गलियारे / भाग 8 / रूपसिंह चंदेल

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एम.ए. में प्रवेश लेने के बाद सुधांशु को अंतर्द्वंद्व ने आ घेरा। अंतर्द्वंद्व था सिविल सेवा परीक्षा देने और अकादमिक क्षेत्र में जाने को लेकर। दोनों ही क्षेत्र आसान न थे। सिविल सेवा परीक्षा में प्रतिभाषाली बच्चों के भी छक्के छूट जाते थे। लगातार प्रयत्न के बावजूद उन्हें सफलता नहीं मिलती थी। अकादमिक क्षेत्र में जो अराजकता थी... उसका जो नक़्शा रवि ने एक दिन उसके समक्ष खींचा था वह उसे हतोत्साहित करता। वह अपने को प्रतिभाषाली छात्र नहीं मानता था, लेकिन 'अध्यवसायी' अवश्य मानता था।

एक दिन केन्द्रीय पुस्तकालय के बाहर विवेकानन्द की मूर्ति के निकट घास पर बैठा वह उसी विषय में सोच रहा था। अक्टूबर का महीना था। उस दिन क्लास नहीं थी। वह सुबह दस बजे लाइब्रेरी आ गया था और चार बजे तक पढ़ता रहा था। ऐसे दिनों में हॉस्टल में रहकर पढ़ने की अपेक्षा वह पुस्तकालय जाना उचित समझता था। प्रीति भी प्राय: लाइब्रेरी में उससे आ मिलती थी। उसके मित्रो की संख्या न के बराबर थी, बल्कि कहना चाहिए कि जो मित्र थे उनके साथ वह प्राय: नहीं रहता था। एक प्रकार से वह अंतर्मुखी था। वह प्रीति से मिलने के लिए भी कम ही उत्साहित रहता, लेकिन जब वह पुस्तकालय में उसे आ खोजती तब वह उसके साथ बाहर निकल जाता और घण्टे-दो घण्टे कब बीत जाते उसे पता नहीं चलता। उसे यह अपराध बोध होता कि इतने समय तक उसके बैग ने एक सीट घेर रखी, जबकि छात्र सीट खोजते भटकते रहते हैं।

उस दिन वह जब अंतर्द्वंद्व में ऊभ-चूभ हो रहा था उसी समय प्रीति ने पीछे से आकर इतनी ज़ोर से हाय किया कि वह चौंक उठा। फीकी मुस्कान से उसने प्रीति का स्वागत किया।

चेहरे पर मायूसी... कोई ख़ास बात?

नहीं। संक्षिप्त उत्तर दिया सुधांशु ने।

देखो, मैं इतनी बुध्दू नहीं कि चेहरे पढ़ नहीं सकती। सायक्लॉजी नहीं पढ़ी तो क्या... जनाब किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए थे।

चिन्ता...नहीं...।

प्रीति उसके बगल में बैठ गयी। अपना बैग पैरों के आगे रखा और सुधांशु का हाथ दबाती हुई बोली, क्या सोच रहे थे?

सुधांशु चुप रहा।

नहीं बताओगे...मुझे इस योग्य नहीं समझते?

क्या मूर्खता है?

हाँ, मैं मूर्ख हूँ। तुम्हारी समस्याओं में सींग गड़ाती हूँ...मैं हूँ ही कौन...?

सुधांशु मुस्करा दिया।

यार तुम्हारे चेहरे पर मुर्दनी अच्छी नहीं लगती। खिला-खिला चेहरा सबको अच्छा लगता है।

जब चेहरा हो ही ऐसा तब कोई करे क्या?

कहना क्या चाहते हो?

यही कि अपना तो चेहरा है ही पिटा हुआ।

सुबह से कोई और नहीं मिला? सुधांशु के चेहरे पर नजरें टिका वह बोली, क्या सोच रहे थे?

ओह प्रीति! तुम तो जान के ही पीछे पड़ गयी।

अभी क्या हुआ है...?

मतलब?

मतलब की खाल बाद में उधेड़ना...फिलहाल चाय पिलाओ। एक हफ्ते बाद मिले हो।

सुधांशु प्रीति से प्राण बचाना चाहता था। उसका प्रस्ताव सुनते ही वह तपाक से उठा, बैग संभाला, चप्पलें पैरों में डालीं, हॉस्टल से जब वह पुस्तकालय आता चप्पलें पहनकर आता और उठ खड़ा हुआ।

किधर चलें?

आर्ट फैकल्टी के सामने पार्किंग के पास।

वहाँ बैठने की जगह नहीं है।

यार, फुटपाथ तो है।

नॉन-कॉलिजिएट के सामने भी चाय मिलती है।

वहाँ खुलापन नहीं है।

ओ.के.।

चाय पीते हुए सुधांशु ने अपने अंतर्द्वंद्व की चर्चा की।

ओह। प्रीति खिलखिलाकर हंस दी।

सुधांशु को कोफ्त हुई।

'खाए-अघाए लोगों को ही हंसना आता है।' उसने सोचा और एक निष्कर्ष उसके मस्तिष्क में घूम गया, 'मुझे प्रीति से एक दूरी बना लेनी चाहिए। हमारे वर्ग अलग हैं। पृष्ठभूमि के अंतर को पाटा नहीं जा सकता।

कहाँ खो गए जनाब? सुधांशु को गंभीर और सोच में डूबा देख प्रीति ने पूछा।

यों ही...।

खैर, छोड़ो...मेरी मोटी अक्ल में जो बात आती है वह यह कि यदि तुम सिविल सेवा परीक्षा के लिए गंभीर हो तो पूरी तरह अपने को उसमें झोंक दो।...कम से कम तीन अटैम्ट मिलेंगे तुम्हें।

पांच मिलेंगे।

यार, तीन भी कम नहीं होते...यदि तीन प्रयासों में कोई सिविल सेवा परीक्षा में नहीं सफल हो पाता तो मेरा अपना मानना है कि उसे उस दिशा में प्रयत्न छोड़ देना चाहिए।

क्यों?

क्योंकि तीन वर्षों में वह अपनी योग्यता को आज़मा चुका होता है। आगे उसमें कहाँ से छप्पर फाड़कर विशेषता आ जाएगी! वह रुकी, और यह भी तय है कि वह तीन प्रयासों में ही इतना निचुड़ चुका होगा कि आगे अधिक उत्साह नहीं बचेगा। कम से कम मुझमें तो नहीं ही बचेगा।

हुंह।

तीन प्रयासों में हुआ तो उत्तम वर्ना हेड के बंगले की घास खोदने के लिए तैयार रहना।

उसके यहाँ कोई घोड़ा तो होगा नहीं...घास किसके लिए खोदूंगा! सुधांशु मुस्करा दिया।

अपने लिए।

सुंधांशु फिर चुप रहा।

उसे सब्जीमण्डी की ताजी सब्जी... फल ले जाकर दिया करना और ख़ुद उसके बंगले के लॉन की घास...। प्रीति खिलखिला उठी, फिर बोली, यार, सुना है कि जिन्हें प्राध्यापकी चाहिए होती है...वे ऐसा ही कुछ करते हैं। प्राध्यापकी पाने के लिए और भी कुछ करना होता हो, यह तो पता नहीं लेकिन सुनती हूँ कि किसी के अण्डर में पी-एच.डी करने के लिए गाइड के तलवे अच्छी तरह सहलाने पड़ते हैं। उसने सुधांशु के चेहरे की ओर देखा, इसीलिए मैंने तय किया है कि मैं कुछ बनूं या नहीं, लेकिन यह प्राध्यापकी और पी-एच.डी मेरे वश में नहीं। उसने फिर सुधांशु के चेहरे की ओर देखा, तुम्हें पता है या नहीं, लेकिन लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लिए अकादमिक क्षेत्र में स्थितियाँ अधिक ही चुनौतीपूर्ण हैं।

इतनी माताएँ-बहनें लेक्चरर-रीडर-प्राफेसर बनी घूम रही हैं...।

कुछ को तलवार की धार पर अवश्य चलना पड़ा होगा...। क्षणभर के लिए वह रुकी, फिर बोली, हफ्ते भर पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में एक समाचार छपा था...हिन्दी विभाग के एक प्रोफेसर साहब की करतूत के बारे में... अपनी एक एम.फिल। की छात्रा को लगातार फ़ोन करके उससे अश्लील बातें करते थे। उनकी मंशा क्या रही होगी... समझा जा सकता है। ...तो यह सब है...और इसी सबके बीच से रास्ता निकालना होता है।

शिक्षण जगत की स्थितियाँ भयानक हैं।

सुधांशु, दो-चार मछलियाँ ही तालाब को गंदा करने के लिए पर्याप्त होती हैं। विश्वविद्यालय में ऐसे लोगों की संख्या दस-पन्द्रह प्रतिशत होगी... तो जनाब जी-जान लगा दो सिविल सेवा परीक्षा के लिए... शेष बाद में सोचना। भूल जाओ सब कुछ।

ठीक कहा...तुम्हें भी...।

व्वॉट? प्रीति ने उसकी बात बीच में ही काटी, मैं नर्क तक तुम्हारा पीछा न छोड़ने वालीं और वह पुन: ठठाकर हंसने लगी।