गहराई का सिद्धांत और बाजार की गहराइयां / जयप्रकाश चौकसे

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गहराई का सिद्धांत और बाजार की गहराइयां
प्रकाशन तिथि : 25 जनवरी 2022

गौरतलब है कि फिल्म ‘गली बॉय’ में सिद्धांत चतुर्वेदी के अभिनय की सराहना की गई और फिल्मकारों में उनकी मांग बढ़ने लगी। डिमांड और सप्लाई का बाजार नियम सभी जगह चलता है। इस नियम को नकारने वाले खोटे सिक्कों की तरह चलन से बाहर कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं।

सिद्धांत का दावा है कि उनकी फिल्म ‘गहराइयां’ प्रेम के रिश्तों को बदलते हुए समय के नए दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। आजकल प्रेम में आर्थिक समीकरण महत्वपूर्ण हो गया है। पति और पत्नी दोनों ही सरकारी नौकरी करते हों तो भविष्य निधि उनके बुढ़ापे में सहारा बन जाती है। आर्थिक दबाव के कारण व्यवस्था ने विचार किया था कि पेंशन नियम खारिज कर दें परंतु उम्रदराज लोगों की संख्या और उनकी मतदान शक्ति से सहम कर यह विचार उन्हें त्यागना पड़ा। गोया की दफ्तरों में बड़े बाबू के अनुभव को आदर दिया जाता है। अफसर आते, जाते हैं परंतु बड़े बाबू लाल फीते से बंधी फाइल की तरह किसी दराज में मौजूद रहते हैं। बच्चों के उत्तरदायित्व से बचने के लिए कुछ लोग अपनी अलग-अलग नौकरी करते हुए शाम को घर लौट कर ताजा होते हैं। बाद में बाहर रेस्तरां में रात का भोजन करते हैं । ये जोड़े डिन्कस कहलाते हैं। ये ड्रिंक और भोजन साथ-साथ करते हैं परंतु बच्चों के उत्तरदायित्व से बचे रहते हैं। उत्तरदायित्व से बचना कायराना हरकत है। यह कुछ हद तक ऐसा ही है जैसे कोई सैनिक दुश्मन को ओर से गोलियां चलते समय खंदक में बैठा रहे और एक भी गोली नहीं चलाए। उसका एकमात्र उद्देश्य युद्ध के समय खुद को बचाए रखना है।

बर्नाड शॉ के नाटक में यही अभिव्यक्त किया गया है। शॉ ने अपने अंदर के लेखक को तर्क सम्मत बनाए रखा और दृष्टिकोण को वैज्ञानिक रखा। उन्होंने किसी बात को रोमांटिसाइज नहीं किया उनके लिए अपने दौर की सबसे खूबसूरत अभिनेत्री का प्रस्ताव आया। अभिनेत्री का विचार था कि उस शादी से होने वाले उनके बच्चे उस अभिनेत्री की तरह ही सुंदर होंगे और बर्नाड शॉ की तरह बुद्धिमान होंगे। बर्नाड शॉ ने जवाब दिया कि अगर इसके विपरीत उनके बच्चे उनकी शक्ल के हुए और अभिनेत्री की तरह मूर्ख हुए तो क्या होगा?

बहरहाल, उम्मीद की जा रही है कि सिद्धांत की फिल्म ‘गहराइयां’ प्रशंसित होगी और वे दर्शकों की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। अगर खोखलेपन का अपना बाजार है तो गहराई की भी खपत संभव है। बहुत से लोग विचारक, पढ़ने वाले गहरे लोग होते हैं। कुछ लोग इसका दावा और दिखावा करते हैं। एक बार की बात है कि एक आला अफसर अपने तबादले पर आए तो उन्होंने सहायक से कहा कि उनके अध्ययन कक्ष में प्रेमचंद, शरत बाबू, बर्नाड शॉ इत्यादि की किताबें भर दी जाएं। पढ़े-लिखे व्यक्ति का दिखावा करना भी पढ़ने-लिखने के महत्व को रेखांकित करता है। यह बात पाठ्यक्रम से बाहर की किताबों को पढ़ने की हो रही है। खोखलेपन के दौर में गहराई की बात किसी फिल्म में की जाना भी स्वागत करने योग्य माना जाना चाहिए। यह कड़वा सत्य है कि फिल्म माध्यम द्वारा अभिव्यक्त बात दूर-दूर तक पहुंच जाती है। विष्णु खरे फिल्म को पांचवा वेद मानते थे। उनका कहना था कि आधुनिकता का तकाजा है कि फिल्म को अभिव्यक्ति का इतना बड़ा माध्यम मानें कि उसे प्राचीन पवित्र किताब का दर्जा दें। पाठ्यक्रम में शामिल नहीं की जाने वाली किताबें भी मानव विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। हर महानगर में झोपड़पट्टी है। हर संगमरमरी भव्य भवन के सेवक, झोपड़ी में रहते हैं। सेवक के बिना साधन संपन्न व्यक्ति जी नहीं सकता। श्रेणी में समाज एक आदर्श स्वप्न है। यह स्वप्न कड़वे यथार्थ के समानांतर हमेशा बना रहता है। विविधता सृष्टि का शाश्वत नियम है।