गहराई / सत्या शर्मा 'कीर्ति'

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सुबह-सुबह लगभग चार बजे ही सुमित का फोन आया "दी आप आ जाइये।"

आवाज की ठंडक बहुत कुछ कह रही थी। सिहर गयी मैं।

हल्की रौशनी होते ही सुमित के फ्लैट पहुँची।

सामने चिर-निंद्रा में सोई थी सुमी और उसकी हाथ पकड़े पत्थर-सा बैठा था सुमित।

कैंसर की अंतिम अवस्था का दर्द सहते-सहते छब्बीस साल की सुमी पतझड़ की सूखी लता-सी हो गयी थी।

"सुमित डॉ तो कह रहे थे कुछ दिन और हमारे साथ रहेगी सुमी पर! देख न चली गयी छोड़ कर" रो पड़ी मैं।

"दी मैंने रात में ढेर सारी नींद की गोलियाँ पानी में घोल कर पिला दिया था।"

क्या ...? चौंक पड़ी मैं

"हाँ दी, कितना जी लेती चली तो जाती ही कुछ दिनों में।"

असीम दर्द थी सुमित की आवाज में।

मैं उस चन्द साथ के लिए उसे इस तरह दर्द से तड़पते नहीं देख सकता था।

"कुछ साँसों के मोह में उसे इतनी वेदना झेलते नहीं देख पा रहा था दी ... इसलिए दे दी उसे मुक्ति।"

और मैं बुत बनी सुमित की आँखों से बहते सुमी को देखते रह गयी।