गलियारे / भाग 7 / रूपसिंह चंदेल
सुधांशु को रवि के आई.ए.एस. में चयन की जानकारी एक अंग्रेज़ी समाचार पत्र में उसके साक्षात्कार को देखकर मिली, लेकिन वह उसे बधाई कैसे दे, वह यह सोचता रहा; क्योंकि रवि का पता उसके पास नहीं था। वह पुराने मकान मालिक के पास गया यह सोचकर कि शायद रवि ने उन्हें बता रखा हो, लेकिन वहाँ भी उसे निराशा हाथ लगी।
पिछली मुलाकात में जब सुधांशु ने रवि से उसका पता पूछा था तब रवि ने कहा था, जल्दी ही उस फ़्लैट को खाली करना है। नए में जाऊँगा तब बता दूंगा।
सुधांशु समझ गया था कि रवि पता देना नहीं चाहता। वह एकांत चाहता था। उसने पूरी तरह अपने को मित्रो से अलग कर लिया था। उसके साथ के दो छात्र, जो कभी उसके अच्छे मित्र रहे थे, हॉस्टल में ही रह रहे थे। उन्होंने पहले एम.फिल। फिर पी-एच.डी. के लिए अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया था। रवि यदा-कदा उनके पास आता था, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा से कुछ माह पहले से वह उनसे भी नहीं मिला था। सुधांशु ने उन दोनों से भी ज्ञात किया लेकिन उन्हें भी कोई सूचना नहीं थी। उन्हें यह भी जानकारी नहीं थी कि रवि ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
सुधांशु की परीक्षाएँ भी निकट थीं। उसकी व्यस्तता बढ़ गयी थी। ट्यूशन और परीक्षा की तैयारी में वह डूब गया। परीक्षा के पश्चात् वह कुछ दिनों के लिए गाँव गया। लौटने के बाद परीक्षा परिणाम और भविष्य की चिन्ता ने रवि से मिलने के प्रयास को विराम दे दिया था।
इस बार वह पिता को यह समझाने में सफल रहा था कि दो वर्ष यदि वे उसका और साथ दे दें तो आगामी दो वर्षों में वह कुछ ऐसा कर सकने का प्रयास करेगा, जिससे उसे कोई ढंग की नौकरी मिल जाने की संभावना होगी। पिता यह जानते थे कि बी.ए. किए बिना क्लर्की भी नहीं मिलती। लेकिन अब...जब सुधांशु का बी.ए. सम्पन्न होने वाला था...वह आगे की पढ़ाई करके कौन-सी ऊँचे ओहदे की नौकरी पाने की बात सोच रहा है! पिता ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, बेटा, नौकरी के लिए बी.ए. ही काफ़ी नहीं?
है पिता जी, लेकिन अच्छी नौकरी के लिए आगे और पढ़ाई करनी होगी।
वो क्या?
पिता जी, मैं एम.ए. में प्रवेश लूंगा, लेकिन साथ में आई.ए.एस. की तैयारी भी करना चाहूँगा।
वो क्या होता है?
सुधांशु चुप रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि पिता को वह कैसे समझाए! तभी उसे सूझा, पिता जी आप ज़िला कलक्टर के बारे में जानते हैं न!
हाँ, ज़िला का मालिक होत है। हमरे जमींदार बिपिन बाबू का बेटा शाइद वही है।
हाँ, पिता जी, बिपिन चन्द्र मिश्र के बेटा अमित मिश्र आजकल कहीं कलक्टर लगे हुए हैं। लेकिन आप बिपिन बाबू को अपना जमींदार क्यों कह रहे हैं! कभी रहे होंगे ...।
यो मैं भी जानता हूँ। जमींदारी कब की ख़तम हो चुकी, लेकिन इलाके में उन्हें आज भी लोग जमींदार कहकर पुकारते हैं। पिता कुछ देर के लिए रुके फिर बोले, भले आदमी हैं। जमींदारी ज़माने में उन्होंने कभी किसी को दुख-तकलीफ नहीं दी। इसीका पुण्य है जो उनका लड़का इतने ऊँंचे ओहदे पर पहुँचा। उन्होंने सुघांशु के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं और पूछा, कहत हैं कि ओहके आगे-पीछे बड़ा फोज-फाटा चलत हैं।
हाँ, कुछ सिपाही तो चलते ही हैं।
त तुम वही पढ़ाई की बात करि रहे हौ?
जी, पिता जी।
बहुत पइसा लागी बेटा। अपन के पास इतनी जायदाद भी नहीं।
पिता जी मैंने दिल्ली जाने के बाद आज तक आपसे पैसे मांगे कभी?
पिता चुप रहे थे।
पैसों की चिन्ता आप न करें। दो साल की बात है... ये दिन कष्ट के होंगे, बाक़ी आप मेरी चिन्ता न करें। मैं अपने लिए सारी व्यवस्था कर लूंगा।
तुम्हारी जिनगानी बनि जाए बेटा तो घर के दरिद्दर दूर हो जाएँगे। हम दोनाें का का...आज हैं कल नहीं...तुम कहत हो तो दुई का हम चार बरस तक सबर करि लेब।
नहीं, पिता जी... इतने दिनों तक आपको इंतज़ार नहीं करना होगा।
वह दृढ़ संकल्प के साथ दिल्ली वापस लौटा था।