गली के मोड़ पे सूना सा एक दरवाजा / डॉ. रंजना जायसवाल
दिल के कही किसी कोनें में कुछ दरकता-सा महसूस हुआ। न जाने क्यों शिखा का मन ज़ार-ज़ार रोने का कर रहा था...पर उसके शिक्षित और सभ्य मन ने उसे डांट कर सख्ती से रोक लिया...कितनी आसानी से हिमांशु ने कहा दिया था,
"तुम भी न क्या लेकर बैठ गई हो...क्या फर्क पड़ता है...तुम्हें कौन-सा रहना है उस घर में... ईट और गारे से बने उस निर्जीव से घर के लिए इतना मोह...अपने पापा मम्मी को समझाओ फालतू में मरम्मत के नाम पर पैसा बर्बाद करने की जरूरत नहीं... आज नहीं तो कल उन्हें उस घर को छोड़कर बेटों के पास जाना ही पड़ेगा।"
निर्जीव...हिमांशु को क्या पता वह घर आज भी शिखा के तन-मन में सांसे ले रहा था। पिछले साल की ही तो बात है... गर्मी की छुट्टियों में शिखा को गाँव वाले घर जाने का मौका मिला था ...सच पूछो तो इसमें नया क्या था? कुछ भी तो नहीं, साधारण-सी तो बात थीं...पर न जाने क्यों जर्जर होती उस घर की दीवारों को देख कर मन कैसा-कैसा हो गया था? आखिर उस घर में बचपन बीता था उसका ...चिर-परिचित-सी दीवारें, घर का एक-एक कोना न जाने क्यों ...शिखा को अपरचितो की तरह देख रहा था।
घर में नाममात्र के पड़े हुए फर्नीचर पर हाथ फेरने के लिए बढ़ाया हुआ शिखा का हाथ ...न जाने क्या सोच कर रुक गया। यादों के सारे पन्ने एक-एक कर खुलने लगे...याद है उसे आज भी वह दिन ...शादी के बाद पहली बार वह मम्मी-पापा के साथ कुल देवता की पूजा करने आई थी। लाल महावर से रचे शिखा के पैरो ने जब घर की चौखट पर कदम रखा...तो लगा मानों घर का कोना-कोना उसका स्वागत कर रहा था।
शायद इंसानों की तरह घरों की भी उम्र होती है, यह वही घर है जहाँ कभी रिश्तों की खिलखिलाहट गूंजती थी। बच्चों की किलकारियों से घर मंद-मंद मुस्कुराता था...पर आज उस घर की दीवारों पर यहाँ-वहाँ उखड़े पेंट नजर आ रहे थे। ...एक बार तो शिखा को ऐसा लगा मानों दीवारों पर उदास चेहरे उभर आये हो। घर के सामने खड़ा आम का विशाल पेड़ और उसकी वह लंबी-लंबी डालियों को देख कर आज भी उसे ऐसा लगा मानों वह गलबहियाँ के लिए तैयार हो। माँ से छुपकर उस पेड़ की नर्म छांव में अपने भाइयों के साथ नमक-मिर्च के साथ कितनी कैरिया खाई थी।
...पर पता नहीं क्यों आज उसकी तरफ देखने का शिखा साहस नहीं कर सकीं। शायद उसकी आँखों में तैर आये मूक प्रश्नों को झेलने की शिखा में हिम्मत नहीं थी।
एक-एक करके उस घर के सारे परिन्दे इस घोसलें को छोड़ कर नए घोसलें में चले गए और ये घर चुपचाप जर्जर और उदास मन से उन्हें जाता देखता रहा। कल ही तो पापा का फोन आया था...पापा ने कितने उदास स्वर में कहा था। शिखा पीछे वाले अहाते की धरन टूट गई है तेरी शादी के वक्त ही रंग-रोगन करवाया था ...तेरे भाइयों से कहा कि कुछ मदद कर दे तो वह अपना ही रोना लेकर बैठ गए। बेटा देखा नहीं जाता तेरे बाबा और दादी की एक यही निशानी तो बची है।
क्या एक बार वह हिमांशु से बात करके देखे पर हिमांशु के लिए तो यह सिर्फ निर्जीव और जर्जर मकान भर ही था तो क्या माँ जी.।? शायद वह ...हाँ वह जरूर समझेगी आखिर वह भी तो...!
"ये देखो देवी जी को उल्टी गंगा बहाने चली है... लोगों के यहाँ समधियाने से सामान आता है और ये वहाँ भेजने की बात कर रही हैं।"
"माँ जी... मैं भी उस घर की बेटी हूँ मेरा भी तो कुछ फर्ज है।"
शिखा का मुँह उतर गया था, घर के लोग उसे अजीब निग़ाहों से देख रहे...जैसे उसने कोई अजूबी बात कह दी हो। हिमांशु ने उसे जलती हुई निग़ाहों से देखा...शायद उनका पुरुषत्व बुरी तरह आहत हो गया था। कमरें में जब सारी बात हो चुकी थी फिर घर वालो के सामने ये तमाशा करने की क्या जरूरत है। वह अपनी माँ के बारे में अच्छी तरह जानता था...उन्हें तो बस मौका मिलना चाहिए ...आज शिखा की खैर नहीं माँ उसे उधेड़ कर रख देगी। हुआ भी वही...
"शिखा लोगों के मायके से न जाने क्या-क्या आता है... पर मरी एक हमारी किस्मत है कि सास बनने का सुख ही न जान सके। अरे भाई मायके वाले कुछ दे न सके ठीक ...पर दहेज में संस्कार भी न दे सके।"
शिखा की आँखे डबडबा गई... बीस साल की शादी होने को आ गई पर दहेज और संस्कार का ताना आज भी उसका पीछा न छोड़ पा रहे थे। उसने बड़ी उम्मीद से हिमांशु की तरफ देखा...हिमांशु ने वितृष्णा से मुँह फेर लिया।
हिमांशु घर में सबसे छोटे थे ...बड़े भाइयों की शादी बड़े अच्छे परिवारों में हुई थी...अच्छे मतलब शादी में गाड़ी भरकर दहेज मिला था। माँ जी की नजर में अच्छे परिवार का मतलब यही था...माँ जी के पास कभी त्यौहार तो कभी शगुन के नाम पर उपहार स्वरूप कुछ न कुछ समधियाने से आता ही रहता था। शिखा एक मध्यमवर्गीय परिवार की इकलौती लड़की थी...पिता ने अपनी हैसियत के अनुसार सब कुछ दिया था पर...उसकी जिंदगी माँ जी की कसौटी पर कभी खरी न उतरी।
ऐसा नहीं था कि माँ जी चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुई हो...बचपन से लेकर जवानी तक उनका जीवन संघर्षों में ही बीता था। पापा जी एक साधारण-सी नौकरी ही करते थे...पर बच्चो को किस्मत लक्ष्मी की वर्षा होने लगी। माँ जी को तो मानो मुँह माँगी मुराद पूरी हो गई... जो रिश्तेदार कब का उनसे मुँह फेर चुके थे...एक-एक कर जुड़ने लगे थे। माँ जी भी उन पर खुले हाथों से पैसा लुटाती। शिखा ने कई बार दबे स्वर में हिमांशु से इस बात को कहा भी था इस तरह पैसा लुटाना कहाँ की समझदारी है...पर माँ जी के फैसले के विरुद्ध जाने की किसी की भी हिम्मत नहीं थी।
"शिखा माँ का जीवन सिर्फ सँघर्ष में ही बीत गया...अगर उन्हें इन सब चीजों से खुशी मिलती है तो तुम्हें क्या दिक्कत है।"
"दिक्कत... हिमांशु बात दिक्कत की नहीं पर माँ जी जिस तरह सेssss।!"
"तुम फालतू का दिमाग मत लगाओ अगर भइया-भाभी को दिक्कत नहीं तो तुम क्यों फुदक रही हो।"
शिखा हिमांशु को देखती रह गई... क्या कहती दिक्कत तो सभी को थी पर माँ जी से कहने की हिम्मत किसी की भी नहीं थी। कितनी बार चौके में जेठानियों को कसमसाते देखा है...
पिछले साल मौसी जी के इलाज के लिए माँ जी ने एक लाख रुपये दे दिए थे...तो अभी पिछले महीने घर में काम करने वाली की बिटिया की शादी के नाम पर दस हजार और पैर पूजने के नाम पर कपड़े बर्तन और न जाने क्या-क्या...कभी मंदिर तो कभी जागरण के नाम पर हर महीने कुछ न कुछ जाता है रहता था... उनकी मांगे सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जा रही थी,
एक दिन बड़े भइया ने दबे स्वर में कहा भी था ...
"माँ आप इस तरह से कभी सामान तो कभी पैसे बाँटते फिरती हो कल अगर हमें जरूरत पड़ेगी तो क्या हमें कोई देगा...?"
"मैंने लेने के लिए थोड़ी दिया है... तेरे पापा की कमाई से तो घर ही चल जाता वही बड़ी बात थी...पर अब जब ईश्वर ने दिया है तो फिर क्यों न करूँ।"
शिखा को ये बात कभी समझ न आई कि जिन रिश्तेदारों ने कभी बुरे समय में उनका साथ तक नहीं दिया आज उन पर यूँ पैसे लुटाना कहाँ तक सही था। शिखा अपने कमरें में जाओ... हिमांशु की आवाज को सुनकर शिखा सोच की दलदल से बाहर निकल आई। पता नहीं क्यों एक अजीब-सी जिद उसके मन में घर कर गई थी...आज वह बात करके ही जाएगी।
"माँ जी! ...गाँव वाला मकान जर्जर हो गया है, उस घर से मेरा बहुत जुड़ाव है। बाबा-दादी की आखिरी निशानी है।"
"तो...!"
माँ जी बड़े तल्ख स्वर में कहा, शिखा अपने आप को मजबूती बाँधे से खड़ी हुई थी, हिमांशु हमेशा की तरह उसे अकेला छोड़ अपने परिवार के साथ खड़े थे। इन बीते सालों में शिखा इतना तो समझ ही चुकी थी कि आज वह खुद के लिए खड़ी नहीं हुई तो कोई भी उसके लिए खड़ा न होगा...वैसे भी अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होती है। जानती थी वह यहाँ जो होगा सो होगा... बन्द कमरें में चारदीवारी के बीच महीनों तक शिखा और हिमांशु के मध्य एक शीत युद्ध भी चलता रहेगा...पर आज नहीं तो शायद वह कभी भी कह पाएगी,
"माँ जी! ...मैं...मैं उस घर की मरम्मत के लिए कुछ पैसा भेजना चाहती हूँ।"
शिखा का गला सूख गया...पता नहीं अब कौन-सा भूचाल आने वाला था। सब उसे ऐसे देख रहे थे जैसे अभी ही निगल जाएंगे...
"देख लो क्या जमाना आ गया है बहू बेशर्मों की तरह मायके के लिए पैसे मांग रही है। एक जमाना था लोग बेटी के घरों का पानी तक नहीं पीते थे और यह अपने मायके के लिए ससुराल से पैसे मांग रही हैं। तेरे भाई भी तो है तेरे पापा उनसे क्यों नहीं मांग लेते ..."
"पापा ने उनसे भी कहा था पर बड़े भइया के अपने ही बहुत सारे खर्चे है और छोटे वाले ने पहले ही अपने मकान के लिए लोन ले रखा है इसलिए...!"
"इसलिए मतलब... यहाँ कोई पेड़ लगा है। कल बाप के मरने के बाद हिस्सा हथियाने तो सबसे पहले चले आएंगे...एक बार भी नहीं सोचेंगे कि बहन का भी तो हक बनता है... जब उन्हें कोई चिंता नहीं तो तुम क्या हो, न तीन में न तेरह...तुम काहे चिन्ता में गली जा रही...!" "
शिखा की अंतरात्मा शब्दों के बाणों से बुरी तरह छलनी हो चुकी थी पर...
" माँ जी बेटी का हक सिर्फ जीवन भर पाने का नहीं होता...नौ महीने तो उसे भी पेट में रखा होता है। फिर जिम्मेदारी के नाम पर ये भेदभाव क्यों... एक लड़की को जीवन भर ये समझाया जाता है कि उसे पराए घर जाना है पर वह पराया घर भी उसे ताउम्र पराया ही समझता है। जीवन गुजर जाता है एक लड़की को यह समझने में ही उसका अपना घर कौन है... आप भी तो इस घर की बहू है और मैं भी... पर हमारे अधिकारों और कर्तव्यों में ये भेद क्यों ...!
आप खुले हाथों से रिश्तेदारों, नौकर-चाकर सभी को कुछ भी दे सकती हैं। आपसे पूछने वाला कोई भी नहीं... पर जब बात बहू के मायके वालों की आती है तब दुनियादारी और संस्कार की बातें क्यों होने लगती है। क्या गरीब और जरूरतमंद सिर्फ सास या ससुराल के रिश्तेदार ही हो सकते हैं बहू के नहीं... अगर गलती से बहू का मायके का कोई रिश्तेदार कमजोर हो तो बहू पूरे परिवार के लिए हँसी का पात्र क्यो हो जाती है। भाई की पढ़ाई के लिए पापा ने कैसे-कैसे इंतजाम किया था हिमांशु से कुछ भी नहीं छुपा है... पर किसी ने एक बार ...एक बार भी ये जानने या समझने की कोशिश की इसके परिवार को भी कभी जरूरत पड़ सकती है। अब तो मायके की जमीन-जायदाद में लड़कियों की भी हिस्सेदारी होती है...तो फिर मायके की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों में हिस्सेदारी क्यों नहीं... "
शिखा अपनी ही धुन में बोले जा रही थी ...वर्षों से जमा कितना कुछ उसने सबके सामने उड़ेल कर रख दिया था। जेठानियाँ आश्चर्य से उसे देख रही थी।माँ जी धप्प की आवाज के साथ सोफे पर बैठ गई। एक अजीब-सी नफरत उसने उनकी आँखों में महसूस की थी। सच सभी को पसन्द होता बशर्ते वह सच खुद का न हो।
घर में एक गहरा सन्नाटा पसर गया इतना गहरा कि अपनी सांसे भी सुनाई पड़ जाये... शब्द कही खो से गये थे। इतने वर्षों में शब्द तो यदा-कदा चुभते ही रहते थे पर आज सबका मौन बुरी तरह चुभ गया था। किसी के पास कोई जवाब नहीं था और शायद इस सवाल जवाब कभी मिले भी नहीं... हम जीवन भर इस बात के लिए लड़ते हैं कि सही कौन है पर सही क्या है ...क्या किसी ने कभी सोचा है। लोग कहते है औरत है तो घर...घर है... पर क्या उस घर के फैसले भी...समझना आसान है पर समझाना उससे कही ज्यादा कठिन ।!
शिखा भरे दिल और भरे कदमों से चुपचाप अपने कमरे में चली गई