के रहते मुझे प्राध्यापकी नहीं मिलनी थी और आने वाले हेड के अपने लोग होने थे। क्लर्की मैं करना नहीं चाहता। इसलिए इस ओखली में सिर दे दिया। दो बार असफल रहा हूँ। यदि यह अवसर भी गया तब...।
आप ऐसा क्यों सोचते हैं...।
खैर, तुम्हारे लिए एक ही सलाह है कि पोस्ट ग्रेज्यूएशन के साथ ही सिविल परीक्षा की तैयारी शुरू कर देना। चाहना तो अटैम्प्ट भी देना...वर्ना दो वर्ष घोर तैयारी करके परीक्षा दोगे तो अच्छा होगा। तुम्हारे पास समय है। उसमें यदि सेलेक्ट नहीं भी हो पाए तो प्रोबेशनरी अफसर आदि की नौकरियों के विषय में सोच सकते हो।
देखो...! सुधांशु के स्वर में शिथिलता थी।
हताश होने से काम नहीं चलता। हिम्मत रखना होता है...जहाँ तीन वर्ष ट्यूशन से कटे...आगे भी सब सही ही होगा।
जी।
मैं चलता हूँ। परीक्षाओं तक शायद ही हमारी मुलाकातें हों ...मेरे लिए यह जीने-मरने का प्रश्न है।
मैं समझ सकता हूँ...।
हम मिलेंगें फिर। सुधांशु के कंधे पर हाथ रख रवि बोला, फिर प्रीति की ओर मुड़ा, ओ.के. प्रीति। और वह तेजी से दौलतराम कॉलेज की ओर के गेट की ओर बढ़ गया।
पहली बार मिली हूँ...बहुत ही अच्छे व्यक्ति हैं रवि जी।
जी। सुधांशु केवल इतना ही कह सका।
दोनों ही रवि को जाता देखते रहे।
रवि कुछ दुबले हो गए हैं। सुधांशु बुदबुदाया।
प्रीति चुप रही।