गलियारे / भाग 9 / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुर्गापूजा के दौरान लोदी एस्टेट स्थित भद्र बंगाली समाज की ओर से प्रतिवर्ष मेला आयोजित किया जाता था। वहाँ चपरासी से लेकर एडीशनल सेक्रेटरी पद तक के सरकारी कर्मचारी रहते थे। मेले की विशेषता यह थी कि उसमें अधिकांश कर्मचारी अपनी दुकानें सजाते थे और शाम के समय बंगाली समाज मेले में घूमकर कुछ वस्तुएँ अवश्य खरीदता था। घर के एक-दो सदस्य दुकान में बैठते और जब घर के दूसरे सदस्य मेला घूम आते दुकान की जिम्मेदारी वे संभालते और दूसरे घूमने चले जाते।

उस वर्ष प्रीति ने सुधांशु को उस अवसर पर आने के लिए तैयार कर लिया। यद्यपि पहले वह इंकार करता रहा, लेकिन जब प्रीति ने कहा, सुधांशु पिछले दो वर्षों से तुम मना करते आ रहे हो। इस बार तुम्हे चलना ही पड़ेगा...क्योंकि ...!

क्योंकि क्यों?

क्योंकि इस वर्ष मैंने ब्रेड रोल की दुकान सजाने का निर्णय किया है और उसमें तुम्हारी सहायता चाहिए होगी।

मैं क्या सहायता करूंगा? चौंकते हुए सुधांशु बोला, मुझे पाक कला का अधिक ज्ञान नहीं है और वह भी ब्रेड रोल जैसी चीज...।

तुम्हें बनाना थोड़े ही होगा...

फिर?

वह काम मैं और शोभित मिलकर करेंगे। वह क्षणभर के लिए रुकी, शोभित हमारा घरेलू नौकर है। तेरह-चौदह साल का है, लेकिन बहुत होशियार है। चौबीस परगना का है। मछली क्या पकाता है...!

तुम शोभित के विषय में इतना विस्तार से क्यों बता रही हो?

यूं ही...क्योंकि वह बहुत अच्छा लड़का है।

जब तुम दोनों हो तब मेरी क्या आवश्यकता?

है यार। तुम ग्राहकों को संभालोगे।

ओह! लेकिन मुझे तौलना नहीं आता।

यार, तौलने के लिए कौन कह रहा है? ब्रेड रोल पीस के हिसाब से बेचने होते हैं।

हुंह...सोचकर बताऊँगा।

इसमें सोचने की क्या बात?

अभी दुर्गापूजा के दस दिन हैं।

हाँ...आं...लेकिन...।

प्रीति, प्लीज...। वी.सी. ऑफिस के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठे हुए उसने अपना सिर पकड़ लिया।

यार, तुम तो ऐसे सिर पकड़ रहे हो जैसे कोई बहुत बड़ी आफत आने वाली हो।

सुधांशु बोला नहीं। वह अंदर ही अंदर परेशान था। 'उच्च वर्गीय लोगाें का सामना करना होगा। छोटी जगह से निकलकर दिल्ली आ गया, लेकिन यहाँ आने-जाने...मिलने-जुलने की सीमाएँ हैं। प्राध्यापकों और छात्रों के अतिरिक्त कोई दूसरी दुनिया जानी नहीं। अफसरों...वह भी उच्चाधिकारियों की दुनिया ही अलग होती है।' तभी उसके अंदर से एक आवाज़ आयी, 'इतना हीन दृष्टिकोण रखकर तुम सिविल सेवा परीक्षा में बैठ भी गए, पास भी कर गए और चयन भी हो गया तो भी तुम सफल अधिकारी नहीं बन पाओगे। यह हीनता मृत्युपर्यंत तुम्हारा पीछा करती रहेगी। परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेने वाला ही सफल व्यक्ति बन पाता है। स्थितियों से जूझना और उनको अपने अनुकूल बना लेना और न बना पाने पर निरंतर उनसे जूझते रहने वाले को सफलता यदि नहीं भी मिलती तो भी उसे अफ़सोस नहीं होता। तुम्हें प्रीति के कार्यक्रम में जाना चाहिए और नये अनुभव प्राप्त करने चाहिए।

प्रीति उसकी ओर देख रही थी और सुधांशु आंखें बंद किए सोच रहा था। काफ़ी देर बाद उसने आंखें खोलीं और बोला, सॉरी प्रीति, मैं कुछ सोच रहा था।

वह तो मैं देख ही रही थी।

मैं आउंगा।

डू यू नो? प्रीति ने उसकी ओर देखा, मेरे पापा ने मेरा संकट दूर करते हुए कहा था, तुम अपने फ्रेंड को क्यों नहीं बुलाती? फ्रेंड से उनका मतलब तुमसे था सुधांशु। कितनी ही बार मैंने पापा से तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।

सुधांशु चुप रहा।

मैं तुम्हें बता दूंगी...कब और कितने बजे पहुँचना होगा।

ओ.के.।

सुधांशु अपरान्ह तीन बजे प्रीति के घर जाने के बजाए सीधे मेला स्थल पर पहुँचा। बाबुओं की कॉलोनी की एक सड़क को दोनों ओर से घेर दिया गया था और सड़क के दोनों ओर दुकानें सजायी गयी थीं। किसी ने फोल्डिंग चारपाइयों पर चादर बिछा दी थी, किसी ने तख्त पर सामान सजाया हुआ था तो कोई ज़मीन पर ही अपनी दुकान लगा रहा था। दुकान में अधिकांश युवा थे। कुछ दुकानों पर गृहस्थी की आवश्यकता की वस्तुए थीं। कुछ में खाने-पीने का सामान था। कुछ युवा स्टोव,गैस सिलेण्डर और चूल्हा सहित उपस्थित थे और चाट-पकौड़ी से लेकर सैण्डविच आदि बनाने का सामान था उनके पास।

सुधांशु सड़क के एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर लगा आया, लेकिन उसे प्रीति के दर्शन नहीं हुए।

'मुझे चीट करने के लिए उसने ऐसा किया?' उसने सोचा, 'लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकती। जानती है कि मैं सदैव के लिए उससे मित्रता तोड़ लूंगा।' तभी विचार कौंधा, 'वह इतनी जल्दी क्यों आने लगी। अभी तीन ही बजा है। इतनी जल्दी नहीं आना चाहिए था। शाम पांच से पहले कौन आएगा? केवल वही लड़के-लड़कियाँ यहाँ होंगे, जिन्हें अपनी दुकानें सजानी हैं। मैं मूर्ख हूँ।...लेकिन उसीने मुझे तीन बजे का समय दिया था।' वह टहलता हुआ सोचता रहा।

'उसने अपने नौकर की चर्चा की थी-शोभित। शोभित दुकान सजा रहा होगा। पूछना चाहिए किसी से...लेकिन शोभित को कौन जानता होगा! प्रीति के बारे में पूछूं...शायद किसी को उसकी दुकान की जानकारी हो!' आगे बढ़कर उसने एक हमउम्र नोजवान से पूछा, यहाँ प्रीति मजूमदार की दुकान कहाँ होगी?

कौन प्रीति मजूमदार? युवक ने उलट प्रश्न कर दिया।

नृपेन मजूमदार, जो शिक्षा मंत्रालय में एडीशनल सेक्रेटरी हैं, की बेटी... प्रीति हिन्दू कॉलेज में पढ़ती है।

सॉरी रूखा-सा उत्तर दिया युवक ने। वह मुड़ने को हुआ तो युवक की आवाज़ सुनाई दी, यहाँ कितने ही एडीशनल-ज्वायंट सेक्रेटरी रहते हैं...कितने ही मजूमदार...।

थैंक्यू। सुधांशु किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ दूर चलकर खड़ा हो गया और सोचने लगा, 'दुर्गापूजा पंडाल देखना चाहिए। वहाँ दिनभर रौनक रहती है।' वह एक दूसरे यूवक से 'पंडाल' के विषय में पूछने के लिए आगे बढ़ा ही था कि पीछे से आवाज़ आयी, सुधांशु'। उसने मुड़कर देखा। प्रीति दूर से हाथ हिलाती तेजी से उसकी ओर बढ़ रही थी।

सॉरी सुधांशु, लेट हो गयी। तुम घर क्यों नहीं आए? मैं वहाँ तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी।

सुधांशु चुप रहा।

आओ, मेरी दुकान उधर है। दुकान की ओर हाथ का इशारा करती हुई प्रीति बोली, शोभित है वहाँ। किसीसे भी पूछ लेते...। उसने विषय बदला, देर हो गयी आए हुए?

पन्द्रह मिनट।

मैंने तुम्हे सीधे घर आने के लिए कहा था, लेकिन तुम...।

लेकिन मैंने यहीं पहुँचने के लिए कहा था...। प्रीति की बात बीच में ही काटकर सुधांशु बोला।

नाराज हो गए?

ऐसा लग रहा है?

लग तो ऐसा ही रहा है।

कल्पना करके प्रसन्न होने का सुख ही कुछ अलग होता है।

अच्छा छोड़ो, मेरी दुकान देखो। कोई कमी दिखे तो बताना। यह न हो कि ब्रेड रोल बनाते समय पता चले कि नमक तो है ही नहीं। प्रीति हंसी, कैसा रहे यदि बिना नमक लोगाें को ब्रेड रोल खाने पडें।

दुकान ठप हो जाएगी।

किसे परवाह है...यह तो आपस में मिलने का एक बहाना है। इसी बहाने बिरादरी के सभी लोग एक दूसरे की दुकानों पर जाते हैं। वह रुकी, फिर बोली, बाबा और माँ छ: बजे तक आएँगे... बाबा के दफ़्तर से लौटने के बाद।

ओ. के.।

दरअसल यहाँ रौनक होती ही शाम छ: बजे के बाद है। सड़क पर दोनों ओर जब रंग-बिरंगे बल्ब अपनी रौशनी फेंक रहे होते हैं...तब हमारा समाज अपने घरौंदों से बाहर निकलता हैं। देर तक सभी घूमते...खाते-पीत-गपियाते हैं...पूजा में शामिल होते हेैं।

शायद ही किसी घर में चूल्हा जलता होगा। सब यहीं पेट-पूजा कर लेते होंगे।

प्रीति ने उत्तर नहीं दिया केवल मुस्करा दी। क्षणभर बाद वह बोली, हम आ गए अपनी दुकान पर।

एक किशोर आलू उबाल रहा था।

'शोभित कुमार होगा' सुधांशु ने सोचा।

शोभित, तैयारी कैसी चल रही है?

ठीक... दीदी। लड़का तनकर खड़ा हो गया और हाथ जोड़ उसने सुधांशु को नमस्तें की।

क्या-क्या करना होगा?

आलू उबालकर मसाला तैयार करूंगा। ब्रेड में उसे भरकर ब्रेडरोल बनाकर रख लूंगा। जब लोग आने लगेंगे... उन्हें तल लूंगा। बांग्ला में शोभित बोला।

वेरी गुड । प्रीति ने कहा, तुम यह सब करके रखो ...मैं पंडाल तक होकर आती हूँ।

जी दीदी। लड़का स्टोव में पंप मारने लगा।

जब तक यह तैयारी कर रहा है...हम घूमकर आते हैं। प्रीति मुड़कर सुधांशु से बोली।

ठीक है।

शाम सात बजे मेले में भीड़ उमड़ी। लोधी एस्टेट निवासी बंगाली समाज ही नहीं गैर बंगाली लोग भी आए। सड़क के दोनों ओर रंग बिरंगे बल्ब अपनी रोशनी बिखेर रहे थे और बीच-बीच में हज़ार वॉट के बल्ब और टयूब लाइट्स की रोशनी से मेला नहाया हुआ था।

शोभित पहले से तैयार करके रखे ब्रेडरोल तल रहा था और प्रीति सुधांशु के सहयोग से आने वालों को काग़ज़ के दोनों में सॉस के साथ ब्रेड रोल दे और पेैसे ले रही थी। लगभग साढ़े सात बजे प्रीति के पिता नृपेन मजूमदार और माँ कमलिका आए। प्रीति ने सुधांशु का परिचय करवाया। सुधांशु ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, जिसके उत्तर में मजूमदार महोदय ने सिर हिला दिया। सुघांशु को प्रिय नहीं लगा। 'प्रीति ने कितनी प्रशंसा की थी पिता की...लेकिन लगता है यहाँ भी दफ़्तर उनके साथ मौजूद है।' सुधांशु ने सोचा ओर क्षणभर पहले उत्पन्न हुए मन के भाव को झिटक दिया। लेकिन तभी उसे सुनाई दिया, कैसे हो यंग मैंन?...सुना है आप सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे हो। मजूमदार सुधांशु से पूछ रहे थे।

जी सर। सुधांशु उनकी ओर बढ़ गया।

गुड लक। और नृपेन मजूमदार, आसून पत्नी से कहते हुए आगे बढ़ गए।

दुकान में एक परिवार आ खड़ा हुआ। पति-पत्नी और चार बच्चे। दो लड़के और दो लड़कियाँ। प्रीति बांग्ला में हंस-हंसकर उनसे बातें करने लगी। कुछ देर बाद उसने सुधांशु से उनका परिचय करवाया, मेरे अंकल-ऑण्टी। पिता जी के मौसेरे भाई। फिर उसने शोभित से ताजे ब्रेडरोल अंकल-ऑण्टी और उनके बच्चों को सर्व करने के लिए कहा।

रात दस बजे भी मेला में उतनी ही रौनक और भीड़ थी जितनी सात बजे शाम थी।

'यदि बस न मिली तब रात कहाँ बिताउंगा...मुझे अब इजाज़त ले लेना चाहिए।' सुधांशु ने सोचा और बोला, प्रीति मैं चलता हूँ...।

यार, ऐसी भी क्या जल्दी है। अभी तो मेला शरू ही हुआ है...।

तुम और शोभित ही इस काम के लिए पर्याप्त हो। मुझे बस की चिन्ता भी करनी है।

तुमने अभी तक कुछ लिया नहीं...केवल लोगाें को ही खिलाते रहे।

लोगाें को खाता देखकर तृप्त होता रहा।

ऐसे नहीं...। प्रीति शोभित की ओर मुड़ी, तुरंत चार ब्रेडरोल प्लेट में लगाओ सुधांशु के लिए।

चार ब्रेडरोल सुधांशु को पेट के एक कोने में दुबक गए जान पड़े। उसे तेज भूख लगी हुई थी। लेकिन प्रीति के और आग्रह को टाल वह मेले से बाहर आ गया।

जब वह हॉस्टल पहुँचा साढ़े बारह बज रहे थे।