गलियारे / भाग 6 / रूपसिंह चंदेल

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कक्षाएँ समाप्त होने के बाद प्रीति का प्रयत्न होता कि वह कुछ समय सुधांशु के साथ रहे... बैठे-बातें करे। सुधांशु प्रीति से मिलता अवश्य लेकिन निम्न मध्यवर्गीय हिचक उसके अंदर मौजूद रहती। प्रारंभ में ही उसने उसे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि स्पष्ट कर दी थी। लेकिन प्रीति सो व्वाट? कहकर खिलखिला उठी थी। एक दिन उसने कहा, सुधांशु, अपनी निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता से ऊपर उठो। सोच प्रगति में सबसे बड़ी बाधा होती है। व्यक्ति में प्रतिभा हो तो स्थितियों को बदल सकता है। कुछ रुककर वह पुन: बोली थी, इस सबके लिए मुझे दूर जाने की आवश्यकता नहीं। मेरे डैडी एक ज्वलंत उदाहरण हैं। एक खलासी का बेटा आई.ए.एस. बने, ऐसा सोचा जा सकता हैं? लेकिन डैडी ने कर दिखाया और आज...। विमुग्धभाव से प्रीति बोली।

देर तक प्रीति के चेहरे की ओर देखता रहा सुधांशु फिर धीरे से बोला, शायद...। और वह कुछ सोचने लगा।

तुम एक बार मेरे घर आते क्यों नहीं? डैडी से मैंने तुम्हारे बारे में चर्चा की थी। तुमसे मिलकर वह प्रसन्न होंगे। आ जाओ किसी संडे को...।

परीक्षाओं के बाद।

ओ.के.।

लेकिन परीक्षाओं के बाद सुधांशु ने घर जाने का निर्णय किया।

यार, दिल्ली की ज़िन्दगी जीकर अब गाँव में बोर नहीं होगे? प्रीति ने पूछा।

बोर क्यों...मां-पिता जी हैं। वह क्षणभर तक कहने के लिए उपयुक्त शब्द खोजता रहा फिर बोला, प्रीति गाँव मुझे प्रेरणा देता है। गाँव मेरी नस-नस में व्याप्त है। उसके बिना मैं अपने होने की कल्पना उसी प्रकार नहीं कर सकता, जिस प्रकार इस महादेश की कल्पना गाँव के बिना नहीं की जा सकती।

सॉरी ...मेरी छोटी-सी बात पर इतना बड़ा भाषण झाड़ दिया। गाँव मुझे भी प्रिय हैं। हालांकि मैं एक दिन के लिए भी वहाँ नहीं गई।

कभी जाकर देखो।

तुम्हारे साथ जाऊँगी।

मेरे साथ?

क्यों, नहीं ले जाना चाहोगे? सुधांशु की आंखों में झांकते हुए वह बोली।

लेकिन...?

डर गए?

सुधांशु चुप इधर-उधर देखता रहा। वह सोचने लगा कि कहाँ असुविधाओं में रह रहे उसके मां-पिता और कहाँ सुविधाओं में पली प्रीति। लेकिन तत्काल उसने सोचा, 'यह मज़ाक कर रही है।'

चुप क्यों हो गए सुधांशु।

मजाक छोड़ो प्रीति...यह संभव नहीं होगा।

अभी हम कह रहे थे कि असंभव कुछ भी नहीं होता और अब तुम...।

सुधांशु ने कोई उत्तर नहीं दिया।

तो यह बात है!

क्या?

तुम्हारे अंदर मेरे प्रति कोई भाव नहीं है।

कैसा भाव?

भाव...भाव...यार अब मैं क्या बताऊ! जब तुम जैसा गंवई-गांव का बुध्दू टकरा जाए तब उसे समझाना बहुत कठिन होता है।

तुमने ठीक कहा...हम गाँव वाले चीजों को देर से समझ पाते हैं।

इसीलिए तो मुझे तुम पसंद हो।

मतलब?

मतलब समझो। और प्रीति खिलखिला उठी और बैग कंधे से लटका उठ खड़ी हुई, बॉय... मैं तो चली...मेरी बातों के अर्थ निकालते रहो।

सुधांशु किंकर्तव्यविमूढ़-सा प्रीति को जाता देखता रहा और सोचता रहा, 'यह लड़की मुझ जैसे अभावग्रस्त युवक से क्या अपेक्षा रखती है!' जैसे-जैसे वह उसकी बातों की गहराई में उतरता गया, अर्थ खुलते गए और भय और आनंद का मिश्रित भाव उसके अंदर उभरा। क्षणभर वह यों ही बैठा रहा, फिर मुस्कराया ओर हॉस्टल की ओर चल पड़ा।