गहन संवेदना की लघुकथाएँ / अंजू खरबंदा
1- गाइड: डॉ. कविता भट्ट-यह लघुकथा मन के बहुत से द्वार खोलती है।
प्रोफेसर द्वारा शालिनी को घूर-घूरकर देखना, शालिनी का आग्नेय नेत्रों द्वारा आपत्ति जताना, निशा द्वारा बताई गई बातें, शालिनी द्वारा दो टूक जवाब देना और अन्त में प्रोफेसर का बौखला जाना। लेखिका ने सभी कड़ियों को बेहद खूबसूरती से सँजोया गया है और यही लघुकथा का सबसे बड़ा गुण है।
महिलाओं को अक्सर ऐसी परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है। ये वाकया सिर्फ शालिनी से ही नहीं वरन् अधिकतर महिलाओं से जुड़ा हुआ है। जब आप किसी रचना के किसी पात्र में खुद को पाते हैं, तो आप उस रचना से गहरे तक खुद को जुड़ सकते हैं। यही लघुकथा की असली सफलता है।
अब लघुकथा पर आते हैं-नारी स्वतंत्रता और सम्मान की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले अंदर से कितने खोखले होते हैं, इस लघुकथा द्वारा इस बात को बहुत अच्छे से समझा जा सकता है। शालिनी ने जब प्रो. शेखर कुमार को मंच पर 'महिला स्वतंत्रता एवं सशक्तीकरण' पर बोलते सुना तो वह उनसे बेहद प्रभावित हुई। उसने सोचा यह प्रोफेसर मंच पर बेहद संजीदगी से अपने विचार व्यक्त कर रहें हैं, तो अपनी रिसर्च के कुछ कॉन्सेप्ट इन प्रोफेसर से जरूर क्लियर करुँगी; परन्तु भोजनावकाश के दौरान शालिनी ने जब इन्हीं प्रोफेसर महोदय की लिजलिजी नजर को अपने शरीर पर रेंगते पाया, तो वह गुस्से से तिलमिला गई। प्रो. द्वारा गौरवर्णा शालिनी को इस तरह घूर-घूरकर देखना शालिनी को बेहद आहत कर गया।
उसने झट अपनी सखी निशा का हाथ पकड़ा और वहाँ से बाहर चलने का इशारा किया। निशा के पूछने पर उसके अंदर छिपा ज्वालामुखी फट पड़ा। उसने निशा को बताया कि प्रोफेसर उसे अर्थपूर्ण नजरों से देखते हुए कह रहा था-आप तो बहुत स्मार्ट हो, आपकी रिसर्च तो चुटकियों में पूरी हो जाएगी। उसकी बात सुन निशा ने अपना अनुभव उसे बताया कि उसने भी ऐसे प्रोफेसरों को झेला है, जो मंच पर तो शास्त्रों के उदाहरण देते हैं, परन्तु वास्तव में वे भेड़िये होते हैं और दुख की बात तो ये है कि हमें ऐसे लोगों की गाइडेंस में रिसर्च करनी पड़ती है।
उसकी बात सुन शालिनी ने दृढ़ता से कहा-दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं हैं, इन जैसों को सबक हम ही सिखाएँगे।
उसकी बात कानों में पड़ते ही प्रो. शेखर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।
शालिनी ने जान-बूझकर अपनी बात ऊँची आवाज़ में कही ताकि प्रो. सुन सके और भविष्य में ऐसी हरकत करने से पहले हजार बार सोचे।
लघुकथा का अन्त बेहद मारक है। शालिनी द्वारा दिखाई गई हिम्मत इस लघुकथा का प्रेरक संदेश है और प्रोफेसर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ना इस बात की पुष्टि करता है कि तीर बिलकुल सही निशाने पर लगा है।
2 पूरी तरह तैयार: डॉ. सुषमा गुप्ता–सिस्टम पर करारा प्रहार करती हुई सशक्त लघुकथा है यह। एक नवयुवक कितने सपने लेकर नौकरी के लिये जाता है, उस नौकरी के लिये, जिसके लिये उसके रात-दिन एक कर दिये, जिसके लिये उसने कितनी ही खुशियों को ताक पर रख सिर्फ और सिर्फ डिग्रियाँ जुटाने में अपना सर्वस्व होम कर दिया।
जिसके लिए उसके माता पिता ने पानी की तरह पैसा बहाया ताकि उनका सुपुत्र पढ़-लिखकर अपनी योग्यता के बल पर अपने पैरों पर खड़ा हो सके, जिसके लिए उन्होंने स्वयं कितने कष्ट सहे और जाने अपनी कितनी जरूरतों को तिलांजलि दी।
आज जब नौकरी के लिये पहुँचा तो उडे द्वार पर ही रोक दिया गया। नवयुवक ने रौब से अपनी डिग्रियाँ दिखाई तो जवाब मिला-ये काफी नहीं!
नवयुवक द्वारा कारण पूछने पर कहा गया कि अपने कुछ हिस्से यहाँ छोड़कर जाने होंगे।
गाँधी जी ने कभी सिखाया था-
बुरा मत सुनो
बुरा मत देखो
बुरा मत कहो
ये बातें आज भी सभी द्वारा बड़ी ईमानदारी व शिद्दत से निभाई जा रहीं हैं। वह बात अलग है कि आज इन सब बातों के अर्थ अपनी सुविधा अनुसार अपने स्वार्थपूर्ति हेतु बदल दिये गए हैं।
कोई फाइल सरकाने के लिये किसी से रिश्वत माँगे, तो सुनकर भी अपने कान बन्द कर लो।
कोई किसी युवती के साथ अश्लील हरकत करे, तो अपनी आँखें बंद कर लो।
कोई कुछ भी कहता रहे तुम तटस्थ भाव से बैठे रहो, कुछ न बोलो।
और एक बात और!
पैर भी बाहर ही छोड़ जाओ। जिसने दो टके की नौकरी के लिये अपनी आत्मा ही दाँव पर लगा दी, उसके लिए भला पैरों की क्या आवश्यकता!
रेड टैपिज्म की बैसाखियाँ किस दिन काम आएंगी।
लीजिए! धरी रह गईं सारी डिग्रियाँ
कटे पंखों के साथ उड़ान के लिये तैयार हो गया एक और नवयुवक!
सामाजिक सरोकार पर शानदार तंज कसती धारदार लघुकथा अपने पीछे इतने सवाल छोड़ जाती है कि पाठक स्वयं को मथता ही रह जाता है।
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लघुकथाएँ
1-गाइड-डॉ.कविता भट्ट
भोजनावाकाश में भी 'नारी स्वतन्त्रता और सम्मान' विषय पर कुछ चर्चा चल रही थी। प्रो. शेखर कुमार कुछ बोले जा रहे थे। डायनिंग टेबल पर उनके ठीक सामने बैठी सुन्दर गौरवर्णा शालिनी ने साड़ी का पल्लू कसते हुए, उसकी ओर आग्नेय दृष्टि से घूरकर देखा। शेखर कुमार हड़बड़ा गया।
शालिनी गुस्से में तिलमिलाती एकदम खड़ी हो गई और पास ही में बैठी अपनी सहेली निशा से बोली, "चल यार!"
"क्या हुआ"-निशा ने आश्चर्य से पूछा
"उठो भी"-शालिनी ने उसको उठाते हुए कहा और आगे बढ़ गई। निशा हडबडाकर उठी और उसके पीछे चल पड़ी।
"शालिनी, तुम्हें क्या हुआ अचानक!" निशा ने फुसफुसाकर पूछा।
"मैं तो इस प्रोफेसर से कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन यह तो बहुत कमीना निकला।"
निशा बोली, "अरे यार अचानक तुझे क्या हुआ? बता तो सही, कुछ किया क्या उसने?"
शालिनी बोली, "देख यार, मेरा रिसर्च में दूसरा साल है, मैंने सोचा-यह प्रोफेसर मंच से महिला स्वतंत्रता एवं सशक्तीकरण पर बड़ा अच्छा लेक्चर दे रहा था, तो इससे रिसर्च के कुछ कॉन्सेप्ट क्लियर करूँ।"
निशा बोली, "तो इसमें क्या बुराई है, बात कर लेती तू।"
शालिनी बोली, " अरे क्या बताऊँ, तूने नहीं देखा क्या? पहले तो वह अच्छे से बात करता रहा, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह मुझे कहाँ-कहाँ और किस तरह देख रहा था, यह मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है। फिर मेरी ओर अर्थपूर्ण ढंग से देखते हुए उसने यही तो कहा था-आप तो बहुत ही स्मार्ट हो, आपकी रिसर्च तो चुटकियों में पूरी हो जाएगी, बेहया कहीं का!
निशा बोली, "चल यार, मैंने भी कई बार ऐसे प्रोफेसरों को झेला है, जो बहुत बड़ी-बड़ी बात करते हैं मंच से, शास्त्रों के उदाहरण देते हैं। ये और कुछ नहीं वास्तव में भेड़िए हैं। न चाहते हुए भी सिस्टम में ऐसे ही लोगों की गाइडेंस में रिसर्च करनी पड़ती है।"
"दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है, इन जैसों को सबक़ हम ही सिखाएँगे।" अपने कमरे में जाने से पहले शालिनी ने पीछे मुड़कर देखा, शेखर कुमार के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
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2-पूरी तरह तैयार: सुषमा गुप्ता
लड़का पूरी तरह तैयार हो कर आया था... सूट, टाई और पॉलिश से चमकते जूते...
"कहाँ जाना है?" रोबीली आवाज़ ने पूछा।
"ऊपर जाना है।"
"क्यों जाना है ऊपर... अभी तुम उसके लिए तैयार नहीं दिखते।"
"मैं पूरी तरह तैयार होकर आया हूँ... मेरे पास सारी डिग्रियाँ हैं।"
"वो काफ़ी नहीं।" आवाज़ में थोड़ी हिकारत महसूस हो रही थी।
"डिग्रियाँ काफ़ी नहीं तो फिर और क्या चाहिए?" लड़का कन्फ़्यूज़ दिखने लगा।
"ऊपर जाने के लिए तुझे अपने कुछ हिस्से देने होंगे।" सपाट और ठण्डा जवाब आया।
"हिस्से...! मतलब?" लड़के की आँखें कुछ ज़्यादा ही फैल गईं
"अच्छा, ज़रा उचक कर दफ्तर के अंदर दाईं तरफ देखो और बताओ क्या हो रहा है?" उसने आदेश दिया।
लड़के ने पंजों पर सारा भार डाला और ध्यान से सुनने लगा। "अरे हाँ, वह दफ्तर का बाबू उस दूसरे आदमी से फ़ाइल आगे सरकाने के पैसे माँग रहा है।"
वो आग बबूला हो चिल्लाई "कान निकाल दोनों और रख यहाँ दहलीज़ पर। ये अंदर के माहौल के लायक नहीं हैं।"
लड़के ने सहम कर कान निकाल कर रख दिए.
आवाज़ एक बार फिर गूँजी... "अब बाईं तरफ़ देखकर बता कि वहाँ क्या हो रहा है?"
उसने भरसक प्रयत्न किया... जो कुछ देखा उसे अवाक् करने के लिए काफ़ी था।
"बोल न क्या देखा?"
"वो बड़े साहब किसी आधी उम्र की युवती के साथ अश्लील ..."
"चुप, चुप, चुप जाहिल। तू तो बिल्कुल लायक नहीं अंदर जाने के. निकाल, अभी की अभी निकाल, ये आँखें और रख यहाँ पायदान के नीचे। अंदर बस बटन एलाउड हैं।"
"जी"
उसने मिमयाते हुए कहा और आँखें निकाल कर दे दीं। अँधेरे को टटोलते हुए पूछा "अब जाऊँ?"
"अभी कैसे। ये पैर भी काटकर रख।"
"फिर मैं चलूँगा कैसे?" अब वह लगभग बदहवास हो चला था।
"अंदर बैसाखियाँ दे दी जाएँगी। रैड-टेपीज़म ब्रांड की। चल-चल जल्दी कर और भी हैं लाइन में वरना।"
लड़के ने पैर भी काटकर दे दिए.
गरीबी मुस्कुराते हुए दफ्तर के द्वार से हट गई और बोली "जा अब तू पूरी तरह तैयार है।"
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