गहराइयाँ-ऊँचाइयां / एक्वेरियम / ममता व्यास
जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं, अपने अहं के साथ ज्ञान की सीढिय़ां चढ़ते हैं। हमारी सांसें घुटती हैं, क्योंकि प्रेम की ऑक्सीजन हम बहुत नीचे छोड़ आते हैं न...मिठास भी। जब शिखर पर पहुंच के दम घुटता है न तो याद आती है। भूली हुई गलियाँ, बिसरी हुई सीढिय़ां और मिठास की सुराही जो गला तर कर सके.
जो जानते हैं तृप्त होने का हुनर वह उतरना भी जानते हैं नदी में, बावड़ी में। नदी कभी खुद किसी के होंठों के पास आकर प्यास नहीं बुझाती हमें ही झुकना होता है। अंधेरों में उतरना होता है निर्भय होकर। जो नहीं जानते तृप्त होने का हुनर वह सदा अकड़े रहते हैं और किनारों पर प्यास से दम तोड़ जाते हैं।
जैसे-जैसे हम किसी के भीतर उतरते हैं। हम खुद के अहं से मुक्त होते जाते हैं। हम जिसे उतरना या गहरे में जाना समझते हैं दरअसल वही तो प्रेम की ऊंचाई है। अब ये तय हमें करना है कि हम अहं की सीढिय़ों से ऊपर जाएँ और किसी की नजरों से गिर जाएँ या किसी के मन में उतर के ऊंचे हो जायें।
ऊबते हुए तैरने से लाख बेहतर है कि चुपचाप गहरी डूब में डूब जाना। हाँ, गहरे पानी में रहकर ही सूखे सच की पहचान होती है। नदी के शोर, दरअसल नदी के सवाल हैं जिनके जवाब नहीं घाटों के पास। सवाल कुछ ऐसे हैं कि जिनसे बचना चाहते हैं घाट। वह इसलिए ही चुप हैं वह एक दिन दरक जायेंगे, बह जायेंगे, टूट जायेंगे, लेकिन बोलेंगे नहीं कभी।
जिस नदी से गुजरना है, वह मन की गली से निकलती है। निकलते वक्त तो प्रेम—सी मीठी ही होती है लेकिन दुखों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते-होते वह आसुंओं में बदलकर खारी हो जाती है।
किनारों पर उगते हैं सिर्फ़ सवालों के पेड़, अफसोस के, आह के पौधे।
गाय तो नदी पार कराती होगी पर सवालों से सिर्फ़ हम ही जूझते हैं और कभी पार नहीं पाते सदियों तक, जिनके जवाब हमने जान-बूझकर नहीं दिए.
एक वक्त पर नदी थक कर चुप हो जाती है और घाट घबरा कर शोर करने लगते हैं। हर घाट रूप बदल-बदल कर कई आवाजों में शोर करता है पर नदी फिर भी चुप ही रहती है, बहती है।
ये उम्र की नदी है।